शुक्र कम नहीं है बृहस्पति से

पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

असुरों के गुरु शुक्रचार्य को कम मत समझिये। देवगुरु बृहस्पति से बराबर टक्कर थी उनकी। महर्षि भृगु के पुत्र थे, शुक्राचार्य। दक्ष कन्या ख्याति से उनका विवाह हुआ था। कुछ लोग मानते हैं कि वे हिरण्यकश्यपु की पुत्री दिव्या से उत्पन्न हुए थे। उन्हें ज्योतिष के प्रथम 18 आचार्यों में माना गया है तथा उनका नीतिशास्त्र प्रसिद्ध है।

शुक्र कन्या देवयानी -

पौराणिक किस्सों में देवयानी का किस्सा अति प्रसिद्ध है। असुरों के राजा वृषपर्वा की पुत्री सर्मिष्ठा और शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी सखियाँ थीं। दोनों ही सुन्दर। एक बार ये दोनों सखियाँ तालाब में स्नान कर रही थीं। भगवान शंकर और पार्वती वहाँ से निकले। शर्म के मारे दोनों सखियाँ दौड़ कर बाहर आई और अपने-अपने कपड़े पहनने लगीं। राजपुत्री सर्मिष्ठा से गलती से ऋषि पुत्री देवयानी के कपड़े पहन लिये। इस पर देवयानी कुपित हो गई और असुर कन्या सर्मिष्ठा से बोली कि तूने ब्राह्मण कन्या का वस्त्र कैसे पहन लिया। अपमानित सर्मिष्ठा ने देवयानी को पास के ही एक कुएँ में धकेल दिया। संयोग से थोड़ी देर पश्चात् शिकार से लौटते हुए राजा ययाति ने कुएँ में हलचल होने पर कुएँ में झाँक कर देवयानी को उस अवस्था में देखा। राजा ययाति ने अपने वस्त्र देवयानी को दिये और कुएँ से बाहर निकाल लिया। देवयानी ने ययाति से कहा कि आपने मेरा हाथ पकड़ा है अतः मैं आपको पति रूप में स्वीकार करती हूँ। देवयानी को शाप भी था कि वह ब्राह्मण कुमार के साथ विवाह नहीं कर सकती थी। बाद में इस किस्से को सुनकर शुक्राचार्य क्रोधित हुए और सम्राट वृषपर्वा से यह शर्त रखी कि आपकी पुत्री सर्मिष्ठा को मैं अपनी पुत्री देवयानी की दासी के रूप में देखना चाहता हूँ। इस प्रकार राजा ययाति की पत्नी तो शुक्राचार्य पुत्री देवयानी हुई और असुर सम्राट की पुत्री सर्मिष्ठा उसकी दासी हुई।

काफी बाद में पता चला कि सम्राट ययाति के दासी से भी सम्बन्ध हो गये हैं। इस प्रकार देवयानी से दो पुत्र और सर्मिष्टा से तीन पुत्र हुए। शुक्राचार्य ने ययाति को वृद्ध हो जाने का शाप दे दिया। ययाति को भोग की अभी इच्छा शेष थी इसलिए उसने अपने पुत्रों से यौवन प्रदान करने की याचना की। केवल एक पुत्र जो कि दासी सर्मिष्ठा का पुत्र था उसने यह बात मानी। घटनाक्रम इस प्रकार चला कि बाद में ययाति के वृद्ध होने पर पुरू को ही उत्तराधिकार मिला जो कि दासी पुत्र था।

शुक्राचार्य को मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त थी। मरे हुए असुरों को जिन्दा कर देते थे। इस विद्या को लेने के लिए प्रत्येक व्यक्ति इच्छुक था। इसी विद्या से भगवान शिव ने गणेश जी को पुनः जीवित कर दिया था। शुक्राचार्य ने शंकर की आराधना से यह विद्या प्राप्त की थी। बाद में शिवजी को इस बात पर क्रोध रहता था कि शुक्राचार्य उसका अनुचित प्रयोग करने लगे। भगवान शिव ने शुक्राचार्य को पकड़ कर निगल लिया। शिव जी की देह में विचलित शुक्राचार्य को बाहर निकालने के लिए कोई मार्ग ना मिला और वो मूत्रद्वार से ही बाहर आ पाए। इस घटना के बाद शुक्राचार्य भगवान शिव के पुत्र के समान हुए तथा उनका सम्बन्ध काम से जोड़ा गया।

एक अन्य किस्सा बहुत प्रसिद्ध है। वामन अवतार भगवान विष्णु को दानव राज बालि से तीन पग भूमि देने का वचन लेते देख शुक्राचार्य को चिन्ता हुई। वे पहचान गये थे कि यह भगवान विष्णु के ही अवतार हैं और उनके शिष्य राजा बालि को वह सब बातों से वंचित कर देंगे। बालि संकल्प ना ले सकें इस लिये वे गंगासागर या कमण्डल की टोंटी (नलिका) में घुस गये। सूक्ष्म रूप से प्रविष्ट शुक्राचार्य की एक आँख तब खराब हो गई जब बालि ने तीली से कमण्डल की नली को कुरेदने की कोशिश की। इसीलिए आज भी मजाक में उस व्यक्ति को शुक्राचार्य कह दिया जाता है जिसके एक आँख विकृत हो गई हो।

देवगुरु बृहस्पति ने भी अपने पुत्र कच को मृत संजीविनी विद्या सीखने के लिए शुक्राचार्य के पास भेजा था। शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी का मन कच पर आ गया था, परन्तु कच ने गुरु पुत्री से विवाह के लिए इन्कार कर दिया। इस पर कच ने शाप दे दिया था कि तुम्हारा विवाह कभी किसी ब्राह्मण कुमार से नहीं होगा। शुक्राचार्य ने राक्षसों के विरोध के बाद भी कच को मृत संजीविनी विद्या सिखाई थी। राक्षसों ने कच को मार भी दिया था परन्तु शुक्राचार्य ने उसे पुनः जीवित कर दिया। बात इतनी बढ़ी कि एक बार राक्षसों ने फिर कच को मारकर शुक्राचार्य को ही खिला दिया। तब शुक्राचार्य ने अपने पेट में स्थित कच को ही मृत संजीवनी विद्या सिखाई और जब शुक्राचार्य का पेट फाड़कर कच को बाहर निकाला गया तो मृत गुरु शुक्राचार्य को शिष्ट कच ने ही मृत संजीवनी विद्या से जीवित किया। परन्तु देवयानी ने यह शाप दे दिया था कि यदि तुमने यह विद्या किसी को सिखाई तो तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी। बाद में ऐसा ही हुआ। कच ने जैसे ही यह विद्या अपने पिता बृहस्पति को सिखाई उसकी मृत्यु हो गई।

शुक्राचार्य शिव भक्त हैं और असुरों को भी शिव भक्ति की प्रेरणा देते रहे हैं। कई बार ऐसा हुआ कि शुक्राचार्य की विद्याओं से सम्पन्न असुर देवराज इन्द्र को पराजित करने में सफल रहे। उन्होंने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। स्वर्ग पर आधिपत्य के लिए हमेशा युद्ध होते रहे हैं। जहाँ बृहस्पति देवताओं को यज्ञ भाग द्वारा पुष्ट करवाते थे, वहीं शुक्र मायावी विद्याओं के भी जानकार थे। शुक्र इतने महत्त्वपूर्ण हो गये कि उन्हें भी बृहस्पति के समान ही ब्रह्मा की सभा में बैठने का और यज्ञ भाग प्राप्त करने का अधिकार मिला। वे स्वयं बहुत पवित्र हैं। ब्राह्मण हैं, शिक्षक हैं। केवल बृहस्पति से ईर्ष्यावश उन्होंने असुरों का गुरु बनना स्वीकार किया। बृहस्पति और शुक्र महर्षि अंगिरस के शिष्य थे। शुक्राचार्य को लगा कि गुरु अंगिरस बृहस्पति का पक्ष ज्यादा लेते हैं। ऐसा होने पर वे क्रोधित हो गये और विद्वान हो जाने के बाद उन्होंने असुरों का गुरु पद स्वीकार कर लिया।

ज्योतिष में शुक्र ग्रह का समीकरण शुक्राचार्य से किया जाता है। वे रसों, मंत्रों और कुछ औषधियों के स्वामी हैं। उनका काम से भी सम्बन्ध हैं। शुक्र वर्षा रोकने वाले ग्रहों को शांत रखते हैं, जिससे पृथ्वी पर जीव भरण पोषण पाते हैं। शुक्र को भगवान शिव ने लोक-परलोक की सभी सम्पत्तियों का स्वामी होने का वरदान दिया था। केवल एक बार उन्हें दण्ड मिला जब कुबेर से छल करके देवताओं का धन उन्होंने लूट लिया था तथा मृत संजीविनी विद्या का दुरुपयोग कर रहे थे, तब भगवान ने उन्हें निगल लिया था।

अगले सप्ताह हम उन शक्तिशाली योगों की चर्चा करेंगे, जो चन्द्र गुरु से बनने वाले गज केसरी योग जितने शक्तिशाली हैं।

 

तिथि और नक्षत्र के देवता उपासना फल

पं. वेद प्रकाश शर्मा

                भविष्य पुराण के ब्रह्मपूर्व के अध्याय 102 में शतानिक नामक राजा के द्वारा सुमन्तु मुनि से संवाद में बताया गया है कि मनुष्य तिथि के दिन उस तिथि के देवता की उपासना करे व नक्षत्र के दिन नक्षत्र के देवता की उपासना करके इस लोक में सुखी जीवन यापन कर सकता है। सुमन्तु मुनि ने बताया कि ब्रह्मा जी कहा है जो मनुष्य कमल के मध्य में स्थित तिथियों के स्वामी देवता को व नक्षत्र के स्वामी देवता की मूल मंत्र, नाम- संकीर्तन और अंश मंत्रों से विविध उपचारों से भक्ति पूर्वक यथा विधि पूजा तथा जप होमादि कार्य करने से मनुष्य इस लोक में और परलोक में सदा सुखी रहता है।

                तिथि के स्वामी उनकी उपासना का फल निम्न प्रकार हैः-

प्रतिपदा - तिथि का देवता अग्नि देव है। अग्नि में घी की आहुति अग्निदेव के मंत्र से देने से अग्रिदेव प्रसन्न होते हैं।

द्वितीया - तिथि का देवता ब्रह्माजी हैं ब्रह्मा जी की पूजा कर ब्रह्मचारी ब्राह्मण को भोजन करावें तो मनुष्य विद्या में पारंगत होता है।

तृतीया - तिथि का देवता कुबेर है। कुबेर का पूजन करने से व्यक्ति धनवान बनता है। व्यापार लाभ होता है।

चतुर्थी -  तिथि का देवता गणेश है। गणेश जी के पूजन से सभी विघनों का नाश होता है।

पंचमी - तिथि का देवता नागराज है। जो इस दिन नागराज का पूजन करता है उसे विष का भय नहीं रहता स्त्री व पुत्र लाभ प्राप्त होता है।

षष्ठी - तिथि का देवता कार्तिकेय है। इस दिन कार्तिकेय का पूजन करने से श्रेष्ठ, मेधावी, रूपसम्पन्न, दीर्घायु व यश की वृद्घि होती है।

सप्तमी - तिथि का देवता सूर्य भगवान है। इस दिन सूर्य भगवान (चित्रभानु) की उपासना करने से सभी प्रकार का सुख, मान, सम्मान प्राप्त होता है।

अष्टमी - तिथि का स्वामी देव रूद्र देव है। इस दिन वृषभ से सुशोभित भगवान शिव की पूजा करने से ज्ञान व कीर्ति की वृद्घि होती है तथा अकाल मृत्यु नहीं होती। व्यक्ति बन्धनों से मुक्त हो जाता है व विजय प्राप्त होती है।

नवमी - तिथि की देवी दुर्गा जी हैं। इस दिन दुर्गाजी  की उपासना करनी चाहिये। जो कि विजय का प्रतीक है।

दशमी - तिथि का देवता यमराज है। इस दिन यमराज की उपासना करने से रोग से मुक्ति मिलती है अकाल मृत्यु नहीं होती है। नरक में मृत्युपरान्त नहीं जाना पडता है।

एकादशी - तिथि का देवता विश्वदेव है। इस दिन विश्वदेव की उपासना से धन-धान्य व सम्पत्ति की प्राप्ति होती है।

द्वादशी - तिथि के देवता भगवान विष्णु हैं। इस दिन विष्णु की पूजा करने से विजय व लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

त्रयोदशी - तिथि के देवता कामदेव हैं इस दिन कामदेव की उपासना करने से सुन्दर जीवन साथी मिलता है।

चतुर्दशी - तिथि के देवता भगवान शंकर हैं। इस दिन भगवान शंकर की उपासना करने से पुत्र व धन प्राप्त होता है।

पूर्णिमा - तिथि का देवता चन्द्रमा है इस दिन चन्द्र देवता की पूजा करने से व्यक्ति सबका प्रिय हो जाता है।

अमावस्या - का देवता पितर है। इस दिन पितरों की पूजा करने व भोग देने, ब्राह्मण-ब्राह्मणी को वस्त्र व भोजन देने से धन की रक्षा होती है। पैतृक सम्पत्ति में बढोत्तरी होती है। बल, शक्ति व आयु की वृद्घि होती है।

 

त्रिपुष्कर तथा द्विपुष्कर योग

अमिताभ त्रिपाठी

ज्योतिष शास्त्र के स्कंधत्रय में से होरा एवं संहिता में योगों का विशेष महत्व है। मुहूर्त प्रकरण संहिता खण्ड में अन्तर्गत आता है। मुहूर्त प्रकरण में अनेक योगों का वर्णन किया गया है। विशेष तिथि, वार एवं नक्षत्रों के संयोग से बनने वाले त्रिपुष्कर योग तथा द्विपुष्कर योग जिनका नाम के अनुसार ही फल होता है, इनके बारे में मुहूर्त चिन्तामणि तथा मुहूर्तगणपति में चर्चा की गई है।

                दैवज्ञ अनन्त के पुत्र श्री राम आचार्य द्वारा रचित मुहूर्त चिन्तामणि ग्रन्थ के नक्षत्र प्रकरण के श£ोक संख्या 50 में कहा है :-

भद्रा तिथो रविजभूतनयार्कवारे द्वीशार्यमाजचरणा-दितिवह्निवैश्वे।

त्रैपुष्करो भवति मृत्युविनाशवृद्घौ त्रैगुष्यदो द्विगुणकृद्वसुतक्षचान्द्रे॥

भद्रा तिथि अर्थात् द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी, शनि, मंगल और रविवार तथा विशाखा, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाभाद्रपद, पुनर्वसु, कृत्तिका और उत्तराषाढ़ नक्षत्र इन तीनों के परस्पर मिलने से त्रिपुष्कर योग होता है। यह मृत्यु विनाश और वृद्घि में तिगुना फल करता है।

भद्रा तिथि, शनि, रवि और मंगलवार तथा मृगशिरा, चित्रा, धनिष्ठा नक्षत्र के संयोग से द्विपुष्कर योग होता है जो मृत्यु, विनाश, वृद्घि में द्विगुणित फल देता है।

तिथि                     वार                        नक्षत्र

द्वितीया  रविवार                 कृत्तिका, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी

सप्तमी                     मंगलवार                विशाखा, उत्तराषाढा

द्वादशी                    शनिवार                 पूर्वाभाद्रपद (सूर्य के तीन तथा गुरु के तीन नक्षत्र )

उपरोक्त कालांगों के मिलने से 54 प्रकार से त्रिपुष्कर योग बनते हैं। त्रिपुष्कर योग में शुभ अथवा अशुभ कार्य हो तो वह कुल तीन बार होता है। जैसे किसी की मृत्यु, दुर्घटना, चोरी आदि हो तो दो अन्य व्यक्तियों की मृत्यु। दुर्घटना चोरी आदि दो बार और होती है। यदि इस योग में कोई विशिष्ट कारण से धन लाभ हो तो दो बार और धन प्राप्ति होती है। मकान खरीदनें, गहने बनवाने या लाटरी आदि में धन प्राप्ति हो तो इसकी पुनरावृत्ति दो बार और होती है। शुभ कार्यों के लिये त्रिपुष्कर योग का चयन किया जा सकता है। त्रिपुष्कर को ही त्रैपुष्कर कहा गया है :-

तिथि                      वार                         नक्षत्र

द्वितीया  रविवार                  मृगशिरा

सप्तमी                     मंगलवार                चित्रा

द्वादशी                    शनिवार                 धनिष्ठा (मंगल के तीन नक्षत्र)

उपरोक्त तीनों कालांगों के मिलने से 27 प्रकार से द्विपुष्कर योग बनता है। द्विपुष्कर योग को ही यमल योग कहते हैं।

दैवज्ञ गणपति ने अपने ग्रन्थ मुहूर्तगणपति के शुभाशुभ प्रकरण के श£ोक संख्या 69 में कहा है -

भ्रद्ररतिथों शनीज्याखारे चेद् विषमाङ्ध्रिभम्।

तदा त्रिपुष्करो योगो यमलो युग्मपादभे॥

भद्रातिथि (2,7,12) में शनि, गुरु, भौमवार हो एवं विषमाङ्ध्रि नक्षत्र (जिन नक्षत्रों का एक या तीन चरण किसी राशि में सम्मिलित होते हैं) हो तो त्रिपुष्कर योग होता है तथा समाङ्ध्रि संज्ञक नक्षत्र (जिन नक्षत्रों के दो चरण किसी राशि में सम्मिलित हों) हो तो यमल अर्थात् द्विपुष्कर योग होता है।

यहाँ पर आचार्य का मतभेद है रविवार के स्थान पर गुरुवार लिया गया है। मुहूर्त चिन्तामणि पीयूषधारा में भी-

त्रिपुष्करादावेव मरणे शान्तिः गुरुवारयोगेऽपि त्रिपुष्करयोगश्च

गुरुवार के संयोग से भी त्रिपुष्कर योग बनता है।

कश्यप ऋषि के अनुसार - भद्रातिथि शनीज्यारवारे चेद्विषमांध्रिभम्। त्रिपुष्करं त्रिगुणंद द्विगुणं द्वयंध्रिभे मृतौ।

श्रीपति ने भी कहा है-

विषमचरणं धिष्ण्यं भद्रातिथिर्यदि जायते सुरगुरु-शनिक्ष्मापुत्राणां कथंचन वासरे।

मुनिभिरुदितः सोयं  योगस्ति्रपुष्करसंज्ञितस्ति्रगुणफल दो वृद्घौ नष्टे हृते मृतेपि वा॥

त्रिपुष्कर योग में पुत्तल दाह वर्जित है।

अशुभफलों की शान्ति हेतु त्रिपुष्कर योग में 3 तथा द्विपुष्कर योग में 2 गायों का दान का निर्देश है।

 

 

 

शीर्ष रेखा पर पागलपन के चिह्न

श्रीमती मधु शर्मा

शीर्ष रेखा को मस्तिष्क रेखा भी कहते हैं। भारतीय मत के अनुसार इसे धन रेखा या वैभव रेखा भी कहते हैं। धन और वैभव बुद्धि के द्वारा ही कमाया जाता है। जिसकी बुद्धि कुशाग्र होगी, उसकी आर्थिक स्थिति भी उत्तम होगी, अतः धन रेखा नाम सार्थक प्रतीत होता है। अच्छी रेखा उसी को माना जाता है जिसका रंग-रूप सुन्दर हो, आकार-प्रकार, मार्ग ठीक हो तथा उसमें कोई दोष नहीं हो। इस रेखा से व्यक्ति की बुद्धि का, मस्तिष्क में रुझान व झुकाव का तथा उसकी मानसिक विचारधारा का पता चलता है।

 

इस रेखा का प्रारम्भ प्रायः तीन स्थानों से होना पाया गया है-

1.            गुरु क्षेत्र में ऊपर से

2.            गुरु क्षेत्र के नीचे जीवन रेखा के पास से या जीवन रेखा से मिली हुई।

3.            जीवन रेखा के अंदर मंगल क्षेत्र से

इस प्रकार प्रारम्भ होकर यह कभी सामने वाले मंगल क्षेत्र पर समाप्त होती है, कभी कुछ दूर चलकर नीचे तीनों चन्द्र क्षेत्रों में से किसी क्षेत्र की ओर झुकती हुई समाप्त होती है। कभी-कभी बीच में ही समाप्त होकर छोटी रह जाती है। बहुत कम ऐसा होता है कि यह मंगल क्षेत्र से भी ऊपर हृदय रेखा या उनसे ऊपर के क्षेत्र पर समाप्त हो। कभी-कभी किसी हाथ में दो-दो शीर्ष रेखाएं भी पाई जाती हैं।

यदि शीर्ष रेखा व जीवन रेखा आरम्भ में कुछ दूर-दूर हैं तो अदूरदर्शिता, उतावलापन, जल्दबाजी, असावधानी कुछ अधिक ही मात्रा में होगी। इस कारण जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास, स्वाभिमान, मनमानी करने की प्रवृत्ति, अपनी सामर्थ्य से बड़ा काम बिना सोचे समझे करने से हानि व दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं।

यदि शीर्ष रेखा अंत में दो शाखाओं में विभाजित हो रही हो तो व्यावहारिक बुद्धि अच्छी होती है। यदि दोनों शाखा चन्द्र क्षेत्र पर जा रही हो तो कल्पना की बहुत अधिकता होती है और पागलपन की हद तक सनकीपन हो सकता है।

टूटी हुई शीर्ष रेखा घातक दुर्घटना से सिर में चोट देती है। द्वीप का चिह्न दिमागी दुर्बलता परिलक्षित करता है। कई द्वीप होने पर लम्बी मानसिक बीमारी होती है। लहरदार शीर्ष रेखा पर क्रास सिर में सांघातिक चोट देता है। कई स्थानों पर टूटी शीर्ष रेखा सिर दर्द की शिकायत करती है। शृंखलाकार शीर्ष रेखा सिरदर्द, दिमागी बीमारियां और चित्त की अस्थिरता ही बताती है।

जब शीर्ष रेखा चन्द्रमा में सबसे नीचे के क्षेत्र तक पहुंच जाती है तो प्रायः सभी प्रकार के हाथों में यह दिमाग में अस्वाभाविक व अप्राकृतिक स्थिति को जन्म देती है। ऐसे लोग औसत रूप से स्वस्थ व्यक्ति के रूप में होते हैं, परंतु जब भी कोई गहरा सदमा, शोक या भारी मानसिक दबाव उन पर पड़ता है तो इनके दिमाग का संतुलन बिगड़ने में देर भी नहीं लगती है।

चन्द्रमा के क्षेत्र पर जाने वाली उपरोक्त प्रकार की रेखा के साथ यदि शनि का क्षेत्र भी ज्यादा उभरा हुआ हो तो उदासीनता, निर्लिप्तता और वैराग्य की भावना ज्यादा होती है। ऐसे लोग स्वभाव से ही एकान्तप्रिय, दुःखी, निराशावादी, मनहूस किस्म के होते हैं और उनका स्वभाव ही उदास व दुखी रहने का बन जाता है। यह प्रवृत्ति स्वतः ही बढ़ती रहती है और कोई कारण या घटना भी हो जाये तो उनके दिमाग का संतुलन भी जल्दी बिगड़ जाता है। ऐसी पागलपन या दिमागी अस्थिरता की हालत में यह लोग आत्महत्या भी कर डालते हैं। गृहस्थाश्रम छोड़कर सन्यास ले सकते हैं या पागलपन में कुछ भी कर सकते हैं।

शीर्ष रेखा पर द्वीप चिह्न भी कभी-कभी अस्थायी तौर पर कुछ समय का पागलपन पैदा कर सकता है।

मानसिक रूप से अस्वस्थ, पैदायशी मूर्ख या पागल लोगों का हाथ छोटा होता है। अंगूठा भी छोटा होता है। चन्द्र क्षेत्र पर झुकी शीर्ष रेखा भी होती है। शीर्ष रेखा पर द्वीपों की शृंखला भी होती है।