कुम्भ राशि में शनि-धर्म की वृद्धि

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो एडिटर

29 अप्रैल, 2022, इस दिन शनिदेव अपनी कुम्भ राशि में प्रवेश करेंगे, जो कि उन्हें बहुत ही ज्यादा पसंद है। भारत की वृषभ लग्न की जन्म पत्रिका में शनिदेव दशम भाव में आ जाएंगे और सरकार व शासन करने वाली पार्टी को शक्तिशाली बनायेंगे। 29 अप्रैल की सुबह जब पूरा देश सुबह जाग चुका होगा तो शनिदेव कुम्भ राशि में प्रवेश करेंगे और मंगल ग्रह से युति करेंगे। शनिदेव का पहला नवांश उच्च राशि का होता है अर्थात् तुला राशि का। इतने शक्तिशाली शनिदेव 29 अप्रैल से 15 मई के बीच में न केवल रूस और यूक्रेन युद्ध को निर्णायक रूप में ले जाएंगे बल्कि भारत में एक तरफ छुप-छुप कर हिंसा फैलाने वाले और षड़यंत्रकारियों की गतिविधियों में तेजी लाएंगे तथा दूसरी तरफ सरकारी धरपकड़ और अपराधियों पर कहर की गतिविधियों में तेजी लाएंगे। मई का महीना भी बहुत हिंसा कराने वाला है और शनि-मंगल का संबंध जब केतु से हो तो बहुत सारे षड़यंत्रों का खुलासा होगा और सैंकड़ों नहीं बल्कि हजारों लोगों पर गाज गिरने वाली है।

 

कुम्भ राशि की जैमिनी और पाराशर ऋषि दोनों ही बहुत प्रशंसा करते हैं। 12 राशियों में कुम्भ राशि को बहुत पवित्र माना गया है। कुम्भ का शाब्दिक अर्थ घट, घड़ा, मटका या कलश होता है। भारतीय वैदिक संस्कृति में घट स्थापन श्रेष्ठ कार्य माना गया है और आमतौर से किसी भी कर्मकाण्ड में घट स्थापन का मतलब वरुण स्थापन माना जाता है जो कि पंचतत्त्वों में से एक हैं और वरुण देवता को द्वादश आदित्यों में से एक माना गया है। जब पूजा-पाठ में कलश स्थापना करते हैं तो उस कलश के अन्दर नदियों का जल, सप्त सागरों का जल डाला जाता है। कलश के चारों वेदों के नाम का तिलक लगाया जाता है और वरुण देवता के आह्वान के साथ घट स्थापना की जाती है। नवरात्रि की पूजा भी ऐसे ही प्रारम्भ की जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि कुम्भ राशि से घट स्थापना का संकेत मिलता है और भारतीय संस्कृति की पहचान और यज्ञ संस्कृति की पहचान घट स्थापना से ही होती है। मानों घट या घड़ा या मटका अर्थात् वरुण जैसे भारतीय वैदिक संस्कृति का पोस्टर बॉय हो। अब जब कि शनि अपनी ही राशि कुम्भ को समृद्ध करने आ रहे हैं तो घट का अर्थात् वैदिक संस्कृति का प्रभुत्व बढ़ने का समय भी आ रहा है। यहाँ 29 अप्रैल को भारत की जन्म पत्रिका में उस दिन की  सुबह 8 बजे की शक्तिशाली ग्रह स्थिति को दर्शाया जा रहा है। शनि की मकर और कुम्भ का विवरण मैं इसी पृष्ठ पर अन्यत्र प्रस्तुत कर रहा हूँ। उन्हें इस लेख के अलावा पढ़ा जा सकता है।

शनिदेव कुम्भ राशि में अति शक्तिशाली होते हैं क्योंकि ज्योतिष के दृष्टिकोण से यह उनकी मूल राशि मानी गई है। जब किसी देश की जन्म पत्रिका में दशम भाव में शनि आते हैं तो अत्यधिक उत्थान कराते हैं। राष्ट्र की उन्नति, राष्ट्र का प्रभुत्व, राष्ट्र का अहंकार और राष्ट्र का विस्तार इस शनि की स्वाभाविक वृत्तियाँ हैं।

क्या यह सब बढ़ेगा?

अवश्य बढ़ेगा, क्योंकि भारत की विदेश नीति और कूटनीति इस समय की सर्वश्रेष्ठ कूटनीति है। भारत शक्तिशाली राष्ट्रों के समकक्ष आ गया है और भारत की उपेक्षा करना सम्भव नहीं रहा है। दक्षिण एशियायी राजनीति तो अब पूरी तरह से भारत के नियंत्रण में आ चुकी है और विश्व के शक्तिशाली देश अब भारत से सम्बन्ध बनाये रखना चाहते हैं। वैसे भी दुधारू गाय की लात सहनी ही पड़ेगी। परन्तु भारत अब केवल दुधारू गाय ही नहीं रहा है, हथियारों का विके्रेता भी बन गया है। अगले 10 साल के अन्दर-अन्दर पाएंगे कि भारत दुनिया के सबसे बड़े हथियार उत्पादक और हथियार विके्रेता के रूप में स्थान बना चुका है।

गत 70 वर्षों में भारत सरकार ने कई इकॉनोमिक मॉडल पर काम किया है और हर मॉडल की कोई न कोई विशेष रही है। परन्तु विदेशी मुद्रा की सबसे बड़ी खपत तेल और हथियारों में ही होती थी। राइफल तक बाहर से मँगवानी पड़ती थी। जूतों की किट तक बाहर से मंगवानी पड़ती। भारत की सरकारों ने कभी समझा ही नहीं कि जो देश द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हथियार बेच-बेच कर और अन्य देशों को आपस में लड़ाकर धनी हुए हैं, भारत यह क्यों नहीं कर सकता? अब यह मूल मंत्र भारत की सरकार को समझ में आ गया है और विदेश नीति भी आक्रामक मुद्रा में आ गई है। भारत के विदेश मंत्री का यह कथन कि ‘जब अमेरिका और यूरोप रूस से तेल खरीद रहे हैं तो भारत क्यों नहीं खरीदे’, यह एक आश्चर्यजनक परिवर्तित विदेश नीति है।

29 अप्रैल, के दिन शनि, मंगल युति कुम्भ राशि में हैं। भारत के लाभ भाव में ना केवल गजकेसरी योग है, बल्कि चन्द्रमा के साथ-साथ देवगुरु बृहस्पति अपनी मीन राशि में हैं और दैत्य गुरु शुक्र अपनी उच्च राशि मीन में हैं। शनि के कुम्भ राशि प्रवेश के क्षण में ही बुध ग्रह भारत की लग्न में हैं। यह बहुत सुखद संकेत हैं जिसके आधार पर यह भविष्यवाणी की जा रही है कि वित्त वर्ष 2022-23 भारत में अभूतपूर्व आर्थिक समृद्धि लाने वाला है। भारत सरकार की आय बढ़ेगी, प्रतिव्यक्ति आय भी बढ़ेगी और महँगाई को झेलने वाले उपाय खोज लिये जाएंगे।

परन्तु भारत के 12वें भाव में सूर्य और राहु की उपस्थिति अगले 1 महीने तक भारत के गाँव - गाँव में तनाव की वृद्धि करेगी। धर्म के आधार पर धु्रवीकरण की गति और तेज हो जायेगी। प्रबल विरोध के बाद भी केन्द्र सरकार शक्तिशाली होती चली जायेगी और कुछ निर्णय बड़ी कठोरता से लिये जाएंगे। 5 जून के बाद घटनाओं की संख्या बहुत बढ़ जायेगी क्योंकि तब शनि वक्री रहेंगे। परन्तु अगस्त के महीने में सर्वाधिक समस्याएँ रहेंगी क्योंकि तब ना केवल शनि और गुरु दोनों वक्री रहेंगे बल्कि शनि, मंगल, सूर्य, राहु और बुध एक-दूसरे से केन्द्रीय प्रभाव में रहेंगे। कम अवधि की कक्षा वाले ग्रह तेज गति से राशि बदलते रहेंगे। यह महीने बहुत चिन्ताजनक हैं और एक तरफ राष्ट्र का विकास द्रुत गति से हो रहा होगा, दूसरी तरफ धर्म के आधार पर हुई गतिविधियों और घटनाओं में तेजी आएगी। शनिदेव 12 जुलाई तक कुम्भ राशि में हैं, फिर वापस मकर में आ जाएंगे जहाँ वो वर्षपर्यन्त रहेंगे, परन्तु उनकी वक्री मुद्रा महीनों तक पूरे देश को आंदोलित करती रहेगी।

 

शनि और रावण

ओमप्रकाश शर्मा

आसुरी संस्कृति में महान् व्यक्तित्व उत्पन्न हुए, जिनका बल-पौरुष और विद्वत्ता अतुलनीय रही थी। शुम्भ-निशुम्भ, मधु-कैटभ, हिरण्यकश्यप, बली या रावण, सभी अतुल पराक्रमी और महा विद्वान थे। यह अलग बात है कि उन्होंने अपनी शक्तियों का प्रयोग असामाजिक कृत्य और भोगों की प्राप्ति हेतु किया।

इनमें रावण का नाम असुर कुल के विद्वानों में अग्रणी रहा है। रावण चूंकि ब्राह्मण वंश में उत्पन्न हुए, उनके पिता ऋषि विश्रवा और दादा पुलस्त्य ऋषि महा तपस्वी और धर्मज्ञ थे किन्तु माता असुर कुल की होने से इनमें आसुरी संस्कार आ गए थे। ऋषि विश्रवा के दो पत्नियाँ थीं। एक का नाम इडविडा था जो ब्राह्मण कुल से थीं और जिनके कुबेर और विभीषण, ये दो संतानें उत्पन्न हुईं। दूसरी पत्नी का नाम कैकसी था, जो असुर कुल से थीं और इनके रावण, कुंभकर्ण और सूपर्णखा नामक संतानें उत्पन्न हुईं।

कुबेर इन सब में सबसे बड़े थे। रावण विभीषणादि जब बाल्यावस्था में थे, तभी कुबेर धनाध्यक्ष की पदवी प्राप्त कर चुके थे। कुबेर की पद-प्रतिष्ठा से रावण की माँ ईर्ष्या करती थीं और रावण को कोसा करती थीं। रावण के मन को एक दिन ठेस लगी और अपने भाइयों (कुंभकर्ण-विभीषण) को साथ में लेकर तपस्या करने चला गया। रावण का भ्रातृ प्रेम अप्रतिम था। इनकी तपस्या सफल हुई और तीनों भाइयों ने ब्रह्माजी से स्वेच्छापूर्ण वरदान प्राप्त किया।

रावण इतना अधिक बलशाली था कि सभी देवता और ग्रह-नक्षत्र उससे घबराया करते थे। ऐसा पढ़ने को मिलता है कि रावण ने लंका में दसों दिक्पालों को पहरे पर नियुक्त किया हुआ था। रावण चूंकि ब्राह्मण कुल में जन्मा था सो पौरोहित्य कर्म में पूर्ण पारंगत था। शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि शिवजी ने लंका का निर्माण करवाया और रावण ने उसकी वास्तु शांति करवाई, नगर-प्रवेश करवाया और दक्षिणा में लंका को ही मांग लिया था तथा लंका विजय के प्रसंग में सेतुबन्ध रामेश्वर की स्थापना, जब श्रीराम कर रहे थे, तब भी मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा आदि का पौरोहित्य कार्य रावण ने ही सम्पन्न करवाया।

रावण की पत्नी मंदोदरी जब माँ बनने वाली थी (मेघनाथ के जन्म के समय) तब रावण ने समस्त ग्रह मण्डल को एक निश्चित स्थिति में रहने के लिए सावधान कर दिया। जिससे उत्पन्न होने वाला पुत्र अत्यंत तेजस्वी, शौर्य और पराक्रम से युक्त हो, यहाँ रावण का प्रकाण्ड ज्योतिष ज्ञान परिलक्षित होता है। उसने ऐसा समय (मुहूर्त) साध लिया था, जिस समय पर किसी का जन्म होगा तो वह अजेय और अत्यंत दीर्घायु से सम्पन्न होगा लेकिन जब मेघनाथ का जन्म हुआ, ठीक उसी समय शनि ने अपनी स्थिति में परिवर्तन कर लिया, जिस स्थिति में शनि के होने पर रावण अपने पुत्र की दीर्घायु समझ रहा था, स्थिति परिवर्तन से वह पुत्र अब अल्पायु हो गया।

रावण अत्यंत क्रोधित हो गया। उसने क्रोध में आकर शनि के पैरों पर गदा का प्रहार कर दिया। जिससे शनि के पैर में चोट लग गयी और वे पैर से कुछ लाचार हो गये, अर्थात् लँगड़े हो गये।

शनि देव ही आयु के कारक हैं, आयु वृद्धि करने वाले हैं, आयुष योग में शनि का स्थान महत्वपूर्ण है किन्तु शुभ स्थिति में होने पर शनि आयु वृद्धि करते हैं तो अशुभ स्थिति में होने पर आयु का हरण कर लेते हैं। मेघनाथ के साथ भी ऐसा ही हुआ। मेघनाथ की पत्नी शेषनाग की पुत्री थी और महासती थी। मेघनाथ भी परम तेजस्वी और उपासना बल से परिपूर्ण था। इन्द्र को भी युद्ध में जीत लेने से उसका नाम इन्द्रजीत पड़ गया था लेकिन दुर्भाग्यवश लक्ष्मण जी के हाथों उसकी मृत्यु हो गई।

इस प्रसंग से शनिदेव आयु के कारक और नाशक होते हैं, यह सिद्घ होता है।

 

आकाश दर्शन-तारा टूटना

जिसे हम टूटा तारा कहते हैं, वह वास्तव में टूटा तारा नहीं। वह तो उल्का हैं जिनका दर्शन अशुभ होता है। यद्यपि टूटता तारा भी इसी तरह गिरता है पर वह दो-तीन दिन नजर आता है। देखने की मना करने का आधार यह है कि एक शताब्दी में मुश्किल से 4 या 5 बार तारा टूटता है। एक दो वर्ष मेंनहीं। टूटते तारे से मांगी मुराद अवश्य पूरी होती है पर उल्का क्या मुराद पूरी करेगी। इसलिए इस फैशन  को अपना ठीक नहीं। इससे अशुभ ही होता है। यदि कोई चमकदार पिण्ड टूटकर आकाश मे कुछ समय स्थिर रहकर चमके उससे वर चायना की जा सकती है।

जब कोई तारा अति तप्त अवस्था में आ जाता है तो अधिकाधिक न्यूक्लियस बनाता जाता है। यह क्रियाएं चालू रहती है और केन्दि्रय गर्भ भाग से ऊर्जा निकलती रहती है जिसकी वजह से तारे की चमक तो बढ़ती  ही है और तारे का बाहरी भाग फूलता जाता है लेकिन जब ये क्रियाएं बन्द हो जाती है तब गर्भ भाग फिर सिकुडने लगता है और सिकुड़न रुक जाती है क्योंकि प्रोटोन और न्यूट्रोन  एक दूसरे में परिवर्तित  होने लगते हैं। क्योंकि यह कण भौतिकी का सिद्घान्त है अकेला न्यूट्रान अधिक समय तक अकेला नहीं रह सकता। वह प्रोट्रोन  मे परिवर्तित  हो जाता है। न्यूट्रान के क्षय हो जाने से इलेक्ट्रान एवं एन्टी-न्यूट्रीनों बनते हैं। जबकि तारे में इस क्रिया के विपरीत प्रक्रिया होती है। प्रोट्रान एवं इलेक्ट्रोन के संयोग सेन्यूट्रान एवं न्यूट्रीनों बनते हैं। न्यूट्रीनों बहुत कम द्रव्यमान के कण होते हैं जो प्रकाश की गति से चलते हैं।

इस सिकुडन गर्म भाग में न्यूट्रान कणों की संख्या में वृद्घि होती जाती है। और भौतिक शास्त्री पाउलि के नियमानुसार तारे का केन्दि्रय गर्म भाग एकाएक फूलता है केन्द्रीय गर्म भाग के एकाएक फूलने  सेबढ़े दवाब से विस्फोटक के साथ तारे का बाहरी आवरण फूट जाता है। इस खण्डित भाग को हीटूटा तारा और भौतिक की भाषा में सुपरनीव्हा कहते हैं।

टूटते समय तारे का प्रकाश कुछ समय के लिए सैकड़ों अरब गुना बढ जाता है। यह विस्फोट तो कुछ ही क्षणों का होता है पर प्रकाश दो-तीन दिन रहता है। फिर धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। यह क्षण जब विस्फोट  होता है और प्रकाश फैलता  हैवर मांगने का होता है। और खण्डित भाग अनुकूल स्थान परजाकर स्थिर  हो जाता है। आकाश गंगा में ऐसे कई सुपरनीहा विद्यमान है। एक सुपरनोहा जिसे क्रेब नैबुला का अंश कहते हैं, उसकी हमसे दूरी 6000 प्रकाश वर्ष है। वैज्ञानिकों का ऐसा  मानना है कि तारों के टूटने की घटना प्रति शताब्दी दो या तीन तक हुआ करती है।

जबकि उल्काएं यदा-कदा प्रकट होती ही रहती है। हमारे आचार्यों ने इन उल्काओं के 5 प्रकार मुख्य बतलाये हैं। जिनके नाम धिष्ण्या, उल्का, शनि, बिजली और तारा। इनमें उल्का के परिणाम 15 दिन में, धिष्ण्या के 15 दिनमें, अशनि के 45 दिन में, बिजली छै दिन में और तारा के फल भी 6 दिन में प्राप्त होते हैं।

तारा का फल चौथाई धिष्ण्या का आधा और विद्युत उल्का और अशनि का फल पूर्ण प्राप्त होता है।

आकाश में प्रकट होने वाली चमकदार आकृति के आधार पर ही उल्का का प्रकार निर्धारित होता है।

अशनि : आकाश में चमकदार आकृति चक्र की तरह घूमती हुई, शब्द  करती हुई गिरती प्रतीत होती है, यह दृश्य कुछ सैकिण्ड़ का ही होता है। यह मनुष्य, हाथी, घोड़ा, हिरण,पत्थर, घट, वृक्ष या पशुओं पर गिरती है।

विद्युत : यह वर्षा ऋतु में या वर्षा के दौरान प्रकट होती है। यह विघुत स्पार्किंग की तरह शब्द करती हुई, कुंठित, विस्तृत और विकृत शरीर वाले प्राणियों  पर गिरती है। इसकी गति बहुत तेज होती है।

धिष्टया : यह एक पूंछ दार लम्बी-चमकदार आकृति के रुप में गिरती दिखाई देती है।

तारा : तारा लम्बी आकृति और श्वेत वर्ण की होती है। इसकी विशेषता यह होती है कि यह ऊपर-नीचे-तिरछी गमन करती दिखाई देती है।

उल्का : उल्का एक पुरुष के  समान सिर युक्त लम्बी आकृति में गिरती हुई दिखाई देती है। उल्का पुरुषाकृति के अतिरिक्त अन्य आकृतियों में भी दिखाई देती है इसकी आकृति जैसी होती है परिणाम भी उसी प्रकार के आते हैं।

उल्का प्रेत, शस्त्र,गदहा, ऊँट, नाक, बन्दर, सुअर, हल, हिरण,साँप या धूम के समान या दो सिर वाली दिखाई देती है। यह सदा ही अशुभ फल करती हे। इनका दिखना अच्छा नहीं होता।

जो उल्का आकाश में रुप परिवर्तन करते हुये गिरती है वहां उस स्थान के मुख्य व्यक्ति राजा आदि को दुःख देते हैं जबकि जो उल्का आकाश में घूमती हुई गिरती दिखाई देती है वह लोगों को विपत्ति दे देती है।

जो उल्का सूर्य या चंद्रमा के पास से आती दिखाई दें वह धन-धान्य तो देती है किन्तु वर्षा में कमी होती है।

श्वेत रंग की उल्का ब्राह्मण  वृत्ति वालों को रक्त वर्ण की उल्का क्षत्रिय वृत्ति वालों को, पीत वर्ण  की व्यापार कर्म करने वालों की और काले रंग की नौकरी पेशा वर्ग को कष्ट देने वाली होती है।

उत्तर दिशा में उल्का गिरे तो सलाहकार और शैक्षिकवर्ग को पूर्व में उल्का गिरे तो पुलिस, सेना और शासक वर्ग को , दक्षिण में गिरे तो व्यापार वृत्ति वालों को और पश्चिम में गिरे तो नौकरी करने वालों ओर अधीनस्थ कर्मचारी वर्ग को समस्याएं आती है। साथ ही उल्का यदि खेत में गिरे तो फसल हानि, घर पर गिरे तो जन हानि, पूज्य स्थलों पर गिरे तो पूज्य व्यक्तियों को हानि होती है।

इसलिए आकाश का दर्शन करते हुये शुभ ग्रह-नक्षत्रों का ही अवलोकर करना चाहिये। उनसे प्रार्थना करनी चाहिए । ये साक्षात देव ही तो हैं जो हमारी स्थिति और विनाश के कारण है। किसी नक्षत्र विशेष पर ग्रह विशेष के आ जाने से हमे शुभाशुभ फल क्यों मिलते हैं। इसका कारण यह है कि हम इन ग्रह-नक्षत्रों की रश्मियों से नित्य प्रभावित होते हैं। नक्षत्रों की रश्मियां  राशियों की भी  स्वच्छ होती है। अपने गुणों से पूर्ण होती है, लेकिन किसी ग्रह उर्जा पिण्ड विशेष के राशि या नक्षत्र  पर आ जाने से ग्रह के गुणधर्मों में यथायोग्य परिवर्तन ला देते हैं।

आकाश का दर्शन करते समय भाव यही होने चाहिये कि सभी देवता आकाश में पधारे हैं। उन्हें हम नमन करते हैं।वे हमारी रक्षा करें, हमे सद्बुद्घि दें, हमें सत्मार्ग पर आगे बढ़ायें और हमारे कष्टों को दूर करें। वर भोगने की अपेक्षा प्रार्थना करना ज्यादा श्रेयस्कर होता है।

 

ऊर्जावानमहत्वाकांक्षी व क्रान्तिकारी ग्रह- हर्षल

हर्षल एक विस्मयकारी व आक्रामक ग्रह है जो मनुष्य के जीवन में अकस्मात आश्चर्यजनक रुप से परिवर्तन लाता है।

हर्षल को अरुण व यूरेनस भी कहा जाता है। इसकी खोज सर-विलियम हर्षल ने मार्च 1781 में की थी। इसकी दूरी पृथ्वी से 17830 लाख मील है, इसका व्यास 32000 मील है। यह नंगी आंखों से दिखाई नहीं पड़ता है। इसका प्रकाश बहुत मंद है। इसके भ्रमण का एक फेरा 83 वर्ष 11 मास, 4 दिन में अर्थात लगभग 84 वर्ष में पूरा होता है। यह एक राशि में 7 वर्ष रहता है।

हर्षल एक पाप ग्रह है, और शनि के समय ही इसके परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं। अति चंचल, अनिश्चिन्ता, विक्षिप्तता, अकस्मातपना व लोक विलक्षणता ये इसके प्रधान गुण है। हर्षल ग्रह की कल्पनाशक्ति अपार है। जहां पर सामान्य मनुष्य की सोच समाप्त होती है वहां से हर्षल प्रधान मनुष्य की कल्पना प्रारम्भ होती है। लोक व्यवहार विरुद्घ बात करना भी हर्षल की एक प्रवृति है।

हर्षल की स्वराशि कुंभ है। तुला उच्च राशि है। वायु राशि मिथुन, तुला , कुंभ में हर्षल विशेष बलवान होते हैं। मेष, कर्क, राशि में हर्षल बुरे प्रभाव देते हैं। शेष राशियों में सामान्य फल है। 1,3,5,7,9 व 10 भावों में हर्षल विशेष बलशाली होते हैं। अन्य ग्रहों के समान हर्षल को भी सप्तम दृष्टि प्राप्त है।

कुण्डली में यदि हर्षल वायुराशि में हो व 1,3,5,7,9 तथा 10 भावों में से किसी एक में हो तो अत्यधिक बलवान होता है। ऐसा जातक अनेक शास्त्रों का ज्ञाता होता है। इनकी सोच बहुत ऊंची व विस्तृत होती है। कल्पना शक्ति से बाहर जाकर सोचने की क्षमता ऐसे जातक में होती है। गुप्त विद्याओं का ज्ञाता, साहसी, तेजस्वी व्यक्तित्व, अकल्पनीय विषयों सम्बन्धित  वार्ता करना व उसके फल को विचारपूर्वक कहना, कुशाग्र बुद्घि तेज रफ्तार पूर्वक कार्य, जल्दी-जल्दी बात करना,तीव्र चाल, लम्बी यात्रा आदि हर्षल प्रधान व्यक्ति के गुण है।

हर्षल यदि शुभ ग्रह से योग करता है तो ऐसे जातक का सदैव चलते रहने का मन करता है। ऐसा जातक महत्वाकांक्षी व उच्चाभिलाषी होता है। विपरीत परिस्थितियों को आश्चर्यजनक रुप से परिवर्तन करके अपने अनुकूल बनाने की क्षमता भी हर्षल प्रधान व्यक्तियों में होती है।

इसके विपरीत यदि हर्षल अग्रि राशि मेष, सिंह, धनु में हो तो बुरे परिणाम देते हैं। किसी भी प्रकार के संकट की परवाह किये बगैर साहसिक कार्य करने वाला बेपरवाह व्यक्ति होता है। ऐसे जातक को आकस्मिक संकट का भय हमेशा रहता है। पीड़ित व मारक भाव में हर्षल अकस्मात मृत्यु देता है। पीड़ित हर्षल प्रधान व्यक्ति विश्वास करने योग्य नहीं होता है।

रोजगार : हर्षल बलवान व अच्छी स्थिति में हो तो जातक रिसर्च करके सत्य प्रकट करता है। गुप्त विद्या की तरफ झुकाव देता है। रिसर्च स्कोलर, शिल्पकार, भविष्य दर्शक, वैज्ञानिक, टेलीफोन, वायरलैस, टेलीविजन, कम्प्यूटर, हिप्नोटिस्ट, टेलीपैथी, हवाईजहाज चालक, ट्राम-रेलवे, टांसपोर्ट कम्यूनिकेशन आदि रोजगार के क्षेत्र हर्षल द्वारा प्रदत्त है।

हर्षल प्रधान व्यक्ति में बिना दवा के जख्म को ठीक करने की अद्भुत कला होती है।

रोग : छठे भाव में पापयुक्त व दृष्ट हर्षल असाध्य व लम्बे चलने वाले रोग देता है। नामी डाक्टर भी उसका निदान नही कर पाते हैं। शक, फिटस आना, पागलपन,अपघात, मज्जातन्तु सम्बन्धि रोग हर्षल उत्पन्न करता है। इसके अतिरिक्त पेट में दाह चेहरे पर पक्षाघात, दमा, मानसिक बीमारी, केन्सर, हृदय क्रिया का अचानक रुकना, टेढी-मेढी चाल, मूत्रपिण्ड़ में विकार, पैरों व घुटनों में दर्द आदि सभी रोग हर्षल के अधिकार क्षेत्र में है।

पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के छठे भाव में कुंभ राशि के हर्षल ने घुटने का बार बार आपरेशन करवाया व लम्बे समय तक इस रोग से पीड़ित रखा।

हर्षल का गोचर भ्रमण : हर्षल जन्मकालीन सूर्य के साथ गोचर करें तो व्यापार में घाटा होता है। बडे व सत्तासम्पन्न व्यक्ति का त्रास होता है। अपयश, बडी दुर्घटना, मज्जा तन्तु सम्बन्धि रोग आदि स्थितियां इस समय होती है।

हर्षल जन्मकालीन चंद्रमा से गोचर करे तो जातक को अचानक घर बदलना पड़ता है, नौकरी से एकदम स्थानान्तरण होता है। अकस्मात सम्पत्ति में हानि देता हे। यदि चन्द्र हर्षल शुभ योग हो तो अकस्मात लाभ भी दे सकता है।

हर्षल मंगल गोचर काल में सरकारी कार्य में अपयश, फौजदाीर मामला, अपघात, अग्रिकाण्ड़, जहाज डूबना इस प्रकार की घटनाएं इस समय होती है। जब हर्षल मंगल के आगे भ्रमण करता हो तो यात्रा करना व मशीन चलाना इस समय खतरनाक साबित हो सकता है। इसका शुभ योग बहुत उपयोगी नहीं है।

हर्षल का बुद्घ से भ्रमण विद्या की दृष्टि से उत्तम है। शास्त्रीय व वैदिक विद्या प्राप्त करने का यह सर्वश्रेष्ठ समय है।

इस समय मानसिक व आर्थिक उन्नति होती है। नए व्यक्तियों से परिचय तथा मशीनरी खरीदने का यह शुभ समय होता है।

गुरु हर्षल भ्रमण काल में साधुपुरुषों के दर्शन, गुरु उपदेश लाभ, धार्मिक यात्राएं व शास्त्रों का ज्ञान होता है। इसी काल में व्यक्ति का अचानक धर्म की तरफ झुकाव बढ़ता है।

शुक्र से भ्रमण काल में हर्षल आध्यात्मिक उन्नति देता है। मंत्रशास्त्र व अन्य गूढ़ विषयों  में रुचि उत्पन्न करता है। यदि अशुभ योग हो तो स्ति्रयों से अनैतिक सम्बन्ध या स्ति्रयों से हानि व अपमान भी हो सकता है।

शनि से गोचरवश हर्षल अपयश, अपमान, हानि, मशीनों व वाहनों से चोट, मन में अंधकार, संघर्ष आदि फल प्राप्त होते हैं। यह योग यदि शुभ हो तो अचानक मनुष्य को चरमोत्कर्ष स्थिति पर पहुंचा देता है।