वेद, वेदांग, उपनिषद और संहिता

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो एडिटर

भारतीय प्राचीन वाङ्गमय में सबसे पहले वेदों का नाम आता है। हम सभी जानते हैं कि चार वेद हैं। पहले एक ही वेद था, फिर बाद में इनका संकलन और वर्गीकरण करके चार वेदों का रूप दिया गया। व्यास जी ने पुराणों को 18 भागों में बाँटा और वर्गीकृत किया। इसीलिए इन्हीं को वेद-व्यास भी कहा जाता है। कहा जाता हैं कि प्रत्येक द्वापर युग में भगवान विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों को प्रकट करते हैं। पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा, दूसरे द्वापर में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य,  चौथे में बृहस्पति, पाँचवें में सूर्य, छठे में मृत्यु, सातवें में इन्द्र, आठवें में धनंजय इत्यादि वेद व्यास हुए। महाभारत काल में कृष्ण द्वैपायन ने वेदों को चार भागों में विभाजित किया। अपने शिष्य गण पैल, जैमिनी, वैशम्पायन और सुमन्त मुनि को एक-एक वेद पढ़ाया और पाँचवे वेद के रूप में पुराणों की रचना की। एक अन्य शिक्षक रोमहर्षण को उन्होंने पुराण पढ़ाया। भागवत कथा से व्यास परम्परा और गुरु परम्परा शुरु हुई। केवल व्यास परम्परा के लोग ही भागवत कथा पढ़ सकते थे। अब तो मथुरा वृन्दावन में नये - नये व्यासों को गढ़ने की फैक्टि्रयाँ चल रही हैं। वेद व्यास का अति महत्त्वपूर्ण कार्य ब्रह्मसूत्र के रूप में आया जिने कि आज वेदान्त के रूप में जाना जाता है।

भारत का राजनीतिक इतिहास और वेदव्यास

महाराज शान्तनु के वंश में नियोग प्रथा से सन्तान उत्पन्न करने के लिए वेदव्यास को बुलाया गया। माता सत्यवती को संन्यास की शर्त के रूप में दिये गये वचन के कारण वेदव्यास को आना पड़ा। इस समय नियोग के समय जिस राजमहिषी ने डर के मारे आँखे बंद कर ली, उससे तो अंधे धृतराष्ट हुए, जो राजमहिषी नियोग के समय भय के मारे पीली पड़ गई, उससे पाण्डु उत्पन्न हुए और दासी से विदुर उत्पन्न हुए। वेदव्यास की कृपा से ही धृतराष्ट्र से कौरवों ने जन्म लिया। भीष्म पितामह और व्यास सौतेले भाई थे।

वेदव्यास और पाराशर का सम्बन्ध -

पाराशर के द्वारा केवट कन्या सत्यवती से गन्धर्व विवाह के फलस्वरूप व्यास या कृष्ण द्वैपायन का जन्म हुआ। वहीं  राजचिह्नों से युक्त सत्यवती का विवाह महाराज शान्तनु से हुआ। पाराशर के पुत्र वेदव्यास हुए। वेदव्यास के प्रमुख शिष्यों में जैमिनी भी थे। जहाँ महर्षि पाराशर स्वयं सांख्य दर्शन के प्रवक्ता थे, भगवान वेदव्यास ब्रह्मसूत्र के प्रवक्ता थे। वहीं जैमिनी ने पूर्व मीमांसा नाम का दर्शन दिया। जैमिनी ऋषि को भगवान कृष्ण के अस्तित्व के बारे में संदेह हो गया था कि वे ईश्वर है या नहीं। इसके निवारण के लिए वे मार्कण्डेय ऋषि के पास गये। मार्कण्डेय ऋषि ने उन्हें महर्षि शमीक के आश्रम में रह रहे चार पक्षियों - पिंगाक्ष, निवोध, सुपुत्र और सुमुख के पास भेजा, जो मनुष्य की बोली भी बोल लेते थे। उन पक्षियों ने महर्षि जैमिनी का भ्रम दूर किया।

भगवान कृष्ण की नकल में तो एक राजा पौण्ड्रक और हुए थे, जिन्होंने नकली चक्र, शंख, तलवार, मोर मुकुट, कौस्तुभ मणि और पीले वस्त्र पहन कर घोषणा कर दी कि वे ही वासुदेव के अवतार हैं। इसका वध भगवान कृष्ण के द्वारा कर दिया गया था। उसी समय यादव कुल के आचार्य थे गर्गाचार्य। गर्गाचार्य ने ज्योतिष और वास्तुशास्त्र की संहिता रचना की। वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थों में कई बार गर्गाचार्य का नाम लिया। ज्योतिष को 6 वेदांगों में श्रेष्ठ माना गया है। अन्य वेदाङ्ग हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द और निरुक्त।

संहिताएँ और ब्राह्मण ग्रन्थ -

वेदों के विश्लेषण के लिए विभिन्न संहिताएँ श्रेष्ठ रचनाएँ मानी जाती है। वास्तव में वेदों के मंत्र वाला जो खण्ड है, वही संहिता है। 4 वेदों की 4 प्रमुख संहिताएँ हैं। ब्राह्मण ग्रन्थ वेदों के अर्थ को समझाने के लिए श्रेष्ठ रचनाएँ हैं। हर वेद पर आधारित कुछ ब्राह्मण ग्रंथ हैं, जैसे कि ऋग्वेद के लिए एतरेय ब्राह्मण व कौषीतकी ब्राह्मण, सामवेद के लिए प्रौढ़, षड़विंश, आर्षेय, मंत्र और जैमिनी ब्राह्मण। यजुर्वेद के लिए शतपथ ब्राह्मण, तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ व कपिष्ठल तथा अथर्ववेद के लिए गोपथ ब्राह्मण। भारतीय वाङ्गमय की यह अमर रचनाएँ हैं।

भागवत और शिव कथाएँ तथा पुराण वाचन-

वेद, उपनिषद, जो कि भारतीय वाङ्गमय का दार्शनिक पक्ष है, ब्राह्मण ग्रन्थ और संहिता थोड़ा जटिल है, इसलिए धर्मभीरु भारतीय जनता को समझाने के लिए पुराण शैली का और भागवत् तथा शिवकथा शैली का आविष्कार किया गया।

अंग्रेज इतिहासकारों ने पुराणों को ना तो इतिहास माना और ना कोई प्रमाण माना। वे इन्हें कहानियों के संग्रह के रूप में ही दुष्प्रचारित करते रहे। पुराणों की हर कथा के पीछे वैज्ञानिक या खगोलीय अवधारणाएँ हैं जिन्हें अंग्रेज इतिहासकार कभी भी नहीं समझ सके और उनके प्रति विषवमन करते रहे। अब समय आ गया है जब हम धूर्त और दरबारी इतिहासकारों की धारणाओं को पलट दें। उनमें एक सबसे बड़ी धारणा यह है कि आर्य भारत में बाहर से आये थे और यहाँ के निवासी नहीं थे। इतिहास के पुर्नलेखन का कार्य चल रहा है। उसमें समयक्रम में भी बड़ा बदलाव आने वाला है। उदाहरण के लिए पश्चिमी इतिहासकारों ने वास्तुग्रन्थों की रचना का काल 6000 साल पुराना माना है। जबकि वास्तु के नियमों की रचना करने से पूर्व जब उनका सांख्यिकीय विश्लेषण किया गया होगा तो वास्तुशास्त्र के विकास की कथा कम से कम 20 हजार वर्ष पुरानी चली जाती है। इस लेख का सकल उद्देश्य नई पीढ़ी को हमारे पुराने ज्ञान से परिचय और उस पर गर्व कराना है।

 

 

उपरत्नों का संसार

मकड़ा : यह तनिक कालापन लिए होता है तथा इस पर मकड़ी के जाल के समान रचनाएँ बनी होती हैं। मकड़ारत्न दीर्घकाल से झेल रहे षड़यंत्रों के प्रभावों को कम करने में प्रयुक्त होता है।

गोदन्ती : इस उपरत्न का रंग गाय के दाँतों के रंग के समान सफेद परंतु हल्का पीलापन लिए होता है। कहीं-कहीं धागों के समान रचनाएँ होती हैं। यह जीवन में शांति एवं समृद्धि लाता है।

रोमानी : यह रक्तवर्ण (गहरा लाल) का होता है तथा इसमें श्यामलता भी दृष्टिगोचर होती है। शनि और मंगल के समग्र प्रभावों के शमन में उपयुक्त होता है।

लालड़ी : गुलाब के पुष्प के समान, गहरा गुलाबी रंग का उपरत्न लालड़ी कहलाता है। इससे सूर्य के दोषों का शमन होता है तथा यह राजयोगकारी उपरत्न है।

तुरमुली : यह सौम्य पत्थर होता है। कई रंगों में मिलता है। विशेष रूप से शुक्र के दूषित प्रभावों को कम करने में प्रयुक्त किया जाता है और प्रेम संबंधों में प्रगाढ़ता, मित्रता आदि के लिए यह उपयुक्त माना जाता है।

मरियम : मानसिक शांति के लिए इसका उपयोग करते हैं। यह श्वेत रंग का होता है। इस पर चमक विशेष प्रकार की होती है।

धुनेला : यह मूलरूप से सुनहरी रंग का होता है तथा इस पर धुँआकार रचनाएँ बनी होती हैं।

हरीद : यह माला बनाने में विशेष रूप से प्रयुक्त होता है। यह कठोर पत्थर होता है। काले और भूरे रंग का मिश्रित रूप होता है। शनि और मंगल के दोषों को शमन करता है।

पारा : यह सफेद बाँस के रंग का पत्थर होता है। राहु जनित विषैले प्रभावों को कम करता है। इसे घावों पर लगाने से घाव ठीक हो जाते हैं।

चकमक : यह श्वेत पत्थर होता है तथा इसमें श्यामलता निहित होती है। अग्नि उत्पन्न करता है। प्रतिस्पर्धा में विजय व सफलता प्राप्ति के लिए यह रत्न धारण किया जाता है।

सोहनमक्खी : यह श्वेत मृदा के रंग का उपरत्न होता है। मूत्र रोग, नपुंसकता आदि रोगों में इसे प्रयुक्त किया जाता है।

ऊपर वर्णित उपरत्नों के समान ही शेष उपरत्न भी मानव जीवन पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। इन्हें ज्योतिषीगण एवं विद्वान व रत्न विशेषज्ञ प्रयुक्त करते हैं -

नरम-लाल, भूरा, काला मिश्रित। लूध्या-गहरा लाल । बैरुज-हल्का हरा, पन्ना जैसा। पितौनिया-हरा, लाल रंग के छीटें युक्त। बाँशी-हल्का हरा रंग, संगमरमर जैसा चमकदार। दूरेनज़फ-चावल के रंग का पत्थर। ढेडी-काला। गौरी-सभी रंगों में उपलब्ध। हदीद-मिश्रित रंग। सीया-काला। सीमाक-लाल पीला। हजरत-काला। खात-लाल अत्यंत उपयोगी। ज़हरमोहरा- हरापन लिए सफेद, विष प्रभाव में प्रयुक्त। खारा-काला, हरापन लिए हुए। लिलिआर-काला-सफेद छींटे युक्त। डूर-कत्थई रंग। अमलिया-काला एवं गुलाबी मिश्रित रंग। हवास-हरा रंग सुनहलापन लिए हुए। सींगली-लाल, काली मिश्रित। सिफरी-आसमानी एवं हरापन मिश्रित। कामला-हरा एवं सफेद। संगिया-शंखाभ। दाँतला-पीलापन युक्त। पनधन-काला हरापन युक्त। सीमाक-लाल एवं पीला, गुलाबी छींटे। संगवसरी-काला। झना-मटियाला। कहरुवा-लाल। मुबेनज़फ़-सफेद बाल के समान रंगदार। जबरजद्द-हल्का हरा रंग। सीजरी-सफेद रंग व काला। हालन-गुलाबी। दारचना-विवर्णी। दाना फिरंगी-पिश्ते के जैसा रंग। मारवर-लाल-सफेद। लारु-यह मारवर के समान ही होता है। संगसन-अंगूरी रंग। कुदरत-काला व सफेद दाग युक्त। आवरी-काला। तुरसावा-गुलाबी। अहवा-हल्का गुलाबी।

 

शरीर में प्राण की स्थिति

आरमन एष प्राणो जायते यथैषा पुरुषे छायैतस्मिन्नते।

दाततं मनोकृतेनायात्य स्मिञ्शरीरे॥

महर्षि पिप्पलाद के अनुसार सर्वेश्रेष्ठ प्राण परमात्मा से उत्पन्न हुआ है। वह परब्रह्म परमेश्वर ही इसका उपादान कारण है और वही इसकी रचना करने वाला है। अतः इसकी स्थिति उस सर्वात्या महेश्वर के अधीन उसी के आश्रित हैं- ठीक उसी प्रकार जैसे किसी मनुष्य की छाया उसके अधीन रहती है। मनद्वारा किये हुए संकल्प से वह शरीर में प्रवेश करता है। भाव यह है कि मरते समय प्राणी के मन में उसके कर्मानुसार जैसा संकल्प होता उसे वैसा ही शरीर मिलता है। अतः प्राणो का शरीर में प्रवेश मन के संकल्प से ही होता है।

जिस प्रकार भूमण्डल में चक्रवर्ती सम्राट भिन्न भिन्न ग्राम, मण्डल और जनपद आदि में पृथक-पृथक अधिकारियों की नियुक्ति करता है और उनका कार्य बांट देता है उसी प्रकार यह सर्वश्रेष्ठ प्राण भी अपने अंगस्वरुप अपान, व्यान आदि दूसरे प्राणों को शरीर के पृथक-पृथक स्थानों में पृथक-पृथक कार्यों के लिये नियुक्त कर देता है।

पायूपस्थेऽपानं चक्षुः श्रोत्रे मुखनासिकाम्यां प्राणः स्वयं प्रातिष्ठते मध्ये तु समानः।

एष हृयेत द्घुतमन्नं समं नयति तस्मादेताः सप्तार्चिषो भवन्ति॥

प्राण स्वयं तो मुख और नासिका द्वारा विचरता हुआ नेत्र और श्रोत्र में स्थित रहता है तथा गुदा और उपस्थ में अपान को स्थापित करता है। उसका काम मल-मूत्र को शरीर के बाहर निकाल देना है। रज, वीर्य और गर्भ को बाहर करना भी इसी का काम है। शरीर मध्यभाग - नाभि समान को रखता है। यह समान वायु को ही प्राण रूप अग्नि में हवन किये हुए- उदर में डाले हुऐ अन्न को अर्थात् उसके सार को सम्पूर्ण शरीर के अंग-प्रत्यंगो में यथायोग्य समभाव से पहुंचाता है। उस अन्न के सारभूत रस से ही इस शरीर में ये सात ज्वालाएं अर्थात् समस्त विषयों को प्रकाशित करने वाले दो नेत्र, दो कान, दो नासिकायें और एक मुख (रसना)- ये सात द्वार उत्पन्न होते हैं उस रस से पुष्ट होकर ही ये अपना अपना कार्य करने में समर्थ होते हैं। इसके अलावा श्रीभद्भागवत के चतुर्थ स्कन्ध के अध्याय 29 में आठवें श£ोक गुदा व लिंग सहित नौ द्वार का उल्लेख है।

इस शरीर में जो हृदय प्रदेश हैं, जो जीवात्मा का निवास स्थान है, उसमें एक सौ मूलभूत नाडियाँ हैं उनमें से प्रत्येक नाडी की बहत्तर-बहत्तर हजार प्रतिशाखा नाडियाँ है। इस प्रकार इस शरीर में कुल बहत्तर करोड नाडियाँ है इन सबमें व्यान वायु विचरण करता है। इन बहत्तर करोड नाडियों से भिन्न एक नाडी और हैं जिसको सुषुम्णा कहते हैं। जो हृदय से निकलकर ऊपर मस्तक में गयी हैं। उसके द्वारा उदानवायु शरीर में ऊपर की ओर विचरण करता है।

                ‘‘अथैक योर्ध्व उदानः पुण्येन पुण्यं लोकं नयति पापेन पापभुमाभ्यामेव मनुष्य लोकम्॥’’

जो मनुष्य पुण्यशील होता है, जिसके शुभकर्मों के भोग उदय हो जाते है, उसे यह उदानवायु ही अन्य सब प्राण और इन्दि्रयों के सहित वर्तमान से निकालकर पुण्यलोंको में अर्थात् स्वर्गादि उच्च लोकों में ले जाता है। पापकर्मों से युक्त मनुष्य को शूकर कूकर आदि पापयोनियों में और रौरवादि नरकों में ले जाता है तथा जो पाप और पुण्य दोनों प्रकार के कर्मों का मिश्रित फल भोगने के लिये अभिमुख हुए रहते है, उनको मनुष्य शरीर में जाता है।

एक शरीर से निकलकर जब मुख्य प्राण उदान को साथ लेकर उसके द्वारा दूसरे शरीर में जाता है, इन सबका स्वामी जीवात्मा भी उसी के साथ जाता है।

वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को जैसे - ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है उससे इन मन सहित इन्दि्रयों को ग्रहण करके जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है। अतः जीवात्मा का स्थान हृदय ही है।

मरते समय इस आत्मा का जैसा संकल्प होता है, इसका मन अंकित क्षण में जिस भाव का चिन्तन करता है-

                यच्चित्तस्तेनैष प्राणमायाति प्राणस्तेजसा युक्तः सप्तत्यना यथा संकाल्पितं लोकं नयति।

उस संकल्प के सहित मन, इन्दि्रयों को साथ लिये हुए यह मुख्य प्राण में स्थित हो जाता है। वह मुख्य प्राण उदानवायु से मिलकर अपने सहित मन और इन्दि्रयो से युक्त जीवात्मा को उस अन्तिम संकल्प के अनुसार यथायोग्य भिन्न भिन्न लोक अथवा योनियों में ले जाता है। अतः मनुष्य को उचित है कि अपने मन में निरन्तर एक भगवान का ही चिन्तन रखे, दूसरा संकल्प न आने दें, क्योंकि जीवन अल्प और अनित्य हैं, न जाने जब अचानक इस शरीर का अन्त हो जाये। यदि उस भगवान का चिन्तन न होकर कोई दूसरा संकल्प आ गया तो सदा की भाँति पुनः चौरासी लाख योनियों में भटकना पडेगा।

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नये शरीरों में प्राप्त होता है।

इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते हैं। इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकती।

शरीर रूप यंत्र में आरुढ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण करता है। जो सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।

जो मनुष्य प्राण की उत्पत्ति को अर्थात् यह जिससे और जिस प्रकार उत्पन्न होता है- इस रहस्य को जानता है, शरीर में उसके प्रवेश करने की प्रक्रिया का तथा इसकी व्यापकता का ज्ञान रखता है तथा जो प्राण की स्थिति को अर्थात् बाहर और भीतर कहाँ कहाँ वह रहता है। इस रहस्य को तथा इसके बाहरी और भीतरी अर्थात् आधिभौतिक और आध्यात्मिक पांचो भेदो के रहस्य को भली-भाँति समझ लेता है वह अमृत स्वरुप परमानन्दमय परब्रह्म परेश्वर को प्राप्त कर लेता है। तथा उस आनन्दमय के संयोग सुख का निरन्तर अनुभव करता है।

 

बृहस्पति का भावगत फलादेश

बृहस्पति (गुरु) पीत वर्ण के ग्रह है। इनका सौर मण्डल में पांचवा स्थान है। ये सौर मण्डल के सम्राट ग्रह हैं। अतः शास्त्रों में इनके लिए बृहस्पति तथा गुरु नाम का प्रयोग किया गया है। बृहस्पति के अतिरिक्त इनके गुरु, वांगीश, अंगिरा, जीव आदि नाम भी कहे गये हैं। ये धनु और मीन राशि के स्वामी माने गये हैं। कर्क इनकी उच्च तथा मकर राशि इनकी नीच राशि है। विंशोत्तरी दशा के अनुसार 16 वर्ष की इनकी महादशा जातक को लगती है। अपने स्थान से सातवें भाव के अलावा 5 व 9 स्थानों पर भी इनकी पूर्ण दृष्टि मानी गई है। मेष, कर्क, सिंह, धनु, मीन लग्न के लिए ये योग कारक ग्रह हैं। कन्या लग्न के लिए गुरु मारक हैं एवं मिथुन लग्न में इन्हें ‘‘केन्द्राधिपत्य  दोष’’ लगता है।

गुरु का भाव गत फलादेश निम्न प्रकार से है-

1. लग्न में गुरु शुभ कार्यों को करने वाला होता है। बौद्धिक शक्ति और शारीरिक शक्ति का यह निर्माता होता है। जातक सोच विचार कर काम करने वाला होता है। वह सुखी और कांतिमान होता है। राजा का प्यारा होता है। इस जातक का पुत्र दीर्घायु होता है। मकर राशि को छोड़कर किसी भी राशि का गुरु हो तो जातक बड़ा धनी होता है। गुरु की दृष्टि त्रिकोण पर (5,9) पड़ती है अतः संतान पक्ष और भाग्य पक्ष बड़ा शुभ रहता है।

2. द्वितीय भाव में बृहस्पति : जातक कविता में रुचि रखता है। शक्तिपूर्ण अधिकारी होता है। बोलने में चतुर होता है। मानसिक खिन्नता हर समय रहती है। पत्नी उसे नहीं चाहती। धनार्जन हेतु काफी मेहनत करनी पड़ती है। न्यायाधीश या मुंसिफ के पद पर प्रतिष्ठित होकर धन कमाता है।

3. तीसरे भाव में गुरु : जातक किसी का उपकार नहीं मानता। मित्रों के साथ मित्रवत नहीं रहता। सगे भाईयों का सुख मिलता है। वह स्वयं तकलीफ उठा लेता है। थोड़ा कंजूस होता है।

4. चतुर्थ भाव में गुरु : जातक धनवान होता है। ब्राह्मणों का आदर करता है। शत्रु उसकी सेवा करते हैं। वह अपने परिवार में मुख्य होता है। गुरुजनों का सदा आदर करता है। वह हर प्रकार से सुखी रहता है।

5. पंचम भाव में गुरु : जातक कुशल तार्किक और बात को अच्छी तरह समझने वाला होता है। इसका लेखन कार्य सुन्दर होता है। सम्पत्ति सामान्य होती है। वराहमिहिर के अनुसार बुद्धिमान होता है। इसके पुत्र होते हैं।

6.  छठे भाव में गुरु : जातक शत्रुओं के साथ विजयी होता है। उसे अपनी शक्ति का अभिमान होता है। उसके माँ और मामा  को तकलीफ रहती है। वह संगीत में रुचि रखता है। थोड़ा आलसी होता है। शत्रु बहुत होते हैं। जातक हिंसक होता है। वह स्त्री के वश में रहता है। उसे भूख कम लगती है। वह यत्नशील रहता है। 40वें वर्ष में शत्रुओं का भय रहता है।

7. सप्तम भाव में गुरु : जातक की बुद्धि तेज होती है। स्ति्रयों पर प्रेम अधिक नहीं होता। कुल में श्रेष्ठ होता है। शरीर से सुन्दर होता है। उसमें थोड़ा अभिमान भी होता है। जातक अधिक कामुक होता है।

8. अष्टम भाव में गुरु : जातक को पिता का घर छोड़ना पड़ता है। शरीर निरोग नहीं रहता। परम्परा को मानता है। कुल के विपरीत कार्य करता है। दुर्बल देह के कारण अधिक काम नहीं कर सकता।

9. नवम भाव में गुरु : जातक ब्राह्मणों का भक्त होता है। वह बड़े मकान में निवास करता है।

वराहमिहिर के अनुसार - जातक तपस्वी होता है। वह विद्वान, कई शास्त्रों का जानकार, शुद्ध व्यवहार का होता है। राज्य से सम्मानित और धार्मिक प्रवृत्ति का होता है। 15वें वर्ष में पिता को तकलीफ होती है।

पाश्चात्य मत : जातक कानून और धर्म की व्याख्या अच्छी करता है। नये रिश्तेदारों से उसे ज्यादा लाभ मिलता है। उसमें ऊपरी दिखावा ज्यादा होता है। वह स्वभाव से शांत और सदाचारी होता है। अध्यापक हो तो वह अच्छी उन्नति करता है।

10. दशम भाव में गुरु: जातक देशभक्त होता है। उसे संतान सुख थोड़ा होता है। उसकी कीर्ति अधिक होती है। वह सामाजिक कार्यों पर धन लगाता है। दूसरों को सुस्वादु भोजन कराता है। उनका आचरण उत्तम होता है। वाहन का सुख उसे मिलता है।

11. एकादशाभाव का गुरु: जातक की स्मरण शक्ति बड़ी तीव्र होती है। वह स्वयम् कृपण होता है, लेकिन दूसरे लोग इसे ठगकर उस धन का आनन्द उठाते हैं। इस जातक की शिक्षा  कम होती है। संतान भी थोड़ी होती है। जातक चंचल, सुन्दर और गुणी होता है। वह नीरोग और साधु स्वभाव का होता है। अच्छे लोगों से उसकी मित्रता होती है। पुत्र जन्म के बाद उसका भाग्योदय होता है। मंगल, हर्षल से उसकी युति भाग्य को पलट देती है।

12. द्वादश भाव का गुरु : जातक किसी को कुछ देकर सबको कहता रहता है। उसका यश नहीं फैलता। उसका अभिमान झूंठा होता है। वह गुरुजनों का, श्रेष्ठ व्यक्तियों का उपकार, उनकी सेवा कम करता है।

वराहमिहिर के अनुसार - उसे अच्छा नहीं बताया। दुष्ट भी कहा है। अल्हड़ और भाग्यहीन भी बताया है। उसकी आँख महीन और छोटी होती है। उसके शरीर में पीड़ा होती है, साथ में चन्द्र और शुक्र में से एक भी होने से धन की रक्षा हो जाती है। वह खाने-पीने, मौज मस्ती में काफी रुपया खर्च कर देता है। ईश्वर की सत्ता को वह नहीं मानता, कुछ कुछ वाम मार्गी सिद्धान्तों से मेल खाता है। पुराणों में लिखा है कि बारहवें गुरु से पाण्डु की मृत्यु हुई।