गुरु महिमा

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो एडिटर

वह शायद अत्यंत शक्तिशाली दिन रहा होगा जब मैं प्रथम बार मेरे गुरु से मिलने उनके कार्यालय में गया। वे जैसे मेरी प्रतीक्षा में बैठे थे। ‘आओ, मैं तो आपकी कब से इंतजार कर रहा था। ’ मुझे किंचित आश्चर्य हुआ परन्तु विश्वास भी हुआ क्योंकि 1976 की दीपावली के आसपास राजस्थान के नाथद्वारा के पास स्थित कांकरोली में एक हस्तरेखा विशेषज्ञ ने मुझसे कहा था कि तुम्हारा गुरु तुम्हारा इंतजार कर रहा है और वह कोई पिछले जन्म का संबंध है। मुझे यह कभी समझ में नहीं आया कि हस्तरेखा से यह बात कैसे कही जा सकती है? यह बात मुझे उस दिन भी समझ में नहीं आई जब मैं मेरे गुरु से मिला पर आज समझ में आ गई है जब मैं दुनिया के सबसे शक्तिशाली ज्योतिष संगठन का कार्यकर्ता हूँ, ज्योतिष मंथन के माध्यम से मेरी पहचान होने लगी है और मेरे पढ़ाए हुए हजारों विद्यार्थी न केवल अखबारों में चल रहे हैं बल्कि बाजार में भी चल रहे हैं। वे भीड़ खींच रहे हैं, शोध कर रहे हैं और नवीन ग्रंथ और योग लिख रहे हैं। मेरे लिए इससे अधिक सुखद क्या हो सकता है जब इंटरनेशनल वास्तु एकेडमी के आधे से ज्यादा बेरोजगार शिष्यों को मैंने अपनी संस्था में ही महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियां दे दी हैं और वे मेरे विश्वास पर खरे उतर रहे हैं।

पंडित रामचन्द्र जोशी ने जैसे ही मेरी जन्मपत्रिका देखी असहज हो गए। चार ग्रह एक साथ देखकर बोले, ‘गृहस्थ संन्यास का योग है’ परन्तु मैं तो बुढ़ापे तक समाज में रहकर कार्य करूंगा, मैं बोला। ‘यह सच है परन्तु ऐसे ही जातक ज्योतिष या प्रवचन के लिए श्रेष्ठ सिद्ध होते हैं। आप बहुत अधिक समय तक सरकारी अधिकारी नहीं रहोगे और आपका जन्म ज्योतिष के लिए ही हुआ है और लोग आपको इसी रूप में जानेंगे। मैं आपके आगे-पीछे बड़े-बड़े शासनाध्यक्षों को और बड़ी-बड़ी गाड़ियों को देख रहा हूं।’ मैं चिंतित हो गया कि मेरी राजदूत मोटरसाईकिल का क्या होगा जो मैंने एक नौकरी छोड़ते समय प्रोविडेन्ट फण्ड के मिले हुए पैसों से जो कि मेरी चुकता पूंजी थी, से खरीदी थी।  मेरे भावी गुरु की बात में मुझे विश्वास तो हो रहा था पर भारत में पंडित भविष्यकथन के समय इतनी फेंकते हैं कि अविश्वास भी हो रहा था। पंडितों की कहीं भी गलती नहीं हैं परन्तु मैं समझता हूं कि विप्रवर का सामान्य ज्ञान इतना कम है कि पर्याप्त सूचना ज्ञान के अभाव में वे भविष्यवाणियों को सही परिदृश्य में प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं। पंडित रामचन्द्र जोशी एक अद्भुत सृजनशील ज्योतिषी थे और ज्योतिष योगों की नई-नई समीक्षा करने में पारंगत थे। उनके पिता पंडित केशरदेव रमल शास्त्र के विद्वान थे। पंडित जोशी का मानना था कि रमल के पाशे फेंकते समय महाभारत काल के मामा शकुनि की भांति किसी न किसी माया विद्या का सहारा लेते थे। जो ऐसा नहीं करते उनकी सफलता का प्रतिशत कम है। पंडित जोशी चमत्कार ज्योतिष का सहारा नहीं लेते थे। शायद यही एक बात थी जो मुझे सबसे ज्यादा पसंद थी। यद्यपि मैं स्वयं कभी भी चमत्कार ज्योतिष का क्षुद्र प्रदर्शन नहीं करता परन्तु फिर भी कुछ नास्तिक लोगों को या कुछ अंग्रेजों को ज्योतिष का चमत्कार दिखाने की आवश्यकता मुझे पड़ी है।

इटली की एक महिला शायद श्रीमती सोनिया गांधी के पैतृक गांव लूसियाना की ही रही होंगी, को यह समझ में नहीं आया कि मैं उसके प्रेमी का, वह भी कॉलेज के समय वाला, के नख शिख का वर्णन ज्योतिष के माध्यम से कैसे कर सकता हूं? फिर उसको यह समझ में नहीं आया कि उसको चर्बी बढ़ रही थी, उस समय का ज्ञान कैसे कर पाया? वह एकदम ही अधीर हो गई, जब मैंने उसे बताया कि इन दिनों जो उसका प्रेमी है उसकी चाल व कार्य करने का ढ़ंग किस भांति का है, तो उसने कहा कि आपको तो कोई जादू आता है। ‘आप साइकिक हैं’ यह तो स्पष्टतः भारतीय ज्योतिष की गणना पद्धति की अवमानना थी। मैंने तुरंत ही गणित से समझाते हुए उसका यह भ्रम दूर किया कि ज्योतिष में दशा पद्धतियों के माध्यम से ग्रह बार-बार अपने परिणामों को प्रकट करते रहते हैं। इसमें जादू जैसी कोई बात नहीं हैं परन्तु लोगों को चमत्कार लगता है।

मेरे एक मित्र इन्द्रजीत सोलंकी जो कि दिल्ली रहते हैं का पुत्र जयंत एक बार नाराज होकर किसी जगह जाकर बैठ गया। दिल्ली के प्रसिद्ध प्रश्न ज्योतिषी जे.एन. शर्मा के पास भेजने से पूर्व यह तो मैंने ही बता दिया था कि वह बच्चा किस तारीख को घर आ जाएगा, परन्तु उसी प्रश्न शास्त्र के माध्यम से श्री जे.एन. शर्मा ने श्री सोलंकी को बताया कि ‘बच्चा किसी तालाब जैसी जगह के किनारे बैठा है तथा किसी बुजुर्ग व्यक्ति की शरण में है। उसको खाना-पीना भी ढंग से मिल रहा है तथा बुजुर्ग घर भेजने की प्रेरणा दे रहे हैं।’ प्रश्न के माध्यम से उत्तर देने की यह पराकाष्ठा थी। उनके बताए अनुसार ही वह बच्चा अपनी नाराजगी दूर करके घर आ गया। वह तैराकी का चैंपियन है इसलिए किसी तालाब में ही जाकर बैठा परन्तु प्रश्न लग्न से ऐसा बताया जाना किसी चमत्कार से कम नहीं लगता।

पंडित रामचन्द्र जोशी निरंतर पूजा-पाठ कराने में रुचि लेते थे। मेरे लिए यह नवीन अनुभव था और एक प्रशासनिक अधिकारी के नाते मैं हमेशा सोचता कि कहीं इसके पीछे आर्थिक लाभ कमाने का उद्देश्य तो नहीं है। क्या ऐसा तो नहीं है कि जो भी संकल्प लेकर पाठ करते हैं उसका फल खर्च करने वाले जातक तक पहंुचे ही नहीं। मैं समझता हूं आधुनिक पावर ऑफ एटार्नी का नियम वैदिक कर्मकाण्ड के संकल्प के नियम में ही छिपा हुआ है। संभवतः कर्मकाण्ड के लिए जो संकल्प लिया जाता है, उसमें प्रतिफल के बदले किए गए कर्मकाण्ड का फल जातक को प्रदान किए जाने का प्रस्ताव है, इसी से पावर ऑफ अटार्नी या मुख्त्यारनामे का आविष्कार हुआ है। यदि यह सत्य है तो संकल्प ही नहीं पाप या पुण्य फल भी किसी अन्य को प्रदान किए जा सकते हैं। यह सिद्धांत इस अवधारणा के बहुत अधिक नजदीक है कि साधु-संत दूसरों के दोषों को अपने ऊपर ले लेते हैं या एक माता अपने शिशु की बलइयाँ लेकर उसके पाप कर्मों का दोष अपने ऊपर ले लेती है या एक प्रेमिका अपनी उम्र अपने प्रेमी को देने की कामना करती है या वैदिक ऋषि यह कहते पाए जाते हैं कि उनकी समस्त साधनाओं का फल किसी जातक को प्रदान कर दिया जाए।

एक दिन पंडित रामचन्द्र जोशी मुझे राजस्थान के लक्ष्मणगढ़ कस्बे में नाथ सम्प्रदाय के एक बड़े आश्रम में ले गए। वहां एक ऐसे योगी गुरु का चित्र लगा हुआ है जिनके पैर किसी कारण से अयोग्य हो गए थे। किस्सा यूं बताया जाता है कि नाथ जी के पास एक लंगड़ा व्यक्ति आया करता था। बहुत सेवाभावी था परन्तु दोनों पैरों से पंगु होने के कारण सेवा पूरी तरह नहीं कर पाता था। एक दिन जब वह नाथ महाराज के दर्शन करने आया तो उनको दया आ गई। उन्होंने कहा तकलीफ क्यों पाता है, खड़ा हो जा। उस व्यक्ति ने कहा कि महाराज क्यों मजाक उड़ाते हो, मैं तो खड़ा ही नहीं हो सकता। महाराज ने कहा कि खड़ा होकर तो देख। वह व्यक्ति संकोच के साथ कोशिश करने लगा और आश्चर्य कि वह खड़ा हो गया। दुखद आश्चर्य कि नाथ महाराज इसके बाद हमेशा के लिए पंगु हो गए। उनका वह चित्र आज भी आश्रम में लगा हुआ है। एक नाथ स्वामी जी के बारे में प्रसिद्ध है कि वे जब चाहे अपने योगी शरीर से अमेरिका में अपने शिष्यों को दर्शन दे आया करते थे जबकि लक्ष्मणगढ़ स्थित आश्रम में उनके उपस्थित रहने के प्रमाण सारी जनता दिया करती थी। नाथ सम्प्रदाय के योगी अक्सर इस तरह के चमत्कार करने में समर्थ रहे हैं।

मेरी जन्मपत्रिका के सूर्य, बुध, बृहस्पति, केतु, राहु, मंगल, शनि के परस्पर संबंधों ने जन्मपत्रिका का सही ढंग से कभी परीक्षण ही नहीं होने दिया। प्रत्यक्ष में जिसने भी देखा, कभी किसी सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके परन्तु जैसे ही मैंने भृगु ज्योतिष का सहारा लिया, आश्चर्य के पन्ने खुलते ही चले गए। हम लोग योगों का सहारा लेना ही जैसे भूल गये हों। पंडित रामचन्द्र जी जोशी कहते थे कि केवल 100-200 योग याद कर लें तो भी जन्मपत्रिका का विश्लेषण बहुत अच्छे ढंग से कर पाएंगे। योगफल कब मिलता है? जब योग सृजित करने वाले ग्रहों की दशा-अंतर्दशा आती है। प्रत्यंतरनाथ केवल समयक्रम तय करते हैं। दशा-अंतर्दशा योगफल देती है।

1988 के बाद मेरा देश के अन्य मूर्धन्य विद्वानों से तेजी से संपर्क बढ़ा। इस वर्ष मैंने लक्ष्मणगढ़ छोड़ दिया था और जयपुर शहर को अपनी कर्मभूमि बनाने का निर्णय लिया था। जिन लोगों का लग्नेश और सप्तमेश किसी भी रूप में संबंध कर जाएं, या चतुर्थेश अत्यंत निर्बल या अत्यंत बलवान हो, वे जन्म स्थान के अतिरिक्त कहीं अन्य जाकर बस जाते हैं। जिनका शनि या बृहस्पति शक्तिशाली हो वे दरबार में चले जाते हैं। अब राजाओं के दरबार तो बचे नहीं इसलिए दरबार से तात्पर्य किसी राजधानी से लिया जा सकता है। मैं आज जब इस बात का विश्लेषण करता हूं तो आधुनिक राजा-महाराजा अर्थात केन्द्र सरकार के प्रधानमंत्री या मंत्री या मुख्यमंत्री या राज्यपाल या उच्च शासनाधिकारी इस श्रेणी में आते हैं। मुझे सहस्त्राधिक बहुत बड़े राजनीतिज्ञों का मार्गदर्शन करने का सौभाग्य रहा है। संसार के सबसे धनी व्यक्तियों की जन्मपत्रिकाओं का विश्लेषण या कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की वास्तु प्लानिंग का अवसर मिला है।

पंडित जोशी राहु को एक क्रांतिकारी ग्रह कहते थे। वे राहु को तंत्र भी कहते थे। तंत्र से तात्पर्य सूचना तंत्र, टेलीफोन, कम्प्यूटर इत्यादि से है शेष तो सब शुक्र के विषय हैं। वे तकनीकी अर्थात टेक्निकल ‘नो हाउ’(द्मठ्ठश2 द्धश2) को  राहु का विषय मानते थे। यह अद्भुत है क्योंकि मैंने यह पाया है कि किसी व्यक्ति को यदि टेक्निकली साउण्ड होना है तो बिना राहु की कृपा के होना संभव नहीं है। इस वृत्ति ने मुझे वास्तु के क्षेत्र में राहु को लेकर शोध करने के लिए प्रेरित किया तथा इस क्षेत्र में जो भी सफलता मिली, राहु संबंधी जानकारी का उसमें बड़ा योगदान है।

 

ध्रुवतारा

ध्रुव तारे का दर्शन नव विवाहित जोड़े को इस कामना के साथ कराया जाता है कि उनका विवाह भी ध्रुव तारे की तरह अटल रहे। बालक ध्रुव की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर विष्णु ने उसे आकाश में स्थिर स्थान प्रदान कर दिया था।

पृथ्वी अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर चक्कर काटती रहती है। इसलिए आकाश के तारे हमें पूर्व से पश्चिम की ओर जाते दिखाई देते हैं। ऐसी स्थिति में पृथ्वी की धुरी की उत्तरी (दक्षिणी भी) दिशा में खगोल पर कोई तारा हो तो वह हमें स्थिर दिखाई देगा। धुरी की उत्तरी दिशा में आज ऐसा एक तारा है। इसे ही हम धु्रवतारा कहते हैं। सप्तर्षि  के तारे इसकी परिक्रमा करते दिखाई देते हैं। सप्तर्षि के सामने के दो तारों - क्रतु और पुलह को जोड़ने वाली रेखा को क्रतु की ओर, यानी उत्तर की ओर, आगे बढाया जाए तो वह क्रतु से करीब 29 अंश की दूरी पर धु्रवतारे से जाकर मिलती है।

ध्रुव को पहचानने का एक और तरीका है। जो स्थान जितने उत्तरी अक्षांश पर होगा, उतने अंश क्षितिज के ऊपर उत्तरी दिशा में आकाश की ओर देखा जाए तो धु्रवतारा दिखाई देगा। जैसे, यदि आप 25 उत्तरी अक्षांश वाले किसी स्थान पर खडे हैं तो वहाँ से उत्तरी क्षितिज के  25 अंश ऊपर आकाश में धु्रवतारा दिखाई देगा। प्राचीन काल में नाविकों तथा यात्रियों को दिशा-ज्ञान कराने में धु्रवतारे ने बडे महत्व भी भूमिका अदा की है।

धु्रवतारा लघुसप्तर्षि मंडल या शिशुमार चक्र का प्रमुख (अल्फा) तारा है। द्वितीय कांतिमान का यह तारा हमसे 472 प्रकाश-वर्ष दूर है। ध्रुवतारा हमारे सूर्य से काफी बडा है। इसका व्यास हमारे सूर्य के व्यास से 120 गुना अधिक है। इसका सतह तापमान भी ज्यादा है। मगर धु्रवतारा के बारे में विशेष बात यह है कि चार दिन की कालावधि में इसका आयतन नियमित रूप से घटता बढता रहता है। साथ ही इसका तापमान और इसकी कांति भी घटती बढती जाती है।

ध्रुव तारा हमारे सूर्य से 10 हजार गुना अधिक प्रकाश और ताप उत्सर्जित करता है।

वर्तमान ध्रुव तारा कांतिमान 6.4 होने के कारण नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता। आज से 2000 साल पहले जो तारा उत्तरी ध्रुव बिन्दु के नजदीक था, वह काफी अधिक चमकीला था। जो तारा उत्तरी ध्रुव बिन्दु के नजदीक होता है, उसे ही ध्रुव तारे की संज्ञा प्रदान की जाती है। आज से 13 हजार साल पहले वीणा तारामण्डल का चमकीला तारा अभिजित (वेगा) नक्षत्र ध्रुव बिन्दु के नजदीक था जो कि 13 हजार साल बाद पुनः ध्रुव तारे की संज्ञा प्राप्त कर लेगा। तब यह बहुत अधिक चमकीला हो जाएगा।

आकाश का प्रत्येक तारा शाश्वत नहीं है बल्कि गतिमान है। पृथ्वी की धुरी 26 हजार वर्ष में क्रांतिवृत्त (सूर्य का कक्षापथ) के एक चक्कर लगाती है। अतः आकाश का ध्रुव बिन्दु भी अपना स्थान बदलता रहता है। इस कारण से उस ध्रुव बिन्दु पर क्रमशः जो तारा आता रहता है, उसे ध्रुव तारे की संज्ञा मिल जाती है। अतः कभी तो ध्रुव तारा अत्यधिक चमकीला तारा होता है तो कभी बहुत कम चमकीला। ईसा पूर्व 1000 के आसपास लघु सप्त ऋषि मंडल का द्वितीय क्रांतिमान का बीटा तारा ध्रुव बिन्दु के नजदीक था तो कई देश इसी को ध्रुव तारा मानते थे।  आज से करीब 5 हजार साल पहले कालिय नक्षत्र मंडल का अल्फा तारा ध्रुव तारा कहलाता था। इस तारे की साक्षी हड़प्पा सभ्यता रही है।

क्रतु और पुलह को जोड़ने वाली रेखा को यदि उत्तर दिशा की ओर बढ़ाया जाए तो वह ध्रुव तारे तक पहुंचती है। यदि इस रेखा को दक्षिण की ओर बढ़ाया जाये तो सिंह राशि के तारे आते हैं।

 

नवरात्र में शक्ति की उपासना

शरणगत   दीनार्त   परित्राण   परायणे।

सर्व स्वार्ति हरे देवि नारायणी नमस्तुते॥

सारा संसार उसी की शरण में किसी भी विभिन्न आपदाओं के लियें तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश उसकी ही आराधना करते है। तीनो देवताओं का कहना है कि यह सारा संसार ऊँकार शब्द के भीतर निहित है ऊँकार के ऊपर जो बिन्दी है उसमें मॉ आप स्वयं विराजमान है संसार को आश्रय देने वाली हे माता आपको बारम्बार नमस्कार है। दुर्गा सप्तशति के 700 श्लोक तथा श्रीमद् देवी भागवत में माँ भगवती ने स्वयं कहा कि जब मैं मनुष्य मात्र से प्रसन्न होती हूँ तब उसे अनेक प्रकार की सम्पत्तियों से सम्पन्न करती हूँ और तथा जब मै उसके दुष्कर्मों से अप्रसन्न होती हूँ तो अनेक प्रकार के कष्ट बीमारियाँ तथा सम्पत्ति भी नष्ट कर डालती हूँ। यहां तक कि पृथ्वी पर सम्पूर्ण चराचर शक्ति उसकी कृपया से चलती है।

शक्ति संगम तंत्र में नवरात्र के महात्म्य को भगवान सदाशिव और भगवती शिवा के परस्पर वार्तालाप के माध्यम से निरुपित किया गया है एक बार भगवती शिवा ने यू ही सदाशिव से प्रश्र कर दिया भगवान मेरे अंत करण में नवरात्र को लेकर सवाल हैं और उसके बारे में जानने की बडी जिज्ञासा है यदि आप नवरात्र का महात्म्य मुझे बतायें तो आपकी मुझ पर अति कृपा होगी और मैं अपकृत होउंगी। भगवान सदाशिव ने तब भगवती शिवा को स्पष्ट किया था।

नव शक्तिभिः सयुक्त नवरात्र तदुच्यते।

एकैव देव देवेशिः नवधा परितिष्टता॥

नवरात्र में प्रयुक्त नव शब्द नौ संख्या का प्रतीक है और रात्र शब्द रात का प्रतीक है तात्पर्य यह है कि नवानां रात्रीणां समांहार नवरात्र धार्मिक ग्रन्थों में नवरात्र का अर्थ नव अहोरात्र के रूप में उल्लिखित है। अर्थात् जो पर्व नौ दिन तथा नौ रातों तक चले वही नवरात्र है। यूं तो नवरात्रों के अवसर पर माँ भवानी की पूजा उपासना का खास विधान है और जन सामान्य में इन अवसरों पर व्रत आराधना का प्रावधान है, पर नित्य की पूजा उपासना में भी देवी का पूजन अति लाभप्रद है, परन्तु नवरात्रि की पूजा का विशेष महत्व है, क्योंकि नवरात्रि हिन्दुओं का महान पर्व है, इस पर्व के अवसर पर घर-घर में नवदुर्गा का पाठ होता है, दरअसल नवरात्र का अवसर ऋतुओं के परस्पर संध्या का काल होता है इस समय महाशक्ति के उस वेग की धारा जो सृष्टि के उद्भव और लय के कारण अधिक तीव्र हो जाती है इस समय माँ महामाया का आवाह्न सुगम होता है तथा नवरात्र में मनुष्य मात्र माँ भगवती के समीप अपने आपको पाता है शास्त्र कहते हैं कि कलयुग में शक्ति उपासना ही कष्टों का निवारण करती है।

दुर्गा पूजन काल : यूं तो माँ भगवती की सभी तिथियाँ आराधना के लिए शुभ रहती हैं पर दुर्गा सप्तशती में माँ भगवती ने अपने मुख से स्वयं कहा है कि जो प्रतिपदा, अष्टमी, नवमी, दशमी और चतुर्दशी को एकाग्रचित होकर मेरे प्रसंगों को पढेगा, सुनेगा उन्हें किसी प्रकार का पाप स्पर्श नहीं कर पायेगा न ही उन्हें किसी प्रकार की दरिद्रता घेरेगी, न ही जीवन में किसी प्रकार के कष्टों का सामना करना पडेगा।

प्रत्येक नववर्ष के प्रारम्भ में चैत्र शुक्ला प्रतिपदा से लेकर नवमी तक नवरात्र ही नववर्ष की प्रेरणा लेकर आते हैं जो यह बताते हैं कि हमें नववर्ष के प्रारम्भ से ही प्रकृति पदा माँ भगवती का स्मरण करने से हमारे सम्पूर्ण कष्टों का निवारण होता है। नवरात्र की ऋतुओं के आधार पर चार होते हैं, प्रथम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक, द्वितीय आषाढ मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक गुप्त नवरात्र, अश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से नवमी तक तथा माघ शुक्ल  प्रतिपदा से नवमी तक गुप्त नवरात्र, दो नवरात्र चैत्र और अश्विन का ज्ञान तो सभी भक्तों को रहता है लेकिन विशेष साधना एवं विशेष माँ भक्ति की पूजा का काल गुप्त नवरात्र जो माघ एवं आषाढ़ में पड़ता है वह विशिष्ट होता है। माँ भगवती ने अपने श्रीमुख से देवी भावगत में गुप्त नवरात्र काल में साधना को विशेष बल दिया है। स्वयं श्रीराम ने गुप्त नवरात्र में माँ भगवती की साधना कर विजयश्री प्राप्त की थी।

दुर्गा पूजा में निम्र बातों का भी अवश्य ध्यान रखें-

1. देवी की प्रतिष्ठा हमेशा सूर्य के दक्षिण में रहने पर ही होती है। माघ व आश्विन मास में देवी की प्रतिष्ठा सब कार्यों के लिए प्रशस्त मानी गई है।

2. एक घर में तीन शक्ति देवी प्रतिमाओं की पूजा नहीं होती है।

3. भगवती दुर्गा का आह्वान बिल्वपत्र, बिल्वशाखा, त्रिशूल या श्रीफल पर किया जा सकता है परन्तु दूर्वा से भगवती की पूजा कभी न करें।

4. देवी को केवल रक्त कनेर और नाना सुगन्धित पुष्प प्रिय हैं, सुगन्धिहीन व विषैले पुष्प देवी पर कभी न चढ़ावें।

5. नवरात्रि में कलश स्थापन व अभिषेक के कार्य केवल दिनों में होता है रुद्रयामल के अनुसार मध्यरात्रि  में देवी, के प्रति किया गया हवन शीघ्र फलदायी व सुखकर होता है।

6. देवी कवच से शरीर की रक्षा होती है ताकि पुरुष अपमृत्यु से रहित होकर 100 वर्ष की स्वस्थ आयु भोगता है। कवच पाठ करने से मनुष्य सभी प्रकार की बाहरी बाधा भूतप्रेतादि से सुरक्षित हो जाता है।

7. अर्गला लोहे व काष्ठ की होती है जिसके लगाने से किवाड़ नहीं खुलते। घर में प्रवेश करने हेतु मुख्य द्वार ही अर्गला पाठ का है। इसके पाठ करने से किसी प्रकार की बाधा घर में नहीं आ सकती एवं सकल मनोरथ सिद्ध होकर मनुष्य तीनों लोकों में पूजनीय हो जाता है।

8. कीलक को सप्तशती पाठ में उत्कीलन की संज्ञा दी गई है। इसलिये कवच, अर्गला व कीलक क्रमशः दुर्गापूजन के पूर्व अनिवार्य है।

 

उपरत्नों का संसार

स्फटिक : यह सफेद रंग का उपरत्न होता है, इस उपरत्न से कई प्रकार के यंत्र, देवमूर्ति आदि निर्मित होते हैं। यह विशेष प्रभावशाली उपरत्न है। इसे बिल्लौर नाम से भी जाना जाता है। श्रीयंत्र को स्फटिक में बनवाकर पूजा कक्ष में रखने से लक्ष्मी का वास स्थिर रहता है।

फ़िरोजा : यह आसमानी रंग का उपरत्न है। यह बुध ग्रह का उपरत्न है। पन्ना की सी आभायुक्त फ़िरोजा रत्न भी व्यक्ति में बुद्धि, बल, वीर्य, चातुर्य का विकास करता है।

ओपल : यह कई रंगों में उपलब्ध होता है। मुख्य रूप से यह श्वेत रंग का, रंग-बिरंगी किरणें बिखेरता होता है। यह शुक्र ग्रह का उपरत्न होता है। इसे सौभाग्य एवं प्रतिष्ठावर्धक रत्न कहा जाता है।

नीली : यह नीले एवं काले रंग का उपरत्न है, इसे नीली के नाम से जाना जाता है। इसमें सफेद रंग के किरण हार चकत्ते होते हैं। इसे शनि का उपरत्न कहा जाता है तथा नीलम के समान प्रभाव दर्शाता है।

कटैला : यह शनिदेव का उपरत्न है। इसका रंग बैंगनी होता है। यह उपरत्न शनि ग्रह जनित दुष्प्रभावों का शमन करने के लिए धारण किया जाता है।

सुनहला: यह स्वर्ण रंग का, हल्का पीलापन लिए होता है तथा पुखराज का उपरत्न है। इसके प्रभाव पुखराज के समान ही आते हैं। सुख-समृद्धि, दांपत्य सुख, तनाव आदि दूर करने के लिए इसे धारण किया जाता है।

कसौटी: यह उपरत्न, स्वर्ण परीक्षण में प्रयुक्त होता है, इसलिए इसे कसौटी नाम दिया गया है यद्यपि इसके अन्य ज्योतिषीय प्रभाव भी हैं।

लाजवर्त: यह नीलम के समान नीली आभायुक्त होता है। इसे शनि ग्रह का उपरत्न कहा जाता है। इस पर श्वेत रंग के चमकीले धब्बे होते हैं।

सुरमा: यह श्याम वर्ण का पत्थर होता है। इससे अंजन भी बनाया जाता है। नेत्र दृष्टि आदि में प्रयुक्त होता है। प्रेमास्पद संबंध बनाने में यह ज्योतिषीय उपाय स्वरूप प्रमुख होता है।

पारस: पारस एक अद्भुत पत्थर (रत्न) है जिसे पत्थर से स्पर्श कराने पर वह स्वर्ण बन जाता था। यह अत्यंत दुर्लभ उपरत्न है।

मूसा: यह एक मटियाला (भूरा) पत्थर (उपरत्न) होता है। इससे घरेलू उपयोग की वस्तुएँ भी बनाई जाती हैं।

अकीक: यह कई रंगों में पाया जाने वाला उपरत्न है तथा बहुतायत से उपयोग में लिया जाता है। स्फटिक रंग का अकीक, हरे रंग का अकीक, सफेद अकीक आदि। इसकी माला बनाई जाती है। उपरत्नों के रूप में धारण किया जाता है। यह एक से अधिक ग्रहों के दोषों को शमन करने की क्षमता रखता है तथा अपेक्षाकृत सस्ता होता है।

तामड़ा: यह उपरत्न लाल, काला, नीला कई रंगों में मिलता है तथा बहु उपयोगी उपरत्न है। सूर्य और शनि ग्रह जनित दोषों को दूर करने में प्रयुुक्त किया जाता है।

सितारा: यह लाल (गेरूआ) रंग का होता है तथा इस पर सुनहरे धब्बे दिखाई देते हैं। यह सूर्य और मंगल के दोषों के निवारणार्थ धारण किया जाता है।

सिंदूरिया: जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह सिंदूरिया रंग का होता है। इसमें गुलाबी और सफेद रंग का मिश्रण होता है। भगवान गणेश की आराधना में प्रयुक्त होता है।

सुलेमानी: यह आश्चर्यजनक और चमत्कारिक प्रभाव देने वाला उपरत्न है। यदि किसी के अनुकूल हो जावे तो अतिशीघ्र भाग्य बदल देता है। इसका रंग काला होता है और काले रंग पर सफेद धारियाँ उभरी होती हैं।

आलेमानी: यह भी सुलेमानी उपरत्न की भाँति ही परिणाम देने में सक्षम होता है परंतु इसका रंग बादामी (भूरा) होता है और भूरेपन पर श्वेत धारियां मिलती हैं।

जजेमानी: यह भी सुलेमानी उपरत्न के समान ही होता है परंतु हल्का भूरापन लिए डोरीदार होता है।

चित्ती: यह शनि ग्रह का ही उपरत्न होता है। काले रंग का होता है तथा इस पर भी सफेद धारियाँ दिखाई देती हैं।

मरगज: यह हरे रंग का उपरत्न होता है। अपारदर्शी एक कठोर पत्थर होता है। बुध ग्रह के दोषों के शमन में प्रयुक्त होता है।