वास्तुशास्त्र का घोर उल्लंघन है : ट्विन टॉवर

पं. सतीश शर्मा

वास्तु शास्त्र के उल्लंघन का यह ज्वलंत उदाहरण है। वास्तु पुरुष की कल्पना एक वर्गाकार भूखण्ड में की गई है। उसका वैज्ञानिक आधार है। सुपरटेक कम्पनी ने एक लगभग त्रिकोणाकार भूखण्ड में जिस दिन टॉवर बनाकर फ्लैट बेचने शुरु किए, उसी दिन यह तय हो गया था कि एक दिन यह कम्पनी बर्बाद हो जाएगी और आखिरी परिणाम उसके विरुद्ध जाएंगे। वर्गाकार भूमि को जब आप त्रिकोण में बाँट देंगे तो वास्तुचक्र के आधे देवता तो बाहर ही रह जाएंगे और उनकी नाराजगी आपको एक दिन झेलनी ही पड़ेगी। सरकार को, पड़ौसियों को, ट्विन टॉवर में फ्लैट खरीदने वालों को धोखा देकर कुछ बेईमान अधिकारियों से मिलकर जो लूट मचाई गई थी, उसकी अंतिम परिणिति ट्विन टॉवर को ध्वस्त करके इस रूप में आई। 34 कम्पनियाँ चलाने वाले आर.के. अरोड़ा अभी तक भी बुकिंग कराने वालों के 14 करोड़ नहीं लौटा पाये हैं और कम्पनी भयंकर संकट में आ चुकी है।

ट्विन टॉवर के आसपास रहने वाले लोगों में भारी नाराजगी थी। जिन्होंने कोर्ट में मुकदमा लड़ा, उनका कहना था कि यह अवैध निर्माण है। इलाहबाद हाईकोर्ट ने दोनों टॉवरों को अवैध मानते हुए गिराने का आदेश दिया। अपील में सुप्रीम कोर्ट ने भी इन्हें अवैध मानते हुए नवम्बर, 2021 को 3 महीने के अंदर गिराने का आदेश दिया। आखिर में 28 अगस्त को टॉवर गिरा दिया गया।

अवैध निर्माण की कहानी -

23 नवम्बर, 2004 को प्लॉट नं. 4, एमराल्ड कोर्ट, नोयडा को आवंटित किया गया और 14 टॉवरों में 9 मंजिल की इजाजत दी गई। दिसम्बर, 2006 में नोयडा ऑथरिटी ने 2 मंजिल की इजाजत और दी। अब 11 मंजिलें हो गईं, फिर 15 टॉवर की और बाद में 16 टॉवर की इजाजत मिल गई। नवम्बर 2009 में 17 टॉवर का नक्शा पास करवाया गया। मार्च, 2012 में टॉवर 16 व 17 के लिए एफ.आई.आर. बढ़ाते हुए 40 मंजिल की इजाजत दी गई और ऊँचाई 121 मीटर तय की गई। आश्चर्य की बात यह है कि दोनों टॉवर्स के बीच 16 मीटर की दूरी जरूरी है जब कि यह 9 मीटर ही रखी गई। 2014 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तोड़ने का आदेश दिया और 24 अधिकारियों व कर्मचारियों के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज कराई गयी।

वास्तु उल्लंघन की कहानी -

1. लगभग त्रिकोणाकार भूखण्ड में सभी टॉवर्स का निर्माण किया जाना था। यह पहली बड़ी गलती थी। उसी दिन तय हो गया था कि इस भूखण्ड में संकट आएंगे। इस देश का साधारण सा मिस्त्री भी यह जानता है कि भूखण्ड या मकान गुणिये में होना चाहिए अर्थात् भूखण्ड या मकान की भुजाएँ एक दूसरे से समकोण में होनी चाहिए। यहां तो भूखण्ड ही त्रिकोण रूप में था।

2. निर्माण कार्य वहाँ से शुरु किये गये जहाँ से नहीं करने चाहिए थे। दक्षिण से शुरु ना करके उत्तर और उत्तर-पूर्व में भारी निर्माण कर लिये गये और वास्तु पुरुष को नाराज कर दिया गया।

3. इन टॉवर्स के ले-आउट प्लान के अध्ययन से यह पता चलता है कि मालिक आर.के. अरोड़ा या सुपरटेक बिल्डर्स पर वास्तुदोष तब तक काम करते रहेंगे जब तक कि अंतिम भूखण्ड बेचकर, प्रशासन के दृष्टिकोण से 100 प्रतिशत भूखण्ड को सोसायटियों के हवाले करके बाहर नहीं निकल जाते।

 

4.कई टॉवर्स का, कॉलम्स का फुटिंग प्लान वास्तु पुरुष के मर्म स्थानों को आहत करता है। मालिक लोग वास्तु पुरुष को सताकर कभी चैन की नींद नहीं सो पाएंगे।

5. इस भूखण्ड का विस्तार पूर्व से पश्चिम में अधिक है तथा नैऋत्य कोण या साउथ-वेस्ट का अतिरिक्त विस्तार है। यह दोष गारन्टी से मुकदमे लाता है व व्यक्ति या कम्पनी को दिवालिया कर देता है।

6. उत्तर और पूर्व से निर्माण शुरु करके उन्हें भारी कर दिया गया, तभी से यह भूखण्ड दैत्यपृष्ट की परिभाषा में आ गया। ऐसा होने से व्यक्ति में या कम्पनी में राक्षसी संस्कार आ जाते हैं, शोषण करता है।

7. साउथ-वेस्ट के अतिरिक्त विस्तार वाले भाग में ही यह ट्विन टॉवर बनाये गये और वास्तु पुरुष के उस भाग से छेड़छाड़ की गई जो राक्षसों की या राहु की जगह है। वे भड़क गये और उन्होंने परिणाम दे दिया।

मैंने नोयड़ा, ग्रेटर नोयडा, गाजियाबाद और द्वारिका में ऐसे बहुत सारे प्रोजेक्ट देखे हैं जिनमें बाद में दिल्ली विकास प्राधिकरण ने, या नोयड़ा ऑथॉरिटी ने या आवंटियों ने कानूनी कार्यवाहियाँ की हैं और प्रोजेक्ट रूक गये हैं। प्रोजेक्ट का तीन या चार साल ना बिकना भी निर्माताओं को भारी पड़ता है।

वैदिक वास्तु के रचनाकारों ने वास्तु के कार्य को बहुत वैज्ञानिक तरीके से होना बताया है और हर नियम के पीछे कोई ना कोई वैज्ञानिक आधार है। लालच में आकर बिल्डर्स नियमों का खुलकर उल्लंघन करते हैं और बाद में नुकसान होने पर ज्योतिषियों के पास भागते हैं। तब कोई उपाय बचता नहीं है। सरकार के बनाये कानून भी एक तरह से ईश्वरीय आदेश हैं। नियमों का उल्लंघन करके कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता। ऐसे में ना तो बिल्डर सुखी रह पाएंगे और ना बड़े टॉवरों में रहने वाले निवासी। सुपरटेक बिल्डर्स का उदाहरण सामने है, जिसमें जीवन भर कमाई गई पूँजी को वास्तुशास्त्र के उल्लंघन के फलस्वरूप निर्माताओं ने 9 सेकण्ड में ही सभी कुछ खो दिया।

 

गणेश चतुर्थी

भगवान श्री विनायक का जन्म भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को मध्याह्न के समय हुआ था। श्री गणेश चतुर्थी उत्सव पूजन तथा व्रत के लिए मध्याह्न व्यापिनी ही प्रशस्त होती है।

समस्त मांगलिक कार्यों में सर्वप्रथम पूज्य देव भगवान श्री विनायक वेद विहित हैं। मंगलमूर्ति भगवान श्री विनायक के नाम स्मरण, ध्यान, जप, आराधना एवं प्रार्थना से परम कल्याण होता है। समस्त कामनाओं की पूर्ति होती है और समस्त बाधा एवं कष्टों का निवारण होकर परम सुख की प्राप्ति होती है।

भगवान श्री गणेश आद्य पूज्य देव हैं उनका स्वरूप नितान्त अव्यक्त अचिन्त्य और अपार है। उनका रूप परम आराध्य, असामान्य और ध्येय है। भगवान गणेश की उत्पत्ति उनकी लीलाओं तथा उनके मनोरम विग्रह के विभिन्न रूपों का वर्णन पुराणों-शास्त्रों में प्राप्त होता है। मंगल मूर्ति भगवान गणेश की विभिन्न पुराणों में उत्पत्ति का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

पद्म पुराण : पद्म पुराण में श्री गणेश प्राकट्य के बारे में वर्णित है कि  माता पार्वती ने सुगंधित तैल और चूर्ण से अपने शरीर पर उबटन लगाया और उससे जो मैल गिरा उसे हाथ में उठाकर उन्होंने एक पुरुष आकृति बनायी, जिसका मुख हाथी के समान था। क्रीड़ा करते हुए उन्होंने उस गज मुख पुरुषाकृति को पुण्यसरिता गंगाजी के जल में डाल दिया। उनके पुण्यमय जल में पड़ते ही वह पुरुषाकृति विशालकाय हो गयी। माता पार्वती ने उसे पुत्र कहकर पुकारा फिर माता गंगा ने भी उसे पुत्र कहकर सम्बोधित किया। देव समुदाय में गजानन व गांगेय नाम से सम्मानित एवं पूजित हुए।

शिव पुराण : शिव पुराण में विघ्नविनायक भगवान गणेश के बारे में उल्लेख है कि माता पार्वती ने अपने पावन एवं पवित्र शरीर के मैल से एक चेतन पुरुष का निर्माण किया तथा उसे आशीर्वाद देकर पुत्र माना। माता पार्वती ने उसे द्वारपाल नियुक्त कर आज्ञा दी कि उनकी आज्ञा के बिना कोई अन्दर प्रवेश न करे। माता की आज्ञा पाकर बालक ने भगवान शिव को अपने घर में प्रवेश से रोके जाने पर भगवान शिव कुद्घ हो उठे। भगवान शिव पार्वती के प्राणप्रिय पुत्र से सर्वथा अपरिचित थे। युद्ध में उस बालक का सिर धड़ से अलग कर दिया। पुत्र शिरश्छेदन से माता पार्वती अत्यन्त कुपित हो गई और रौद्र रूप धारण कर लिया। माता पार्वती को शान्त करने के लिए भगवान शिव की आज्ञा से देवताओं ने उत्तर दिशा में सर्वप्रथम मिले एकदन्त वाले गज का सिर काटकर उस बालक के शरीर से जोड़कर उसे पुनः जीवित किया तथा देवताओं में सर्वप्रथम पूजनीय माना गया। इस प्रकार भगवान श्री गजानन जी का अवतरण हुआ।

ब्रह्मवैवर्त पुराण : इस पुराण में भगवान गणेश की उत्पत्ति के बारे में उल्लेख है कि एक बार भगवान श्री कृष्ण वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर माता पार्वती जी के समीप जाकर बोले कि देवी गणेश स्वरूप जो श्री कृष्ण है, वे कल्प-कल्प  में तुम्हारे पुत्र होते हैं। अब वे शिशु होकर शीघ्र ही तुम्हारी गोद में आएंगे, इतना कहकर ब्राह्मण रूप भगवान अन्तर्ध्यान हो गए हैं। कुछ समय पश्चात् माता पार्वती की शैय्या पर सुन्दर, मनोहर शिशु का प्रादुर्भाव हो गया। समस्त देवता उसे देखने आए लेकिन शनि की दृष्टि (पत्नी श्राप युक्त) से शिशु का सिर धड़ से अलग हो गया। सर्वत्र हाहाकार मच गया तब भगवान विष्णु गज शिशु मस्तक काटकर लाये और गणेश जी के मस्तक पर लगा दिया तभी से गणेश जी गजानन हो गए।

लिङ्ग पुराण : इसमें उल्लेख है कि देवताओं ने असुरों से परेशान होकर सर्वसिद्धि प्राप्ति के लिए भगवान शंकर के समीप पहुंचकर उनसे निवेदन किया कि करूणामुर्ति प्रभो देव शत्रु दानवों की उपासना से संतुष्ट होकर आप उन्हें वर प्रदान कर देते हैं और वे समर्थ होकर हमें अत्यन्त कष्ट पहुंचाते हैं। अतः उन देवद्रोही असुरों के कर्म में विघ्र उपस्थित हुआ करे, हमारी यही इच्छा है। भगवान ने देवताओं की इच्छापूर्ति का वरदान देकर देवसमुदाय को संतुष्ट किया। भगवान की माया से माता पार्वती के सम्मुख परम ब्रह्मस्वरूप बालक प्रकट हुआ जो परम तेजस्वी एवं गजमुखी था। भगवान शिव के आशीर्वाद से वे समस्त कार्यों की सिद्धि के लिए सर्वप्रथम पूज्य हुए तथा उनकी पूजा बिना कोई भी कार्यसिद्धि नहीं हो पाएगी।

स्कन्द पुराण : स्कन्द पुराण में इस बारे में उल्लेख है कि माता पार्वती ने अपने उबटन की बत्तियों से शिशु बनाकर उसे जीवित करके पुत्र मान लिया और उससे कहा-मैं स्नान कर रही हूं, तू किसी को भीतर मत आने देना। इसी दौरान भगवान शिव आ गये उस बालक ने भगवान को अन्दर जाने से रोका। दोनों में घोर युद्ध हुआ भगवान ने क्रुद्ध होकर उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। इसे सुनकर माता पार्वती बहुत रूदन करने लगी। उसी बीच गजासुर शिवजी से लड़ने आया। भगवान शिव ने उसका मस्तक काटकर बालक के धड़ पर जमा दिया। इससे भगवान श्री गजानन हो गए।

गणेश पुराण : गणेश पुराण में भगवान श्री गणेश के कतिपय अवतारों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है।

1.  महोत्कट विनायक : कृत युग में भगवान गणेश ने देवमाता अदिति के कठोर तप से प्रसन्न होकर पुत्र रूप में उत्पन्न होने का वरदान दिया।

भगवान श्री गणेश का देवमाता अदिति के पुत्र के रूप में अवतरण हुआ। वह बालक ओज शक्ति के कारण महोत्कट के नाम से विख्यात हुए।

2.मयूरेश्वर : त्रेता युग में भगवान गणेश ने मयूरेश्वर नाम से अवतार ग्रहण कर अनेक लीलाएं कीं और महाबली सिन्धु के अत्याचारों से सबको मुक्त किया। भगवान गणेश पार्वती के गणेश मन्त्र के जप करने से भाद्रपद मास की शुक्ला चतुर्थी को विराट रूप में पार्वती के सम्मुख प्रकट हुए। माता पार्वती की पुत्र इच्छा के कारण भगवान गणेश उनके पुत्र के  रूप में अवतरित हुए।

3. गजानन : द्वापर युग में गजानन का अवतार दुष्टों के विनाश के लिए हुआ था, उन्होंने दैत्य सिन्दूर का संहार कर सिन्दूर का रक्त अपने शरीर के अंगों पर पोत लिया। तभी से वे सिन्दूरहा, सिन्दूरप्रिय, सिन्दूरवदन कहलाये।

4. श्री धूमकेतु : श्री विनायक का कलियुगीय भावी अवतार  ‘धूमकेतु’ के नाम से विख्यात होगा। कलियुग के अन्त में घोर पापाचार बढ़ जाने पर वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा नष्ट हो जाने पर, देवताओं की प्रार्थना पर सदा धर्म की पुनः स्थापना के लिए वे इस पृथ्वी पर अवतरित होंगे और कलि का विनाश कर सत्ययुग की अवधारणा करेंगे।

 

बुद्धि के देवता गणेश जी

ज्योति शर्मा

ऋषियों और देवताओं मे बहस छिड गयी कि यज्ञ, हवन इत्यादि में सबसे पहले किसकी पूजा की जाए? सब मिलकर ब्रह्माजी के पास पहुंचे। ब्रह्माजी ने निर्णय लिया कि जो पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने के बाद सबसे पहले जो मेरे पास पहुंचेगा वही सर्वश्रेष्ठ होगा और प्रथम पूजा का अधिकारी होगा। देवताओं में जबर्दस्त दौड हो गयी और सब अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर दौड़ पड़े, पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने के लिए। अब गणेश जी परेशान एक तो लम्बोदर, भारी शरीर और वाहन भी चूहा। वे अपने वाहन को लेकर कैलास पर्वत गए और माता से आग्रह किया कि आप पिता के पास बैठ जाएं। गणेशजी ने माता-पिता की प्रदक्षिणा की और वापस ब्रह्मा के पास दौड़ पडे। ब्रह्माजी ने निर्णय लिया कि गणेश जी ने माता-पिता की ही नहीं, बल्कि इस रूप में पृथ्वी की व समस्त ब्रह्माण्ड की एक ही नहीं बल्कि सात प्रदक्षिणा करके वापस आ गए हैं। माता साक्षात देवी स्वरूप हैं और पिता नारायण। तब से गणेश जी प्रथम पूज्य हो गए।

गणेश जी का जन्म -

श्वेत कल्प में गणेशजी का जन्म हुआ। एक बार पार्वतीजी से उनकी सखियाँ जया और विजया ने कहा कि सारे ही गण शिवजी के पास हैं। आपको भी हमारे लिए एक गण की रचना करनी चाहिए। उन्होंने अपने शरीर के मैल से एक ऐसे चेतन पुरुष का निर्माण किया जो कि बहुत सुन्दर, शुभ लक्षणों से युक्त था। देवी ने उसका श्रृंगार किया और कहा कि तुम मेरे पुत्र हो, मेरे अपने हो और तुम्हारे समान प्यारा मेरा यहां कोई दूसरा नहीं है। ऐसा कहते ही उस पुरुष ने पार्वती जी मां कहते हुए प्रणाम किया। माता ने आग्रह किया और कहा कि  आज से तुम मेरे द्वारपाल हो जाओ और बिना मेरी आज्ञा के कोई प्रवेश न करें। एक समय जब देवी पार्वती जी स्नान कर रही थीं तो भगवान शिव द्वार पर आ पहुंचे। गणेश जी उन्हें पहचानते नहीं थे। गणेश जी प्रतिवाद किया और शिवगणों को भी भला-बुरा कहा। तब शिव जी के बुलाने पर सभी गण और देवता आ गए और गणेश जी से भीषण युद्ध हुआ। अंत में भगवान शिव ने त्रिशूल से गणेश जी का सिर काट दिया। पार्वतीजी इस पर नाराज हो गयी और उन्होंने सभी शक्तियों को प्रलय का आदेश दे दिया। सभी देवता उन्हें प्रसन्न करने में लग गए। देवी ने कहा यदि मेरा पुत्र जीवित हो जाए और तुम सभी के द्वारा पूज्य हो जाए तो सृष्टि का संहार नहीं होगा।

शिवजी के आदेश पर देवता उत्तर दिशा की ओर गए और जो पहला जीव मिला वह एक दांत वाला हाथी था। उसका सिर काटकर लाया गया और गणेश जी के सिर पर लगाया गया। रूद्र संहिता में यह उल्लेख है कि सभी देवताओं ने अपने तेज का प्रवेश कराकर जल को अभिमंत्रित किया और शिवजी का स्मरण करके उस जल को गणेश जी पर छोड़ दिया। गणेशजी पुनः जीवित हो गए। पार्वती जी ने आशीर्वाद दिया कि गणेश जी की सबसे पहले पूजा की जाएगी, चूंकि मुख पर सिंदूर दिख रहा था इसलिए सदा सिंदूर से पूजा की जाएगी। जो गणेशजी की विधि पूर्वक पूजा करेगा उसे सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाएंगी और सारे विघ्न दूर हो जाएंगे। गणेश जी को सर्वाध्यक्ष नियुक्त करने में ब्रह्मा, विष्णु व महेश सभी शामिल थे। शिवजी ने वरदान दिया कि हे गणेशवर! आप भाद्रपद चतुर्थी को उत्पन्न हुए हो अतः इस दिन का व्रत लोगों को शुभ फल प्रदान करेगा।

भाई कार्तिकेय ने विवाह नहीं किया गणेश जी के कारण -

माता-पिता की परिक्रमा का एक किस्सा यह भी प्रचलित है। गणेश और कार्तिकेय दोनों भाई हैं। दोनों में पहले विवाह करने की होड लग गयी। समाधान न निकलने पर दोनों माता-पिता शिव-पार्वती के पास पहुंचे। कोई निर्णय नहीं होने पर शिवजी ने आदेश दिया कि जो पृथ्वी की सात परिक्रमा करके हमारे पास पहंुचेगा उसका विवाह पहले किया जाएगा।

स्वामी कार्तिकेय जिनका नाम स्कंद भी हैं तो तुरन्त ही पृथ्वी की परिक्रमा के लिए दौड़ पडे। गणेश जी ने माता-पिता की विधिवत पूजा करके सात परिक्रमा कर ली और निश्चित होकर बैठ गए। बाद में कार्तिकेय जी आए, विवाद होने पर गणेश जी ने तर्क प्रस्तुत किया ‘मैंने अपनी बुद्धि से आप दोनों शिव-पार्वती की परिक्रमा कर ली है अतः मेरी समुद्र पर्यन्त पृथ्वी की परिक्रमा पूरी हुई।’ वेदों और शास्त्रों में यही प्रमाण है कि जो माता-पिता की पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करता है उसे पृथ्वी परिक्रमा जनित फल प्राप्त हो जाता है। शिवजी ने उनका तर्क स्वीकार कर लिया। इसी समय प्रजापति विश्वरूप आए और उन्होंने अपनी दो सुन्दर कन्याएं सिद्धि और बुद्धि का प्रस्ताव दिया और गणेशजी के साथ उनका विवाह कर दिया। सिद्धि के गर्भ से क्षेम (शुभ) उत्पन्न हुआ और बुद्धि के गर्भ से लाभ उत्पन्न हुआ।

कार्तिकेय जब परिक्रमा करकेलौटे तो नारद जी ने यह किस्सा सुनाया तो कार्तिकेय क्रोधित हो गए और बिना विवाह किए ही क्रोंच पर्वत पर चले गए। स्कंद या कार्तिकेय ने फिर कभी विवाह नहीं किया। देवी पार्वती को इससे बहुत दुःख हुआ और उनके आग्रह पर भगवान शिव अपने एक अंश के साथ उस पर्वत पर गए और मल्लिकार्जुन नामक ज्योतिर्लिंग के रूप में वहां स्थित हो गए।

 

आजादी की लड़ाई में गणपति पूजन

पूरे देश में गणेश चतुर्थी का उत्सव बड़े हर्षो-उल्लास के साथ मनाया जाता है। हर शुभ कार्य में गणेशजी का सर्वप्रथम आह्वान किया जाता है। महाराष्ट्र में गणपति उत्सव की नींव बाल गंगाधर तिलक के द्वारा सन् 1893-1894 में रखी गयी थी। गणेश चतुर्थी से 10 दिनों तक लगातार गणेश उत्सव पूरे महाराष्ट्र में बड़े उल्लास से मनाया जाता है। गणेश चतुर्थी लोक आस्था से जुड़ा हुआ पर्व है, लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में भी खास महत्त्व रहा है। सन् 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बाद राष्ट्र घोर अपवादों में था, तत्पश्चात् गणेश उत्सव की शुरुआत करने के लिए लोक मान्य बाल गंगाधर तिलक को काफी मुश्किलों व विरोध का सामना करना पड़ा था। अंग्रेजों से भारत को आजादी दिलाने में सार्वजनिक उत्सव लोगों को एकजुट करने का एक बड़ा माध्यम बना। इससे अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होकर लोगों ने धार्मिक मार्ग को चुना। श्रीगणेश जनमानस के सर्व प्रथम देवता हैं, उनके पूजन के नाम पर जनता में उत्साह जागृत हुआ और तिलकजी ने राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा से लोगों को जोड़ दिया। ब्रिटिश सरकार की नजरों से बचकर यह जनजागरण का सैलाब उमड़ा और अनन्त भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का महत्वपूर्ण अंग बन गया। बाल गंगाधर तिलक का साथ लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल, अरविदों घोष, राजनारायण बॉस और अश्विनी कुमार दत्त जैसे नेताओं ने दिया और सार्वजनिक गणेश उत्सव की शुरुआत की। बीसवीं सदी में सार्वजनिक गणेश उत्सव बहुत लोकप्रिय हो गया। गरीबी, बाढ़, भीड़, बेरोजगारी आदि समस्याओं के बीच ढोल की थाप पर नाचते हुए पूरे महाराष्ट्र में गणेश उत्सव 10 दिनों तक मनाया जाता है।

आज भी अधिकांश घरों में गणेश चतुर्थी के दिन गणपति बप्पा को विराजमान किया जाता है व सुबह-सायं उन्हें भोग लगाकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है व अपनी इच्छानुसार गणपति जी का विसर्जन किया जाता है। मुम्बई में लाल बाग के बादशाह का विशेष महत्व है। साथ ही सिद्धि विनायक तो विराजमान हैं ही परंतु हर गली-मौहल्ले, हर धर्म-सम्प्रदाय के लोग गणपति बप्पा मोरिया..... का आह्वान करते हुए अपने-अपने घरों से गणपति विसर्जन के लिए निकल पड़ते हैं और अपने सभी दुःखों व कष्टों को साथ ले जाने की प्रार्थना करते हैं। गणेश जी मंगल कार्य के आराध्य माने गये हैं, इसलिए महाराष्ट्र में मंगलवार के दिन गणेश मंदिरों में दर्शनों के लिए भक्तगण नजर आते हैं। गणेशजी की कृपा के बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता, इसलिए पूजन के अंत में आशीर्वचन के रूप में पण्डित जी यह मंगल कामना करते हैं कि ‘यान्तु देवगणाः सर्वे’ अर्थात् सभी देवी-देवता जिन्हें पूजन के लिए आमंत्रित किया गया था, वह अपने-अपने स्थानों पर पधारें तथा मंगल कार्य होने पर पुनः फिर बुलाया जाएगा परंतु लक्ष्मी, गणेश एवं रिद्धि, सिद्धि यहीं विराजमान रहें। स्पष्ट है कि माता लक्ष्मी और गणेश जी अपनी स्वधर्मी पत्नी रिद्धि-सिद्धि के साथ अपनी कृपा करते हैं तो लौकिक व परलौकिक जीवन सफल हो जाता है।

 

ऋषि पंचमी

भाद्रपद शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि को ऋषि पंचमी मनायी जाती है। इस दिन किए जाने वाले व्र्रत को ऋषि पंचमी व्रत कहा जाता है। जिन प्राचीन ऋषियों ने अपने सम्पूर्ण जीवन को त्यागकर वेदों के निर्माण में समर्पित कर दिया उन ऋषियों के प्रति हम सदैव ऋणी रहकर कृतज्ञता के साथ स्मरण करते रहेंगे। यह व्रत ज्ञात-अज्ञात में किए जाने वाले पापों के शमन के लिए किया जाता है अतः स्त्री-पुरुष दोनों ही इस व्रत को कर सकते हैं। स्ति्रयों से जाने-अनजाने में रजस्वला अवस्था में पूजा, घर के कार्य, पति को स्पर्श आदि हो जाता है तो इस व्रत से उनके पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत में सप्त ऋषियों सहित अरुन्धती का पूजन भी किया जाता है। इस व्रत के पीछे पौराणिक कथा का उल्लेख मिलता है।

सतयुग में श्येनजित् नामक एक राजा राज्य करता था। उसके राज्य में सुमित्र नामक एक ब्राह्मण भी रहता था जो वेदों का विद्वान था। सुमित्र खेती द्वारा अपने परिवार का भरण-पोषण किया करता था। उसकी पत्नी जयश्री सती, साध्वी और पतिव्रता थी। वह भी खेती के कामों में अपने पति का सहयोग किया करती थी। एक बार रजस्वला अवस्था में अनजाने में उसने घर के सभी कार्य कर लिए और पति को भी स्पर्श कर लिया। जिस कारण अगले जन्म में पत्नी को कुतिया और पति को बैल की योनि प्राप्त हुई। परंतु पूर्व जन्म में किए गए अनेक धार्मिक कार्यों के कारण उन्हें पूर्व जन्म की स्मृति ज्ञात थी। संयोग से इस जन्म में भी  वे साथ-साथ अपने पुत्र व पुत्रवधू के घर में साथ रह रहे थे। ब्राह्मण के पुत्र का नाम सुमित था। वह भी अपने पिता की भांति वेदों का ज्ञाता था। पितृ पक्ष में उसने अपने माता-पिता का श्राद्ध करने के उद्देश्य से पत्नी से कहकर खीर बनवायी और ब्राह्मणों को निमंत्रण दिया। उधर एक सर्प ने आकर खीर को विषाक्त कर दिया। कुतिया बनी ब्राह्मणी यह सब देख रही थी, उसने सोचा कि यदि इस खीर को ब्राह्मण खाएंगे तो विष के प्रभाव से मर जाएंगे और मेरे पुत्र सुमित को पाप लगेगा। ऐसा विचार करके कुतिया बनी ब्राह्मणी ने सुमित की पत्नी के सामने जाकर खीर को छू लिया। इस पर सुमित की पत्नी जो की उसकी बहू थी, उस पर बहुत क्रोधित हुई और चूल्हे से जलती हुई लकड़ी निकालकर उसको मारने लगी और उस दिन उसने कुतिया को भोजन भी नहीं दिया। रात्रि में कुतिया ने बैल को सारी घटना बतलायी। बैल ने कहा कि आज तो मुझे भी कुछ खाने को नहीं दिया गया, जबकि मुझसे दिनभर काम भी करवाया। सुमित हम दोनों के ही उद्देश्य से यह श्राद्ध कर रहा है और हमें ही भूखा मार रहा है। इस तरह हम दोनों के भूखे रह जाने से उसका श्राद्ध करना ही व्यर्थ हो गया। सुमित द्वार पर लेटा कुतिया और बैल की बातचीत को सुन रहा था। वह पशुओं की बोली भली-भांति समझता था। उसे यह जानकर अत्यन्त दुःख हुआ कि मेरे माता-पिता निकृष्ट योनियों में हैं। वह दौड़ता हुआ एक ऋषि के आश्रम में गया और उसने अपने माता-पिता के पशु योनि में आने का कारण और मुक्ति का उपाय पूछा। ऋषि ने योगबल और ध्यान से सुमित को सारी बातें बताई और उन्होंने सुमित को बताया कि तुम पति-पत्नी भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की पंचमी को ऋषि पंचमी का व्रत करें और उस दिन बैल के जोतने से उत्पन्न कोई भी अन्न न खाएं। इस व्रत के प्रभाव से तुम्हारे माता-पिता को मुक्ति मिल जाएगी। इस पर सुमित व उसकी पत्नी ने ऋषि पंचमी का व्रत किया और वैसे ही पूजा- आराधना की जैसे कि ऋषि ने बतलाया था। इस व्रत के प्रभाव से उसके माता-पिता पशु योनि से मुक्त हो गए।

व्रत करने का विधि-विधान - इस व्रत को करने वाले प्रातःकाल से मध्याह्न उपवास करके मध्याह्न के समय किसी नदी या तालाब पर जाकर अपामार्ग की दातौन से दांत साफ करें और शरीर पर मिट्टी लगाकर स्नान करें, इसके पश्चात् घर आकर पूजा के स्थान को शुद्ध करें व रंगोली के रंगों से सर्वतोभ्रद मण्डल बनाकर उस पर मिट्टी अथवा तांबे के बर्तन में जौ भरकर उस पर वस्त्र, पंच रत्न, फूल, गंध और अक्षत आदि रखकर व्रत के आरम्भ में संकल्प लें। कलश के पास अष्टदल कमल बनाकर उसके (कमल) दलों में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौत्तम, जमदग्नि तथा वसिष्ठ इन सप्त ऋषियों और वसिष्ठपत्नी देवी अरुन्धती की प्रतिष्ठा करनी चाहिए। इसके बाद सप्त ऋषि तथा अरुन्धती का षोडशोपचार पूर्वक पूजन करना चाहिए। इस दिन प्रायः लोग दही और साठी का चावल खाते हैं। नमक का प्रयोग वर्जित होता है। हल से जुते हुए खेतों का अन्न खाना वर्जित बताया गया है। दिन में केवल एक ही बार भोजन करना चाहिए। कलश आदि पूजन सामग्री ब्राह्मण को दान कर देना चाहिए। पूजन के पश्चात् ब्राह्मण भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करना चाहिए।

यह व्रत शरीर के द्वारा अशौचावस्था में किए गए स्पर्श तथा अन्य पापों के प्रायश्चित के रूप में किया जाता है। साथ ही पुरुषों को भी इस दिन संयम पूर्वक अर्थात् ब्रह्माचारी का पालन करना चाहिए व विचारों में भी कोई गलत विचार न आएं। समयानुसार पूजा-अर्चना की विधियों में थोड़ा परिवर्तन हो गया है। देशकाल परिस्थितियों को देखकर, मन व विचारों को शुद्ध रखकर इस व्रत का संकल्प लेकर व्रत सम्पन्न करते हैं जिसके फलस्वरूप अगले-पिछले जन्मों के कष्ट दूर हो