यज्ञ
पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो एडिटर
मत्स्य पुराण के सहदेवाधिकार अध्याय में उल्लेख मिलता है कि पहले मनुष्य और देवता पृथ्वी पर साथ ही रहते थे। मनुष्य को अहंकार होने पर देवता कल्प वृक्ष लेकर अपने लोक को चले गये। मनुष्य कल्पवृक्ष प्रदत्त सामग्री के अभाव में पृथ्वी पर उपलब्ध पाकड़ वृक्ष आदि को भोजन सामग्री के रूप में काम लेने लगे। अतः भौतिक ताप भी सताने लगे। मनुष्य जब त्रस्त हुए तो उन्होंने ब्रह्माजी की शरण माँगी, तब ब्रह्मा जी ने मनुष्य को देवताओं की प्रसन्नता के लिए उनके निमित्त यज्ञ भाग अर्पित करने के लिए कहा। यह व्यवस्था की गई कि अग्नि देव अपनी पत्नी स्वाहा के माध्यम से आहुति ग्रहण करेंगे और अग्निदेव उसे तत्सम्बन्धित देवताओं के पास पहुँचाएँगे।
पंचयज्ञ में देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ, बलिवैश्र्वदेव यज्ञ आते हैं। यज्ञ वैदिक संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। यज्ञ पर आधारित कर्मकाण्ड को देवताओं की पुष्टि के लिए आवश्यक माना गया। शब्द भेद से हवन को शुद्धिकारक माना गया। जबकि यज्ञ को आध्यात्म प्रधान माना गया। त्याग, बलिदान या समर्पण की क्रिया के द्वारा यज्ञ भाग को देवताओं के लिए अर्पण करना आवश्यक माना गया। परन्तु शतपथ ब्राह्मण या गीता में यज्ञ के अर्थ कहीं अधिक व्यापक हैं। अखिल ब्रह्माण्ड में ईश्वर के साथ सायुज्य या संलयन को एक यज्ञ प्रक्रिया ही माना गया है। लौकिक दृष्टि से यह माना गया कि देवताओं को यज्ञ भाग अर्पित करने से वे हम पर कृपा करेंगे।
यज्ञ प्रक्रिया के विकास के साथ-साथ तथा हवन की विधियों के विकास के साथ-साथ इस प्रक्रिया में आयुर्वेद का भी समावेश हुआ। आहुति को लेकर नये नियम बनाये गये। हर देवता के निमित्त अलग-अलग यज्ञ काष्ठ प्रस्तावित की गई। सूर्य के लिए मदार या आकड़ा, चन्द्रमा के लिए पलाश, मंगल के लिए खैर, बुध के लिए चिड़चिड़ा, गुरु के लिए पीपल, शुक्र के लिए गूलर, शनि के लिए शमी, राहु के लिए दुर्वा और केतु के लिए कुशा का निर्धारण किया गया। अधिकांश हवनों के बाद श्रीसूक्त के पाठ में खीर से आहुति दिलवाई जाती है। अन्य सभी देवताओं के लिए घी से ही आहुतियाँ लगाई जाती हैं।
ऋग्वेद में ग्रहों का उल्लेख नहीं मिलता है परन्तु नक्षत्रों के मंत्र मिलते हैं और उनके निमित्त आहुतियाँ घी की ही प्रदान की जाती हैं। हर ग्रह की प्रसन्नता के लिए जप संख्या अलग - अलग बताई गई है। सूर्य के मंत्र की जप संख्या 7 हजार, चन्द्रमा की 11 हजार, मंगल की 10 हजार, बुध की 9 हजार, बृहस्पति की 19 हजार, शुक्र के मंत्र की 16 हजार, शनि के मंत्र की 23 हजार, राहु की 18 हजार, केतु के मंत्र की जप संख्या 17 हजार बताई गई है। कुछ यज्ञों में वैदिक मंत्र प्रयोग में लाये जाते हैं और कुल जप संख्या के दशांश के बराबर आहुतियाँ प्रदान की जाती है। दशांश हवन आवश्यक बताया गया है। यज्ञ और हवन दो अलग-अलग क्रियाएँ हैं परन्तु आज हवन को ही यज्ञ समझा जा रहा है।
देवों को हवि प्रदान करना, वेद मंत्रों का उच्चारण, ऋत्विजों को दक्षिणा इन तीनों कार्यों का सहयोग यज्ञ कहलाता है। एक जगह कहा गया है कि जिस कार्य से इन्द्रादि देव प्रसन्न हों, और स्वर्ग आदि सद्गति प्राप्त हो, उसे यज्ञ कहते हैं।
गीता में यज्ञ शब्द का अर्थ थोड़ा अधिक व्यापक है और कर्ता के कर्म की आहुति ही यज्ञ कहलाती है। ज्ञान भक्ति और कर्म को भी यज्ञ कहा गया है। कुल मिलाकर यज्ञ को योग की विधि ही माना गया। अनासक्त होकर किया हुआ कोई भी कर्म यज्ञ कहा गया है।
ब्रह्मर्पणम ब्रह्महवि ब्रह्मागणौ ब्रह्मणाहुतम,
ब्रह्मैव तेन गंतव्यम, ब्रह्म कर्म समाधिना।।
अर्थात् यज्ञ में अर्पण होने वाली हवि भी ब्रह्म है, अग्नि भी ब्रह्म है, कर्ता ब्रह्म है और गंतव्य भी ब्रह्म है।
हवन में आयुर्वेद का प्रयोग -
देवताओं की प्रसन्नता के लिए जो हवन सामग्री प्रयोग में लायी जाती है, वे रोगों का शमन करती है, दवाएँ या गोलियाँ खाने से अधिक प्रभावी हवन की धूम होती है जो देवताओं की प्रसन्नता के साथ-साथ मनुष्य के शरीर में सूक्ष्म रूप में पहुँचती है। हवन सामग्री दशमूल क्वाथ, गूगल, हल्दी, कई तरह का काढ़ा, तरह-तरह की हवन काष्ठ, कपूर आदि वातावरण को निर्मल बनाते हैं। आमतौर से साधारण से यज्ञ में भी आम की लकड़ी, बेल, नीम, पलाश, कलिगंज, देवदार की जड़, गूलर की छाल और पत्ती, पीपल की छाल और तना, बेर, आम की पत्ती और तना, चंदन की लकड़ी, तिल, जामुन की पत्ती, अश्वगंधा, कपूर, लौंग, चावल, ब्राह्मी, मुलेठी, बहेड़ा, हरड़, शक्कर, जौ, लोबाण, इलायची, गुलाब की पंखुड़ी, नागकेशर, तगर, वचा, लाल चंदन, नागरमोठा, कमर के बीज, गूगल, जटा मांसी, शतावरी आदि ग्राह्य हैं। यज्ञ सामग्री के विवरण यजुर्वेद, शतपथ ब्राह्मण, कपिष्ठल संहिता इत्यादि में मिल जाते हैं।
समिधा की काष्ठ मलिन दूषित और कृमि लगी नहीं हो। जलने पर दुर्गंध व धुंआ ना दे। जिस काष्ठ से कोयला बन जाये, उसे भी अच्छा नहीं माना गया है। कुछ समिधा हर जगह काम में नहीं आती। उदाहरण के लिए, वृष्टि यज्ञ में कैर की समिधा ही प्रयोग में लाई जाती है, तो पीताम्बरी के यज्ञ में खड़ताल का भी प्रयोग होता है।
किन का आह्वान करें-
आमतौर से प्रधान देवता के आह्वान व यज्ञ से पूर्व गणेश जी, वरुण देवता, षोड़श मातृका, नवग्रह, पंचदेव आदि का आह्वान और स्थापना की जाती है। ब्रह्मा, क्षेत्रपाल व दिक्पाल का भी आह्वान किया जाता है। इनके निमित्त आहुतियाँ भी दी जाती है। यज्ञ कुण्ड भी शास्त्रीय प्रमाण के अनुसार बनाये जाने चाहिए। अन्य देवताओं के आह्वान के बाद मुख्य पाठ की आहुतियाँ प्रधान देवता के लिए ही की जाती है। ऐसा माना जाता है कि उपरोक्त सभी देवताओं के साक्ष्य में ही हवन किया जाना चाहिए। याद रहे कि यज्ञ के प्रारम्भ में ही जल से आचमन, पृथ्वी का पूजन, जल से अंग स्पर्श करना, यज्ञवेदी का पूजन, अग्नि दीप्त करने का मंत्र जैसी प्रक्रियाएँ भी अपनाई जाती है। यज्ञ समाप्ति के बाद देवताओं के निमित्त भोग, हवन कुण्ड की राख को शरीर पर तिलक आदि के रूप में धारण करना, आरती, देवताओं को विदा करना और क्षमा माँगना एक यज्ञ के प्रमुख अंग है।
एक यज्ञ का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग आहुतियों को देवताओं के समर्पण करना है। उदाहरण के लिए - ओम् सोमाय स्वाहा। इदम सोमाय-इदम न मम।। इसका अर्थ यह है कि यह आहुति मेरे लिए नहीं है सोम के लिए ही है। इसी तरह से किसी भी पाठ के हर अध्याय के अंत में इदम ना मम कहकर ही उस पाठ का फल देवताओं को समर्पण किया जाता है।
यह विधान बहुत बड़ा है और जटिल प्रक्रियाओं को सामान्य शब्दों में समझाना मुश्किल सा काम है, फिर भी इस लेख में वर्णित तथ्य थोड़ा सा मार्ग दर्शन कर सकते हैं।
कर्मों पर आधारित रोग
शास्त्रों में कुछ रोगों की उत्पत्ति गत जन्म में किये गये कर्मों के आधार पर बताई गई है। महर्षि शातातप ने शातातप स्मृति लिखी है। उसमें कर्म विपाक का विवरण मिलता है। अर्थात् शुभ-अशुभ जो कर्म किये गये हैं उनके फलों का विवरण है। यद्यपि कर्म विपाक पर सूर्यारुण कर्मविपाक संहिता भी है, परन्तु महर्षि शातातप अधिक प्रसिद्ध हुए।
पाप रोग
1. ब्रह्महत्या पाण्डुकुष्ठ
2. गोवध कुष्ठ
3. पितृवध चेतनाहीनता
4. मातृवध अन्धत्व
5. भगिनीहत्या बधिर
6. भ्रातृवध मूक (गूँगा)
7. बालघाती मृतवत्सवाला
8. गोत्रहा कुष्ठी, निर्वंश
9. स्त्रीहन्ता अतिसार
10. राजहत्या क्षय
11. उष्ट्रहत्या क्षय
12. अश्वहत्या वक्रतुण्ड
13. हरिणहत्या खंज (लँगड़ा)
14. मार्जारहत्या पीतपाणि
15. शुक-सारिका-वध स्खलितवाक् (हकलाना)
16. वकहत्या दीर्घ नासिका
17. काकवध कर्णहीन
18. सुरापान श्यावदन्त (काले-पीले दाँतवाला)
19. मद्यपानी रक्तपित्त
20. अभक्ष्यभक्षण उदरक्रिमि
21. विष देने वाला छर्दिरोग
22. मार्ग तोडने वाला पादरोगी (पाँवका रोगी)
23. धूर्तता अपस्माररोग
24. दूसरे को कष्ट देने वाला शूल रोग
25. दावाग्नि-दाता रक्तातिसार
26. देव-मंदिर या जल में मूत्रोत्सर्ग करने वाला भयंकर गुदारोग
27. गर्भपात यकृत और प्लीहा सम्बन्धी एवं जलोदररोग
28. मूर्तिभंजक अप्रतिष्ठा (स्थिरता का अभाव)
29. दुष्ट वचन बोलने वाला खण्डित
30. परनिन्दा खल्वाट (गंजापन)
31. दूसरे का उपहास करने वाला काना
32. सभा में पक्षपात करने वाला पक्षाघात
33. स्वर्णचोर कुलघ्न
34. काँसे की चोरी करने वाला पुण्डरीक रोग
35. ताम्रचोर औदुम्बररोग (एक प्रकार का कुष्ठ)
36. पीतल की चोरी पिङ्गलाक्ष
37. मोती की चोरी पिङ्गमूर्धज (कुछ भूरे बालवाला)
38. त्रपुहारी (सीसाचोर) नेत्ररोगी
39. दुग्ध चोर बहुमूत्री
40. लौहचोर कर्बूराङ्ग (चितकबरे अंगवाला)
41. तैलचोर खुजलीरोग
42. कच्चा अन्न चुराने वाला दन्तहीन
43. पक्वान्नहरी जिह्वारोग
44. विद्या और पुस्तक का हरण करने वाला मूक
45. वस्त्र चोर कुष्ठी
46. औषधिचोर सूर्यावर्त (अर्धकपाली)
47. विप्र के रत्नों को चुराने वाला अनपत्यता
48. देवमूर्तियों की चोरी विभिन्न प्रकार के ज्वर
49. अगम्यागमन अनेक रोग
ऋषि का कहना है कि इन पापों के शमन के लिए पातक, उपपातक तथा महापातक के बलाबल का विचार करके पापों की शांति के निमित्त गोदान, वृषभदान, भूमिदान, धान्यदान, वस्त्रदान, त्र्यम्बक मंत्र का एक लाख जप, पूजन-हवन और गृहशान्ति इत्यादि करवाना चाहिए। यह सब विधानपूर्वक होने चाहिए।
अथ चाणक्य उवाच
अयशो भयं भयेषु।
अपयश भयों में सबसे अधिक भयंकर होता है।
मनुष्य को अपयश यानी बदनामी से सदा डरना चाहिए। कहावत हैः बद अच्छा बदनाम बुरा। जो आदमी बदनाम हो जाता है उसकी तरफ सब उंगलियाँ उठाते हैं। समाज में उसकी सर्वत्र निन्दा होती है।
अपमानं तथा लज्जा बंधनं भयमेव च।
रोग शोकौ स्मृतेर्भंगो मृत्युश्चाष्टविधः स्मृतः॥
अपमान, लज्जा, बंधन (कैद), भय, रोग, शोक तथा स्मरणशक्ति का नाश, वे मृत्यु के आठ प्रकार कहे गये हैं।
अपमान अथवा अपयश मनुष्य की मृत्यु के समान होता है। इसका अर्थ यह है कि जो आदमी बदनाम हो जाता है उसकी सामाजिक मृत्यु हो जाती है। अथवा यों भी कह सकते हैं कि कुछ लोग अपमान को सहन नहीं कर सकते और आत्महत्या कर लेते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा हैः-
संभावितस्य चाकीर्तिः।
मरणादतिरिच्यते॥
माननीय पुरुष की अपकीर्ति मृत्यु से भी अधिक बुरी होती है।
मान को बोलचाल की भाषा में पत या साख भी कहते हैं। आदमी को अपनी पत या साख नहीं गंवानी चाहिए। जिसकी साख गिर जाती है उस पर कोई विश्वास नहीं करता। व्यापार के क्षेत्र में तो साख का बहुत महत्व है।
चाणक्य नीति कहती है :
वरं प्राण परित्यागो मान भंगे न जीवनात्।
प्राणत्यागे क्षणं दुःख मान भंगे दिने दिने॥
मान भंग होने पर जीने की अपेक्षा मर जाना बेहतर है, क्योंकि मरने में तो क्षणभर के लिए ही दुख होता है, परन्तु मान भंग होने पर सदा दुख बना रहता है।
परन्तु आजकल इसके अपवाद भी देखने में आते हैं, खासकर राजनीति के क्षेत्र में। राजनेता, राजनीतिक तथा राजकाल में लगे लोग तरह तरह के भ्रष्टाचार करते है और बदनामी से जरा भी नहीं डरते। जनता कुछ भी कहा करे, अखबार चाहे तो कुछ छापते रहें, इन पर कोई असर नहीं होता।
नास्त्यलसस्य शास्त्राधिगमः।
आलसी मनुष्य को शास्त्र की प्राप्ति नहीं होती।
आलसी आदमी शास्त्रों में पारंगत नहीं हो सकता। शास्त्र से यहाँ तात्पर्य केवल धर्मशास्त्र तथा नीतिशास्त्र से नहीं। सभी प्रकार की विद्याओं का व्यावहारिक ज्ञान शास्त्र कहलाता है। सांख्य शास्त्र, योग शास्त्र, न्याय शास्त्र, अर्थ शास्त्र, शिल्प शास्त्र, युद्घ शास्त्र, संगीत शास्त्र, काम शास्त्र आदि इसके उदाहरण हैं। किसी भी शास्त्र को सीखने के लिए अनथक तथा अनवरत परिश्रम, अध्यवसाय तथा लगन आवश्यक होते हैं। आलसी आदमी आराम-पसंद और आराम-तलब होता है। वहकोई काम नहीं करना चाहता। ऐसा आदमी कुछ नहीं सीख सकता। वह हर काम को कल पर टालता रहता है। इसलिए कहा हैः-
आलस्याद् बुद्घिमान्द्यंच आलस्यात् कार्यवैक्लवम्।
आलस्यादवनतिश्चैव गौरवं तेन नश्यति॥
आलस्य से बुद्घि मंद हो जाती है, कार्य बिगड़ जाते हैं, मनुष्य की अवनति हो जाती है और उसका गौरव नष्ट हो जाता है।
न स्त्रैणस्य स्वर्गाप्तिर्धर्म कृत्यंच।
स्त्रैण पुरुष को न तो स्वर्ग प्राप्त होता है और न वह कोई धर्म कार्य कर सकता है।
स्ति्रयोऽपि स्त्रैणमवमन्यते।
स्त्रैण पुरुष की स्ति्रयाँ भी अवज्ञा करती हैं।
स्त्रैण पुरुष उसे कहते हैं जो स्ति्रयों में रत रहता है। वह महाकामुक होता है और उसे हर समय स्ति्रयों से रमण की इच्छा तथा लालसा रहती है। तुलसीदास ने कहा हैः ‘कामिहि नारि पियारि अर्थात कामी पुरुष को नारी ही प्यारी होती है। विषय भोगों में लिप्त लम्पट पुरुष चार पुरुषार्थों में से केवल ‘काम’का ही चिन्तन करता है तथा धर्म, अर्थ और मोक्ष की और से बिलकुल उदासीन रहता है।
ध्यायतो विषयान्पुसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते॥
अधिक कामोपभोग से शरीर भी निर्बल हो जाता है और रोगों का शिकार बन जाता है। इस प्रकार मन और शरीर दोनों से अस्वस्थ मनुष्य का जीवन निरर्थक हो जाता है।
स्त्रैण का एक और भी अर्थ है जिसे जनानिया कहते हैं। जनानिया आदमी स्ति्रयों जैसे हाव-भाव प्रदर्शित करता है और पुरुषोचित कर्मों से विमुख हो जाता है। राजिया का एक दूहा हैः-
ना नारी ना नाह अधविचला दीसै अपत।
कारज सरै न काह रांडोल्या सूं राजिया॥
कुछ पुरुष अधबीच के नजर आते हैं जो न तो नारी होते हैं न नर। ऐसे प्रतिष्ठाहीन जनानिये कोई भी काम करने के अयोग्य होते हैं।
लम्पट पुरुष से स्ति्रयाँ इसलिए घृणा करती है कि वह उन्हें बुरी निगाह से देखता है। लम्पट पति से उसकी पत्नी भी तंग आ जाती है और उसकी अवज्ञा करने लगती है। इसी प्रकार जनानिये का भी स्ति्रयाँ तिरस्कार करती हैं और उसका मखौल उड़ाती हैं।
तात्पर्य यह है कि पुरुषों को मर्यादा में रहकर काम का सेवन करना चाहिए जिससे चित्त धर्म से उपराम न हो और स्वास्थ्य बना रहे। अस्वस्थ मनुष्य कोई कार्य अच्छी तरह नहीं कर सकता। स्ति्रयों जैसा व्यवहार भी पुरुषों के लिए अनुचित तथा अशोभनीय है।
पंचांग में योग
स्व. पं. रामचंद्र जोशी
किसी भी पंचांग में 27 योगों के नाम होते हैं। आमतौर से योगों के नाम से ही अर्थ समझे जाते हैं, फिर भी योगों के नाम व फल इस प्रकार हैं -
योग सत्ताईस होते हैं यथा :-
1. विष्कंभ, 2. प्रीति, 3. आयुष्मान, 4. सौभाग्य, 5. शोभन, 6. अतिगण्ड, 7. सुकर्मा, 8. धृति, 9. शूल, 10. गण्ड, 11. वृद्घि, 12. ध्रुव, 13. व्याघात, 14. हर्षण, 15. वज्र, 16. सिद्घि, 17. व्यतिपात, 18. वरीयान, 19. परिध, 20. शिव, 21. सिद्घि, 22. साध्य, 23. शुभ, 24. शुक्ल, 25. ब्रह्म, 26. ऐन्द्र, 27. वैधृति।
वैधृति, विष्कंभ, शूल, व्याघात, वज्र, व्यतिपात, अतिगण्ड और गण्ड ये आठ योग अशुभ हैं। इनमें व्यतिपात और वैधृति का स्वामी दिति, विष्कम्भ का यम, शूल का सर्प, व्याघात का वायु, वज्र का वरुण, व्यतिपात का रुद्र, अतिगण्ड का चन्द्रमा और गण्ड का अग्नि है।
अशुभ योगों का प्रथम चरण (चतुर्थभाग) छोड़कर शेष शुभमान लिया गया है। व्यतिपात और वैधृति सम्पूर्ण अशुभ माने गये हैं। प्रतिदिन मध्यदिन के बाद कुयोगों का प्रभाव कम हो जाता है।
व्यतिपात योग के दिन दान-स्नान आदि का विशेष शुभफल कहा गया है। व्यतिपात योग में जन्म लेने वाले जातक में बुराई शीघ्र प्रवेश करती रहती है। ऐसे जातकों को व्यतिपात योग के दिन स्वर्ण की सूर्य प्रतिमा तथा रजत की चन्द्र प्रतिमा कांसी के पात्र को धृत पूरित करके उसमें दोनों चिन्ह (सूर्य + चन्द्र) डालकर मध्यान्ह से पूर्व दान कर देने चाहिए।
शुभ कार्यारंभ में व्यतिपात और वैधृति के दिनों को टालना ही ठीक रहता है। ये दोनों योगतंत्र साधना में ग्रहण दिवस के समान सिद्घिदाता समझे गये हैं। रुद्र-भैरव-आदि की साधना के लिए साधक व्यतिपात के दिन का चयन करते हैं। कारण व्यतिपात का स्वामी रुद्र देव है।