कुछ गंभीर दोष और उनके ज्योतिष उपाय

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो एडिटर

प्राचीन ऋषियों ने वर्तमान जन्म के दैहिक और भौतिक तापों का कारण पिछले जन्म के कर्मों को माना है। प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रश्न  मार्ग में तो ऐसी आधि-व्याधियों का वर्णन किया है जिनके कारण गत जन्म में किये गये कर्म हैं। उदाहरण के लिए जिसकी जन्म पत्रिका के छठे भाव का आठवें भाव से ज्योतिष सम्बन्ध हो जाये तो उसके वर्तमान जीवन के रोगों का कारण गत जन्म के किये गये कर्म हैं। ऐसे रोग तभी ठीक होते हैं, जब उन कर्मों के शमन के लिए आध्यात्मिक उपाय किये जायें। इनमें मंत्र, जप, दान इत्यादि भी शामिल हैं।

ग्रहों की शान्ति के उपाय करने में ऋषियों ने कुछ विशेष उल्लेख भी किये हैं। कुछ विशेष परिस्थितियों के वर्णन भी मिलते हैं। जैसे कि किसी का जन्म अमावस्या में हो तो विभिन्न प्रकार के कष्ट आते हैं। इसके निवारण के लिए एक कलश का शृंगार करके अग्निकोण में स्थापना कराई जाती है तथा चाँदी या ताँबे की सूर्य और चन्द्रमा की मूर्ति बनाकर विधि विधान से पूजन किया जाता है। बाद में हवन किया जाता है। उस कलश के जल से न केवल अमावस्या में जन्मी सन्तान बल्कि उसके माता-पिता का भी अभिषेक कराया जाता है।

अमावस्या का जन्म ना होकर कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को हो तो भी दोष माना गया है। चतुर्दशी को छह भागों में बाँट दीजिए। पहले भाग में जन्म हो तो शुभ, दूसरे भाग में जन्म हो तो पिता का नाश, तीसरे भाग में जन्म हो तो माता की मृत्यु, चौथे भाग में जन्म हो तो मामा को नुकसान, पाँचवे भाग में जन्म हो तो कुल का नाश और छठे भाग में जन्म हो तो खुद का विनाश होता है और धन का भी नाश होता है। इसके लिए भगवान शंकर की मूर्ति बनाकर शास्त्रों के अनुसार शृंगार करके वारुण मंत्र से आह्वान किया जाता है और महामृत्युंजय मंत्र से पूजा की जाती है। नवग्रहों का पूजन और भगवान शंकर का अभिषेक उचित यज्ञ समिधा के साथ हवन से पूर्ण होता है। इसमें संतान के साथ-साथ माता-पिता का भी अभिषेक होता है, इसलिए कलश थोड़ा बड़ा लेना चाहिए।

भद्रा, क्षय तिथि तथा व्यतिपात, परिध, व्रज आदि जो खराब योग कहे गये हैं, उनमें जन्म हो या यमघण्ट काल में जन्म हो तो भी अशुभ होता है। इसीलिए वही दिन जब दुबारा आवे तो इसमें विष्णु की पूजा की जाती है। अन्य ग्रहों की भी पूजा की जाती है। भगवान शंकर का अभिषेक किया जाता है तथा शिव मंदिर में ही दीप दान किया जाता है। पीपल का पूजन करके विष्णु भगवान के मंत्र से दोष की शांति हो जाती है।

नक्षत्रों को लेकर भी उल्लेख मिलते हैं। यदि माता-पिता के जन्म नक्षत्र में ही संतान का जन्म हो जाये या सगे भाई-बहिन के जन्म नक्षत्र में ही कोई और सन्तान हो जाये तो बहुत अशुभ परिणाम बताये गये हैं। शास्त्र तो यहाँ तक लिखते हैं कि मृत्युतुल्य कष्ट होता है। ऐसे में जन्म नक्षत्र की प्रतिमा बनाकर, उसका मंत्र जाप करके हवन किया जाता है। जैसे मूल शान्ति कराई जाती है, उसी प्रकार से यदि माता-पिता व भाई-बहिन के जन्म नक्षत्र में ही नई संतान आ जाये तो यह विधि अपनानी चाहिए।

सूर्य की गति के आधार पर कुछ संक्रांतियाँ प्रसिद्ध हो गई हैं। एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करने पर जो संक्रांति होती है, उनके नाम दिये गये हैं। जैसे कि घोरा, ध्वांक्षी, मंदा, मंदाकिनी, मिश्रा और राक्षसी इत्यादि। ठीक संक्रांति काल में जो जन्म लेता है, वह दुःखी होता है और धनाभाव में जीता है, उसकी शांति के लिए भी नवग्रह यज्ञ बताया गया है। किसी भी यज्ञ की मान्य विधियों से यह यज्ञ कराया जाता है। यहाँ भी शिव, सूर्य और चन्द्र इत्यादि की पूजा के साथ-साथ महामृत्युंजय मंत्र का पाठ किया जाता है। यज्ञ समिधा में तिल का प्रयोग सदा ही अच्छा माना गया है।

ग्रहणकाल का जन्म भी अच्छा नहीं माना गया है। इससे जीवन में बीमारियाँ, कष्ट, गरीबी और मृत्यु आती हैं। उपाय के रूप में सूर्यग्रहण में सूर्य की मूर्ति और चन्द्रग्रहण में चंद्रमा की मूर्ति बनायी जाती है। राहु की भी मूर्ति बनाई जाती है। राहु की शीशे की मूर्ति और अन्य की सोने-चाँदी की मूर्ति बनाई जा सकती है। छोटी सी मूर्ति बनाई जा सकती है। फिर इन ग्रहों की मंत्र पूजा तथा हवन किया जाता है। सूर्य की यज्ञ समिधा में आक की काष्ठ, चन्द्रमा की यज्ञ समिधा में पलाश, राहु की यज्ञ समिधा में दूर्वा तथा अन्य नक्षत्रों की समिधा के रूप में पीपल की लकड़ी से हवन किया जाता है। ऐसे सभी उपायों में कलश के जल से सन्तान का अभिषेक करना आवश्यक है। माता-पिता का भी अभिषेक हो जाये तो उत्तम रहता है।

गण्डमूल नक्षत्र -

मूल में जन्म के नाम से कुल मिलाकर छह नक्षत्रों में जन्म गण्डान्त का जन्म कहलाता है। उनमें तीन नक्षत्र बुध के हैं, जो कि आश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती हैं तथा तीन नक्षत्र केतु के हैं जो कि मघा, मूल और अश्विनी नक्षत्र हैं। जन्म के नक्षत्र के बाद करीब 27 दिन में वह नक्षत्र पुनः आता है। उस दिन उस नक्षत्र की शान्ति कराई जानी आवश्यक है। प्राचीन ऋषि तो यहाँ तक कहते थे कि गण्डान्त में जन्में बच्चों का मुँह पिता तब तक नहीं देखे, जब तक कि उस नक्षत्र की शान्ति नहीं हो जाये। यह उपाय लोकप्रिय रहा है और इसके उपाय के रूप में तिथि के स्वामी, गण्ड नक्षत्र के स्वामी तथा लग्न गण्ड में लग्न के स्वामी का पूजन किया जाता है और हवन किया जाता है और कलश के जल से संतान का अभिषेक किया जाता है। इससे मूल शान्ति हो जाती है।

इसके अलावा ऋषियों ने पिछले जन्म के शाप से कुछ गंभीर परिणाम इस जन्म में आना बताया है। विशेष तौर से उन शापों की वजह से सन्तान का नाश होता है। यह कहा गया है कि बृहस्पति, लग्न के स्वामी, सप्तम भाव के स्वामी और पंचम भाव के स्वामी निर्बल हों तो सन्तानहीन योग बनता है। राहु और मंगल से सन्तान हानि या सन्तान ना होना बताया है। अगर इनका सम्बन्ध पाँचवें भाव से जुड़ जाये तो यह माना गया कि पिछले जन्म का राहु का शाप है। गत जन्म में पिता की अवज्ञा से भी इस जन्म में सन्तान हानि बतायी गई है। उपाय रूप में गया श्राद्ध बताया गया है। शास्त्रों में माता, भाई, पत्नि आदि के शाप से भी सन्तान हानि होना बताया गया है। इन सब के उपाय भी बताये गये हैं जो कि आमतौर से सम्बन्धित ग्रह की शान्ति, यज्ञ तथा दान इत्यादि बताया गया है। बावड़ी, कूप, तालाब इत्यादि बनाना तो बहुत ही कल्याणकारी माना गया है।

 

धन का दान, भोग या विनाश

द्रव्य अर्थात् धन के गमन के तीन मार्गों को शास्त्रकारों ने बताया है। दान, भोग तथा विनाश ये तीन मार्ग हैं। धन के बारे में अत्यंत महत्वपूर्ण तथा रोचक तथ्य है धनागम अर्थात् धन का आगमन। धन के आगमन और संचय के बारे में भी कई योग गढ़े गए हैं। प्रस्तुत चर्चा में मात्र धन के गमन के तीनों मार्गों की चर्चा की गई है।

दान, भोग या विनाश यह तीनों जन्मकुण्डली के द्वादश भाव में देखें जा सकते हैं। द्वादश भाव, द्वादश भाव में स्थित ग्रह, द्वादशेश की पत्रिका में स्थिति आदि के आधार पर दान, भोग या विनाश की स्थिति एवं मात्रा का अनुमान लगाया जा सकता है। दान का संबंध धर्म से होने के कारण दान के लिए नवम भाव भी महत्वपूर्ण है। धन का विनाश तभी संभव है जब धन का संचय अस्तित्व में हो अतः धन क्षय के लिए द्वितीय भाव का भी विचार करना आवश्यक है।

धन के दान के बारे में विविध ग्रंथों मे अनेक योग व वर्णन मिलते हैं। बड़े-बड़े दानी लोगों की कथाएँ भी उपलब्ध हैं। दान में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले राजा बलि से लेकर कवच कुण्डल दान करने वाले महादानी कर्ण और रन्तिदेव राजा तक अनेक नाम गिनाए जा सकते हैं।

ज्योतिष ग्रंथों में दानशील होने के जो योग बताए गए हैं उनमें से प्रमुख योग निम्न हैं -

1.            नवमेश उच्चराशि में स्थित होकर शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो व्यक्ति दानशील होता है।

2.            नवम भाव में शुभ ग्रह स्थित हों अथवा नवम भाव शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो व्यक्ति दानी होता है।

3.            लग्न पर नवमेश की पूर्ण दृष्टि हो व लग्रेश केन्द्र्रस्थ हो तो व्यक्ति महादानी होता है।

4.            नवमेश, चतुर्थ भाव में तथा दशमेश केन्द्र में स्थित हों व द्वादशेश गुरु से दृष्ट हो तो व्यक्ति दानशील होता है।

5.            उच्च राशि में स्थित बुध, यदि नवमेश से दृष्ट हों तथा एकादश भाव या केन्द्र में स्थित हो तो व्यक्ति दानी होता है।

बलवान द्वितीयेश यदि केन्द्र या उपचय भावों में शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो व्यक्ति अन्नदानकर्त्ता होता है।

धन या संपत्ति के गमन का दूसरा मार्ग है भोग। व्यक्ति अपनी संपत्ति का व्यय अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए करता है, इसे ही भोग कहते हैं। भोग का अर्थ यहाँ उपयोग से है। धन का उपयोग ही भोग है। धन या संपत्ति के भोग के कुछ योग यहाँ वर्णित किए गए हैं।

1.            चंद्रमा व्ययेश होकर नवम भाव, एकादश भाव या पंचम भाव में स्थित हों या अपनी उच्च राशि या नवांश में हों तो व्यक्ति भव्य मकान, शैया आदि के भोग करने वाला होता है। वस्तुतः यह स्थिति केवल सिंह लग्न में ही हो सकती है।

2.            लग्न या चंद्रमा से दशम भाव में शुभ ग्रह स्थित हों तो अमला योग होता है। इस योग में जन्म लेने वाला व्यक्ति संपन्न, दानी तथा भोगी होता है।

3.            लग्न में स्थिर राशि हो, शुक्र केन्द्र में हों तथा चंद्रमा त्रिकोण में शुभ ग्रह से युक्त तथा शनि दशम में हों तो कुसुम योग होता है। यह योग भी केवल वृषभ, सिंह, वृश्चिक व कुंभ लग्न में ही संभव है। कुसुम योग में जन्मा हुआ व्यक्ति राजा के समान संपन्न, दानी व भोगी होता है।

4.            शुक्र की द्वादश भाव में स्थिति से व्यक्ति अपने धन का संपूर्ण आनंद लेता है और भोगी होती है।

धन के गमन का तीसरा मार्ग है - विनाश। व्यक्ति अपने कर्मों द्वारा धन को खो बैठता है या भाग्यवश धन उससे छिन्न जाता है। यही विनाश है। धन नाश व विनाश के योगों में निम्नलिखित योग प्रमुख रूप से आते हैं -

1.            द्वादशेश यदि लग्न में स्थित हों तो व्यक्ति फिजूलखर्ची के कारण अपने धन को खो बैठता है।

2.            द्वादश भाव में पाप ग्रह हों या द्वादशेश पाप प्रभाव में हो तो व्यक्ति के धन की हानि होती है।

3.            द्वितीयेश यदि छठे भाव में हो तो शत्रु के कारण धन नाश होता है।

4.            द्वितीय भाव में चंद्रमा से दृष्ट बुध स्थित हों तो धन नाश होता है।

5.            धनकारक (बृहस्पति) से द्वितीय, चतुर्थ और पंचम भाव में पाप ग्रह हों तो व्यक्ति के धन का नाश होकर वह दरिद्र हो जाता है।

6.            द्वितीयेश व द्वादशेश का स्थान परिवर्तन हो तो राजा के समान धन होते हुए भी उस धन का नाश हो जाता है।

धन की आय, संचय, भोग, दान व विनाश ये सभी विषय आपस में जुड़े हुए हैं अतः द्वितीय भाव, एकादश भाव व द्वादश भाव के परस्पर शुभाशुभ संबंधों से दान, भोग या विनाश का निर्धारण किया जा सकता है।

 

जप एवं माला का रहस्य

किसी प्रकार की सिद्धि प्राप्त करने से पूर्व जप के नियमों एवं माला की जानकारी परम आवश्यक है। सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार हमारे हाथ की अंगुलियों को वर्ण एवं तत्वानुसार विभाजन किया है। अंगूठे को अग्नि तत्व का प्रतीक माना गया है। अंगूठे के पास वाली अंगुली को तर्जनी, तर्जनी के पास सबसे बड़ी अंगुली को मध्यमा, मध्यमा के पास अनामिका एवं अनामिका के पास सबसे छोटी अंगुली को कनिष्ठिका कहा गया है।

अंगूठा, मणिपूर चक्र एवं अग्नि तत्व से संबंधित होने के कारण इच्छा शक्ति, मोक्ष प्राप्ति में सर्वश्रेष्ठ माना गया है।  अग्नि तत्व से संबंधित होने के कारण इष्ट सिद्धि में विशेष सहायक होता है। तर्जनी को वायु तत्व एवं शूद्र जाति का माना गया है। इसका संबंध अनाहत चक्र से होने के कारण, उच्चाटन की क्रियाओं के सिद्धि हेतु जप में इसका प्रयोग किया जाता है। सामान्यतया जप में तर्जनी से माला का स्पर्श भी निषेध होता है। मध्यमा आकाश तत्व एवं वैश्य जाति की प्रतिनिधि होने के कारण, लक्ष्मीजी की विशेष कृपा प्राप्ति हेतु इससे जप करना श्रेष्ठ है।  अनामिका, जिसे पृथ्वी तत्व एवं क्षत्रिय जाति का माना जाता है, इसे सूर्य की अंगुली भी कहा जाता है। अतः अपनी प्रभाव क्षमता एवं तेज को सूर्य के समान बनाने हेतु अनामिका से जप करना चाहिए।

कनिष्ठिका ब्राह्मण वर्ण एवं जल तत्व की मानी जाती है। जप में यह अंगुली आधार स्तभ होती है। जिस प्रकार बिना जल के दिया गया दान निष्फल होता है, उसी प्रकार संख्याहीन जप भी निष्फल होता है, अतः जप करते समय माला का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। यदि माला उपलब्ध नहीं हो तो करमाला से भी जप किया जा सकता है।

जप करते समय जिस देवी-देवता की पूजा कर रहे हैं उस देवी-देवता की प्रिय मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए। जप काल में बातें करना, पैर इधर-उधर करना, नाखून काटना या किसी वस्तु को बार-बार इधर-उधर करना एवं बालों में हाथ फेरना वर्जित है अन्यथा जप का फल मिलना मुश्किल है।

माला में रुद्राक्ष की माला सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। रुद्राक्ष माला से किया गया मंत्र जाप लाभदायक है। जप हेतु माला 108 दानों की, 54 दानों की या 27 दानों की होनी चाहिए। इससे कम दानों की माला अधम कही गई है। तुलसी की माला भी, मंत्र जप हेतु श्रेष्ठ मानी गई है। कालिका, छिन्नमस्ता व त्रिपुरा देवी तथा भगवान शंकर व गणपति देव के जप करते समय रुद्राक्ष की माला प्रयुक्त की जा सकती है। अन्य देवियों के मंत्र जप हेतु रुद्राक्ष माला का भी निषेध बताया गया है। लक्ष्मी मंत्र जप हेतु कमलगट्टे की माला उत्तम होती है। शत्रु के विनाश हेतु मारण, उच्चाटन व विद्वेषण कर्म हेतु भी कमलगट्टे की माला का प्रयोग किया जाता है। माता दुर्गा एवं देवी उपासना में लाल चंदन की माला का प्रयोग सर्वोत्तम होता है। ग्रह बाधाओं को दूर करने में रीठा की माला एवं धंुधली की माला का उपयोग किया जा सकता है।

जप करने के स्थान निर्धारण के बारे में शास्त्रों में निर्देश है कि घर में बैठकर करने से जितना जप करेंगे, उतना ही फल मिलेगा। गौशाला में सौ गुणा, मंदिर में सहस्र गुणा, लाख गुणा पर्वत पर एवं शिव चरणों में जप करने से अनन्त गुणा फल की प्राप्ति होती है। जप से पूर्व माला की ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः से प्रार्थना करनी चाहिए। फिर -

माँ माले महामाये सर्वशक्ति स्वरूपिणी।

चतुर्वर्गस्तवापि न्यस्तस्त स्मान्मे सिद्धिदाभव॥

अविंघ्नं कुरु माले त्वां गृह्णामि दक्षिणे करे।

जप काले सिद्ध्यर्थं प्रसीद्ध मम सिद्धये॥

अक्षमालाधिपतये नमः सुसिद्धिं देहि देहि सर्व मंत्रार्थ साधिनी साधय साधय सर्वसिद्धि परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा। इस प्रकार माला की प्रार्थना व पूजा के पश्चात् जप प्रारंभ करना चाहिए एवं जप के पश्चात् देवी हेतु -

गुह्यातिगुह्य गोप्ती त्वं गृहाणास्मतकृतं जपम्।

सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्महेश्वरी॥

व देव जप के पश्चात गोप्ती की जगह गोप्त, देवी की जगह देव व महेश्वरी की जगह महेश्वर का उच्चारण कर जप अर्पण करना चाहिए। मंत्र जप हेतु गुरु से दीक्षा, सफलता का प्रतिशत निर्धारित करती है अतः केवल पुस्तक ज्ञान को आधार मानकर, जप करने से कुछ समय अवश्य लगता है। उड्डीश तंत्र में तो यहाँ तक कहा गया है कि -

पुस्तके लिखिता विद्या नैव सिद्धिप्रदा नृणाम्।

गुरुं विनापि शस्त्रेऽस्मिन्नाधिकार : कथंचन॥

 

मंत्र योग और ज्योतिष

सामान्यतया योग से योगाभ्यास और विभिन्न यौगिक क्रियाओं का अर्थ लिया जाता है लेकिन योग का अर्थ यहीं समाप्त नहीं हो जाता बल्कि योग का अर्थ होता है जोड़ या संयोग। भारतीय साहित्य में कई योगों का वर्णन मिलता है। जैसे - प्रेमयोग, कुण्डलिनी योग, राजयोग, सांख्य योग, लय योग आदि। इसी क्रम में मंत्र योग आता है। श्रीमद्भागवत में भी लिखा है-

आशु हृदयगंरथि निर्जिहीर्षुः परात्मनः।

विधिनोपचरेद देवं तंत्रोक्तेन केशवम्।।

जो शीघ्र हृदयगंथि का भेदन चाहता है, वह वैदिक व तांत्रिक दोनों ही विधियों से केशव का अर्चन करें। यहां केशव शब्द उपलक्षण है। शिव, शक्ति, सूर्य आदि देवताओं का पूजन विहित है।

अतः मंत्र साधना लौकिक तथा अलौकिक दोनों प्रकार के लाभ कराने वाला योग है परंतु जिस प्रकार गलत समय पर किया गया, सही कार्य भी निष्फल हो जाता है, उसी तरह गलत समय प्रारम्भ की गयी साधना भी फलदायी नहीं होती अतः हम ज्योतिष के माध्यम से शुभ मुहूर्त जानकर साधना द्वारा इच्छित लाभ उठा सकते हैं।

किसी भी योग साधना में गुरु का होना अति आवश्यक है। गुरु की कृपा के बिना हम उस साधना की कार्यप्रणाली तथा उसमें आने वाली समस्याओं से अवगत नहीं हो पाते अतः किसी योग्य गुरु से दीक्षा अवश्य लेनी चाहिए और कबीरदास जी ने भी लिखा है -

बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दिया बताय।

अतः दीक्षा तो अवश्य लेनी चाहिए।

दीक्षा के लिए उपयुक्त मास : दीक्षा के लिए मलमास, भाद्रपद तथा पौष के माह वर्जित कहे गए हैं। आश्विन, कार्तिक, मार्गशीष, फाल्गुन तथा आषाढ़ मास शुभ कहे गए हैं।

पक्ष : ईश्वर प्राप्ति अर्थात् आध्यात्मिक लाभ के लिए कृष्ण पक्ष तथा भौतिक सुखों व सिद्धियों के लिए शुक्ल पक्ष उत्तम रहता है।

तिथि : चंद्रमा की प्रत्येक कला तिथि कहलाती है। इस क्रम में द्वितीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी तथा पूर्णिमा तिथियां शुभ मानी गयी हैं।

दिन : दीक्षा के लिए मंगलवार तथा शनिवार वर्जित माने गए हैं क्योंकि ज्योतिष में इन दिनों में कू्रर कर्म करने का प्रावधान है अतः रविवार, सोमवार, बुधवार, गुरुवार व शुक्रवार दीक्षा के लिए उपयुक्त हैं।

लग्न : लग्न, काल खण्ड का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। हमारे संपूर्ण जीवन तथा शरीर पर लग्न का प्रभाव पड़ता है अतः दीक्षा काल पर पड़ना भी स्वाभाविक है। मेष, कर्क, वृश्चिक, तुला, मकर और कुंभ राशियाँ दीक्षा हेतु उपयुक्त हैं।

नक्षत्र : एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। इनका विचार भी किया जाना आवश्यक है। पुष्य नक्षत्र सर्वश्रेष्ठ होता है। इसके बाद हस्त, अश्विनी, रोहिणी, स्वाति, विशाखा, ज्येष्ठा, तीनों उत्तरा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा व आर्द्रा नक्षत्र उपयुक्त माने जाते हैं।

सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण, सदा शुद्ध और प्रभावी माने जाते हैं।

जिस प्रकार दीक्षा लेने में मुहूर्त का महत्व है, उसी प्रकार साधना प्रारम्भ करने में भी इसका महत्वपूर्ण स्थान है। निषिद्ध समय में प्रारम्भ होने वाली साधना में विघ्र पड़ता है और वह अधूरी रह जाती है, अतः साधना प्रारम्भ करते समय दिशा, तिथि आदि का विचार अवश्य करना चाहिए।

पूर्व दिशा : इस दिशा की ओर मुँह करके वे साधानाएँ की जाती हैं जिनका उद्देश्य देव कृपा प्राप्त करना, सात्विक उद्देश्यों की पूर्ति या सम्मोहन सिद्धि प्राप्त करना हो। इसमें वशीकरण के लिए शनिवार व सप्तमी, आकर्षण के लिए तृतीया और त्रयोदशी व सम्मोहन के लिए अष्टमी व नवमी उपयुक्त हैं।

पश्चिम दिशा : इस दिशा की ओर मुँह करके वे साधनाएँ करनी चाहिएं जिनका उद्देश्य धन, संपत्ति, वैभव, मान, यश आदि प्राप्त करना हो। इसमें धन लाभ के लिए रविवार, संतान व ऐश्वर्य के लिए गुरुवार तथा प्रतियोगिताओं में सफलता व यश के लिए बुधवार व गुरुवार उपयुक्त हैं।

उत्तर दिशा : इस दिशा की ओर मुँह करके वे साधनाएँ की जाती हैं, जिनका उद्देश्य आरोग्य प्राप्ति, शांति व रोग नाश होता है। इसके लिए मंगलवार का दिन उपयुक्त है।

दक्षिण दिशा : इस दिशा की ओर मुँह करके वे साधनाएँ की जाती हैं, जिनका उद्देश्य दूसरों को हानि पहुँचाना है अर्थात् अभिचार कर्म करना हो।