अवतार कहाँ से आए

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

ज्योतिष के महान ग्रंथ बृहद् पाराशर होराशास्त्र में एक अध्याय मिलता है, जिसका नाम  ‘अवतार कथनाध्याय’ है। उसमें यह उल्लेख मिलता है कि अवतार कहाँ से आते हैं? क्या वे भी कर्म आदि जीवांश से युक्त होते हैं या कर्म रहित होते हैं? क्या अवतारों का ग्रहों से कोई सम्बन्ध है?

ऋषि पाराशर ने, जो कि भगवान वेदव्यास के पिता थे और ऋषि वशिष्ठ के पौत्र थे, अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में सृष्टिक्रम के बारे में लिखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि वे सांख्यदर्शन से प्रभावित थे, इसलिए सत्, तम और रज की चर्चा करते हैं और कहते हैं कि यह त्रिगुणात्मक सृष्टि तब जन्म लेती है, जब सत्, तम और रज में असंतुलन उत्पन्न होता है। वे तो यह भी कहते हैं कि एक अव्यक्त आत्मा विष्णु अनादि हैं, भगवान हैं, शुद्ध सत्व युक्त हैं और निर्गुण होते हुए भी सारे ही त्रिगुणों से युक्त हैं और सर्वशक्ति सम्पन्न हैं। एक चरण से वे सृष्टि को उत्पन्न करते हैं, पालन करते हैं। उनके तीनों चरणों को कोई नहीं जानता, जब वे सभी शक्तियों से युक्त होते हैं तो वे वासुदेव कहलाते हैं। इनमें 100 प्रतिशत परमात्मांश होता है। अगर जरा सा भी जीवांश अर्थात् कर्मों का अंश युक्त हो तो वे अन्य देव इत्यादि कहलाते हैं। ऋषि कहते हैं कि जैसे-जैसे जीवांश बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे योनि पतन होता चला जाता है। जैसे कि ब्रह्मा, रुद्र, सूर्य, देवी-देवता, यज्ञ, किन्नर, गंधर्व, मानव तथा अन्य हीन योनि के जीव। ऋषि ने राम, कृष्ण, नृसिंह और वराह को पूर्णावतार माना है। अन्य देवी-देवता कई श्रेणियों के अवतार हैं तथा अंशावतार भी होते हैं। जिनमें जीवांश अधिक हो और परमात्मांश कम हो गया हो वे जीव कहलाते हैं और जैसे -जैसे योनि पतन होता चला जाता है, वैसे-वैसे स्मृति लोप होता चला जाता है। जिनमें परमात्मांश बहुत अधिक हो वे त्रिकालज्ञ होते हैं और किसी भी काल की घटनाओं को देख सकते हैं। मनुष्य योनि तक आते-आते स्मृति लोप होता चला जाता है तथा उन्हें यह ध्यान नहीं रहता कि उन्होंने गत जन्म में क्या-क्या पाप किये थे और इसी कारण से वे पाप कर्मों को दोहराते रहते हैं और पुनर्जन्म के चक्कर में पड़े रहते हैं।

भगवान की नजर में ग्रह-नक्षत्र इत्यादि बहुत छोटी और गौण इकाइयाँ हैं, चाहे वे मनुष्य के लिए महान हों। यदुकुल के  महाभारतकालीन आचार्य महर्षि गर्ग ने गर्ग संहिता में लिखा है कि विरजा नदी में करोड़ों ब्रह्माण्ड हैं। यह बात उन्होंने कृष्ण की सखी शतचन्द्रानना के मुख से कहलवाई है और सुनने वाले थे हमारे ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा, विष्णु, महेश। इस कथानक से तो यह स्पष्ट होता है कि हर ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी अलग-अलग होते हैं। परन्तु पृथ्वी पर भगवान को आने के लिए हमारे ही ग्रह-नक्षत्रों को माध्यम बनाना पड़ा। ऐसा नहीं है कि ग्रहों ने अवतारों को जन्म दिया हो, परन्तु ऋषि पाराशर कहते हैं कि ग्रहों से कहीं कोटि-कोटि महान भगवान अवतार धारण करने के लिए अपने अंश को ग्रहों के माध्यम से पृथ्वी पर भेज देते हैं। ऋषि पाराशर कहते हैं कि सूर्य से भगवान राम का अवतार हुआ, चन्द्रमा से कृष्ण, मंगल से नृसिंह का, बुध से बुध का, बृहस्पति से वामन का, शुक्र से परशुराम का, शनि का कूर्म का, राहु से वराह का और केतु से मीन का अवतार हुआ है। जितने भी और अवतार हुए हैं वे सब ग्रहों से ही अवतीर्ण हुए हैं। ऋषि कहते हैं कि अपने-अपने कार्य को सम्पन्न करके ये सभी अवतार निश्चित समय अवधि में अपने-अपने कर्मों को भोग कर उन्हीं ग्रहों में लीन हो जाते हैं। जब प्रलय या महाप्रलय होती है तो ये सभी ग्रह नक्षत्र इत्यादि उस परम परमात्मा में ही विलिन हो जाते हैं।

पाराशर जी का उपदेश है कि परमात्मांश को बढ़ाने के लिए तीनों कालों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ज्योतिषियों को उचित कर्म करने चाहिए, जिसके कारण कि वे घटनाओं को देख सकें। पिछले जन्म की घटनाओं को तो देख ही सकें, वर्तमान और भविष्य के बारे में भी ज्ञान कर सकें।

 

गीता में भगवान कृष्ण ने उपदेश दिया है कि व्यक्ति जिन-जिन की भी उपासना करता है, अपने उन्हीं आराध्य को प्राप्त करता है। अगर क्षुद्र देवताओं की उपासना करता है तो उन्हीं को प्राप्त होता है और वे सभी कर्म उसके संचित कर्म के रूप में प्रतिफलित होते हैं।

मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन्गर्भ दध्याम्यहम्।

सम्भ्वः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।

तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।

वे घोषणा करते हैं कि प्रकृति मेरी ही योनि है और मैं उसमें गर्भ रखता हूँ और उसी से समस्त भूत उत्पन्न होते हैं। हे अर्जुन! सब योनियों में जो जन्म होते  हैं उनकी योनि महत् ब्रह्म है और मैं पिता के रूप में उसका बीज हूँ।

जब सतगुण प्रधान होता है तो मृत्यु के पश्चात देवता इत्यादि के लोक को प्राप्त होता हैं। रजोगुण की प्रधानता में यदि मृत्यु हो तो जिन कर्मों में वह आसक्त होता है, उन योनियों में जन्म लेता है। यदि जीवन में तमोगुण प्रधानता में मृत्यु हो तो वह मूढ़ योनियों में उत्पन्न होता है। सात्विक पुरुष उत्तम लोकों में, राजसी पुरुष मध्यम लोकों में और तामसी पुरुष अधोलोकों में जन्म लेते हैं।

भगवान तो यहाँ तक कहते हैं कि जो अन्त समय तक मुझे भजता रहता है, मेरा स्मरण करता है, वह मुझको ही प्राप्त होता है। भगवान कृष्ण ने सभी देवी-देवताओं को सत्य बताया है, परन्तु वे स्वयं इन सभी से परे हैं और वे सभी उन्हीं में व्याप्त हो जाते हैं।

अवतार साधरण तौर से पृथ्वी पर नहीं आते हैं। भगवान कृष्ण का तो यह कहना है कि जब-जब पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है, तब-तब वे धर्म की स्थापना और अन्याय के प्रतिकार के लिए अवतार जन्म लेते हैं। परन्तु ऐसे बहुत सारे उदाहरण है, जब देवताओं को किसी न किसी मजबूरी में या शाप के कारण पृथ्वी पर आना पड़ा। कामदेव, नारद, देवकी, वसुदेव, हनुमान व कई अप्सराएं इसके अच्छे उदाहरण हैं।

 

 

 

 

शुभ स्ति्रयों के लक्षण

सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे वराहमिहिर। महान गणितज्ञ। उन्होंने स्ति्रयों के लक्षणों को लेकर अपने ग्रन्थ बृहत्संहिता में वर्णन किया है। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

1. जिन स्ति्रयों का मन दयालु हो, उनमें छल-छद्म ना हो, कोयल के समान स्वर हो या हँस के समान जिनकी ध्वनि हो उनकी नाक दोनों तरफ से समान हों और सुन्दर हो तथा जिनकी आँखें नील कमल के समान हो तो उन्हें बहुत शुभ माना गया है।

2. जिन स्ति्रयों की दोनों भौंहें अलग-अलग हों, मिली हुई नहीं हों, पतली हों, छोटी हों, तिर्यक हों तो उसे शुभ माना गया है।

3. जिनका मस्तक आधे चन्द्रमा की तरह हो, उस पर रोम नहीं हो और सम आकृति हो तो ऐसी स्त्री को अत्यंत शुभ माना गया है।

4. जिस स्त्री के दोनों कान माँसल हों, कोमल हों, बिल्कुल एक जैसे हों तथा जिनके बाल चिकने हों, कृष्ण वर्ण के हों, कोमल हों, टेढ़े हों तथा एक रोमकूप से एक ही बाल निकला हुआ हो तो उसे बड़ा शुभ माना गया है।

5. अंगुलियाँ पतली हों, लम्बी हों, करतल गहरा हो और बहुत ऊँचा नहीं हो, सारी रेखाएँ स्पष्ट हों, तो वे स्ति्रयाँ अत्यंत शुभ और सुख भोगने वाली मानी गयी हैं।

6. जिस स्त्री के हाथ में मणिबन्ध से लेकर शनि पर्वत तक स्पष्ट रेखा गई हुए हो तो वे राज्य भोगती हैं और भाग्यशाली होती हैं।

7. स्ति्रयों के हाथ कोमल और माँसल हों तो उन्हें शुभ माना गया है।

8. छोटी गर्दन अच्छी नहीं मानी गई है, बहुत लम्बी गर्दन भी अच्छी नहीं मानी गयी है। चौड़ी और ऊँची गर्दन क्रोध उत्पन्न करती है। कंजी (कायरी) आँख को भी अच्छा नहीं माना गया है। आँखों के वर्ण आमतौर से अच्छे नहीं माने गये हैं।

9.स्त्री का ललाट लम्बा हो तो देवर के लिए अशुभ है, पेट लम्बा हो तो ससुर के लिए अशुभ है, कूल्हे लम्बे हों तो पति के लिए अशुभ है, कान छोटे-बड़े हों तो कलह कारक हैं। मोटे और विषम दाँत भी शुभ नहीं हैं।

10. मसूड़े काले रंग के हों तो चोर बनाते हैं। यदि हथेली में हिंसक जीवों के चिह्न मिल जायें तो सुख और धन नष्ट कर देते हैं। ऊपर का होठ ऊँचा हो तो लडाकू बनाते हैं। पैरों की अंगुलियाँ भी समान हों और अंगूठे से कनिष्ठा तक लम्बाई में घटते हुए क्रम में हों तो उन्हें अत्यन्त शुभ माना गया है।

11. कुछ शुभ चिह्न पहचाने गये हैं। हथेली में जौ, पर्वत, ध्वजा, तोरण, मछली, त्रिकोण, पंखा, शंख, छाता, कमल, हाथी, घोड़ा, रथ, नारियल, बाण, माला, कुण्डल जैसे चिह्न स्ति्रयों को सुख और भोग दिलाते हैं।

12. यदि पैरों के तलवे में पसीना नहीं आए, कोमल हों तथा मछली, अंकुश, कमल, जौ, वज्र, हल और तलवार के निशान हो तो बहुत शुभ माना गया है।

 

हीरा

हीरा किसी भी वस्तु से नहीं टूटता है। अत्यंत कठोर होता है, उसका घनत्व बहुत अधिक होता है और सूर्य किरणों को पूरी तरह परावर्तित कर देता है। अन्य रत्न सूर्य किरणों को थोड़ा बहुत सोख लेते हैं परन्तु हीरा नहीं सोखता। साधारण जल में भी तैरता है, निर्बल होता है तथा यदि बिजली, अग्नि अथवा इन्द्र धनुष के समान वर्ण हो तो अत्यंत शुभ फल प्रदान करता है।

हीरा रत्न के देवता-

6 कोण वाले सफेद हीरे के देवता इन्द्र होते हैं। सर्प जैसा मुख हो तो ऐसे काले हीरे के देवता यम होते हैं। नीले-पीले वर्ण वाले हीरे के देवता विष्णु कहे गये हैं, बल्कि ज्यादातर हीरों के देवता विष्णु ही माने गये हैं। स्त्री की योनि के आकार के हीरे के देवता वरुण माने गये हैं। कनेर पुष्प के जैसी आभा हो, या सिंघाड़े की तरह तिकोने हों या शेर के नेत्र जैसे हीरे हों तो उनके देवता अग्नि, अशोक पुष्प जैसी आभा हो या जौ जैसी आकृति हो तो उन हीरों के देवता वायु होते हैं।

क्षत्रियों के लिए लाल व पीला वर्ण का हीरा, ब्राह्मणों के लिए सफेद रंग का हीरा, वैश्यों के लिए शिरीष के फूल जैसे रंग का हीरा तथा अन्य सभी के लिए नीला हीरा शुभ माना गया है।

कौन से हीरे अशुभ हैं-

कौए के पैर जैसे, यदि हीरे में मक्खी के जैसा निशान हो, हीरे में बाल जैसी रेखा हो, उसमें धातुएँ हों, कंकड़ से युक्त हों या छिद्र हों, अधिक कोण हो जाएं, आग से जल जाये, उसकी आभा समाप्त हो जाए, घिसा-पिटा हो तो ऐसा हीरा शुभ नहीं माना जाता। यदि सामने की तरफ से जल का बुलबुला फट जाए, ऐसा हो, चपटा हो तो हीरे को अच्छा नहीं माना जा सकता।

शुक्राचार्य कहते हैं कि पुत्र की कामना करने वाली नारी को हीरा धारण करना नहीं चाहिए। पुत्र जन्म के बाद धारण कर सकते हैं। परन्तु पुत्र की कामना करने वाली स्ति्रयाँ कुछ विशेष श्रेणी के हीरे धारण कर सकती हैं, जिनमें तीन पुटों वाला या धान के समान आकृति वाला हीरा ठीक माना गया है, यदपि इस बात का समर्थन कई विद्वान नहीं करते।

अशुभ हीरा धारण करने से राजकोप का भय होता है, धन हानि होती है और मृत्यु भय भी हो सकता है परन्तु शुभ हीरा धारण किया जाये तो सभी प्रकार के दुःख कम होते हैं और सुखों में वृद्धि होती है।

 

मुहूर्त में सूर्य, चंद्र नक्षत्र

सूर्य सिद्धान्त में कहा गया है कि समय (काल) दो प्रकार का होता है। एक तो वह जो प्रलय कालिक, संसार का अंत करने वाला है और दूसरा काल व्यवहार में गणना के उपभोग में आता है। जो गणनात्मक काल है, वही कलनात्मक है। अर्थात् जहाँ कला मात्र की भी गणना की जाती है। यह कलनात्मक काल भी दो प्रकार का होता है। एक स्थूल (मूर्त) और दूसरा सूक्ष्म (अमूर्त)। स्थूल काल व्यवहार में गिनने के लिए उपयुक्त है और सूक्ष्म काल गणना के लिए अनुपयुक्त है।

जैसे प्राण (श्वास) आदि से निश्चित होने वाला मूर्त काल है। अर्थात् एक स्वस्थ पुरुष की एक श्वास-उच्छवास क्रिया में जो समय लगता है उसे प्राण या असु कहते हैं और त्रुट्यादि अमूर्त काल है। एक सुई से कमलपत्र को भेदने में जो समय लगता है, उसे त्रुटि कहते हैं। 60 त्रुटि का एक रेणु, 60 रेणु का एक लव, 60 लव का एक लेशक, 60 लेशक का एक प्राण और 60 प्राण का एक पल, 60 पल का एक घटि तथा 60 घटि का एक नक्षत्र दिन होता है। एक दिन के भी दो भाग होते हैं-एक दिन और एक रात्रि। दिन व रात्रि के मुख्य आधार सूर्यदेव ही हैं। सूर्य की स्थिति भेद से ही दिन व रात्रि का नियमन होता है। सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन और सूर्यास्त से अगले सूर्योदय तक  रात्रि का मान होता है।

चूंकि चंद्र कलाएं सूर्य पर ही आधारित होती है। चंद्र कलाओं से ही तिथियां बनती हैं। सूर्य और चंद्र जब एक ही राशि में एक ही अंश पर होते हैं तो अमावस्या होती है तथा जैसे-जैसे सूर्य व चंद्रमा की दूरी बढ़ती है, वैसे ही तिथियां बढ़ती हैं। सूर्य से चंद्र की दूरी जब 120 तक होती है तब एक तिथि पूरी होती है। दोनों के मध्य जब अन्तर 1800 का होता है तो पूर्णिमा होती है। एक मास में एक अमावस्या और एक पूर्णिमा होती है। बारह सौर-चान्द्र-नक्षत्र मासों से एक वर्ष बनता है। जो भारतीय संवत् कहलाता है।

किसी भी मुहूर्त को निश्चित करने में पचाङ्ग शुद्धि आवश्यक होती है। मुहूर्त से तात्पर्य है किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने हेतु निश्चित किया गया समय अथवा कार्य का आरम्भ। व्यवहार में तो आज भी किसी शुभ कार्य का प्रारम्भ, मुहूर्त करना कहा जाता है। जैसे कोई पूछता भी है तो यही कि आप दुकान का मुहूर्त कब कर रहे हैं। अशुभ कार्यों के लिए निश्चित समय को मुहूर्त कहना उचित नहीं। केवल शुभ और मांगलिक, विजय प्रदाता कार्यों का शुभ समय, जो उन कार्यों की वृद्धि करे और सफलता मिले के लिए ही निश्चित किया जाता है। मुहूर्त का मूल आधार पंचाङ्ग होता है। पंचाङ्ग अर्थात् तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण। इन पांचों ही अंगों के निर्धारण में सूर्य देव ही सर्व प्रमुख हैं। क्योंकि तिथि, सूर्य से चंद्र की अंशात्मक दूरी से निर्धारित होती है। तिथियां सोलह होती हैं। ये ही चंद्रमा की सोलह कलाएं हैं अर्थात् सोलह स्थितियां हैं जो हमें दृश्य होती हैं।

वार के निर्णय में भी सूर्य की ही प्रधानता है क्योंकि भारतीय संस्कृति में वार का प्रारम्भ यानि परिवर्तन सूर्योदय से ही होता है अर्थात् एक सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक एक ही वार माना जाता है, जिसके दिन में सूर्य अधिष्ठाता होते हैं और रात्रि में चंद्रमा।

नक्षत्रः आकाश मण्डल में 27 नक्षत्र हैं। जिस नक्षत्र पर चंद्रमा होते हैं, वर्तमान दिन का भी वही नक्षत्र होता है।

सूर्य और चंद्र के भोगाांशों से ही योगों का निर्धारण होता है। इन योगों का यथा नाम तथा गुण होता है। कुछ शुभ हैं तो कुछ अशुभ। इस शुभाशुभ का कारण ही सूर्य ही हैं। जैसा कि हम जानते हैं चंद्रमा, सूर्य प्रदत्त प्रकाश से ही चमकते हैं। चंद्रमा जब सूर्य से किसी स्थिति विशेष पर होते हैं तो विषेली गैसों को अवशोषित करते हैं, जिससे चंद्रमा की शक्तियों में कुछ विकार आ जाते हैं, जो व्यक्ति के मन को प्रभावित करते हैं। इन्हीं कुप्रभावों का नाम दुर्योग हैं जो आठ प्रमुख होते हैं। वे क्रमशः वज्र-व्याघात-शूल-व्यतिपात-अतिगण्ड, विष्कुंभ-गण्ड और परिघ होते हैं।

इसी प्रकार करण होते हैं। करण एक तिथि में 2 होते हैं। तिथि चूंकि घटती-बढ़ती (मान) रहती है। इसलिए तिथि का जो मान होता है, उसका आधा मान एक करण का होता है।

इसलिए यह कहा जा सकता है कि मुहूर्त के नियन्ता सूर्य और चंद्र ही हैं। इनके अतिरिक्त अन्य किसी भी ग्रह से मुहूर्त शुद्ध गणना नहीं की जा सकती। मुहूर्त के विषय में सूर्य जहाँ धुरी बनते हैं, वहीं चंद्रमा उनकी इकाई बनते हैं। मुहूर्त का ऐसा कोई भाग नहीं, जहां सूर्य की उपादेयता में कुछ कमी आई हो।

किसी भी कार्य की शुरुआत में दिशाओं का भी अपना वैशिष्टय है। दिशाओं का ज्ञान मूर्त रूप से शुद्ध सूर्य के माध्यम से ही होता है।

हमारे शुभ मांगलिक कार्यों के करने या न करने में उत्तरायण व दक्षिणायन का बहुत फर्क पड़ता है। दक्षिणायन में शुभ मांगलिक कार्यों को करना या आरम्भ करना ठीक नहीं बतलाया। महाभारत में तो उल्लेख मिलता है कि इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त पितामह भीष्म ने अपने प्राण त्याग करने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की थी। सूर्य का झुकाव-उत्तर से दक्षिण तथा दक्षिण से उत्तर होता है। यहां पथ से तात्पर्य उनकी राशियों में स्थिति से हैं।

पृथ्वी को भूमध्य रेखा दो भागों में बांटती है। एक उत्तरी गोल, दूसरा दक्षिण गोल। उत्तरी गोल के सर्वोच्च बिन्दु को उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी गोल के अधः बिन्दु को दक्षिण ध्रुव कहते हैं।

मुहूर्त भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व की सम्पूर्ण संस्कृतियों में किसी न किसी रुप में व्याप्त हैं। पृथक-पृथक स्थानों पर विविध रुप में मुहूर्त की मान्यताऐं हैं। जिनका आधार दिन-रात्रि, प्रातः-मध्यान्ह-सायं या मन की प्रसन्नता रही है। जिनमें निहित आधार सूर्य और मन के राजा चंद्रमा ही है। सामान्यतया तो कहा जाता है कि जब मन को अच्छा लगे या मन प्रसन्न होवे वह सर्वश्रेष्ठ समय होता है। व्यक्ति की प्रसन्नता  या अप्रसन्नता सूर्य पर और ग्रह नक्षत्रों पर आश्रित होती है। ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि ग्रह नक्षत्र प्रतिकूल हों और व्यक्ति प्रसन्न रहे। अन्य ग्रह  समयानुसार अपनी स्थिति में परिवर्तन करते हैं और विविध गतियों का अनुसरण करते हैं। परन्तु सूर्य और चंद्र सदा अपने पथ का मार्गी होकर ही अनुसरण करते हैं। इसलिये मुहूर्त के मुख्य आधार सूर्य व चंद्र ही हैं।

चंद्र प्रतिदिन अपनी स्थिति में परिवर्तन नक्षत्रों का भोग करते हुये करते हैं। जिससे किसी व्यक्ति को आज प्रतिकूल हैं तो अगले दिन अनुकूल हो जाते हैं। इसी प्रकार सूर्य भी 13 से 17 दिनों में अपनी स्थिति में परिवर्तन कर लेते हैं। सूर्य चूंकि काल के निर्णायक हैं इसलिये इनको आधार मानकर मुहूर्त सम्बन्धि गणनाऐं की जाती हैं। अन्य ग्रहों की स्थिति सूर्य के सापेक्ष देखी जाती है। अधिकांश  मुहूर्तों में सूर्य नक्षत्र  को आधार मानकर ही वर्तमान नक्षत्र (चंद्र नक्षत्र) व राशि का शोधन किया जाता है। सूर्योदय से चूंकि दिन का प्रारम्भ होता है और सूर्यास्त तक सूर्य प्रत्यक्ष होते हैं इसलिये अधिकांश शुभ कार्यों को दिन में विशेषतः चढते दिन में करने की ही मान्यता है।