बहुमंजिला इमारतें एवं वास्तु

पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ बहुमंजिला इमारतों का प्रचलन भी बढ़ता जा रहा है। चीन में 23 मई, 2005 को गिराई गई 16 बहुमंजिला इमारतें इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं जिनका पुनर्निर्माण और ऊंचा उठाकर किया जाएगा ताकि वहां के निवासियों को अधिकाधिक आवासीय सुविधा प्राप्त हो सके, परंतु यह देखने में आता है कि बहुमंजिला इमारतों में रहने वाले लोग यद्यपि एक ही दिशा की ओर खुलते मकानों में रहते हैं तथापि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन स्तर में अत्यधिक अंतर होता है।

आधुनिक बहुमंजिला  बनाने से पूर्व ही यदि वास्तु के नियमों का पालन कर निर्माण किया जाए तो काफी लोगों के जीवन की विसंगतियां दूर की जा सकती हैं। वास्तु शास्त्र में अधिक ऊंची इमारतों को प्रशस्त नहीं माना जाता है, किंतु समय की मांग के अनुरूप नियमों का अधिकाधिक पालन आवश्यक हो जाता है। बहुमंजिला इमारतों में नीचे दुकानें एवं व्यवसायिक प्रतिष्ठान  तथा ऊपर आवास बनाए जाते हैं।

ऎसी इमारत के निर्माण के लिए सर्वप्रथम भूमि चयन करना चाहिए। तत्पश्चात निर्माण प्रक्रिया में यह लागू करें कि भूखंड में उत्तर एवं पूर्व दिशा, उत्तर-पूर्व कोण में अधिकाधिक खाली स्थान छो़डा जाए तथा दक्षिण, पश्चिम तथा दक्षिण-पश्चिम कोण में निर्माण कराया जाए। यदि संभव हो तो चारों ओर खाली स्थान छो़डकर ही निर्माण कराना चाहिए। दुकानों एवं व्यवसायिक केन्द्रों में यह ध्यान देना अनिवार्य है कि आलमारी, फर्नीचर आदि को दक्षिण या पश्चिमी कोने में तथा बेचने के लिए रखे जाने वाले माल के लिए उत्तर-पश्चिम कोण में स्थान दिया जाए। यह दिशा वायव्य कोणण् कहलाती है जिसमें उच्चाटन की प्रवृत्ति होती है।

बेचने वाला सामान इस दिशा में रखने से जल्दी बिक जाता है। दक्षिण क्षेत्र मालिक के अधिकारों को श्रेष्ठ से सुरक्षित रखता है तो वहीं दोहरी छत भी दक्षिण में ही प्रशस्त है। इमारत के ऊपरी फ्लैट्स के लिए पूर्णतया वास्तु नियमों का पालन नहीं किया जा सकता किंतु कुछ नियमों को आधार मानकर निर्माण कर समस्याओं को कम किया जा सकता है।

सामान्य नियम है कि प्रथम तल की ऊंचाई से ऊपरी तल की ऊंचाई 1/12वां हिस्सा कम होनी चाहिए परंतु बहुमंजिला इमारतों में ऎसा संभव नहीं है। अत: उससे सबसे ऊपरी मंजिल की ऊंचाई को कम करने का प्रावधान है। नैर्ऋत्य, दक्षिण, अग्नि (दक्षिण-पूर्व) और वायु (उत्तर-पश्चिम) दिशा को छो़डकर जल की टंकी रखी जानी चाहिए तथा बोरिंग उत्तर अथवा उत्तर-पूर्व क्षेत्र में ही की जानी चाहिए। फ्लैट्स के द्वारों को भी उत्तर दिशा, मध्य अथवा पूर्व में खोले जाने का प्रयास यथासंभव करना चाहिए।

सामान्यतया वास्तु सम्मत बनाए गए मकानों की ही भांति बहुमंजिला इमारतों में सभी प्रावधान संभव नहीं होते अत: दक्षिण-पश्चिम कोण (आग्नेय) में बिजली के मीटर, जनरेटर आदि को लगाया जाना चाहिए तथा सीढि़यां दक्षिण में घूमती हुई व विषम संख्या में बनाई जानी चाहिए। रूiद्घह्ल आदि का प्रयोजन पश्चिम दिशा में किया जाना चाहिए, चौकीदारों, सुरक्षा कर्मचारियों के कमरे के लिए दक्षिण क्षेत्र वर्जित है व उनके कमरे उत्तर-पश्चिम में भी प्रशस्त नहीं माने गए हैं।

 

बहुमंजिला इमारतों में रहने वाले सभी व्यक्तियों की परस्पर भागीदारिता मुख्य चारदीवारी में ही होती है अत: वास्तु द्वार योजना की पालना मुख्य प्रवेश द्वार में लागू की जानी अनिवार्य है। इन बहु मंजिला इमारतों में व्यवसायिक प्रतिष्ठान हेतु स्थान क्रय करने से पूर्व कुछ बातों का ध्यान रखना व्यवसायिक सफलता दिलाने वाला सिद्ध हो सकता है। यदि आपका व्यवसाय तैयार माल बेचने यास खरीदने से संबंधित है तो आपका शोरूम उत्तर-पश्चिम में सफल होगा। यदि आप रेस्टोरेंट, बेकरी खोलना चाहते हैं तो उसकी सफलता के लिए आपकी रसोई/भट्टी दक्षिण-पूर्व में सुनिश्चित करें।

यदि व्यवसाय, कोचिंग सेंटर आदि अर्थात अध्ययन, अध्यापन का हो तो भवन की पश्चिमी दिशा अधिक फलदायक होगी। यदि आप कंसल्टेंट है अर्थात डॉक्टर, वकील, इंश्योरेंस एजेंट आदि हैं तो आपका दफ्तर भवन की उत्तर दिशा में सफल होगा। अत: कुछ आधारभूत नियमों के पालन से ब़डी समस्याओं से बचा जा सकता है।

 

स्ति्रयों में राजयोग के लक्षण

कृत विधि जची नारि जग माहि

इस संसार में स्वकीय कर्मों से ही नारियों ने अपना स्थान सामाजिक व राजनैतिक स्तर पर उच्चतर बनाया हुआ है। स्ति्रयों की दैहिक सुन्दरता तभी सार्थक है जब स्वभाविक गुण भी मौजूद हो। केवल स्वभाविक गुण ही स्त्री का चरित्र संचार पाने में समर्थ होते हैं केवल दैहिक सुन्दरता नहीं।

पिछली सदियों में स्ति्रयों के प्रति ज्योतिष में बहुत कुछ नहीं लिखा गया क्योंकि लड़कियों की जन्म कुण्डलियां नहीं बनाई जाती थी। पर अब समय बदला है, लड़के और लड़कियों को समान माने जाने लगा है। लड़कियां भी उत्तरोत्तर तरक्की कर रही हैं। अब जबकि लड़कियों को लड़कों के समान ही परिवार का नाम रोशन करने वाला समझा जा रहा है तो निश्चित ही उनके जीवन में ज्योतिष की उपयोगिता बढ़ जाती है। ज्योतिष चूंकि काल विधान शास्त्र है और अदृष्ट को दृष्ट करा सकता है। पुरुषों के जीवन में ज्योतिष की जितनी उपयोगिता है उतनी ही स्ति्रयों के जीवन में भी है।

पुरुष की कुण्ड़ली को पढ़ने में और स्त्री की कुण्ड़ली पढ़ने में थोड़ा सा फर्क होता है जो इस प्रकार है।

स्ति्रयों की जन्म कुण्डली में लग्र जहां देह सौष्ठव बनावट को बतलाती है वहीं चंद्रमा शरीर के शुभाशुभ ज्ञात कराते हैं। सप्तम स्थान से सौभाग्य का ज्ञान होता है। सौभाग्य से तात्पर्य यह हैे कि जातिका को सहारा और संरक्षण कैसा रहेगा। यद्यपि इस बदलते परिवेश में स्ति्रयाँ स्वतंत्र निर्णय ले रही है किन्तु फिर भी एक स्त्री तब तक अधूरी और असुरक्षित होती है जब तक कोई पुरुष उसका साथी न बने। जैसे इस पृथ्वी पर सभी तत्व मौजूद हैं लेकिन बिना सूर्य के प्रकाश से वे निष्कि्रय बने रहते हैं। ठीक इसी प्रकार ही स्त्री का जीवन तभी पूर्ण होता है जबकि वह किसी पुरुष का संरक्षण प्राप्त करें। यहां पुरुष से तात्पर्य केवल नर शरीर धारी पुरुष ही नहीं है अपितु वह पद और दर्जा भी है जो स्त्री को प्राप्त होता है। सीधा-सीधा यह भी कह सकते हैं कि अमुक जातिका का जीवन जिसके सहारे पद, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, पति, विवाह आदि सुरक्षित रहेगा उसका ज्ञान सप्तम भाव से और यह संरक्षण या सहारे की अवधि कितनी होगी उसका ज्ञान अष्टम भाव से किया जा जाता है। सप्तम भाव केवल पति सुख का ही नहीं, न ही पद प्रतिष्ठा का अपितु दोनों का ही है। पंचम भाव से संतान का विचार करते हैं। इसके अतिरिक्त कुण्डली के अन्य भाव, सभी कुण्डलियों पुरुष या स्त्री की में समान रुप से विचारे जाते हैं।

वर्तमान युग में हर तरफ स्वतंत्रता जाग्रत हो गई है। स्त्री के हृदय में भी इस आकांक्षा का आना स्वाभाविक ही है। इसमें कतई सन्देह नहीं कि स्वतंत्रता परम् श्रेष्ठ धर्म है और नर तथा नारी दोनों को ही स्वतंत्र होना चाहिये परन्तु प्रश्न यह है कि नर और नारी दोनों की स्वतंत्रता के दो मार्ग हैं या एक ही है। सत्य तो यह है कि नर और नारी का शारीरिक और मानसिक संघटन नैसर्गिक दृष्टि से एक सा नहीं है। अतः दोनों की स्वतंत्रता के क्षेत्र भी एक से नहीं हो सकते हैं। दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में अपने-अपने मार्ग से चलकर स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं इसलिए पुरुष और स्त्री की कुण्ड़लियों के विश्लेषण में अन्तर होना या विशेषता होना सत्य ही है। पुरुष की कुण्डली में अष्टम भाव जहां आयु का स्थान है, वहीं स्त्री की कुण्डली में अष्टम भाव संरक्षण की आयु का भाव है क्योंकि बिना सहारे और संरक्षण से स्त्री मृत तुल्य होती है।

एक शिक्षित और सद्गुण सम्पन्न स्त्री घर की रानी है, साम्राज्ञी है, वह परिवार की दिशा निर्देशक है। सुयोग्य दश शिक्षकों से भी श्रेष्ठ आर्य है सौर आचार्यों से श्रेष्ठ पिता है और पिता की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ वन्दनीय और आदरणीय माता होती है।

लेकिन ‘कर्मन की गति न्यारी’कर्मों का फल अवश्य भुगतना होता है। यहां हम उन योगों की ज्योतिष के माध्यम से चर्चा करेंगे, जिनके द्वारा स्त्री (जातिका) राजसुख भोगती है। ग्रहों की स्थितियों से राजसुख का ज्ञान एवं पूर्वोपार्जित शुभ कर्मों का ज्ञान इस प्रकार होता है।

1. जिस जातिका की जन्म पत्रिका में सप्तम भाव तीन या तीन से अधिक शुभ ग्रहों से युत या दृष्ट हो तो वह राज रानी होती है। वह जन्म भले ही किसी भी परिस्थिति में लें, पर जन्म के बाद पिता की आर्थिक परिस्थिति मजबूत होती है और विवाह के बाद पति का वैभव व सम्मान बढ़ता है।

2. जिस जातिका की जन्म पत्रिका में चंद्रमा लग्र अथवा तीसरे भाव में होकर शुभ ग्रहों से दृष्ट हो किसी पापग्रह से दृष्ट न हो तो ऐसी कन्या ऐश्वर्यशाली और सुख भोगने वाली होती है।

3. जिस कन्या की पत्रिका में सप्तम में शुक्र अन्य दो शुभ ग्रहों से युत या दृष्ट हो तो वेशकीमती गहनों को धारण करती है और नौकर-चाकरों से पूजित होती है।

4. जिस कन्या के लग्र में गुरु शुक्र हों, सप्तम में कन्या राशि में बुध हों, मंगल मकर में और चंद्रमा कर्क राशि में हो, वह स्वयं भी राज करती है, मंहगे वाहनों पर चढ़ती है और उसका पति भी राज करता है।

5. जिस कन्या की पत्रिका में चंद्रमा कर्क में बुध कन्या में, बृहस्पति मीन और शुक्र लग्र में हो तो हजारों में राजपद के लिये चुनी जाती है। वर्तमान में आई.ए.एस. से तुलना की जा सकती है।

6. जिस कन्या का जन्म समय में मकर राशि में मंगल, मीन राशि में बृहस्पति तथा शनि शुक्र के साथ चतुर्थ में हो तो बहुत धनवान घर की रानी होती है।

7.  जिस कन्या का जन्म सिंह लग्र में हो और चंद्रमा बृहस्पति के त्रिशांश  में हो तो बहुत अधिक अचल सम्पति वाले पुरुष की पत्नि बनती है।

8. जिस कन्या की पत्रिका में बलवान त्रिकोणेश पंचमेश या नवमेश का लग्रेश से मैत्री सम्बन्ध हो तो अवश्य ही कन्या राज करती है। अधिकारी बनती है। ज्ञात रहे यह राजयोग तभी पूर्ण रुप से फलित होगा। जबकि युवा अवस्था में योग कारक ग्रहों में से किसी एक की भी दशान्तर्दशा प्राप्त होवें, अन्यथा सामान्य फल प्राप्त होते हैं।

 

हिन्दू-संस्कृति में सामुद्रिक शास्त्र

पं. श्रीबन्नालाल रेवतीरमणजी जोशी

जिस प्रकार हिन्दू संस्कृति में अन्यान्य विद्याओं पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है, उसी प्रकार सामुद्रिक-शास्त्र पर भी पूर्ण विचार हुआ है। सामुद्रिक-शास्त्र का विषय बहुत गहन और कठिन है। यह भारत की प्राचीन विद्या है और पाश्चात्यों ने इसे यहीं से लिया है। अनेक कारणों से इस समय यह सब देश में लुप्तप्राय है और इस विषय का उपयोगी साहित्य भी प्रायः दुष्प्राप्य हो गया है। यदि इस शास्त्र का कोई पूर्ण ज्ञाता हो तो इससे सब बातें ठीक मिलती हैं। जन्म लग्न से बताये जाने वाले फलादेश में भूल हो सकती है, क्योंकि समय के जरा से अन्तर में ग्रहदशा बदल जाती है। परन्तु हाथ की रेखा के फलादेश में किसी प्रकार भी अन्तर नहीं पडता। क्योंकि रेखा तो हाथ के साथ ही आती है। इस शास्त्र में तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण, मेषादि राशियों और लग्न इत्यादि हाथ की रेखाओं से ही बता दिये जाते हैं। प्रभात काल में हाथ का दर्शन करना पुण्य दायक, मंगलप्रद और समस्त तीर्थ सेवन के सदृश माना गया है। इसी से हमारे यहाँ प्रातःकाल उठते ही हाथों के देखने की प्रथा है। सामुद्रिक शास्त्र के प्रणेताओं ने बतलाया है कि मातृरेखा, पितृरेखा और आयुरेखा- ये तीनों क्रम से गंगा, सरस्वती और यमुना हैं। तीनों का दर्शन त्रिवेणी संगम के दर्शन के समान पुण्यदायक है।

हिन्दू शास्त्रों के प्रणेताओं ने कैसे कैसे श्रेष्ठ शास्त्र रचे हैं, जिनसे केवल हिन्दुओं का ही कल्याण नहीं होता, अपितु मनुष्य मात्र का ही मंगल होता है। सामुद्रिक शास्त्र में केवल रेखाओं, अङ्गों को देखकर भूत, भविष्यत्, वर्तमान के सभी शुभाशुभ फल जाने जा सकते हैं।

मणिबन्ध से अङ्गुष्ठ और तर्जनी के बीच में जो रेखा गयी हो, उसको गोत्र या पितृरेखा कहते हैं। करम से उत्पन्न होकर इन्हीं अङ्गुष्ठ तर्जनी के बीच में जाने वाली रेखा को मातृरेखा या धनरेखा कहते हैं। और तीसरी आयुरेखा को जीवित वा तेजरेखा कहते हैं। ये तीनों रेखाएँ किसी के हाथ में सम्पूर्ण और निर्दोष हों तो वे गोत्र, धन एवं आयु की वृद्घि बतलाती हैं। पितृरेखा को ऊर्ध्वलोक, मातृरेखा को मृत्युलोक और आयुरेखा को पाताल लोक कहते हैं। इन्हीं तीनों रेखाओं को धातु, मूल, जीव भी कहते हैं। पितृरेखा के स्वामी ब्रह्मा, मातृरेखा के स्वामी विष्णु और आयुरेखा के स्वामी शिव होते हैं। इन्द्र, यम, वरुण और धनकुबेर (वैश्रवण) ये हथेली के चारों दिशाओं के क्रम से स्वामी हैं।

पितृरेखा बाल्यावस्था की द्योतक है, मातृरेखा तरुणावस्था की और आयुरेखा वृद्घावस्था को द्योतक है। पितृरेखा से वायुप्रकृति, मातृरेखा से पितप्रकृति, आयुरेखा से कफप्रकृति जानी जाती है। पितृ, मातृ और आयुरेखा क्रम से चर, स्थिर और द्विस्वभावसंज्ञक हैं। क्रम से पुरुष, स्त्री, नपुंसक तथा नभचर, थलचर, जलचर और इसी प्रकार सत्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी भी है। इन तीनों रेखाओं में से जिसके हाथ में  जिस रेखा की प्रधानता हो उसी का फल कहना चाहिये। बायें और दाहिने हाथ से आवागमन का भी ज्ञान होता है। जैसे- किसी के बायें हाथ में पितृरेखा स्पष्ट हो, वह पितृलोक से आया है एवं दाहिने हाथ में हो तो वह मरने के पश्चात् पितृलोक में जाएगा।

इस प्रकार रेखाओं पर से समस्त ज्ञेय, चराचर भूत और भूत, भविष्य, वर्तमान का प्रकाश होता है। जीवन के प्रायः सभी शुभाशुभ हाथ की रेखाओं से स्पष्ट ज्ञात हो जाते हैं। विस्तार भय से प्रत्येक रेखा के फलों को पृथक् पृथक् न लिखकर साधारणतया यहाँ केवल उन बत्तीस लक्षणों के नाम ही लिख देता हूँ, जो सर्वथा शुभसूचक हैं। छाता, कमल, धनुष, रथ, व्रज, कछुआ, अङ्कुरा, बावली, स्वस्तिक, तोरण, बाण, सिंह, वृक्ष, चक्र, शंख, हाथी, समुद्र, कलश, मन्दिर, मछली, यव, जुवा, स्तूप, कमण्डलु, पर्वत, चमर, दर्पण, वृष, पताका, लक्ष्मी, पुष्पमाला, मोर- ये लक्षण जिनके हाथ में हों, वे मनुष्य पुण्यवान् भाग्यवान् और धनवान होते हैं।

सामुद्रिक शास्त्र हिन्दु जाति का एक गौरवास्पद एवं परिशीलन और मनन करने योग्य शास्त्र है। वाल्मीकि-रामायण, सुन्दरकाण्ड के 35वें सर्ग में जब महावीर हनुमानजी ने माता सीताजी  के दर्शन किये तब उन्होंने कहा, माता! मुझे आप भगवान श्रीरामचन्द्र का दूत समझें। मैं उन्हीं की आज्ञा से आपका समाचार लेने के लिये आया हूँ। तब माता जनकनन्दिनी ने आज्ञा की कि यदि तुम भगवान के दूत हो तो उनके सारे लक्षणों का वर्णन करो। इस पर महावीर श्रीहनुमान ने भगवान के समस्त सामुद्रिक लक्षणों का वर्णन किया है।

महाराज वीर विक्रमादित्य में भी ये सब लक्षण थे, जिनसे वे  ‘पर दुःख भंजनहार’ कहलाते थे। प्राचीन समय में सामुद्रिक विज्ञान बडी उन्नत दशा में था और अधिकांश लोग इसके अच्छे जानकार थे परन्तु समय के प्रभाव से अब यह लुप्त सा हो गया है।

अंगूठा भाग्य का प्रतीक

जिज्ञासा मनुष्य का प्रकृतिजन्य गुण है। वह संसार के समस्त अवयवों एवम् उनके क्रिया-कलापों को जानता चाहता है। वह लघु होते हुए भी इस विराट विश्व के समस्त स्वरुप को इसके स्वभाव को जानना चाहता है। यही जिज्ञासा मनुष्य को जिज्ञासु बना ब्रह्माण्ड के समस्त वैभव को जानने हेतु प्रेरित करती है। मनुष्य को अशरफ-उल-मखलूकात-कहा गया है, अर्थात् प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ प्राणी । वह अपने बारे में अपने ही अंगों की संरचना, स्वरुप, बनावट, रंग, रूप, आकार इत्यादि पर ध्यान केन्दि्रत करता रहता है। उसे कभी कभी सुखद अनुभूति होती है, तो कभी वह स्वयम् को किसी प्रश्रोत्तर प्रकरण में जूझता देखता है। ईश्वर ने मनुष्य की रचना उसे सौन्दर्य प्रदान करने के लिए उसके भिन्न भिन्न अंगों को विभिन्न आकृतियों व आकार प्रदान किये। इन्हीं अंग आकृतियों व स्वरुपों को देखकर, पहचान कर, गहन अध्ययन कर हमारे देव पुरुषों ने मनुष्य स्वभाव, प्रकृति एवम् उनके भविष्य के बारे में भावी वाणियां घोषित की, जो आज साकार एवम् श्रेष्ठ स्वरुप में स्वीकार्य हैं।

मनुष्य के हाथ को, उसका भाग्य कहा गया है। वह अपने भाग्य का निर्माता सृष्टा एवम् कर्ता कहा गया है। हाथ के अग्रभाग का सौन्दर्य उसकी अंगुलियों व अंगूठे में है। अंगूठा  एक ओर अकेला तथा चार अंगुलियाँ उधर। देखिये प्रकृति का कमाल। जब शारीरिक बनावट में अंगूठे को विशिष्टता प्रदान हुई है, तो फिर उसकी बनावट, उसकी कृति,  उसका स्वरुप उसका परिवेष, निश्चय ही मनुष्य के बारे में बहुत कुछ बताता है। अंगूठा मनुष्य के पूरे हाथ का प्रतिनिधित्व करता है। अंगूठा इच्छा शक्ति का केन्द्र माना जाता है। यह मनुष्य की आंतरिक क्रियाशीलता को स्पष्ट करता है।

आज के सभी हस्तरेखा विशेषज्ञ हाथ के अंगूठे को बहुत महत्व प्रदान करते हैं। इस में अंगूठे की अवस्था एवम् आकृति अधिक महत्वपूर्ण है। मनुष्य का अंगूठा इस प्रकार से निर्मित एवम् स्थित है कि वह अन्य सभी अंगुलियों के विपरीत एकाकी होकर भी कार्यरत रहता है।  इसी कारण मनुष्य की अन्तर्निहित एवम् नैतिक सूझ-बूझ का पता चल पाता है। इसके अनेकों उदाहरण मिल जायेंगे। आप ऐसे मूर्ख लोगों को या जन्मजात मूर्ख लोगों को पाएंगे कि या तो बिना अंगूठे के जन्म हुआ है या उनका अंगूठा शक्तिहीन अथवा विकृत रहा है। प्रोफेसर, सर रिचर्ड अवन ने अपनी पुस्तक  ‘ऑन द ने चः आव लिम्बज़’में लिखा है, समस्त स्तनधारी प्राणियों में अंगूठा ही मनुष्य को अन्य से श्रेष्ठ बनाता है।

नवजात शिशुओं को आपने अपने हाथ को बन्द रखे हुए देखा होगा। वे अपनी अंगुलियों से अपने अंगूठे को दवाए रखते हैं, परन्तु ज्यों ज्यों उनमें मस्तिष्क का विकास होने लगता है, उनका अंगूठा उनकी अंगुलियों पर नियंत्रण करने लगता है।  मिर्गी वाले मरीज अपने हाथों को मोड़ने से पूर्व अपने अंगूठे को मोड़ते देखे गये हैं। यह प्रत्यक्ष कराता है कि उसे यह आभासित हुआ है अतः अंगूठा आभास है मनुष्य के समग्र व्यक्तित्व का।

किसी मनुष्य के हाथ के अंगूठे को देखकर उसके बारे में कुछ बताने से पूर्व उसके अंगूठे का आकार-प्रकार, स्थिति, आकृति, अवस्था, उसकी बनावट, उसमें लोच इत्यादि का अध्ययन किया जाना आवश्यक है। अंगूठे की प्रत्येक भाव भंगिमा से मनुष्य के समस्त जीवन वृत्तांत का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। हस्तरेखा विज्ञान में अंगूठा अपना विशिष्ठ स्थान रखता है।

 

मनुष्य जाति के अंगूठे को आकृति के हिसाब से तीन श्रेणियों में बांटा गया है-

1. वे अंगूठे जो हथेली पर तर्जनी के साथ मिलकर अधिक कोण बनाते हैं। 2. वे अंगूठे जो तर्जनी के साथ मिलकर समकोण बनाते हैं। 3. वे अंगूठे जो हथेली पर तर्जनी के साथ न्यून कोण बनाते हैं।

अधिक कोण अंगूठा : ऐसे अंगूठे को सात्विक अंगूठा कहा गया है। ऐसे व्यक्ति कोमल, मधुर स्वभाव वाले, कलाकार, संगीतज्ञ एवम् रचनात्मक कार्य करने वाले होते हैं। ये लोग अपने प्रयत्नों से श्रेष्ठता प्राप्त करते हैं। बडे अंगूठे वाला व्यक्ति अपने मस्तिष्क से नियंत्रित होता है। ऐसे व्यक्ति विचारों के रुहानी संसार में अपने आपको असहज महसूस करते हैं। वे तात्कालिक निर्णय के बजाय पुनर्विचार निर्णय को अधिक महत्व देते हैं। यदि इस प्रकार के अंगूठे वाले मनुष्य की अंगुलियों के पोर नुकीले एवम् सपाट हों तो ऐसा मनुष्य साहित्यिक क्षेत्र में अपने स्वविवेक व तार्किक परिणामों द्वारा उन्नति प्राप्त करता है। यदि ऐसे अंगूठे के साथ किसी मनुष्य की अंगुलियाँ चौकोर एवम् ऊपर से मोटी हों तो ऐसा मनुष्य कार्य के प्रति रुचि तो रखता है, परन्तु उसमें तार्किक कमी परिलक्षित होती है। यदि अंगुलियाँ गांठदार चौकोर अथवा ऊपर से कुंठित हों तो ऐसे मनुष्य में संवेदनाओं की कमी होती है जिसके कारण जटिल परिस्थितियों में वह अपने आपको असहज व निस्सहाय महसूस करता है।

समकोण अंगूठा : यदि अंगूठा छोटा हो तो वह उस व्यक्ति की डावांडोल मस्तिष्क एवम् कमजोर तार्किक शक्ति का प्रतीक है। यदि अंगूठा अतिलघु हो तो वह मनुष्य बेपैंदे के लोटे की तरह एक छोर से दूसरे छोर तक दौड़ता रहता है। छोटे अंगूठे वाले लोग अक्सर अपने हृदय से संचालित होते हैं। वे भावनाओं के विषय में अपने आपको खुश महसूस करते हैं। किसी परिस्थिति को देखकर उसके बारे में तुरन्त बोलने लगते हैं। वे उस पर पुनर्विचार नहीं करना चाहते। छोटे अंगूठे वाले व्यक्तियों के बजाय बड़े अंगूठे वाले व्यक्तियों के लिए अपने भाव स्वभाव को नियंत्रित करना अधिक सरल होता है। सामान्य रूप से जो अंगूठा छोटा हो, तुच्छ आकृति का हो, वह उन लोगों में अनिश्चित भाव एवम् चंचल मन का द्योतक बनता है। जहाँ तर्क की प्रधानता न होकर भावनाओं पर ज्ञान आधारित रहता है।

न्यूनकोण वाले अंगूठे : यदि किसी मनुष्य का अंगूठा छोटा है परन्तु उसके हाथ की अंगुलियां सपाट हैं तो उसमें बुद्धि एवम् किसी ललित कला में उसकी पैठ हो सकती है। यदि अंगुलियों का आकार ऊपर से नुकीला है, तो वह मनुष्य उच्च विचारों की ओर अग्रसर होता है। यदि अंगुलियों के पोर चौकोर अथवा फैले हुए हैं, तो वह वास्तविक जीवन में झूठ बोलने वाला हो सकता है। यदि इस प्रकार के अंगूठे वाले व्यक्ति की अंगुलियां गांठदार होंगी, तो ऐसा व्यक्ति स्वभाविक कार्य को तरीके व तर्क को बिल्कुल अलग-थलग करके देखेगा। यदि अंगुलियां चौकोर अथवा ऊपर से चौड़ी हैं तो वह विज्ञान अथवा व्यवसाय की द्योतक होती हैं।

कराग्रे बसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती।

कर पृष्ठे स्थितोब्रह्मा प्रभाते कर दर्शनम्॥

धार्मिक एवम् आध्यात्मिक दृष्टि से हमारे हाथ में सभी देवताओं का निवास है। ज्योतिष की दृष्टि से सम्पूर्ण जीवन की हलचल का स्रोत है। हमारा जीवन वेगमय है, निरन्तर सक्रिय है, और पल-पल परिवर्तनशील है। इस सारे परिवर्तन का, जीवन के संघर्षों का तथा मानव के घात-प्रतिघातों का यह सम्पूर्ण रूप से प्रतिबिम्ब है, जिसके माध्यम से भूत को जानकर विश्वास करते हैं, वर्तमान को समझते हैं और भविष्य को पहचान कर अपने आपको ढ़ालने का प्रयास करते हैं। वस्तुतः भाग्य कथन हमारे युग की सर्वोच्च उपलब्धि है।