ग्रहों का प्रकोप जारी है

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो एडिटर

गत 2 वर्ष से मैं लगातार आगाह करता आ रहा हूँ कि जब-जब ग्रह किसी राशि में एक साथ इकट्ठे होते हैं या जब दो या दो से अधिक ग्रह एक साथ वक्री होते हैं तो इतिहास बदलने वाली घटनाएँ सामने आती है।

कोरोना के प्रकोप के अलावा अन्तर्राष्ट्रीय घटनाक्रम जिस तरह मोड़ ले रहा है वह इस बात को सिद्ध करता है कि वास्तव में ग्रह जब अन्तरिक्ष के किसी एक खास भाग को प्रभावित करते हैं तो घटनाक्रम तेजी से बदलता है। आने वाले दिनों में फिर ऐसा ही होने जा रहा है जब कई ग्रह या तो एक साथ होंगे या वक्री होंगे और अन्तरिक्ष के किसी एक भाग को लगातार प्रभावित करते रहेंगे। अप्रैल 2022 से लेकर अगस्त तक की अवधि में ग्रह स्थितियाँ बड़ी तेजी से परिवर्तित होंगी और जन-जीवन को प्रभावित करेंगी। इनमें शनिदेव की भूमि अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाएगी जब वे 29 अप्रैल को मकर से कुम्भ राशि में प्रवेश करेंगे। 5 जून के दिन वक्री हो जायेंगे और फिर 29 जुलाई को वापिस मकर राशि में आ जाएंगे, जहाँ वे 2022 पर्यन्त मकर राशि में ही रहेंगे और उसमें भी 23 अक्टूबर तक वक्री ही रहेंगे।

उधर बृहस्पति भी 13 अप्रैल को कुम्भ राशि से मीन राशि में आ जाएंगे, जहाँ वह रहेंगे तो करीब 1 वर्ष तक परन्तु बीच में ही 29 जुलाई के दिन वक्री होकर कई महीनों तक शनि के साथ ही वक्री रहेंगे। अर्थात् शनि और बृहस्पति एक साथ ही 5 जून से लेकर 24 नवम्बर तक वक्री रहेंगे। उससे कुछ पहले तुला राशि अत्यंत सक्रिय हो चुकी होगी और उसमें 4 ग्रह एक साथ रहेंगे। बल्कि 27 अक्टूबर के दिन 5 ग्रह एक साथ रहेंगे और शनि से दृष्ट होंगे। इधर मंगल भी चुप नहीं बैठे हैं और 1 नवम्बर को वक्री हो जाएंगे। अर्थात् 1 नवम्बर से मंगल भी वक्री हो रहे हैं यद्यपि शनि मार्गी हो चुके होंगे परन्तु ग्रह स्थिति फिर भी असाधारण रहेगी। हम इन ग्रह स्थितियों के आधार पर ग्रहों की इच्छाओं को समझने की कोशिश करते हैं।

 

एक बार 29 जुलाई की ग्रह स्थिति समझने की चेष्टा करते हैं जब बृहस्पति और शनि एक साथ ही वक्री होंगे। सात ग्रह उस दिन एक साथ ही एक-दूसरे के केन्द्रीय प्रभाव में हैं, जो मेदिनी ज्योतिष में अच्छे नहीं माने जाते।  अगर गलती से भी रूस और यूके्रन के बीच में युद्ध जारी रह गया तो युद्ध की विभीषिका और गहरी हो जाएगी।

उससे पूर्व भी शनि कुम्भ राशि में 5 जून को वक्री हो चुके होंगे। और कुम्भ से लेकर वृषभ राशि तक सात ग्रहों की उपस्थिति अच्छी नहीं है, क्योंकि राशि चक्र के एक भाग को यह ग्रह स्थिति बुरी तरह प्रभावित कर रही है। तो क्या युद्ध की विभीषिका तभी से गहरी होनी शुरू हो जाएगी?

मेदिनी ज्योतिष में यूरोप के देशों की राशि अनुभव के आधार पर तय की गई है। रूस की प्रभाव राशि कुम्भ मानी जाती है और कुम्भ को लेकर ही हमें समस्या है। अव्वल तो जब कुम्भ राशि में शनि जाएंगे 29 अप्रैल को तो कुम्भ राशि और भी बलवान हो जाएगी। ऐसा पहले भी हुआ था जब 7 अप्रैल, 2003 को ईराक पर अमेरिकी आक्रमण के समय शनिदेव वृषभ से मिथुन राशि में प्रवेश कर रहे थे और मैंने इराक के पतन की भविष्यवाणी कर दी थी। उस अर्द्धरात्रि में अमेरिका की प्रभाव राशि पर शनि आते ही, अमेरिका का पक्ष भारी हो गया था और बगदाग का पतन हो गया था। अखबारों में की हुई मेरी यह भविष्यवाणी अक्षरतः सत्य सिद्ध हुई थी।

 

मैं पुनः यह देख रहा हूँ कि रूस की प्रभाव राशि कुम्भ में शनिदेव आ रहे हैं और रूस को मदद करना चाहते हैं। अर्थात् यह युद्ध यदि 29 अप्रैल तक चला तो रूस को मदद मिलनी शुरु हो जाएगी। इतने बड़े अन्तर्राष्ट्रीय विरोध के होते हुए भी क्या रूस का पलड़ा भारी हो जाएगा? क्या अमेरिकी पक्ष कुछ बहुत बड़ा नहीं कर पायेगा? यहाँ रूस की जन्म पत्रिका भी प्रस्तुत है। इस समय रूस राहु में चन्द्रमा की अन्तर्दशा में चल रहा है और राहु में मंगल अन्तर्दशा 2023 में शुरु होगी। परन्तु उस कठिन अन्तर्दशा से पहले ही अंतिम परिणाम आ जाएंगे। पंचम भाव में बैठे शनि की दृष्टि मीन राशि पर है जिसके कारण अन्तर्राष्ट्रीय सहयोगियों की कमी आई है परन्तु जैसे ही 13 अप्रैल को बृहस्पति मीन राशि में आएंगे अैार 29 अप्रैल को कुम्भ में आएंगे तो रूस को अन्य देशों का गुप्त सहयोग मिलना शुरु हो जाएगा। जो दिख रहा है, यह तो उसके उलट स्थिति है। इस ग्रह स्थिति से तो यह तर्क उपस्थित होता है कि क्या यूक्रेन झुकने वाला है? और क्या समझौता वार्ता शीघ्र शुरु होने वाली है? ऐसी सम्भावना अधिक बलवती हो रही है कि यूक्रेन के पूर्ण पतन से पहले ही रूस और यूक्रेन के बीच में तथा रूस और अन्य देशों के बीच में गुप्त संधियाँ हो जाएं और दोनों ही देशा को इस विकट परिस्थिति से बाहर मिलने में मदद करें।

ज्योतिष के आधार पर यह कहा जा सकता है कि रूस और यूक्रेन का युद्ध मई प्रथम सप्ताह तक ही एक निर्णायक मोड़ ले लेगा और अगर जून प्रथम सप्ताह तक भी यह युद्ध चला तो भयानक विनाश का मंजर उपस्थित रहेगा। चूंकि रूस की जन्म पत्रिका के सातवें भाव में बृहस्पति 13 अप्रैल को आ चुके होंगे, इसलिए रूस आर्थिक प्रतिबन्धों में से भी कोई गली अपने लिये निकाल लेगा और रूस के विघटन की कोई भी संभावना नजर नहीं आती। इसके उलट सिंह लग्न की अमेरिका की कुण्डली में सातवें भाव में गोचर के शनि आ जाने से अमेरिका की साख में थोड़ा कमी नजर आने लगेगी। अमेरिका की खराब अन्तर्दशा सितम्बर 2023 के बाद है, जब वहाँ आन्तरिक परिस्थितियों और विदेश नीति को लेकर व्यापक बहस छिड़ जाऐगी। राहु में शनि की अन्तर्दशा शुरु होते ही अमेरिका की परेशानियाँ बढ़ जाएंगी।

 

शिवोपासना में रुद्राक्ष का महत्व

रुद्राक्ष की उत्पत्ति : ‘रुद्रस्य अक्षि रुद्राक्षः, अक्ष्युपलक्षितम् अश्रु, जज्जन्यः वृक्षः’ अर्थात शंकरजी के अश्रुओं से उत्पन्न हुआ वृक्ष रुद्राक्ष वृक्ष हुआ। श्रीमद्देवीभागवत में इस संदर्भ में एक कथा भी उपलब्ध है- एक बार आशुतोष भगवान शंकर ने देवताओं एवं मनुष्यों के हित की भावना से त्रिपुरासुर का वध करना चाहा और एक सहस्र वर्षों तक तपस्या की तथा अघोरास्र का चिंतन किया, भगवान की आंखों से अश्रुविन्दु गिरे, उन्हीं अश्रुओं से रुद्राक्ष के महान वृक्षों की उत्पत्ति हुई।

रुद्राक्ष की उत्पत्ति गौड़ देश में हुई, तदन्तर इन देशों में भी रुद्राक्ष उत्पन्न हुआ जैसे मथुरा, अयोध्या, लंका, मलय, सह्याद्रि और काशी।

रुद्राक्ष के वर्ण और धारण में अधिकार : रुद्राक्ष चार वर्ण का होता है-श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण। इसी प्रकार वर्ण-भेद से रुद्राक्ष धारण करने की विधि है- ब्राह्मण को श्वेत वर्ण का, क्षत्रिय को रक्त वर्ण का, वैश्य को पीत वर्ण का  और शूद्र को कृष्ण वर्ण का रुद्राक्ष धारण करने की विधि है।

सर्वाश्रमाणां वर्णानां स्त्रीशूद्राणां

शिवाज्ञया धार्याः सदैव रुद्राक्षाः।

सभी आश्रमों एवं वर्णों तथा स्त्री और शूद्रों को सदैव रुद्राक्ष धारण करना चाहिए, यह शिवजी की आज्ञा है।

रुद्राक्ष के मुख और धारण-विधि : शास्त्रों में रुद्राक्ष के एक मुख से चौदह मुख तक का वर्णन प्रशस्त है। रुद्राक्ष दो जाति के होते हैं। रुद्राक्ष तथा भद्राक्ष- ‘रुद्राक्षाणां तु भद्राक्षः स्यान्महाफलम्’ रुद्राक्ष के मध्य में भद्राक्ष का धारण करना भी महान फलदायक होता है।

रुद्राक्ष में स्वयं छिद्र होता है - ‘स्वयमेव कृतं द्वारं रुद्राक्षंस्यादिहोत्तमम् यत्तु पौरुषयत्नेन कृतं तन्मध्यमं भवेत्।’  जिस रुद्राक्ष में छिद्र होता है, वह उत्तम होता है, पुरुष-प्रयत्न से किया गया छिद्र मध्यम कोटि का माना गया है।

एकमुखी रुद्राक्ष के विशिष्ट महत्व का वर्णन इस प्रकार किया गया है- ‘एकवक्त्रं तु रुद्राक्षं परतत्त्वस्वरूपकम्’ एकमुखी रुद्राक्ष साक्षात् शिव तथ परतत्त्व (परब्रह्म) स्वरूप है और परतत्त्व-प्रकाशक भी है और ‘ब्रह्महत्यां व्यपोहति’ (दे.भा.11।4) ब्रह्महत्या का नाश करने वाला है, इसको धारण करने का मंत्र यह है-

ॐ ह्रीं नमः।’ ‘द्विवक्त्रं तु मुनिश्रेष्ठ चार्धनारीश्वरात्मकम्’

द्विमुखी रुद्राक्ष साक्षात् अर्धनारीश्वर है, इसको धारण करने से शिव-पार्वती प्रसन्न हो जाते हैं। ‘ॐ नमः’ इस मंत्र से द्विमुखी रुद्राक्ष धारण करना चाहिए।

त्रिमुखं चैव रुद्राक्षमग्नित्रयस्वरूपकम्’

त्रिमुखी रुद्राक्ष तीनों अग्नियों (गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि) का स्वरूप है। तीन मुखवाले रुद्राक्ष को धारण करने से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। ‘ॐ क्लीं नमः’ यह त्रिमुखी रुद्राक्ष धारण करने का मंत्र है।

चतुर्मुखं तु रुद्राक्षं चतुर्वक्त्रस्वरूपकम्।’

चतुर्मुखी रुद्राक्ष साक्षात् ब्रह्माजी का स्वरूप है। इस रुद्राक्ष-धारण से संतति की प्राप्ति होती है। ‘ॐ ह्रीं नमः’ यह इसके धारण करने का मंत्र है।

पञ्चवक्त्रं तु रुद्राक्षं पञ्चब्रह्मस्वरूपकम्।’

पंचमुखी रुद्राक्ष पञ्चदेवों (विष्णु, शिव, गणेश, सूर्य और देवी) का स्वरूप है। इसके धारण करने से नरहत्या के पाप से प्राणी मुक्त हो जाता है। पक्मुखी को ‘ॐ ह्रीं नमः’ इस मंत्र से धारण करना चाहिए।

षड्वक्त्रमपि रुद्राक्षं कार्तिकेयाधिदैवतम्’

षण्मुखी रुद्राक्ष साक्षात कार्तिकेय है। इसके धारण करने से श्री एवं आरोग्य की प्राप्ति होती है। ‘ॐ ह्रीं नमः’ इस मंत्र से इसे धारण करना चाहिए।

सप्तवक्त्रो महाभागो ह्यनङ्गो नाम नामतः’

सप्तमुखी रुद्राक्ष अनङ्ग नामवाला है। इसके धारण करने से स्वर्णस्तेयी स्वर्णचोरी के पाप से मुक्त हो जाता है। ‘ॐ हुं नमः’ यह धारण करने का मंत्र है।

अष्टवक्त्रो महादेवः साक्षी देवो विनायकः’

अष्टमुखी रुद्राक्ष साक्षात् साक्षी विनायक है और इसके धारण करने से पक् पातकों का विनाश होता है। ‘ॐ हुं नमः’ इस मंत्र से धारण करने से परमपद की प्राप्ति होती है।

नववक्त्रं तु रुद्राक्षं नवशक्त्यधिदैवतम्।

तस्य धारणमात्रेण प्रीयन्ते नव शक्तयः॥

नवमुखी रुद्राक्ष नव दुर्गा का प्रतीक है। उसको ‘ॐ ह्रीं हुं नमः’ इस मंत्र से बायें भुजदंड पर धारण करने से नव शक्तियां प्रसन्न हो जाती हैं।

दशवक्त्रस्तु देवेशः साक्षाद्देवो जनार्दनः’

दशमुखी रुद्राक्ष साक्षात् भगवान जनार्दन है। ‘ॐ ह्रीं नमः’ इस मंत्र से धारण करने पर साधक की पूर्णायु होती है और वह शान्ति प्राप्त करता है।

एकादशमुखी रुद्राक्ष ‘ॐ ह्रीं हुं नमः’ इस मंत्र से धारण करना चाहिए। धारक साक्षात् रुद्ररूप होकर सर्वत्र विजयी होता है।

द्वादशमुखी रुद्राक्ष साक्षात् महाविष्णु का स्वरूप है। ‘ॐ क्रौं क्षौं रौं नमः’ इस मंत्र के धारण करने से धारक साक्षात् विष्णु को ही धारण करता है। इसे कान में धारण करे। इससे अश्वमेधादि का फल प्राप्त होता है।

त्रयोदशमुखी रुद्राक्ष धारण करने से संपूर्ण कामनाओं की पूर्तिपूर्वक कामदेव प्रसन्न हो जाते हैं। ‘ॐ ह्रीं नमः’ इस मंत्र से इसे धारण करना चाहिए।

चतुर्दशमुखी रुद्राक्ष रुद्र की अक्षि से उत्पन्न हुआ, वह भगवान का नेत्र-स्वरूप है। ‘ॐ नमः’ इस मंत्र से धारण करने पर यह रुद्राक्ष सभी व्याधियों को हर लेता है।

रुद्राक्ष धारण करने में वर्जित पदार्थ -

रुद्राक्ष धारण करने वाले को निम्नलिखित पदार्थों का वर्जन (त्याग) करना चाहिए-

रुद्राक्ष धारण करने पर मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहजन, लिसोडा और विड्वराह (ग्राम्यसूकर) इन पदार्थों का परित्याग करना चाहिए।

बिना मंत्रोच्चारण रुद्राक्ष धारण करने वाला मनुष्य घोर नरक में तब तक रहता है, जब तक चौदह इंद्रों का राज्य रहता है।

ग्रहण में, विषुवसंक्रान्ति (मेषार्क तथा तुलार्क) के दिन कर्क-संक्रांति और मकर-संक्रांति, अमावस्या, पूर्णिमा एवं पूर्णा तिथि को रुद्राक्ष धारण करने से सद्यः संपूर्ण पापों से निवृत्ति हो जाती है।

रवीन्द्रनाथ : महायोगऔर सरस्वती योग

‘‘शुक्रवाक्पतिसुधाकरात्मजैः  केन्द्रकोणसहितैद्वितीयगैः।

स्वोच्चमित्रभवनेषु वाक्पतौ वींर्यगे सति सरस्वतीरिता॥

धीमन्नाटकगद्यपद्यगणनालङ्कारशास्त्रेष्वयं

निष्णांतः कविताप्रबंन्धरचनाशास्त्रार्थपारंगतः।

कीर्त्याक्रान्तजगत्त्रयोऽतिधनिको दारात्मजैरन्वितः।

स्यात् सारस्वतयोगजो नृपवरैः संपूजतो भाग्यवान॥’’

- फलदीपिका-6/26-27.

यदि बुध, बृहस्पति तथा शुक्र, लग्न से केन्द्र-त्रिकोण सहित द्वितीय स्थान (1,2,4,5,7,9,10) में हों अथवा दूसरे शब्दों में यदि बुध, बृहस्पति तथा शुक्र, लग्न से केन्द्र (1,4,7,10), त्रिकोण (5,9) एवं द्वितीय स्थान में हों और बृहस्पति स्वराशि, मित्रराशि या उच्च राशि में बलवान हो तो ‘सरस्वती योग’ होता है। जिस जातक की लग्न कुण्डली में सरस्वती योग विद्यमान होता है वह जातक बहुत बुद्धिमान, नाटक, गद्य, पद्य (काव्य), अलंकार शास्त्र तथा गणित शास्त्र में महान पटु और विद्वान होता है। काव्य रचना, निबन्ध, प्रबन्ध (सुन्दर लेख अथवा सुन्दर पुस्तक लेखन) तथा शास्त्रार्थ में भी ऐसा जातक पारंगत (पूर्ण पण्डित) होता है। तीनों लोकों में उसकी कीर्ति फैलती है। ऐसा जातक अति धनी होता है। वह पत्नी-पुत्र आदि सुख से युक्त होता है। ऐसे योग वाले जातक राजाओं द्वारा पूजे जाते हैं अर्थात् सम्मानित किये जाते हैं और बहुत भाग्यवान होते हैं।

 

प्रस्तुत कुण्डली में बुध तथा शुक्र, जन्म लग्न से द्वितीय स्थान में और बृहस्पति त्रिकोण पंचम स्थान में विराजमान है। साथ ही बृहस्पति उच्च राशि में स्थिति के कारण बलवान है। इस प्रकार रवीन्द्रनाथजी ठाकुर की जन्म कुण्डली में स्पष्टतः ‘सरस्वती योग’ विद्यमान है। फलतः इस कुण्डली में सरस्वती योग का लगभग सम्पूर्ण फल पूर्णतः फलीभूत हुआ है।

यदि दो भावेश (दो भावों/ स्थानों के स्वामी) परस्पर स्थान परिवर्तन कर लें तो कुल 66 प्रकार के स्थान/ राशि/ भाव परिवर्तन योग या विनिमय योग अथवा अन्योन्याश्रित योग बनते हैं। इन कुल 66 प्रकार के भाव परितर्वन योग को तीन भागों में विभाजित किया गया है। इनमें से 28 योगों को ‘महायोग’, 30 योगों को  ‘दैन्य योग’ और 8 योगों को ‘खल योग’ कहा गया है।

जो जातक ‘महायोग’ नामक ‘विनिमय योग’ में उत्पन्न होता है उस पर महालक्ष्मी जी का कृपा कटाक्ष होता है अर्थात् वह महाधनी होता है। ऐसा जातक अनेक व्यक्तियों का स्वामी, धनिक, सुन्दर वस्त्राभूषण धारण करने वाला, राजा से सम्मानित और पुरस्कृत होता है। उच्च पद्वी प्राप्त करता है। राजा से अधिकार प्राप्त करता है। ऐसा जातक सन्तान, धन तथा वाहन सुख प्राप्त करता है।

प्रस्तुत लग्न कुण्डली में लग्नेश बृहस्पति पंचम भाव में और पंचमेश लग्न भाव में स्थित है। इस प्रकार यहाँ पूर्व वर्णित 28 महायोगों में से तृतीय प्रकार का ‘महायोग’ बना हुआ है। फलतः इस कुण्डली में महायोग का लगभग सम्पूर्ण फल पूर्णतः फलीभूत हुआ है। यद्यपि रविन्द्रनाथ ठाकुर जी की लग्न कुण्डली में बुध-आदित्य योग, अनन्त धन योग, सदा संचार योग, पाश योग, सुनफा योग, शुभवासि योग के अतिरिक्त और भी अनेक योग विद्यमान हैं। तथापि ‘महायोग’ और  ‘सरस्वती योग’ विशेष उल्लेखनीय है।

                भारतीय साहित्य में रवीन्द्रनाथ का स्थान अप्रतिम है। वे कवि, गीतकार, कथाकार, नाटककार, उपन्यास और निबन्ध लेखक थे। न केवल भारतीय साहित्य अपितु विश्व साहित्य के समक्ष जो कुछ रवीन्द्रनाथ जी की देन विद्यमान है- उसे देखते हुए आज दिनांक तक कोई भी कवि उनके सामने नहीं ठहरता। उन्होंने इतने मधुर गीत, भंगिमाओं में नृत्य करते गीत, हृदय की पीड़ाओं को गाते गीत, मानव की करुणा को उकसाते गीत, रूप और श्रृंगार से उद्वेलित गीत, विरह और मिलन, स्मृति और विस्मृति के गीत लिखे हैं कि अचरज होता है। रवीन्द्रनाथ जी ने जो कुछ भी लिखा और जितना भी लिखा उसकी विस्मृति और विविधता पर विचार करने से विस्मय होता है।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसी महती प्रतिभा वाले महामानव की लगभग सर्वव्यापक विराटता की केवल एक झलक प्रस्तुत है। बंगला और अंग्रेजी भाषा में उनकी रचनाओं में से लगभग 27 काव्यनाट्य, गीतिनाट्य, नृत्य-नाट्य, संगीत नाट्य, 27 गद्य, 21 निबंध, 13 नाटक, 13 उपन्यास, 13 लिखित, पठित भाषण, 10 छोटी कहानी, 5 कहानी, 10 पाठ्य पुस्तक, 5 पुस्तक, 5 संस्मरण, 500 कविता, गीत, गान, कविता संकलन, गीत समूह, गान एवं संगीत संग्रह कुछ प्रमुख हैं। इतना ही नहीं वे अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में रंगमंच कलाकार (अभिनेता) और उत्तरार्द्ध में चित्रांकन की ओर भी उन्मुख हुए और बहुत कुछ सफलता भी प्राप्त की। इनके अतिरिक्त शिक्षा, संस्कृति, धर्म, राजनीति, समाज सेवा और देशभक्ति के क्षेत्रों में भी उनकी भागीदारी अत्यन्त प्रशंसनीय रही। निष्कर्ष यह है कि रवीन्द्रनाथ को वह सब कुछ मिला जिसकी इच्छा एक मानव कर सकता है।

रवीन्द्रनाथ जी को उनकी कृति ‘गीतांजलि’ पर स्वीडिश अकादमी ने 13 नवम्बर 1913 को नोबेल पुरस्कार देकर सम्मानित किया। इस पर लन्दन के पत्र पालमल में लिखा था कि नोबेल प्रन्यासियों (ट्रस्टीज) ने अपने न्याय की पूर्ति रवीन्द्रनाथ जी को साहित्य-पुरस्कार देकर जिस रूप में की है, उससे अधिक सम्यक रूप में पहिले कभी नहीं  की थी। लन्दन की पत्रिका दी पोएटरी ने कवि की रचना गीतांजलि के संबंध में लिखा है कि यह प्रकाशन केवल अंग्रेजी काव्य के इतिहास में ही नहीं बल्कि विश्व काव्य के इतिहास में भी एक स्मरणीय घटना है। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में उन्होंने हमारे देश में जन्म लिया इसका अर्थ यह होता है कि ईश्वर हमसे निराश नहीं है।

अंत में विश्व साहित्य के ज्योतिपुंज रवीन्द्रनाथ जी ठाकुर की यह सारगर्भिता जीवन-दृष्टि विशेष प्रासंगिक है-‘‘जीवन को कभी व्यर्थ हुआ नहीं समझना चाहिए, उसका व्यर्थ चला जाना ही उसकी सार्थकता है, जैसे नदी के प्रवाह के समस्त जल को हम नहाने, पीने और खेतों की सिंचाई करने में ही खर्च कर डालते हैं, बहुत-सा जल केवल बहने के लिए ही रहता है। (और वही महासागर तक पहुंचता है) इसी प्रकार जीवन की भी सार्थकता समझनी चाहिए।’’

 

सगोत्री विवाह संतान बाधा कारक

पं. ओमप्रकाश शर्मा

भारतीय संस्कृति में गोत्र और प्रवर का विचार रखना सर्वोपरि माना गया है। सनातन धर्म परम्परा पर आधारित हिन्दु संस्कृति की सुरक्षा हेतु ऋषियों ने चार बड़े-2 दुर्ग निश्चित किये है जिनमें प्रथम गोत्र और प्रवर जिनके द्वारा अपनी पवित्र कुल परम्पर को स्थिर रखा जाता है। दूसरा रजोवीर्य शुद्घि मूल वर्ण व्यवस्था हो, जिसमें जन्म से जाति मानने की दृढ़ आज्ञा है और तपः स्वाध्याय में विरत व्यक्ति (ब्राह्मण) के नेतृत्व में संचालित होने की व्यवस्था है। तीसरा आश्रम धर्म व्यवस्था, जिसके नियमों में बंधकर आर्य जातियाँ सुव्यवस्थित धर्ममूलक प्रवृत्ति मार्ग पर चलती हुई भी निवृत्ति की पराकाष्ठा तक पहुँच जाती है और चतुर्थ दुर्ग समाज में नारी रुपी शक्ति के सतीत्व की पवित्रता। प्रथम और चतुर्थ दुर्ग की सुदृढता ही संतानोत्पादन, अर्थात् प्रजोत्पति का मूल कारण होती है।

प्रथम दुर्ग अर्थात गोत्र परम्परा का पूर्ण निर्वाह हिन्दू संस्कृति में मूलतया चार गोत्र बचाने की परम्परा है ये चार गोत्र क्रमशः दादा-दादी और नाना व नानी के होते है अर्थात् किसी पुरुष व स्त्री का विवाह करने में यह देखा जाता है कि पुरुष के दादा, दादी, नाना तथा नानी के गोत्रों से कहीं कन्या के नाना-नानी या दादा-दादी के गोत्र तो नहीं मिल रहे हैं। यदि गोत्र परस्पर मिल जाते हैं तो ऐसा विवाह सगोत्री विवाह कहलाता है।

शास्त्रों में सगोत्री विवाह की वर्जना की गई है क्यों कि ऐसा विवाह होने पर सन्तानों में विकृतियाँ या विसंगतियाँ आ जाती है या ऐसा भी हो सकता है कि संतान उत्पन्न ही ना हो। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह है कि हिन्दू आर्य संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीन संस्कृति होने के बावजूद आज भी पूर्ण रुप से विद्यमान है। जबकि कालान्तर में अनेक संस्कृतियों का उदय हुआ और वे इन्हीं विसंगतियों के कारण पतित हो गई अर्थात् नष्ट-भ्रष्ट हो गई। आजकल जैसा कि पाश्चात्य व भारतीय वैज्ञानिक और चिकित्सक मानते है, जब भी कोई मरीज उनके पास आता है और वह मरीज जिस बीमारी से ग्रसित होता है चिकित्सक का प्रथम प्रश्न यहीं होता है कि यह बीमारी तुम्हारे परिवार में या ननिहाल में किसी के है क्या? मरीज की बीमारी में परिवार या ननिहाल का क्या लेना-देना। पर यह वास्तविकता है जिसे आनुवांशिक रोगों या लक्षणों के रूप में जाना जाता है।

वैज्ञानिकों का मत है कि प्रत्येक जीव के गठन में 4 महत्वपूर्ण घटकों का समावेश होता है जिन्हें हम गुणसूत्र के नाम से जानते है। जैसा कि विज्ञान का सिद्घान्त है कि दो ऐसे तत्व जिनकी प्रकृति भिन्न होती है उनके समायोजन से ही तीसरा तत्व उत्पन्न हो सकता है। लेकिन यदि समान प्रकृति वाले तत्वों को मिलाया जाये तो क्रिया तो होती है लेकिन तीसरा तत्व नहीं बनता। वे दोनों समान प्रकृति वाले तत्व आपस में क्रिया कर नष्ट हो जाते है या निष्कि्रय हो जाते है। यही कारण संतानोत्पत्ति का है। सगोत्री विवाहों में पुरुष व स्त्री के कुछ गुणसूत्र समान प्रकृति के हो जाते है जिससे या तो गर्भ धारण ही नहीं होता या होता भी है तो कुछ विकृति या विसंगतियां आ जाती है।

                गोत्र परम्परा ब्रह्मा जी की उत्पत्ति के साथ ही उनके मानस पुत्रों जो कि ऋषि नाम से विख्यात हुये उनके अलग-2 नाम थे वास्तव में तो व प्रकृति का तत्व विभाजन ही ब्रह्मा जी द्वारा किया गया था और उन्हीं के आधार पर गोत्र परम्परा चली आ रही है। मूल गोत्र तेा ऋषियों पर आधारित ही थे। फिर कालान्तर में उनकी शाखाएं स्थान विशेष या कार्य विशेष के आधार पर विभाजित होती चली गई। शास्त्रों में तो गोत्र व प्रवर यह तीन ऋषियों पर आधारित होते हैं। दोनों ही देखने का विधान है पर यदि प्रवर ना मिल सके तो कोई बात नही पर ऋषि गोत्र तो अवश्य मिलाने चाहिये।

ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं जिनके विवाह अज्ञानता या प्रमादके वश सगोत्री हो गये। उनमें से कुछ के तो संतान ही नहीं हुई या लेट हुई और हुई तो भी उनमें कुछ विसंगतियां ही देखने को मिली।

देश की कुछ जातियों में लोकाचार के फलस्वरुप चार या 2 गोत्र पिता व माता के बचाए जाते हैं। किसी में एक ही गोत्र, जैसे अग्रवाल वैश्यों में केवल एक ही स्वयं का गोत्र बचाया जाता है, इसका कारण क्या है यह तो नहीं पता लेकिन यह अनुचित है। कम से कम माता-पिता के गोत्र तो अवश्य ही बचाने चाहिये। जबकि ब्राह्मणों तथा खण्डेल वालों में तो 4 ही गोत्र बचाये जाते हैं। अन्य जातियों में भी लोकाचार व पारिवारिक मान्यताओं का पालन किया जाता है।

संस्कृतियां प्रकट हुई व मिट गई परंतु दैवीय जगत पर विश्वास रखने वाली वर्णाश्रम धर्म मानने वाली, गोत्र प्रवर परम्परा पर आधारित सनातन धर्मी प्रजा अभी तक अपनी रक्षा कर रही है।

इसके  अतिरिक्त नारीत्व की नारी शक्ति की सुरक्षा व पवित्रता भी सुसंस्कार युक्त संतानोत्पादन में महत्वूपर्ण होती है। हिन्दू धर्म में नारी को पर-पुरुष का स्पर्श भी निषेध बतलाया गया है चलो समयानुसार, शिक्षा-दीक्षा आदि अनेक कारणों से स्पर्श को तो गौण किया जा सकता है पर पर-पुरुष की झूठन अर्थात् साथ बैठकर भोजनादि करना तो महा अनिष्टकारक है। विशेषतः जब स्त्री गर्भवती हो तो सिवाये अपने परिवार की स्ति्रयों व पति या परिवार के बच्चों के अतिरिक्त अन्य किसी के साथ भोजन या एक ही पात्र से जल या अन्य पेय पदार्थों का पान कदापि ना करें, क्योंकि भोजन या पेय संयोग होने पर गर्भस्थ शिशु पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। उसकी प्रकृति भी वैसी ही होने लगती है क्योंकि यथा अन्न व जल तथा गुण। ऐसे अनेक उदाहरण है कि गर्भस्थ शिशु भी वैसा ही रूप ले लेता है।

सगोत्री के साथ ही सपिण्डियों के विवाह की भी शास्त्रों में मनाही की गई। सपिण्डि वे लोग होते हैं जो लोग अपने पूर्वज को पिण्ड दान देने के अधिकारी हो या परिवार में जन्म या मृत्यु होने पर जिन लोगों को सूतक व पातक लगता हो जो जलांजलि दे सकते हो सरल। शब्दों में इन्हें बन्धु-बान्धव कहा जाता है इनमें परस्पर विवाह सम्बन्ध नहीं होना चाहिये।

इसके अतिरिक्त कोई व्यक्ति अपना दूसरा विवाह करके दूसरी स्त्री से भी संतान प्राप्त करता है तो उसकी पहली पत्नी की संतानों की दूसरी पत्नी की संतानों में तीन-पीढ़ी तक सपिण्डता रहती है। लेकिन यदि दूसरी स्त्री से संतान नहीं होवे तो पहली पत्नी का लड़का दूसरी पत्नी के चाचा-ताऊ की लडकी से विवाह कर सकता है उसमें सपिण्डता नहीं रहती। इसी प्रकार सौतेली मां यदि संतानहीन हो तो सौतेली मां की बहिन की लडकी से भी विवाह हो सकता है। बस महत्वपूर्ण बात यहीं है कि दूसरी मां (सौतेली) संतान हीन होनी चाहिये।

सगे मामा, मौसी, भुआ की लड़की से भी विवाह नहीं करना चाहिये। इसमें सगोत्रता रहती है।

इसलिए जिस मनुष्य जाति में वर्णाश्रम व्यवस्था अवस्थानुरुप कार्य विभाजन नहीं है, गोत्र प्रवर की शुद्धता परक व्यवस्था का विचार नहीं है, उस मनुष्य जाति पर अर्यमा आदि नित्य पितरों की कृपा न होने से वह जाति जीवित नहीं रह सकती। इसलिए जब जागो तब सवेरा होता है सो आप अपने परिवार की श्रेष्ठता व प्रतिष्ठा चाहते है तो सगोत्री विवाह की वर्जना कीजिए।