शुक्र से निर्मित योग

पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

आकाश में शुक्र चमकदार ग्रह हैं। सूर्य से इनकी दूरी नौ करोड़ किलोमीटर है। पश्चिम आकाश में जब ये सूर्य के गोचर वाली राशि के बाद में हों तो सूर्यास्त होते ही चमकदार होने लगते हैं। इससे पहले जब वे सूर्य की पिछली राशियों में होते हैं तो पूर्वी क्षितिज्ञ पर मॉर्निंग स्टार के रूप में दिखाई देते हैं। यह इतने चमकदार हैं कि सूर्य और चन्द्रमा को चुनौती देते हुए प्रतीत होते हैं। संभवतः इसीलिये सूर्य और चन्द्रमा के नैसर्गिक शत्रु माने गये हैं।

शुक्र का अहंकार बड़े काम कराता है। एक पौराणिक आख्यान के अनुसार शुक्र को समस्त सम्पत्तियों का स्वामित्व मिल गया था, अगर शुक्र प्रसन्न हों तो जन्मपत्रिका में प्रबल धन-सम्पत्ति के योग मिलते हैं अगर शुक्र के माध्यम से सम्पत्ति मिलेगी तो आसुरी संस्कार भी साथ आयेंगे और सम्पत्ति के भोग की कोई सीमा नहीं रहेगी। धनी लोगों में अगर चारित्रिक पतन नजर आये तो मानना चाहिये कि शुक्र ने ही धन दिया है और शुक्र ने ही भोग-वासना की वृत्ति। फिल्मी सितारों में रूप और यौवन के बल पर धनार्जन देखने को मिलता है यह दोनों शुक्र की देन हैं। फिल्मी सितारों की जन्म-पत्रिका का अध्ययन करते-करते मैंने शुक्र के बहुत सारेआयामों को देखा है और उन निष्कर्षों को यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।

जन्मपत्रिका में यदि शुक्र बलवान हों तथा प्रबल धनयोग ना हों तो वे केवल प्रसिद्धि देते हैं और प्रसिद्घि के अनुरूप धन नहीं देते। शुक्र विद्या प्रदान करने वाले ग्रह हैं। इनके प्रभाव में जातक नई-नई बातें सीखता है। बलवान शुक्र शास्त्रों के ज्ञान कराने वाले मार्ग पर ले जाते हैं। जितने भी कवि, चित्रकार, कलाकार, अभिनेता, संगीतकार व सृजनकर्त्ता हैं, वे सब शुक्र के प्रतिनिधि हैं। यह प्रसिद्घ हो सकते हैं परन्तु इनका धनी होना आवश्यक नहीं है। यदि बुध बलवान होकर शुक्र को सहयोग दे दें तो वे कलाकार धनी भी होने लगते हैं। इसका आधुनिक विश्लेषण यह है कि बुध के बलवान होने पर ही शुक्र, अपनी स्वयं की मार्केटिंग कर पायेंगे, अतः बुध के बलवान होते ही जातक ऐसे कार्यों में जुट जाता है जो उसके स्वयं के प्रकाशन के लिये पृष्ठभूमि बनाने लगते हैं। वह सामाजिक कार्यों से सरोकार रखने लगता है, वह स्टेज कार्यक्रमों में भाग लेने लगता है और हर उस जगह उपलब्ध होता है, जहाँ अधिक से अधिक व्यक्ति उसे देख सकें। बुध बलवान होने पर ही व्यक्ति किसी भी मामले में धन दोहन की सोच पाता है और कोशिश भी करता है। यदि मंगल, शनि व राहु-शुक्र को प्रभावित करें तो जातक शोषण करने वाले मार्ग पर जा सकता है या धन वसूलने की कार्यवाहियों में जुट जाता है। फिल्मी सितारे सैट पर समय पर नहीं पहुँचें व अधिक धन माँगें या किसी कार्यक्रम में स्टेज पर चढ़ने से पहले पैसा माँगें तो यह मानना चाहिये कि शुक्र ग्रह पर शनि या मंगल या राहु जैसे ग्रहों का प्रभाव काम कर रहा है।

शुक्र, चन्द्रमा की राशि में हों तो व्यक्ति अपने आप को प्रकाशित करने की कामनाओं से रोक नहीं पाता परंतु शुक्र पर मंगल के प्रभाव हों या शुक्र, मंगल की राशियों में हों तो वह सप्रयास प्रकाशित होता है या अपने को प्रकाशित करने का कोई मौका नहीं छोड़ता या अधिक पाप प्रभाव होने पर निर्लज्ज प्रदर्शन की हद तक जा सकता है फिल्मी सितारों के अंग प्रदर्शन इस श्रेणी में आते हैं। बुध और शनि के प्रभाव में अंग प्रदर्शन की मनोवृत्ति, मनोविकारों की श्रेणी में आती है, अपने माहौल से असन्तुष्ट व्यक्ति भी ऐसा कर सकते हैं।

शुक्र ग्रह बलवान हुए तो बहुत कुछ दे देते हैं और निर्बल हुए तो बर्बाद कर देते हैं। वक्री ग्रहों को लेकर बहुत कुछ कहा गया है। शुभ ग्रह यदि वक्री हों, उसके लिए सारावली में एक श्लोक मिलता है-

वक्रीणस्तु महावीर्याः शुभा राज्यप्रदा ग्रहाः।

पापा व्यनिनां पुंसां कुर्वन्ति वृथाटनम्॥

अर्थात् शुभ ग्रह वक्री होकर, अत्यंत बलवान हो जाने पर राज्य सुख देते हैं। शुक्र पर तो यह बात ज्यादा लागू होती है क्योंकि वे तो राजयोग देने वाले ग्रह माने गये हैं। शुक्र के विषय भी तो शानदार हैं। हीरा, मणि, रत्न, आभूषण, विवाह, गंध, मित्र, माला, गोबर, निर्णय क्षमता, विद्या, रति व चाँदी के स्वामी शुक्र हैं। शुक्र बलवान होने पर इन सबकी प्राप्ति व निर्बल होने पर इन सबकी हानि हो सकती है।

गर्भधारण में भी शुक्र का योगदान बहुत अधिक है-

उपचयभवने शशभृद् दृष्टो गुरुणा सुहृद्भिरथवासौ।

पुंसां करोति योगं विशेषतः शुक्रसंदृष्टः॥

पुरुष की राशि से उपचय स्थान अर्थात् 3, 6, 10, 11 राशि में चंद्रमा हों और उन पर गुरु की या अपने मित्र ग्रह की दृष्टि हो तो गर्भधारण की संभावनाएं बढ़ती हैं। यदि उस चंद्रमा पर शुक्र की दृष्टि हो तो संभावनाएं बहुत अधिक बढ़ जाती हैं।

यदि आधान काल में सम राशि में बलवान शुक्र, चंद्रमा या भौम हों तो कन्या जन्म की संभावना बढ़ जाती है।

शुक्र का योगदान प्रवज्या में भी है, वे प्रवज्याकारक ग्रह के रूप में भी विशिष्ट हैं। यदि किसी भी कारण से शुक्र प्रवज्याकारक हो जायें अर्थात् संन्यास दिलाने वाले हो जायें तो जातक नित्य ही शैव यज्ञ दीक्षा लेने वाले या वैष्णवी दीक्षा प्राप्त करने वाले होते हैं तथा निरंतर भ्रमण करते रहते हैं।

शुक्र जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत अपनी भूमिका निभाते हैं। आयु प्रदान करने में भी शुक्र का योगदान बहुत अधिक है। यदि शुक्र ने लग्न को प्रभावित कर दिया तो आयु बढ़ा देंगे। यदि लग्नस्थ शुक्र या लग्नेश शुक्र का राहु से संबंध स्थापित हो गया तो कुल आयुर्दाय में कमी ला देंगे, ऐसी स्थिति में अष्टोत्तरी दशा का प्रयोग किया जाना उचित रहता है। शुक्र कला, कौशल, कमनीयता, लज्जा व सृजनशीलता के स्वामी हैं व इनके अधिक अंश जातक को प्रसिद्ध बना देते हैं।

 

रसाधारित अमरत्व एवं कायाकल्प

आचार्य रामचरण शर्माव्याकुल

चिर-यौवन और चिर-जीवन की ललक मानव-मन में मृत्यु-बोध के साथ ही जन्मी है और यह ललक अब तक अजर और अमर है। सारे के सारे जनसमुदाय की संचेतना ने जिजीविषा या जीवनेच्छा को समग्र भावों से संजाया है। नेक्टर और आबेहयात के रूप में अमृत, मृतसंजीवनी विद्या, सोमरस, परकाया-प्रवेश और संजीवनी बूटी के अर्थों में इस प्रक्रिया ने ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’, ‘एकोअहंबहुस्याम’, ‘आत्मनं सतत्’ आदि संकल्पों को अनुप्राणित किया है।

कायाकल्प के प्रकरण के साथ अनेक पौराणिक-मिथ संतरित हो उठा हैं तथा ययाति और पुरू का, जरा-यौवन विनियम, च्यवन ऋषि की युवत्व-प्राप्ति, संजीवनी बूटी और लक्ष्मण एवं कश्यप और तक्षक आदि इन प्रसंगों में काया-कल्प एवं अमरता प्रकारान्तर में समाई हुई है। सर्वप्रथम देवताओं और दानवों ने मिलकर क्षीर-सागर-मंथन किया, जिसके 14 रत्नों में से अमृत-कलश के साथ भगवान धन्वतरि का अवतरण हुआ। अमृत-घट को दैत्य लोग लेकर भागे, तब विष्णु ने मोहिनी-रूप धारण कर उन्हें वशीभूत किया और उनसे अमृत पिया था। गले के नीचे उतरने के पूर्व ही वह मारा गया, इसका सिर अमर हो गया- ब्रह्माजी ने उसको ग्रह बना दिया। इसी अमृत का पान करने के कारण देवता ‘अमर’ नाम से जाने जाते हैं।

मार्कण्डेय, बलि, परशुराम, हनुमान, विभीषण, अश्व त्थामा, व्यास, कृपाचार्य ये आठ हमारे भूमण्डल पर देह सिद्धि के साथ चिरजीवी माने गये हैं।

चिर-यौवन और जीवन के प्रमुख पेय अमृत के पश्चात अन्य साधन इस प्रकार है-मृत-संजीवनी-विद्या के द्वारा मृत-प्राणियों को पुनर्जीवित किया जा सकता है। दैत्यगुरु शुक्राचार्य (कवि, उशना) इस विद्या के आदि-ज्ञाता थे और देव गुरु बृहस्पति के पुत्र ‘कच’ने इन्हीं से इसे सोखकर अन्य देवताओं को इसे सिखा दिया था। शुक्राचार्य ने विद्या अपने पिता भृगु से सीखी थी।

सोमरस - यह ऋग्वेदकालीन एक विशेष लता का रस था जो समान रूप से देवताओं और दानवों को प्रिय था।  इससे एक उत्तेजनापूर्ण उमंगभरी अनुभूति प्राप्त होती थी और यह रस अमृतत्व के आंशिक गुणों को लिए हुए कायाकल्प करने वाला सुप्रसिद्ध पेय रहा था।

मार्कोपोलो ने ऐसे योगियों की चर्चा की है, जो 150-200 वर्ष तक जीवित रहते थे। उसका कहना है कि ये लोग गंधक और पारा मिलाकर एक अद्भुत पेय तैयार करते थे और इसका मास में दो बार सेवन करते थे। यह पेय उन्हें दीर्घजीवन प्रदान करता था। इस पेय का सेवन वे बचपन से ही आरंभ कर देते थे।

(दि. बुक ऑफ सर मार्कोपालो, पृ. 365) अल्बेरूनी ने अपनी पुस्तक ‘अल्बेरूनीज इण्डिया’(भाग प्रथम, पृ. 188-189)में लिखा है - ‘दीर्घ-जीवन और चिरयौवन का ज्ञान रखने वाले भारतीय उन विदेशियों का ध्यान बरबस खींच लेते थे जो भारत - भ्रमण के निमित्त आते थे। वे रस विद्या के सदृश ही विज्ञान जानते थे, जिसे वे ‘रसायन कहते थे। यह शब्द स्वर्ण जैसे ‘रस’को लेकर गढ़ा गया था। इस कला का उपयोग विशेष अवसरों पर जड़ी-बूटियों, औषधियों आदि की सहायता से किया जाता था, जो अधिकतर पौधों से प्राप्त की जाती थीं। उनके द्वारा चिरयौवन और दीर्घ जीवन प्राप्त किया जाता था।’

परकायप्रवेश सिद्धि के महर्षि वशिष्ठ ज्ञाता थे। ‘योगवाशिष्ठ’में श्रीराम को परकायप्रवेश के संबंध में इस प्रकार बताया है - अन्नमय कोश से प्राणमय कोश से उद्गमन की क्रिया द्वारा परकायप्रवेश सिद्धि होती है, जिस प्रकार वायु पुष्प में से गंध खींचकर उसका घ्राणेन्दि्रयों से संबंध कराता है, उसी तरह योगी रेचक के अभ्यास रूप से कुण्डलिनी रूप घर से बाहर निकलकर ज्योंही दूसरे शरीर में जीवन का संबंध कराता है त्योंही वह शरीर परित्यक्त हो जाता है। इस प्रणाली से परकाय में सिद्धि श्री का उपभोग करता हुआ, योगी याद उसका अपना पहला शरीर विद्यमान रहा तो उसमें पुनः प्रविष्ट हो जाता है नहीं तो जब तक चाहे अन्य शरीर के माध्यम से जीवित बना रहता है। आद्य-शंकराचार्य ने इस प्रकार की सिद्धि का उपयोग किया था।

आयुर्वेद विश्व का आदि-चिकित्सा विज्ञान है। हजारों वर्षों के स्वाध्याय और चिन्तन का प्रतिफलन इस जगत के अनेक मनीषियों द्वारा हुआ है जिसमें भगवान शिव, अश्विनी कुमार, धन्वन्तरि, शुक्राचार्य, भारद्वाज, अंगिरा, मरीचि, गौतम, सांख्य, मैत्रेय, च्यवन, जमदग्रि, गर्ग, भृगु, भार्गव, पुलस्त्य, अगस्त्य, कश्यप, नारद, मार्कण्डेय, कपिंजल, वामदेव, कौण्डिन्य, शांडिल्य, शौकनेय शोनक, काम्य, कात्थायन, कांकायन, वैद्यवाय, कुशिक, अश्विलायन, संकृत्य, परीक्षक, देवल, गालव, धौम्य, वैखानस, लंकाधिपति रावण, महर्षि चरक, बोधिसत्व - नागार्जुन, आचार्य वाग्भट, सुषेण, महाभारतकालीन कश्यप, सुश्रुत, आत्रेय, पुनर्वसु, कुमार, भर्तृजीवक आदि प्रमुख है।

तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय ने आयुर्वेद की रश्मियों को संसार में सर्वत्र प्रसारित किया था। इसके त्रिदोष  सिद्धान्त वात-पित-कफ की छाप यूनान के ह्यूमर-सिद्धान्त में विद्यमान है। सम्राट सिकन्दर अपने साथ भारतीय आयुर्वेद विशेषज्ञ को ले गया था। तत्पश्चात् अरब देशों में आयुर्वेदिक पद्धति को बहुत कुछ अपनाया गया। हारू-अल-रशीद खलीफा के समय अरब में माणेक और शल्य दो भारतीय वैद्य थे।

 

 

 

 

राशियों में शनि की प्रकृति

एस.के.भास्कर राव

व्यवसाय, व्यापार आदि के बारे में फलकथन के लिये ज्योतिष शास्त्र में जातक की जन्मकुण्डली के दशम भाव या कर्मस्थान पर विचार किया जाता है।

इस प्रकार एक अनुभवी ज्योतिषी बड़ी सरलता से किसी भी जातक की जन्मकुण्डली में लग्न से 12 भावों में शनि की दृष्टि के आधार पर जातक को ऐसे व्यवसाय की शाखा के बारे में (जिसमें अधिक से अधिक लाभ मिल सकता है) पहले से ही उचित परामर्श दे सकता है।

इससे पूर्व ज्योतिषी और जातक दोनों को ही ‘कर्म’क्या है- इस बारे में जानने की आवश्यकता है।

कर्म : कर्म के मार्ग बड़े विचित्र हैं, जितना ही इनके बारे में जानने का प्रयास करते हैं, उतना ही और अधिक अचम्भित होते हैं। कर्म लोगों को एक-दूसरे के नजदीक भी लाता है और अलग भी करता है। यह किसी को कमजोर और किसी को शक्तिशाली तथा किसी को अमीर और किसी को गरीब बनाता है। सारे संसार में संघर्ष कर्म के बंधनों के कारण ही है। यह सब तर्कों और प्रमाणों से परे है।

यह कर्म ज्ञान आपको ऊपर उठा देता है- जिससे आप घटनाओं या व्यक्तियों से लगाव महसूस नहीं करते और उससे स्व तत्त्व को प्राप्त करने की यात्रा में सफलता मिलती है। उदाहरण के लिये एक चोर यह कह सकता है कि चोरी करना मेरा कर्म है, जबकि उसे पकड़ना पुलिस का कर्म है। केवल मानव जीवन में ही व्यक्ति कर्म से मुक्त होने में समर्थ है और कुछ हजार ही लोग हैं जो इससे मुक्त होने का लक्ष्य रखते हैं। केवल कार्य करते रहने मात्र से कर्म से मुक्ति नहीं मिलती। भगवत्कृपा ही कर्म बंधनों को जला सकती है। यह कृपा कैसे प्राप्त की जाये, इसके लिये विधि विधान और गुरु या विद्वान ज्योतिषी के सहयोग की आवश्यकता होती है जो जातक को ईश्वर से एकाकार होने का रास्ता दिखा सकता है।

ये योग नीच भंग राजयोग, चंद्र मंगल योग और गुरु चांडालयोग (जब गुरु और राहु एक साथ स्थित हों) के नाम से जाने जाते हैं। ये विशेष योग हैं और इनका प्रभाव इनके संयुक्त रूप से ही देखा जाना चाहिए। इस संदर्भ में अच्छे विद्वानों की पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए। अष्टक वर्ग दूसरी पद्धति है जिससे अंतिम निष्कर्ष चैक किये जा सकते हैं।

लग्न से विभिन्न भावों में शनि के प्रभाव : तुला, मकर और कुंभ लग्नों को छोड़कर बाकी लग्नों में शनि शुभ नहीं होता। उसका व्यक्तित्त्व अरुचिकर और वह प्रकृति से ईर्ष्यालु और कटुवाणी वाला होता है। मानसिक रूप से वह क्षीण और कमजोर दिमाग वाला हो सकता है।

द्वितीय भाव में शनि जातक को असाधारण रूप से कटुवाणी वाला बनाता है और उसका पारिवारिक जीवन या प्रसन्नता अत्यल्प होती है। वह तंगी से परेशान और अपने पैतृक स्थान से दूर रहने के लिए बाध्य होकर उदासीन रहता है। यदि वह शुभ राशि में स्थित हो तो उसकी सभी बुराइयां गुणों के रूप में बदल जायेंगी।

तृतीय भाव में शनि भाग्य में बदलाव लाता है। जातक अपनी दृढ़ता और कर्मठता के बलबूते पर अपनी कमियों पर काबू पा लेता है। उसके पास अनेक वाहन होते हैं और वह अपने क्षेत्र का नामचीन व्यक्ति होता है।

चतुर्थ भाव का शनि जातक को मुख्य धारा से अलग रहने की प्रवृत्ति बनाता है। वह शोहरत से बचने का प्रयास करता है। वह बहुत अच्छा गणितज्ञ हो सकता है किन्तु वाणी से कटु और आलस्य से प्रेम करने वाला होता है।

पंचम भाव का शनि जातक को चिंतक या दार्शनिक बनाता है। किन्तु वह अपने बच्चों से अत्यंत नफरत करता है अन्यथा वह बहुत विचारवान व्यक्ति और अशुभ घटनाओं की भविष्यवाणी करने की उसमें असाधारण समझ होती है।

छठे भाव का शनि जातक को अपनी धूर्त और गुप्त चालों से अपने शत्रुओं को नेस्तनाबूद करने वाला बनाता है। वह किसी भी व्यक्ति के चरित्र का अच्छा पारखी होता है, किन्तु यह बिडम्बना है कि वह कठिन अग्नि परीक्षा के बाद ही शुद्ध व परिष्कृत होता है। उसके उच्च नैतिक आदर्श होते हैं।

सप्तम भाव में शनि जातक को लम्बी बीमारी से ग्रस्त रखता है। वह कम खर्च करने वाला और कंजूस होता है। वह निम्न और घटिया किस्म की औरतों के साथ संबंध बनाने की प्रवृत्ति वाला होता है। वैवाहिक जीवन के लिए अच्छा नहीं है।

अष्टम भाव में शनि जातक को चाहे कितना ही बीमार रहे किंतु उसे दीर्घायु प्रदान करता है। यद्यपि वह कमजोर दिमाग और थका हुआ सा लगेगा।

नवम भाव का शनि जातक से अनेक दान पुण्य के और सामाजिक कार्य कराता है। वह अवसर के अनुसार सुनियोजित स्वार्थपूर्ण कार्य करने वाला होता है, पर कभी-कभी वह प्रतिशोध के भाव व्यक्त करने में झिझकता नहीं है। हालांकि वह पवित्र आचरण की आड़ में अपनी वास्तविकता को छिपाने का प्रयास करता है।

दशम भाव में शनि जातक को इंजीनियरिंग के क्षेत्र में या तेल व्यापारी के रूप में कुशल बनाता है। वह अपनी सरकार का या इसी प्रकार के किसी व्यवसाय का प्रतिनिधि होगा। वह उच्च न्यायप्रियता वाला और साधारण तरीके से जीवन जीने वाला होता है।

एकादश भाव का शनि जातक को स्थायी धन सम्पत्ति से अधिक जीवन जीने वाला व चतुर व्यापारिक समझ वाला बनाता है। उसकी आय के गुप्त स्रोत भी होंगे किन्तु उसके बच्चे लापरवाह और फिजूलखर्च करने वाले होंगे।

बारहवें भाव का शनि जातक को निर्दयी और कठोर हृदय वाला बनाता है जो सदैव दूसरों का धन छीनने के लिये तत्पर रहता है। वह बुरे और न करने योग्य कार्यों पर धन व्यय करता है और उसकी प्रत्येक वस्तु के बारे में नफरत की भावना होती है। निम्न वर्ग के लोगों के साथ उसकी मित्रता होती है।

 

स्थापत्य एवं मूर्ति-कला में श्री हनुमान

डॉ. व्रजेन्द्रनाथ शर्मा

श्रीहनुमानजी वायुदेवता के प्रसाद से चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को उत्पन्न हुये थे। इनके पिता का नाम वानरराज केसरी तथा माता का नाम अन्जनी था। जन्म के समय ब्रह्मा, विष्णु, महेश, यम, वरुण,कुबेर, अग्रि, वायु तथा इन्द्र आदि ने इन्हें अजर-अमर बना दिया तथा अनेकों प्रकार के और भी वर प्रदान किये।

श्रीहनुमानजी अत्यन्त पराक्रमी, तेजस्वी एवं विद्वान थे। इनके अनेक नामों में अन्जनीनन्दन, महावीर तथा मारुति विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। वे भगवान् श्रीराम के परम भक्त थे और उनकी अनेकों प्रकार से सेवा करते थे। वाल्मीकीय रामायण तथा गोस्वामी तुलसीदास रामायण में अनेक स्थलों पर इनके नाम का उल्लेख बड़े आदर से हुआ है। स्वयं इनकी रामायण-रचना ‘नाटक रामायण’या हनुमन्नाटक के नाम से प्रसिद्ध है। इनके जीवन की अनेक घटनाओं में सीता की खोज करना, लंका दहन करना, लक्ष्मणजी को जीवित करने हेतु द्रोणाचल लाना, रावणका गर्व नष्ट करना, गरुड़ का गर्व -हरण करना, भीम-गर्व-गन्जन और महाभारत युद्ध के समय अर्जुन के रथ के घ्वज पर बैठना विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

भारतवर्ष में श्री हनुमानजी की पूजा अत्यन्त प्राचीन काल से होती आ रही है। प्राचीन साहित्य एवं शिला-लेखों में इनका उल्लेख मिलता है। साथ-ही-साथ स्थापत्य एवं मूर्तिकला सिक्कों एंव लघु चित्रों में भी इनके जीवन से सम्बन्धित अनेक घटनाओं का अंकन प्राप्त है। यहां पर केवल स्थापत्य एवं मूर्ति कला में श्री हनुमान के चित्रण का संक्षेप में उल्लेख किया जाता है।

श्रीहनुमानजी की अबतक प्राप्त प्राचीनतम प्रतिमांए गुप्तकाल  (५वीं-६ठी शताब्दी) की हैं। उत्तरप्रदेश के झाँसी जिले में स्थित देवगढ़ के प्रसिद्ध दशावतार-मन्दिर की बाह्य दीवारों पर अनेक पौराणिक कथाओं के दृश्य मिलते हैं। यहीं से प्राप्त एक पाषाण-खण्ड पर युद्ध में मेघनाद द्वारा लक्ष्मण के मूर्च्छित हो जाने पर श्री हनुमान द्रोणाचल पर्वत, जिस पर मृत संजीवनी बूटी लगी है, लाते हुये दिखलाये गये हैं। ऐसे ही वाली-सुग्रीव के युद्ध के समय वे पीछे खड़े हैं। मध्यप्रदेश के नचना नामक स्थान से प्राप्त एक शिलाखण्ड पर श्री हनुमान सुग्रीव के साथ श्रीराम के सामने खड़े हैं और श्रीराम के पीछे लक्ष्मणजी स्थित हैं।

श्रृङ्गवेरपुर से प्राप्त तथा प्रयाग-संग्रहालय में प्रदर्शित एक प्रतिमा में श्रीराम-लक्ष्मण के साथ श्रीहनुमान एवं सुग्रीव भी खड़े चित्रित किये गये हैं। रामवन से प्राप्त एक मूर्ति पर जो अब काशी के भारत-कला-भवन में रखी है, सेतुबन्ध की रचना के समय श्रीहनुमान भी अन्य वानरों के साथ दिखाये गये हैं। इनके सम्मुख श्रीराम और लक्ष्मण एक शिलापर बैठे हैं। ये दोनों मूर्तियां भी ५वीं शती की हैं।

गुप्तकाल में ही बनी अनेक मिट्टी की मूर्तियों पर भी श्रीहनुमान का अंकन मिलता है। इस प्रकार की संभवतः सबसे कलात्मक प्रतिमा चौसा (बिहार) से प्राप्त हुई है, जो अब पटना-संग्रहालय में प्रदर्शित है। इसमें युद्ध के स्कन्धावार में वानर-सेना के मध्य श्रीराम, लक्ष्मण और हनुमान बैठे हैं। कानपुर जिले के भीतरगाँव के मन्दिर पर जड़ी मूर्ति में श्रीहनुमान पर्वत उठाये दिखलाये गये हैं। उत्तरप्रदेश से प्राप्त एक मूर्ति में जो लखनऊ-संग्रहालय में सुरक्षित है, श्री हनुमान अपने घुटनों पर हाथ रखे हुये बैठे हैं। बिहार में अंटीचक से प्राप्त पालकालीन (८वी शतीं की) मृण्मयी मूर्ति में भी हनुमान पर्वत उठाये हुये दिखलाये गये हैं।

पूर्वी गोदावरी जिले के भीमावरम् नामक स्थान पर निर्मित माण्डव्य नारायण के मन्दिर पर बनी एक मूर्ति में श्रीराम और लक्ष्मण एक वृक्ष के नीचे विराजमान हैं और उसके ऊपर हनुमान बैठे हैं। यह सम्भवतः उस समय का दृश्य है जब सुग्रीव के आग्रह पर श्रीहनुमान दोनों भाइयों के पास आये थे। इसी से साम्य रखती एक मूर्ति जावा में प्राम्बनन में भी देखी जा सकती है। इलोरा के सुप्रसिद्ध कैलास-मन्दिर (८वी शंती ई0) पर भी रामायण के अनेकों दृश्यों में हनुमान का भी अंकन मिलता है।

उड़ीसा में कटक जिले के मणिकेश्वर-मन्दिर पर जो लगभग ७वीं शती ई0 में निर्मित हुआ था, श्रीराम, लक्ष्मण एवं हनुमान की सुन्दर मूर्तियां बनी हैं।

उत्तरी भारत में प्रतिहार-सम्राटों के शासनकाल में भी श्रीहनुमान की पूजा के लिए अनेक पाषाण-प्रतिमाओं का निर्माण किया गया था। आठवीं शती ई0 में चित्तौडगढ़ में बनी ऐसी ही एक मूर्ति कुछ वर्ष पूर्व राष्ट्रीय -संग्रहालय, नयी दिल्ली को स्थानान्तरित की गयी है।

प्रतिहारयुगीन श्रीहनुमान की दो मूर्तियां मथुरा-संग्रहालयों में भी रखी हैं। इनमें से प्रथम मूर्ति शीशरहित है तथा काफी खण्डित है। दूसरी आदमकदमूर्ति जो परखमसे मिली थी, काफी अच्छी दशा में है। ये दोनो मूर्तियां ९वी शती ई0 की बनी प्रतीत होती हैं।

खजुराहों के चन्देल-शासकों के राज्यकाल में श्रीहनुमान को अधिक मान्यता प्राप्त थी और वे ‘भुम्बकदेव’के नाम से पूजे जाते थे। यहां के प्रसिद्ध पार्श्वनाथ-मन्दिर पर एक और श्रीराम और सीता खड़े हैं तथा श्रीराम अपने दाहिने हाथ से समीप खड़े हुये हनुमान को आर्शीवाद दे रहे हैं। इसी से साम्य रखती एक मूर्ति राजस्थान में ओसियां के अम्बामाता-मन्दिर पर भी उत्कीर्ण है, परंतु वहां श्रीराम- सीता की जगह भगवान विष्णु एवं लक्ष्मी हैं और निकट ही श्रीहनुमान भी खड़े हैं। खजुराहो के पार्श्वनाथ मन्दिर पर ही एक अन्य दृश्य में सीता लंका के अशोक-वन में बैठी हैं तथा उनके सामने विविध आयुधधारी राक्षसों से घिरे श्री हनुमान दिखाये गये हैं। केरल से प्राप्त एक लकड़ी की मूर्ति में भी अशोक-वन में बैठी सीता के सामने खड़े हनुमान का सुन्दर अंकन मिलता है।

खजुराहो ग्राम में स्थित अनेक मन्दिरों में भी श्रीहनुमान जी की प्रतिमाएं विद्यमान हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण मूर्ति एक आधुनिक देवालय में है, जिसकी पीठिका पर हर्ष-संवत् ३१६ (९२२ई0) का लेख उत्कीर्ण है। इन सभी मूर्तियों की आज भी पूजा होती है। श्रीहनुमान की एक शीशरहित मूर्ति दुधई के अवशेषों में बनिया की बारात नामक स्थान पर भी मिली है। कालंजर के किले के समीप ही प्रसिद्ध हनुमान-कुण्ड है जिसके बगल में पर्वत काटकर बनायी गयी हनुमान की एक विशाल प्रतिमा स्थित है। इस मूर्ति को देखते ही जोधपुर के दुर्ग के बाहर पहाड़ में काटकर बनी लगभग १८ फीट ऊंची मूर्ति का स्मरण हो आता है परंतु जोधपुर वाली मूर्ति पंचमुखी है।