शुक्र और गंधर्व विद्याएँ

पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

शुक्र को गंधर्व विद्याओं के लिए अत्यंत उत्तम माना जाता है। भारत में प्राचीनकाल में राजपुत्रों को शिक्षा के लिए राजनर्तकी के पास भेजा जाता था। राजनर्तकी को अलग से महल प्रदान किए जाने के उल्लेख इतिहास में मिलते हैं।

मध्यकालीन भारत में गंधर्व विद्याओं पर बहुत अधिक ध्यान दिया जाता था। गीत-संगीत की बहुत उन्नति मुगलकाल में मिलती है जिसके प्रमाण स्वरूप ग्रंथ, राग-रागनियों पर आधारित चित्र, फ्रेस्को और टेम्पेरा चित्रकलाओं के राजमहलों की दीवारों पर उपलब्ध बोलते हुए चित्र तथा आईने अकबरी जैसे इतिहास बताने वाले ग्रंथों में तानसेन जैसे संगीतकार के बारे में वर्णन  उपलब्ध हैं। वास्तुकला में भी शुक्र की परम्परा उपलब्ध है। मयमतम् असुर संस्कृति की वास्तु रचना है। मयासुर शुक्राचार्य के शिष्य माने गए हैं। मयमतम् में उच्चकोटि का निर्माण कौशल मिलता है। भवन या प्रासाद निर्माण में जब अलंकरण पक्ष आता है तो यह विषय बुध जो कि शिल्प के ग्रह हैं के क्षेत्राधिकार से निकलकर मामला शुक्र के पास चला जाता है। निजी जीवन में भी अलंकरण पक्ष शुक्र का ही क्षेत्राधिकार है। शुक्र का काम से गहरा संबंध है इसलिए काम से संबंध रखने वाली सभी बातें, कमनीयता एवं क्रियात्मक पक्ष, ये सभी शुक्र से नियंत्रित हैं।

फ्रॉयड ने मनोविज्ञान पर जो सबसे महत्वपूर्ण बात लिखी है, वह यह है कि जन्म के तुरन्त पश्चात भी तथा बाद में भी व्यक्ति का हर कार्य, आवेग या संवेग काम से प्रभावित होता है। हर कार्य के मूल में काम की इच्छा है, भले ही जिसे हम व्यवहार जगत में ‘काम’ समझते हैं, उसकी उम्र ही नहीं हुई हो। बचपन में जो दमित इच्छाएं रह जाती हैं, उनकी पूर्ति शेष जीवन में मनुष्य किसी न किसी भांति करता है। मान लीजिए किसी को छह महीने की उम्र में माता के सुख से वंचित रहना पड़ा तो वह व्यक्ति फ्रॉयड के मनोविज्ञान के नियमों के अनुसार जीवनभर उस अतिरिक्त इच्छा की पूर्ति के लिए स्ति्रयों में माँ को खोजता रहेगा। फ्रॉयड का तो यहां तक कहना है कि माँ और पुत्र के बीच में स्नेह के मूल में भी काम तत्व मौजूद रहता है। यदि यह बात सत्य है तो शुक्र का मानव जीवन पर अत्यधिक प्रभाव माना जा सकता है।

आजकल गंधर्व विद्याओं का प्रचलन जिन स्वरूपों में हैं उनमें फिल्म उद्योग से जुड़ी बातें, फिल्मी गानों पर आधारित नाच-गान इत्यादि प्रमुख हैं। संगीत का और नृत्य का शास्त्रीय पक्ष गौण हो गया है और उसके नए शास्त्रीय नियम बन गए हैं। विचित्र संगीत को ही मुख्यधारा मान लिया गया है। शुक्र जब विकृत होते हैं तो सार्वजनिक आचरण में व निजी आचरण में अभद्रता को भी स्थान मिल जाता है। ज्योतिषी को इन सबमें अंतर करना ही पड़ेगा। एक बलात्कारी को जितना दोषी माना जाता है, चार पत्नियां रखने वाले को इतना दोषी नहीं माना जाता। एक फिल्म स्टार जब राजनीति में आता है तब उसके चरित्र दोष की चर्चा नहीं होती परंतु जब एक प्रधानमंत्री का कोई किस्सा सामने आता है तो देशभर में चर्चा का विषय बन जाता है। शुक्र समान अनुपात में दोनों जन्मपत्रिकाओं में हैं परंतु परिणाम का परिमाण अलग-अलग प्रतीत होता है। मेरा मानना है कि स्त्री और पुरुष की त्रिंशांश कुण्डली में शुक्र और मंगल के त्रिंशांशों में जो दोष खोजे गए हैं उनमें संशोधन कर लिया जाना चाहिए। बहुत सारे दोषों का परिमार्जन जातक के लोककलाओं में प्रवेश करते ही हो जाता है। मैंने विकृत शुक्र के कारण स्वयं के अंगों के प्रदर्शन की अप्रत्यक्ष चेष्टाओं वाले योगों को मीडिया में प्रकाशित होने वाले व्यक्तियों की त्रिंशांश कुण्डलियों के समकक्ष ही पाया। एक मामले में यह योग अत्यंत अभद्र माना जाता है और दूसरे मामले में यह योग भद्र मान लिया जाता है। यदि इन सब पर गौर करें तो शुक्र के नैसर्गिक कारकत्व की परिभाषा में कुछ नए आयाम जोड़ने पड़ेंगे। अब नीच नवमांश में यदि शुक्र हो तो जन्मपत्रिकाओं में चरित्र दोष खोजने की बजाय यह खोजा जाना चाहिए कि बुध और शुक्र के संयोग से किन नए व्यवसायों को जन्म मिल रहा है। सॉफ्टवेयर, हार्डवेयर, कम्प्यूटर का साधारण काम, ड्रेस डिजायनिंग, फैशन डिजायनिंग, इंटीरियर डेकोरेशन, एरो-बिक्स, योगा, कुछ खेल प्रतियोगिताएं जैसे जिम्नास्टिक तथा स्केटिंग व स्कीइंग जैसी प्रतियोगिताएं शुक्र के प्रभाव के बिना नहीं हो पाती हैं। जितने भी सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं या इंफोर्मेशन टैक्नोलॉजी वाले लोग हैं, उनमें बुध और शुक्र का उचित संयोजन आवश्यक है। ये सब योग प्राचीन शास्त्रों में नहीं मिलते हैं। योग हैं परंतु उनका आधुनिक विश्लेषण करना पड़ेगा। विषय बदल गए हैं और आधुनिक संदर्भ में ग्रहों के योगों का नए विषयों से संयोजन करना पड़ेगा।

शुक्र की राशियां जिस भाव में होती हैं उस भाव से संबंधित विषयों में शुक्र के गुण आ जाते हैं। उदाहरण के तौर पर पंचम भाव में शुक्र की राशि है तो संतान के जीवन के विषय शुक्र से संबंधित अधिक होंगे। यदि संतान का व्यवसाय कोई पूछे तो उसे बताया जाना चाहिए कि संतान का व्यवसाय या तो शिक्षा होगी या कॉस्मेटिक्स या कोई शो-बिजनेस या कलाओं से संबंधित या गीत-संगीत से संबंधित या आधुनिक शिक्षा प्रणालियां जिनमें विज्ञान या उपकरणों का प्रयोग होता है या उच्चकोटि की सम्प्रेषण तकनीकी का इस्तेमाल होता है, से संबंधित व्यवसाय करेगा। आज शुक्र से संबंधित हजारों विषय हैं, उनका विश्लेषण प्राचीन योगों की विषय सीमाओं को देखते हुए किया जाना चाहिए।

गंधर्व विद्याएँ - समस्त गंधर्व विद्याओं के जनक शुक्र हैं। इन्द्र सभा में जो अप्सराएँ, विद्याधर व गंधर्व नृत्यगान इत्यादि करते हैं वे सर्वथा निर्दोष तथा काम रहित होते हैं परन्तु लालित्य एवं सौन्दर्य पक्ष का पालन पूर्णतः मिलता है। मर्त्यलोक में गंधर्व विद्याओं के संदर्भ में कमनीयता और सौन्दर्य लिप्सा भी अतिरिक्त विषय हो जाते हैं। चन्द्रमा की कल्पनाशीलता गंधर्व विद्याओं में भाव प्रवण सौन्दर्य प्रस्तुति पर ध्यान केन्दि्रत करती है तथा बुध ग्रह गंधर्व विद्याओं को बुद्धि चापल्य और व्यावसायिकता से जोड़ते हैं। बुध से उद्भूत प्रत्युत्पन्न मति गंधर्व विद्याओं में आकस्मिकता का पोषण करती है और तद्जनित व्यवहार सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। एक राजसभा में प्रस्तुतिकरण तथा एक व्यावसायिक मंच पर प्रस्तुतिकरण में निश्चित और सापेक्ष अंतर होता है। शुक्र को मंगल का पोषण मिलने के बाद जिस निर्लज्ज प्रस्तुतिकरण की आवश्यकता धन के दोहन में पड़ती है, वह कदाचित् दैहिक शोषण के मार्ग भी प्रशस्त करती है। यह गवेषणा है कि मंगल निश्चित रूप से सौन्दर्य की धार को बढ़ा देते हैं और धन दोहन का माध्यम बन सकते हैं परन्तु यह कला केवल बुध के माध्यम से ही सम्पन्न हो सकती है अन्यथा अधिकांश योग अधिक काम या चरित्र दोष में बदल जाते हैं। मंगल शुक्र युति को यदि बृहस्पति जैसे ग्रहों का प्रभाव मिल जाए तो व्यक्ति काम पक्ष को नियंत्रित कर लेता है और अपना सम्मान बनाए रखता है।

सत, तम, रज -  शुक्र रज हैं। तामसिक वृत्तियों के मूल में राहु और शनि जैसे ग्रह प्रेरणा दे सकते हैं परन्तु राजसी लक्षण शुक्र की ही देन है। शुक्र जब अनियंत्रित हो जाते हैं और लोक कल्याण के विरुद्ध कार्य करने लगते हैं तो उनकी वृत्तियाँ तामसिक हो जाती हैं। जगत की उत्पत्ति में रज और तम का अत्यधिक योगदान है अन्यथा जगत का प्राकट्य ही नहीं होता। इस सन्दर्भ में रज शब्द में राजसी लक्षण प्रच्छन्न रूप से समाहित है और शुक्र प्रदत्त शासन व्यवस्था की ओर संकेत करते हैं।

 

पुत्र प्राप्ति हेतु-गुरु कृपा एवं गुरु आशीर्वाद

प्रत्येक दम्पत्ति अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिए कई अभिलाषाएं रखता है। उनमें से एक महत्त्वपूर्ण अभिलाषा संतान सुख की होती है। संतान का पुत्र या पुत्री कुछ भी होना संभव है लेकिन भारतीय परम्परानुसार पुत्र प्राप्ति को आवश्यक माना गया है। पुत्र संतान परिवार का संचालन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक करने के साथ-साथ वृद्धावस्था में जीवन का सहारा बनकर साथ देती है। इसी कारण लोगों की अभिलाषाएं पुत्र संतान के प्रति चर्मोत्कर्ष पर होती हैं। वर्तमान में पुत्री भी पुत्र का हक अदा कर रही है। पूर्वकाल से ही गुरु कृपा को सर्वोच्च मना गया है। अतः ऐसा कई बार साक्षात् अनुभव में आया है कि गुरु की कृपा एवं आशीर्वाद प्राप्त हो जावें एवं पुत्र संतान का अभाव रहे। यह बात असम्भव है। प्रत्येक सांसारिक प्राणी को अपने प्रत्येक कार्यों में गुरु की आवश्यकता होती है। गुरु किसी भी रूप में हो, वह हमेशा योग्य ही होते एवं उनमें किसी न किसी रूप में भगवान का ही अंश विद्यमान रहता है।

बिना गुरु कृपा के किसी भी कार्य में सफलता पाना कठिन होता है। इस सांसारिक जगत में ईश्वर से साक्षात्कार करना, ईश्वर के दर्शन पाना असम्भव नहीं परन्तु कठिन अवश्य है।  योग्य गुरु के शरीर को माध्यम मानकर हम साक्षात् ईश्वर का दर्शन पाते हैं इसीलिए तो कई बार शास्त्रों में वर्णन आया है कि मनुष्य के वेश में और वह भी गृहस्थ जीवन में गुरु का महत्त्व देवताओं से सहस्रों गुना अधिक है। इसीलिए तो कहा भी है-

गुरुर्ब्रह्मा  गुरुर्विष्णु  गुरुर्देवो  महेश्वरः।

गुरु साक्षात् परब्रह्मः तस्मै श्री गुरवे नमः॥

इस दिव्य द्रष्टा गुरु की कृपा मात्र से हम अपनी पापयुक्त एवं अपवित्र देह को पवित्र एवं आलोकित कर सकते हैं। योग्य गुरु का सानिध्य पाकर हमारे जीवन में कितना ही बिगाड़ क्यों न हो चुका हो, हम आगामी जीवन सुखपूर्वक जी सकने के लिए रजिस्टर्ड हो जाते हैं।

जिस प्रकार एक कारखाने में काम करने वाला हेल्पर हेल्परी करते-करते एक कुशल मैकेनिक बन जाता है। ठीक इसी प्रकार हम गुरु का सानिध्य पाकर दुःखमय जीवन को सुखी एवं समृद्ध बना सकते हैं। वैसे इस जीवन में गुरु का महत्त्व लिखना असम्भव है। असंख्य जन्म लेकर भी गुरु के महत्त्व का वर्णन कोई नहीं कर सकता है। अतः निम्र दोहे में गुरु के महत्त्व का वर्णन कर रहा हूँ-

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।

शीश  दिए  जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान॥

अतः पुत्र प्राप्ति की प्राथमिक जिज्ञासा पूर्ति में गुरु का ही महत्त्व है और पुत्र प्राप्ति के लिए गुरु का आशीर्वाद परमावश्यक है। सत्यता तो यह है कि प्रभु या इष्ट से पहले गुरु का पूजन होता है। कहा भी है-

गुरु  गोविन्द  दोऊ  खड़े,  काके  लागू  पाँय ।

बलिहारी गुरु आपने जिन्ह गोविन्द दियो बताय॥

समय के अनुसार लोगों के विचार बदल गये। अब लोग कहते हैं कि पहले सतयुग था। अब कलियुग है लेकिन शास्त्राकारों ने कहा है कि युग परिवर्तन कभी नहीं होता। मनुष्य की सोच, रहन-सहन और वातावरण बदलता है। युग अर्थात समय तो एक सा ही गतिशील रहता है। पहले भी सूर्योदय पूर्व में ही उदय होता था, आज भी पूर्व में ही उदय होता है परन्तु आज के समय में लोगों की मानसिकता भले ही बदल गई है। आज के समय में भी योग्य गुरुओं की कमी नहीं है, कमी है तो सिर्फ पारखी दृष्टि की, जो धर्मशास्त्र के सभी विषयों की जानकारी रखने वाले गुरु हैं,  वे ही कलियुग में प्रतिकूल ग्रहों की स्थिति में भी उचित मार्गदर्शन कर सुखी जीवन जीने की नई राह दिखा सकते हैं।

पंचम भाव पूर्वजन्म के कर्मों का भी है और पूर्व जन्म के शुभ कर्मों के फलस्वरूप ही एक अच्छा गुरु मानव अपने जीवन में पाता है। यह मानव के पूर्व जन्मों के संचित कर्मों का ही फल है। उसी के फलस्वरूप यदि जन्मकुण्डली के आधार पर देखा जाये तो पंचम भाव का कारक भी गुरु ही है। इसका सीधा संबंध पूर्व जन्म के संचित कर्मों से है और इस भाव पर गुरु की कृपादृष्टि हो जाए तो पुत्र प्राप्ति निश्चित हो जाती है। यह भी पूर्वजन्म में संचित पुण्यों के फल से ही सम्भव होता है।

अतः पुत्र प्राप्ति हेतु गुरु एवं गुरु का आशीर्वाद बहुत आवश्यक है। यदि भगवान आशीर्वाद नहीं दें, भगवान कृपा नहीं करें। फिर भी गुरु की कृपा हो जाए तो आपके पुत्र होना असंभव हो तो भी गुरु कृपा से पुत्र हो जायेगा क्योंकि गुरु सर्व सामर्थ्यवान् है, गुरु सब कुछ दे सकते हैं। संत कबीर ने तो गुरु के लिए यहां तक कह है-

कबीरा  हरि  के  रूठते, गुरु के शरणे जाय।

कह कबीर गुरु रूठते, हरि नहीं होत सहाय॥

कबीरा  मन  तो  एक  है, भावे तहाँ लगाय।

भावे गुरु की भक्ति पर, भावे विषय लगाय॥

 

बच्चों में ड्रग्स लेने की आपराधिक प्रवृत्ति

सनातन धर्म के अनुसार मानव की महाप्रयाण यात्रा 84 लाख योनियों की होती है। इन 84 लाख योनियों से मुक्ति (मोक्ष) पाने के लिए हर व्यक्ति को कम से कम तीन ऋण उतारने ही पड़ते हैं। जिसमें देव ऋ ण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण मुख्यतः माने गये हैं। इसमें पितृ ऋण को उतारने के लिए वंश वृद्धि की आवश्यकता होती है।

शास्त्रोक्त वचन यह है कि किसी भी मनुष्य का जीवन तब तक पूर्ण फलदायी नहीं माना जाता, जब तक कि उसे वंश संचालन के लिए संतान की प्राप्ति न हो। हर चराचर जीव में संतान प्राप्ति की इच्छा प्रबल होती है। प्रश्र यह उठता है कि पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए क्या विवाह आवश्यक है, जिससे संतान प्राप्ति हो सके? तो सभी का जवाब हाँ में ही होगा। इसीलिए विवाह और विवाहोपरांत संतान की इच्छा हर जीव में बलवती होती है किन्तु जिन संतानों की उत्पत्ति के लिए हम तरह-तरह के प्रयास कर रहे हैं, क्या वे संतानों हमारे वंश का यश बढ़ाएगी? क्या वे संस्कारी होंगी? क्या वे अभिवादन शील होंगी? या फिर वृद्धावस्था में ये मेरी सेवा करेगी? इस तरह के तमाम सवालात यक्ष प्रश्र की तरह मुख फैलाए खड़े हैं तो इन सब सवालों का जबाव मानव मात्र के लिए देना कठिन है। किन्तु वेद के दोनों नेत्र स्मृति और ज्योतिष में इनका जवाब बड़ी सहजता से तैयार किया जा सकता है।

कालान्तर में संतान पर तरह-तरह के आलेख तमाम पत्र-पत्रिकाओं में दृष्टिगोचर होते रहे है। आज हम संतान की आये दिन आपराधिक प्रवृत्ति, ड्रग्स का शिकार होना, जिसके परिणामस्वरूप कई असाध्य बीमारियों के कारणों पर हम चर्चा करेंगे।

कालपुरुष की कुण्डली में संतान भाव पर सूर्य की राशि सिंह का अधिकार है। इसलिए किसी संतान के बारे में कोई भी फलादेश करते समय सिंह राशि का जन्मकुण्डली में भावगत अवलोकन करना परम आवश्यक है। इसके बाद जन्म लग्र से संतान भाव की राशि, राशि में बैठे हुए ग्रह और उस ग्रह की प्रबलता, शत्रुता, मित्रता, उच्च नीच का होना, पाप और शुभ ग्रहों से संबंध और उस पर अन्य ग्रहों की दृष्टि इत्यादि देखना परमावश्यक है। किसी जातक की कुण्डली में अगर पंचम भाव में सूर्य बैठे हैं तो उसका फल सावधानीपूर्वक देखा जाता है। ज्योतिष पौराणिक ग्रंथों में पंचम सूर्य का सूत्र लिखा गया है कि ‘एको पुत्र कुलस्य दीपक’ अर्थात पंचम सूर्य होगा तो जातक को एक ही संतान होगी लेकिन वह कुलदीपक होगी। मगर सूर्य की स्थिति वहां अच्छी है तो संतान आविष्कारक मस्तिष्क की होगी। उस कुण्डली में अगर सिंह राशि की स्थिति भी अच्छी है तो संतान मनचाही सफलता प्राप्त करेगी। पंचम भाव और सूर्य का संबंध राहु अथवा शनि से हो तो संतान की मानसिक स्थिति पापक्रांत हो जाती है। अगर पंचमेश सूर्य नीच के हो और दूषित हो तो संतान की अंतःकरण की प्रवृत्ति विपरीत दिशा में होती है और संतान गलत संगति में पड़ जाती है।

पंचम भाव में सूर्य मंगल हो तो जातक निश्चित रूप से इंजिनियर बनेगा परन्तु यदि साथ ही पंचम भाव दूषित हो तो बच्चे में क्रोध की प्रवृत्ति भी अधिक होगी।

पंचमेश नीच भी हो तथा शनि राहु का प्रभाव हो तो बच्चों में ड्रग्स लेने में रुचि रखता है और शुक्र दूषित हो तो दुराचार की प्रवृत्ति होती है।

यदि पंचमेश अधिक दूषित हो, साथ ही चन्द्रमा बलहीन अथवा पापकर्तरि योग में हो तो बच्चा मानसिक रूप से विकलांग होता है।

पंचमेश नीच का हो, बलहीन हो अथवा पाप प्रभाव में हो तथा साथ ही द्वितीय भाव में पापग्रह हो तो जातक में ड्रग्स लेने की प्रवृत्ति होती है। यदि द्वितीय में भी जलतत्त्व राशि में कोई पापग्रह हो तो प्रारम्भिक अवस्था में तो जातक शरबत, कोल्ड ड्रिंक आदि पसंद करता है परन्तु दूषित वातावरण मिलने पर अर्थात चतुर्थ भाव भी दूषित होने पर बच्चा एल्कोहल शराब आदि लेने लगता है। यदि द्वितीय भाव में वायुतत्त्व राशि या अग्रि तत्त्व राशि में पापग्रह हो तो बच्चा सिगरेट, बीड़ी, स्मैक आदि धुएं वाली वस्तुओं का नशा करने लगता है। उसमें गालियां देने की आदत पड़ जाती है तथा क्रोध की प्रवृत्ति अधिक होती है। पृथ्वी तत्त्व राशि में पापग्रह होने पर तम्बाकू गुटखे आदि का सेवन करता है।

पंचम भाव, पंचमेश पाप प्रभाव में हो, चन्द्रमा पर राहु का प्रभाव हो तथा शुक्र भी दूषित हो तो जातक में बचपन से ही दुराचार की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है। साथ ही वातावरण दूषित मिलने पर बच्चे बलात्कार, कत्ल जैसे जघन्य अपराध करने से भी नहीं चूकते। आजकल आये दिन टी.वी., अखबार पर बच्चों द्वारा किये गये इस तरह के अपराध देखने, पढ़ने को मिलते हैं। इस सबका कारण कुण्डली में पाये जाने वाले इस तरह के ज्योतिषीय योग ही है।

अतः बच्चों की कुण्डली में यदि इस तरह के योग पाये जाते हो तो ऐसे बच्चों का लालन-पोषण अत्यधिक सावधानीपूर्वक उचित परवेश तथा वातावरण में तथा सात्विक भोजन द्वारा करनाा चाहिए, जिससे उनकी मानसिक प्रवृत्ति गलत रास्तों की ओर प्रवृत्त न हो तथा उनका मन-मस्तिष्क दूषित प्रभावों से मुक्त रहे।

 

संतान गोपाल मंत्र प्रयोग

सर्वप्रथम श्री गुरु चरणों में नमन करके, श्री कृष्ण भगवान ओर भगवान शंकर के चरणों में नमन करते हुये, श्री गणेश जी, सूर्यनारायण एवं माँ शारदा की वंदना करें। पुत्र की इच्छा रखने वाला यजमान सपत्नीक स्नानादि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर, नवीन वस्त्र धारण करें एवं संध्या उपासना करके ही पूजा में संलग्र होवें। जप जहाँ किया जायेगा, उस स्थान की शुद्घि पूर्व में ही कर लेवें एवं पूजा के लिए मंडलादि की रचना एवं सामग्री व्यवस्थापन भी मुहूर्त से पूर्व ही कर लेवें। शुभ मुहूर्त में सपत्नीक यजमान पूर्वमुख हो कर ऊनी आसन पर बैठें। पूजा करते समय यजमान श्वेत वा पीत वस्त्र तथा यजमान पत्नि पीत या रक्त वस्त्र ही श्रृंगार सहित धारण करें।

यजमान आसन पर बैठकर 3 बार जल से आचमन करें- ॐ केशवाय नमः ॐ माधवाय नमः, ॐ गोविंदाय नमः फिर इस मंत्र ॐ ऋषिकेशाय नमः से हाथ शुद्घ करें। पश्चात् गुरुमंत्र का अथवा गायत्री मंत्र का स्मरण करते हुये 3 बार प्राणायम करें। फिर श्री गणेश जी, श्री विष्णु, शिव, ब्रह्मा, सूर्य, देवि एवं श्री कृष्ण भगवान को यथायोग्य वंदन करें।

आचार्य यजमान के भाल पर स्वस्ति तिलक करें। एवं ग्रंथी बंधन करें। तत्पश्चात् यजमान सीधे हाथ में जल-अक्षत, चंदन पुष्प, सुपारी व दक्षिणा लेकर, पत्नि का सीधा हाथ अपने हाथ के नीचे रखकर पूजा व जप का संकल्प लेवें। आचार्य संकल्प करावे-

ॐ विष्णुः विष्णुः विष्णुः अद्येत्यादि देशकालौ संकीर्त्य (अपना गौत्र) गौत्रस्य (अपना नाम) सपत्नीकोऽहं मम धर्मपत्न्यां चिरंञ्जीव शुभ सन्तान प्राप्तयर्थ श्री वंश गोपाल वासुदेव प्रीतये सन्तान गोपाल मंत्र लक्ष संख्या परिमितं जपं ब्राह्मण द्वारा कारयिष्ये। कहकर संकल्प छोड दें।

तत्पश्चात् पीली सरसों से दिग्रक्षण करके श्री आदि गणेश, षोडश मातृका, सप्तमातृका, नवग्रह, पंचलोकपाल, रुद्र कलश का आह्वान व स्थापन करें। फिर एक स्वर्ण अथवा कांस्य धातु के कलश को गंगादि पवित्र नदियों के जल से पूरित कर उसमे पंचरत्न, सप्तमृत्तिका, सप्तधान्य, सुपारी, चंदन, अक्षत, स्वर्ण पंचपल्लव, वट पीपल, गुलर, आम, पलांश, कुशा, दूर्वा, आदि प्रक्षेप गैरे करें। उस कलश के मुंह पर एक चावल से भरकर कटोरी नूमा कांस्य का पूर्णपात्र रखें और उस पर श्री फल रख देवें। श्री फल पर यजमान के 12 हाथ लम्बा शुद्घ श्वेत वस्त्र रखें, उस वस्त्र पर एक पान का पत्ता रखकर श्री वासुदेव भगवान की स्वर्णमयी प्रतिमा विराजमान करें। प्राण प्रतिष्ठा सहित उस मूर्त्ति का षोडशोपचार पूजन करें। कलश में वरुण का आह्ववान व स्थापन करें।  इस प्रकार यथाविधि पूजा पूर्ण करके आरती करें। तत्पश्चात् आचार्य के सहित ऋत्विजों का वरण करें। वरण का संकल्प इस तरह लिया जाता है-

ॐ अद्येत्यादि देशकालौ संकीर्त्य (आचार्य का गोत्र,) गोत्रोत्पन्नोदमुक शर्मा (आचार्य का नाम) अहं आचार्यत्वेन त्वामहं वृणें।

आचार्य का पूजन कर यथा शक्ति वस्त्राभूषण देवें। फिर जपकर्ता ऋत्विज गण जप का संकल्प लेवें।

ॐ अद्येत्यादि देशकालौ संकीर्त्य (यजमान का गौत्र) गौत्रस्य (नाम) शर्मणो यजमानस्य धर्मपत्न्यां चिरञ्जीव शुभ सन्तान प्राप्त्यर्थ लक्षादि संख्यान्तर्गतयथोक्त संख्यां प्रारभ्यै तत्संख्या पर्यन्तं संतान गोपाल मंत्रस्य जपमहं करिष्यामि।

जपकर्ता इस प्रकार संकल्प करके भूमि पर त्रिकोण लिख कर, उसकी गंधाक्षत से पूजा करके, उस पर पूर्वाभिमुख वा उत्तराभिमुख आसन बिछाकर, बैठकर भू-शुद्घि -भूत शुद्घि, प्राण-प्रतिष्ठा- अन्तर्मातृका-बहिर्मातृका- न्यास करके ही जप करें। यदि यजमान भी पत्नि के सहित न्यास कर लेवें और यथाशक्ति जप दोनो पति-पत्नी एक साथ करें तो भी उत्तम रहता है।

जब तक जप कार्य चले प्रतिदिन स्थापित मूर्ति सहित देवों की पूजा व आरती नित्य करते रहें। जप की व्यवस्था इस प्रकार करें कि यह जाप एक मास में ही पूर्ण हों।

मंत्र विधान में संकल्प, न्यास इत्यादि अवश्य कर लेने चाहिए।

ॐ क्लीं देवकीसुत गोविंद वासुदेव जगत्पते।

देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः॥

जपसंख्या- एक लाख। दशांश हवन, तर्पण, मार्जन आदि।

इस प्रकार जप संख्या पूर्ण करके, जप का दशांश तुल्य हवन, हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन, मार्जन का दशांश ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये। जप पूर्ण होने पर यजमान सपत्नीक भगवान कृष्ण की पूजा सेवा करता रहे और 108 संख्या में मंत्र का जाप नित्य करता रहे। तब तक करता रहें जब तक पुत्र प्राप्ति होवें। पश्चात् पुत्र को भगवान कृष्ण का स्वरुप व प्रसाद मानकर ग्रहण करें।

पुत्रदायक यंत्र

किसी शुभ नक्षत्र में गोरोचन घिसकर भोजपत्र पर यंत्र को लिखें। फिर इस यंत्र को गुग्गुल की धूप देकर, सोने या चांदी के ताबीज में जड़वा लें। इस यंत्र को बंध्या स्त्री के कंठ में भी बांधा जा सकता है जिसके पुत्र ना होता हो या होकर मर जाते है उनके मंत्र यंत्र के प्रभाव से पुत्र होता व जीवित रहता है।