खगोल विज्ञान पर आधारित वास्तु

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो एडिटर

किसी समय सूर्य का कक्षा कक्ष ठीक पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा की ओर होता था। इसके बाद किसी खगोलीय घटना के कारण सूर्य की कक्षा कक्ष में परिवर्तन आना शुरू हो गया और सूर्य का कक्षा कक्ष अपने मूल कक्षा कक्ष से 23 अंशों से भी अधिक कोण लेकर चल रहा है। इस कारण से ही पृथ्वी को अपने अक्ष पर झुका हुआ बताया जाता है। ऋषियों को जब से ज्योतिष में वर्णित अयन अर्थात सूर्य के अपने कक्षा कक्ष में परिवर्तन का ज्ञान हुआ उन्होंने अपनी गणनाओं में उसको शामिल कर लिया है और तदनुसार ही फलित ज्योतिष में भी गुणात्मक परिवर्तन आया है।

वर्तमान वास्तु शास्त्र में भी इसका असर देखने को मिलता है। जैसे ही स्थापत्य शास्त्र का विकास हुआ ऋषियों ने उसे उपवेद की संज्ञा देते हुए इतनी अधिक प्रतिष्ठा दी कि वे वेदांग और निर्माण कला के सभी पहलुओं को शामिल करते हुए स्थापत्य वेद में समाहित कर लिया गया।

ज्योतिष में पूर्व दिशा को लग्न में स्थापित किया जाता है। लग्न की परिभाषा के रूप में उस राशि को माना जाता है जो कि जातक के या व्यक्ति के जन्म के समय पृथ्वी के पूर्वी क्षितिज पर उदय हो रही है। आधुनिक जन्म पत्रिकाओं में जिसे लग्न माना जाता है दरअसल वह पृथ्वी का पूर्वी क्षितिज होता है। काल पुरुष नाम की एक सत्ता की मानसी सृष्टि की गई तथा उस काल पुरुष का सिर जन्म पत्रिका की लग्न में माना जाकर और सप्तम भाव की तरफ पैर माने जाते हैं तथा शेष भावों का भी विभाजन काल पुरुष के अंगों के अनुसार माना जाता है। जैसे पंचम भाव को नाभि या कुक्षि या स्त्री का गर्भाशय माना जाता है। इस भाव में जो ग्रह होंगे उनका शरीर के इन अंगों पर असर आएगा।

परन्तु वास्तु पुरुष का विकास प्राचीन ऋषियों की उन खगोल शास्त्र के शोध कार्यों के कारण संभव हुआ है जो ग्रहों की और कक्षाओं की बदलती हुई स्थितियों के ज्ञान के कारण संभव हुआ है। जैसे ही सूर्य की कक्षा के पथ में परिवर्तन आना शुरू हुआ ऋषियों को ज्ञात हो गया कि सुदूर अंतरिक्ष से आती हुई रश्मियां अब किसी अन्य कोण से पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करेंगी और उनके परिणामों में अंतर आएगा। पृथ्वी के अक्षांश और रेखान्तरों का विभाजन भौगोलिक उत्तर से दक्षिण को जाने वाले ऊर्जा मार्ग के आधार पर किया गया है। भू चुंबकीय परिणाम और कॉस्मिक रेडिएशन के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले वैद्युत चुंबकीय मार्ग के समानान्तर ऊर्जा प्रवाह की कल्पना करते हुए अक्षांश रेखाओं और देशान्तर रेखाओं पर आने वाले उनके प्रभाव की गणनाएं की गई हैं। हजारों वर्ष तक चले ऊहापोह के बाद जिस वास्तु पुरुष का सिर ईशान कोण में माना गया उसका आधार संभवतः यह है कि अयनांश का प्रवेश ईशान कोण के क्षेत्राधिकार में हो चुका है तथा समस्त सौर विकिरण या ब्रह्मांडीय प्रभाव पृथ्वी के उस कैचमेंट एरिया से प्रवेश करेंगे जो कि अब ईशान कोण ही है। शास्त्रों में ईशान कोण में ईश्वर का वास बताया गया है। यह ईश्वर ही ऊर्जा या गति का नियामक हो सकता है और ऋषियों ने भूखंडों में ईश्वरीय प्रभाव की वृद्धि की कल्पना को अंजाम देने के लिए वास्तु पुरुष के सिर नामक एंटीना की कल्पना ईशान कोण में ही की है।

वास्तु शास्त्र के परीक्षणों में यह पाया गया कि किसी भूखंड की उत्तर दिशा में यदि हम भारी निर्माण के द्वारा ऊर्जा प्रवाह अवरुद्ध कर दें तो लक्ष्मी की थोड़ी सी कमी और कुल वृद्धि में बाधा आती है। परन्तु यदि ईशान कोण में भारी निर्माण के द्वारा ऊर्जा प्रवाह को भूखंड में आने से रोक दिया जाए तो व्यक्ति का सब कुछ नष्ट हो जाता है और उसका जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। इन परीक्षणों से यह संकेत मिलता है कि केवल भू-चुंबकीय प्रभाव ही भूखंड को सब कुछ प्रदान नहीं करते परन्तु अंतरिक्ष से आए हुए सौर विकिरण जो कि ईशान कोण के माध्यम से भूखंड में प्रवेश करते हैं (शब्दान्तर से पृथ्वी के ईशान कोण से प्रवेश करते हैं और संभवतः स्वतंत्र ऊर्जा नाड़ियों की सृष्टि करते हैं) भूखंड की मूल वास्तुशास्त्रीय अवधारणाओं के अनुरूप उसके जीवनक्रम या व्यक्ति की मूल जीवनी शक्ति या उसके सम्पूर्ण  अस्तित्व का आधार तैयार करते हैं और इस कोण के दोष उसके सम्पूर्ण अस्तित्व पर ही प्रहार करते हैं।

जयपुर शहर की रचना करते समय जयपुर के अक्षांश और देशान्तर रेखाओं के समानान्तर नगरीय रचनाओं को लाने की चेष्टाएं की गई हैं। अभी कुछ वर्षों पूर्व राज्य के एक बड़े अखबार के आग्रह पर उदयपुर शहर का अध्ययन करके मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि केवल उदयपुर शहर ही भौगोलिक उत्तर के आधार पर पृथ्वी के अक्षांश और देशान्तरों के आधार पर बसा हुआ है। यह बारीकी उदयपुर व चित्तौड़ की बसावट में नहीं है। दोनों शहरों की विकास की गति में यह अन्तर रहा कि जयपुर निरन्तर समृद्धि की ओर अग्रसर हुआ क्योंकि जयपुर के राजघरानों का सम्बन्ध दिल्ली से होने के कारण उस पर आक्रमण नहीं हुए। उदयपुर या चित्तौड़ राजघराने दिल्ली से सदा विरोध में रहे और ऐसा माना जाता है कि उदयपुर के वास्तुशास्त्रीय वैशिष्ट्य के कारण वे स्वाभिमान को सर्वोपरि रखते थे। अतः हमेशा विदेशी आधिपत्य के विरोध में लड़ते रहे। अतः न तो राजघराने धनी हुए और न ही राज्य धनी हुआ बल्कि युद्धों में बहुत बर्बादी हुई।

एक अन्य वास्तु अध्ययन में यह सामने आया कि राइन नदी जर्मनी के मेंज शहर के बीचोंबीच से गुजरती है अतः वह द्वितीय विश्व युद्ध में बर्बाद हुआ, ऐसे ही इराक के बगदाद शहर के बीचोंबीच टिगरिस नदी गुजरती है अतः वह शहर भी बम वर्षण से बर्बाद हुआ। चित्तौड़गढ़ में भी शहर के बीच से नदी गुजरती है अतः बर्बाद हुआ। चंबल नदी एकमात्र नदी है जो कि दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है और हम देखते हैं कि चंबल के दोनों ओर अपराध की दर सर्वाधिक है।

प्राचीन वास्तु ऋषि प्रकृति को अच्छी तरह समझते थे और वैज्ञानिक नियमों को शास्त्रीय नियमों का रूप देकर धर्म के माध्यम से पालना कराते थे। अतः प्राचीन वैज्ञानिकों ने ऐसे नियमों को जिनका कि वे परीक्षण कर चुके थे शास्त्रों में शामिल किया और जनता से लागू करवाया। जब इन नियमों का पालन होता था तब का भारत सोने की चिड़िया कहलाता था। आशा है ऋषियों की भावनाओं को समझकर हम भी उन शास्त्रों का लाभ उठा सकेंगे।

 

 

 

कार्य विनाश करने वाले कुछ योग

दग्ध राशियाँ - नवमी के दिन सिंह या वृश्चिक राशि हो, एकादशी के दिन धनु और मीन राशि हो और त्रयोदशी के दिन वृष और मीन राशि हो। इन दग्ध राशियों में जो भी कार्य किये जाएँ तो कार्य का विनाश हो जाता है।

शून्य नक्षत्र - चैत्र मास में अश्विनी और रोहिणी, वैशाख मास में चित्रा और स्वाती तथा ज्येष्ठ मास में उत्तराषाढ़ शून्य नक्षत्र कहलाते हैं। इसी तरह से आषाढ़ मास में पूर्वाफाल्गुनी और धनिष्ठा, श्रावण मास में श्रवण तथा उत्तराषाढ़, भाद्रपद मास में शतभिषा एवं रेवती, कार्तिक मास में मघा एवं धनिष्ठा, अगहन मास में चित्रा एवं विशाखा नक्षत्र, पौष के महीने में अश्विनी, हस्त एवं आर्द्रा तथा माघ मास में मूल नक्षत्र एवं श्रवण नक्षत्र अशुभ होते हैं। फाल्गुन मास में ज्येष्ठा एवं भरणी नक्षत्र शून्य नक्षत्र की संज्ञा में आते हैं।

उपरोक्त वर्णन में प्रत्येक मास में उपरोक्त निंदित नक्षत्रों में जो भी कार्य किया जाता है। वह विनाश को प्राप्त हो जाता है।

अशुभ तिथि - चैत्र मास के शुक्ल पक्ष एवं कृष्ण पक्ष की अष्टमी और नवमी, वैशाख मास के शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि, ज्येष्ठ मास में त्रयोदशी शुक्ल पक्ष में तथा कृष्ण पक्ष में  चतुदर्शी तिथि एवं आषाढ़ के महीने में शुक्ल पक्ष व कृष्ण की छठी तिथि अशुभ मानी गई है। इस दिन किये गये कार्य का विनाश होता है। श्रावण मास की द्वितीया, भाद्रपद मास की प्रतिपदा व द्वितीया तिथियाँ अशुभ होती हैं। इस दिन किये गये कार्य विनाश को प्राप्त होते हैं।

आश्विन मास में दशमी एवं एकादशी दोनों पक्षों की, कार्तिक मास में पंचमी और चतुर्दशी, अगहन मास में सप्तमी एवं अष्टमी तथा पौष मास में चतुर्थी एवं पंचमी निंदित मानी गयी है। माघ मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी और कृष्ण पक्ष में  षष्ठी तथा फाल्गुन मास में शुक्ल पक्ष में तृतीया एवं कृष्ण पक्ष में चतुर्थी अशुभ मानी गयी है। इन तिथि और मास में श्रद्धा कर्म तो किये जा सकते हैं, परन्तु शेष कार्यों की निन्दा की गई है।

अन्य दोष -

संक्रांति  - जो भी संक्रांति का दिन हो उस दिन मांगलिक कार्यों का त्याग कर देना चाहिए।

योग - व्यतिपात और वैधृति का त्याग कर देना चाहिए। इनका दोष ग्रहण के समान ही होता है। इन योगों से एक दिन आगे-पीछे भी छोड़ देना चाहिए।

भूकम्प आदि - उपग्रह आदि और भूकम्प आदि दोष को कालकूट नाम विष के समान माना गया है और इसमें किये गए कार्य विनाश को प्राप्त होते हैं। उल्कापात के दिन भी किए गये कार्य भी विनाश को प्राप्त होते हैं।

ग्रहण - दो रात्रियों के मध्य और संध्याओं के बीच में ग्रहण हो तो उसमें किये गये कार्यों में हानि होती है।

कण्टक दोष - चन्द्रमा और राहु को छोड़कर सभी ग्रह एक ही राशि में हों तो उसे कण्टक नामक महादोष कहा गया है। इस दोष के अन्तर्गत जो कार्य किया जाता है, उसका विनाश हो जाता है।

प्राकृतिक उत्पात - बर्फ गिरी हो, कोहरा हो, असमय वर्षा हो, परिवेश हो, इन्द्र धनुष हो तो यह कार्य का विनाश करने वाले होते हैं। इस दिन कार्य प्रारम्भ नहीं करना चाहिए।

रश्मिबल - शीघ्र गति करने वाले ग्रह, सूर्य से आगे चलने पर बलवान होते हैं और सूर्य से पीछे रहने पर रश्मिविहिन हो जाते हैं। सूर्य की राशि से तप्त उससे पीछे वाले नक्षत्र को भस्म संज्ञक एवं सूर्य से आगे वाले नक्षत्र को धूम संज्ञक कहते हैं। ऐसे नक्षत्रों का त्याग कर देना चाहिए। भस्म एवं धूम नामक जो राशियाँ शुभ ग्रहों से युक्त हों तभी शुभ होती हैं, अन्यथा ये कार्यों का विनाश कर देती है।

 

रत्नों का औषधीय प्रयोग

ज्योतिष शास्त्र भविष्य दर्शन की आध्यात्मिक विद्या है। भारतवर्ष में चिकित्सा शास्त्र ‘आयुर्वेद’ का ज्योतिष से बहुत गहरा संबंध है। जन्म कुण्डली व्यक्ति के जन्म के समय ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रह नक्षत्रों का मानचित्र होती है, जिसका अध्ययन कर जन्म के समय ही यह बताया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति को उसके जीवन में कौन-कौन से रोग होंगे। चिकित्सा शास्त्र व्यक्ति को रोग होने के पश्चात् रोग के प्रकार का आभास देता है। आयुर्वेद शास्त्र में अनिष्ट ग्रहों का विचार कर रोग का उपचार विभिन्न रत्नों, जड़ी-बूटियाँ, का उपयोग और रत्नों की भस्म का प्रयोग कर किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र भी रोगों की उत्पत्ति अनिष्ट ग्रहों के प्रभाव से एवं पूर्वजन्म के अवांछित संचित कर्मों के प्रभाव से होना बताती है। अनिष्ट ग्रहों के निवारण के लिए पूजा, पाठ, मंत्र, जाप, यंत्र धारण, विभिन्न प्रकार के दान एवं रत्न धारण किया जाता है।

ग्रहों के अनिष्ट प्रभाव दूर करने के लिये रत्न धारण करने की परिपाटी निरर्थक नहीं है। आज के भौतिक और औद्योगिक युग में तरह-तरह के रोगों का विकास हुआ है। रक्तचाप, डायबिटीज, कैंसर, हृदय रोग, एलर्जी, अस्थमा, माईग्रेन आदि औद्योगिक युग की देन है। इसके अतिरिक्त भी कई बीमारियां हैं, जिनकी न तो चिकित्सा शास्ति्रयों को जानकारी है और न उनका उपचार ही सम्भव हो सका है। ज्योतिष शास्त्र में बारह राशियां और नवग्रह अपनी प्रकृति एवं गुणों के आधार पर व्यक्ति के अंगों और बीमारियों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

जन्म कुण्डली में छठा भाव बीमारी और अष्टम भाव मृत्यु का हैं। बीमारी पर उपचारार्थ व्यय भी करना होता है, उसका विचार जन्म कुण्डली के द्वादश भाव से किया जाता है। इन भावों में स्थित ग्रह और इन भावों पर दृष्टि डालने वाले ग्रह व्यक्ति को अपनी महादशा, अन्तर्दशा और गोचर में विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं। इन बीमारियों का कुण्डली से अध्ययन करके पूर्वानुमान लगाकर अनुकूल रत्न धारण करने, गृहशांति कराने एवं मंत्र आदि का जाप करने से बचा जा सकता है।

रोगों के उपचार -

रक्तचाप (ब्लड प्रेशर)- रक्तचाप होने के अनेकों कारण बताये गए हैं। चिंता, अधिक मोटापा, क्षमता से अधिक श्रम, डायबिटीज आदि। जन्म कुण्डली में शनि और मंगल की युति हों अथवा एक-दूसरे की परस्पर दृष्टि हो तथा छठे, आठवें और बारहवें भाव में चंद्रमा का स्थित होकर पाप ग्रहों से दृष्ट होना रक्तचाप देता है।

उपाय - चिंता और श्रम के कारण होने पर, डायबिटीज और मोटापे के कारण होने पर पुखराज एवं शनि की साढ़े साती में रक्तचाप प्रारम्भ होने के कारण काला अकीक रत्न धारण करने से लाभ होता है। पूर्णमासी के दिन व्रत करें अैर बिना नमक का भोजन करने से भी बहुत लाभ होता है।

हृदय रोग- जन्म कुण्डली के चतुर्थ, पंचम और छठे भावों में पाप ग्रह स्थित हों और उन पर शुभ ग्रहों की दृष्टि नहीं हो तो हृदय शूल की शिकायत होती है। कुंभ राशि स्थित सूर्य पंचम भाव में और छठे भाव में अथवा इन भावों में केतु स्थित हों और चन्द्रमा पाप ग्रहों से देखा जाते हों तो हृदय संबंधी रोग होते हैं।

उपाय - सूर्य यदि कारण बनें तो माणिक, चन्द्र का कारण हो तो मोती और अन्य ग्रह कारक हों तो उनसे संबंधित रत्न धारण करना चाहिये।

मधुमेह (डायबिटीज)- यह रोग वंशानुगत, अधिक बैठने वाले व्यक्तियों को, चिंतन करने वाले व्यक्तियों को और अनियमित खान-पान वाले व्यक्तियों को होता है। जन्म कुण्डली के अनुसार यह रोग चन्द्रमा के पापग्रहों के साथ युति होने पर,  शुक्र ग्रह की गुरु के साथ या सूर्य के साथ युति होने पर अथवा शुक्र ग्रह पाप ग्रहों से प्रभावित होने पर होता है।

उपाय - सफेद मूंगे, एक्यूमेरिन रत्न धारण करने से लाभ होता है।

पाईल्स (बबासीर)- सप्तम स्थान में स्थित मंगल लग्न में स्थित शनि से दृष्ट हों तो पाईल्स होती है। सप्तम भाव में धनु के मंगल स्थित हों तो भी पाईल्स की शिकायत होती है। इसके अतिरिक्त पंचम, सप्तम या अष्टम भाव में पाप ग्रह स्थित हो तो कब्ज और पाईल्स की शिकायत होती है।

उपाय - मूंगा या मोती रत्न धारण करने से लाभ होता है।

माईग्रेन - जन्म कुण्डली में शनि-चन्द्र की युति हो और उस पर मंगल की दृष्टि हों तो माईग्रेन की शिकायत होती है। इसके अतिरिक्त द्वादश भाव में केतु शत्रु नवांश में स्थित हों अथवा पंचम स्थान में शत्रु राशि के ग्रह स्थित हो तो माईग्रेन की शिकायत होती है। अधिकतर इस रोग का प्रारम्भ शनि की साढ़े साती में होता है।

उपाय - काला अकीक रत्न दाएं हाथ की बड़ी अंगुली में धारण करने से लाभ होता है।

अस्थमा (श्वांस रोग)- जन्म कुण्डली में बुध ग्रह मंगल के साथ स्थित हों या मंगल से दृष्ट हों, चन्द्रमा-शनि के साथ बहुत कम दूरी पर स्थित हों अथवा अष्टम स्थान में वृश्चिक-मेष राशि के या नवांश के राहु स्थित हों तो व्यक्ति में एलर्जी के कारण अस्थमा की शिकायत होती है।

उपाय - पन्ना रत्न, सफेद मूंगा अथवा गोमेद रत्न धारण करने से लाभ होता है।

स्त्री रोग - महिलाओं की जन्म कुण्डली में चन्द्रमा जब भी पाप ग्रहों के साथ अर्थात् शनि, राहु, केतु एवं मंगल के साथ स्थित हों तो मानसिक अशांति के साथ मासिक धर्म की अनियमितता पैदा करते हैं,

उपाय - ऐसी स्थिति में चन्द्रमा के साथ जो ग्रह स्थित हों उसका रत्न धारण करने से स्वास्थ्य लाभ होता है। शनि-चन्द्र एक साथ हों तो काला अकीक दाएं हाथ में धारण करने से लाभ होगा। अष्टम स्थान में मेष या वृश्चिक राशि का राहु स्थित हों और नवांश स्थिति भी उनकी अच्छी न हो तो रक्त स्राव अधिक होता है। गोमेद भी लाभकारी होगा।

दुर्घटना योग- अष्टम भाव में मंगल, राहु, केतु, शनि शत्रु राशि के स्थित हों और नवांश में भी उनकी स्थिति अच्छी नहीं हो और किसी शुभ ग्रह की दृष्टि उन पर नहीं हो तो दुर्घटनाएं गम्भीर होती है।

उपाय - अष्टम भाव स्थित पाप ग्रह से संबंधित रत्न धारण किया जाए तो अवश्य लाभ होता है।

 

भजन कीर्तन की महत्वता

भजनस्य लक्षणं रसनम् अर्थात् अंतरात्मा का रस जिसमें उभरे उसका नाम है भजन। हृदय में जो आनंद, वस्तु, व्यक्ति, भोग सामग्री के बिना भी आता है वही भजन का रस है।

हर धर्म में ईश्वर को याद करने के लिए अपने-अपने धर्म अनुसार भजन कीर्तन किए जाते हैं। हर हिन्दू धर्म में कोई न कोई ऐसा विशेष दिन होता है उस दिन मंदिरों में भजन-कीर्तन की ध्वनि सुनने में आती है।

रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने कहा है कि जो साधक भगवान का विश्वास पाने के लिए भजन करता है, प्रभु अपनी अहैतुकी कृपा से उसे अपना विश्वास प्रदान करके उसके जीवन को सफल बना देते हैं।

पद्म पुराण उत्तराखण्ड में कहा गया है -

नाहं वसामि वैकुंठे योगिना हृदये न च।

मद्भक्ता यत्र गायनित तत्र तिष्ठमि नारद।।

अर्थात् हे नारद! मैं न तो बैकुंठ में रहता हूँ और न योगियों के हृदय में ही रहता हूँ। मैं तो वहीं रहता हूँ जहां प्रेमाकुल होकर मेरे भक्त मेरे नाम का कीर्तन करते हैं। मैं सर्वदा लोगों के अन्तकरण में विद्यमान रहता हूं।

जीवन कभी भी समाप्त हो सकता है, इसलिए हर पल भगवान को याद करते रहना चाहिए।

‘मुक्ति ददाति कशिचत् न भक्तियोगम्’ अर्थात् स्वयं भगवान भी भजन करने वालों को मुक्ति सुलभ कर देते हैं परंतु भक्ति सबको नहीं देते।

श्रीमद्भागवद्गीता में श्री कृष्ण ने कहा है -

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।

साधुखे स मन्तव्यः सम्यग्यवसितो हि सः।। 

अर्थात् यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। उसने भली-भांति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है। ऐसे व्यक्ति थोड़े ही दिनों में धर्मात्मा होकर सुख-शांति पाता है।

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्त भजस्व माम्।

 अर्थात् है अर्जुन! तू इस विनाशी और दुःखमय यानि सुख रहित और क्षण भंगुर मनुष्य शरीर को प्राप्त हुआ है, इसलिए निरन्तर मेरा ही भजन कर, ताकि इसके बाहर निकल सके।

इस प्रकार नित्य प्रार्थना का बड़ा महत्व है, मनुष्य ही नहीं देवता भी एक-दूसरे की तथा ईश्वर की प्रार्थना करते हैं।

ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।

यद् भद्रंतन्न आसुव।।

अर्थात् है सकल जगत के उत्पन्न करने वाले ईश्वर, पापों को दूर कर और जो कल्याणकारी विचार है, उन्हें प्रदान करते हंै। कृपा निधि! हमारे अंतःकरणों को पवित्र कर, शुद्ध, बुद्ध और पवित्र बनाओ।

रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने कहा है -

महकहि करई बिरंचि प्रभु अजहि मसकते हीन जो चेतन कहं जड़ करई जड़हि करई चैतन्य। तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई।’

अर्थात् ईश्वर असम्भव को सम्भव और सम्भव को असम्भव बनाने में सर्वथा समर्थ है। उनमें किसी तरह की असामर्थ्य नहीं है, वह सब तरह से पूर्ण है। उनमें किंचितमात्र भी कभी नहीं है, जब हमारा संबंध उनसे प्रार्थना के माध्यम से जुड़ जाएगा तो उनकी सारी शक्ति हमारे में आ जाएगी।

प्रत्येक मानव ईश्वर से यही प्रार्थना करता है -

असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।

अर्थात् मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो और मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो। इसके द्वारा हम ईश्वर से अपना संबंध जोड़कर महान विभूतियों के स्वामी बन सकते हैं और समस्त आधी-व्याधि, कष्ट, कठिनाइयों एवं रोग-शोकों से मुक्ति पा सकते हैं।

य देव श्रद्धाया जुहोति तदेव वीर्यवत्तर भवति।

अर्थात् श्रद्धा पूर्वक की गई प्रार्थना ही फलवती होती है। अतः भावना जितनी सच्ची, गहरी और पूर्ण होगी उतना ही उसका सत्परिणाम भी होगा।

हम आज भी आत्मविश्वास से, सच्चे मन, अतिभाव से भगवान को पुकारते हैं तो वह हमारी प्रार्थना जरूर सुनते हैं। हमारे सामने कई ऐसी घटनाएं हैं जिससे हमें विश्वास होता है कि ईश्वर हमारे साथ है। महाभारत में चीरहरण के समय जब द्रोपदी सब तरफ से निराश हो गई, किसी ने उसकी प्रार्थना नहीं सुनी तब उसने सच्चे मन से भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की व सच्चे मन से उन्हें पुकारा, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी लाज बचाई। प्रहलाद के पुकारने पर भगवान ने नृसिंह अवतार ले कर रक्षा की। अश्वत्थामा के द्वारा छोड़ा गया अस्त्र उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने के लिए आने लगा तब श्रीकृष्ण ने उत्तरा के गर्भ की रक्षा की। मार्कण्डेय की करूणामय प्रार्थना पर साक्षात् शिव ने काल से उनकी रक्षा की।

भजन कीर्तन करने से दैवी शक्तियाँ बढ़ती हैं। ईश्वर में मन लगता है, मन के पाप दूर होते हैं, ईश्वर के प्रति विश्वास बढ़ता है, आत्मबल, आत्मविश्वास व आत्मज्ञान में वृद्धि होती है। इस प्रकार हमारी आत्मा के लिए प्रार्थना एक टॉनिक का कार्य करता है।  कहीं भी हमें मौका मिले तो सत्संग, पूजा-पाठ व कीर्तन में समय निकालकर अवश्य जाना चाहिए। इससे हमारी ईश्वर के प्रति भक्ति उत्पन्न होगी व मुश्किलों का सामना करने के लिए हमें सकारात्मक ऊर्जा मिलेगी।