ज्योतिष का प्रसिद्ध गजकेसरी योग

पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

ज्योतिष के सर्वाधिक प्रसिद्ध योगों में से एक गजकेसरी योग है। गजकेसरी का अर्थ है- गज जैसी शक्ति और सिंह जैसी चपलता और चतुराई भरी रणनीतिक प्रतिबद्धता। ये दोनों अगर मिल जाये तो लक्ष्य की प्राप्ति होती है। ज्योतिष में योग का अर्थ है कि या तो दो या अधिक ग्रह एक ही राशि में स्थित हों, या एक-दूसरे पर दृष्टि प्राप्त कर रहे हों या दो या अधिक ग्रह एक दूसरे को कैसे भी प्रभावित कर रहे हों।

चन्द्रमा और बृहस्पति का मिलन असाधारण है। चन्द्रमा की अपनी राशि कर्क बृहस्पति की उच्च राशि मानी जाती है। ये दोनों ग्रह अगर साथ बैठ जायें तो यह माना जाता है कि उम्र के 50वें पड़ाव तक व्यक्ति प्रसिद्ध हो जाता है और सफल हो जाता है।

यदि चन्द्रमा और बृहस्पति की युति जन्म पत्रिका के केन्द्र स्थान में हो जाये तो यह योग शानदार परिणाम देता है। यही योग अगर त्रिकोण स्थानों में हों अर्थात् जन्म पत्रिका के पहले, पाँचवें और नवें भाव में हो तो भी बहुत शानदार परिणाम आते हैं। परन्तु ऐसा नहीं कि यह योग केन्द्र या त्रिकोण में बैठने पर ही परिणाम देता है। जन्म पत्रिका के किसी भी भाव में चन्द्रमा हों और उससे केन्द्र स्थान में बृहस्पति हों तो वह गजकेसरी योग तो कहलाता है पर उतने शानदार परिणाम नहीं देता, जितने कि केन्द्र त्रिकोण में स्थित चन्द्रमा और बृहस्पति परिणाम देते हैं। कई बार तो आश्चर्यजनक रूप से अरिष्ट स्थानों में बैठे चन्द्रमा या गुरु आश्चर्यजनक परिणाम दे देते हैं, जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगोडा के मामले में हुआ। परन्तु नीच भंग राजयोग देखना हो तथा साथ में गजकेसरी योग देखना हो तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कुण्डली सबसे शानदार उदाहरण है। यह तो पद प्राप्त करने की बात हुई। परन्तु दशम स्थान में बैठे कर्क राशि में चन्द्रमा और गुरु अमर ख्याति प्रदान कर देते हैं, जैसा कि हरिवंश राय बच्चन के मामले में हुआ। भाग्य भाव में बैठे चन्द्रमा से दशम भाव में बैठे बृहस्पति भी अपार ख्याति दे देते हैं, जैसा कि हेमा मालनी के मामले में हुआ। यद्यपि इन सभी मामलों में अन्य योग भी उपलब्ध हैं। इन सभी की जन्म पत्रिकाएँ दी जा रही हैं।

गजकेसरी योग से कभी-कभी अमर ख्याति का योग भी बनता है। लेखक और साहित्यकारों की कुण्डली, फिल्मी नायक-नायिकाओं की कुण्डली या गायक कलाकारों की कुण्डलियों में ऐसा देखा जा सकता है। अमृता प्रीतम, हरिवंश राय बच्चन, लता मंगेशकर और गायक कुमार सानू की जन्म पत्रियाँ इसका अच्छा उदाहरण है।

कुछ प्रधानमंत्रियों की कुण्डली भी दी जा रही है। उनमें गजकेसरी योग का अवलोकन करें। ऋषियों का मानना है कि यह योग चन्द्रमा से ही नहीं बनता, जन्म लग्न से केन्द्र में बृहस्पति हों तब भी यह योग बनता है। सुनील गावस्कर की कुण्डली में यह देखा जा सकता है। यहाँ चन्द्रमा की आवश्यकता नहीं पड़ी। प्रसिद्ध खिलाड़ी टाइगर वुड्स की कुण्डली में यह देखा जा सकता है।

 

 

चन्द्रमा से बनने वाले गजकेसरी योग में अगर बृहस्पति नीच राशि में हों, अस्त हों तो विपरीत परिणाम आ सकते हैं। कभी-कभी वक्री बृहस्पति भी खराब परिणाम दे जाते हैं। अतः इन योगों को अन्य योगों के साथ ही देखा जाना उचित रहता है। किसी भी जन्म पत्रिका में अच्छे योग और खराब योग एक साथ ही मिल सकते हैं।

 

दीप प्रज्ज्वलन

दीप ज्योतिः सूर्य ज्योतिः नमस्तुतेः। भारतीय संस्कृति में दीप प्रज्ज्वलन का अत्यधिक महत्व है। किसी भी शुभ कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व दीप का प्रज्ज्वलन किया जाता है। भारतीय संस्कृति में दीप प्रज्ज्वलन को किसी भी शुभ कार्य के आरम्भ के रूप में तथा अग्निदेव की साक्षी के रूप में स्थापित किया जाता है। साधकगण दीप के प्रज्ज्वलन होते ही सावधान हो जाते हैं और भगवान के अर्थात् अपने इष्ट की पूजा में संलग्न हो जाते हैं। इस प्रकार भारतीय संस्कृति दीपक के महत्व को अनवरत रूप से आदिकाल से स्वीकार करती आ रही है। दीपक के प्रज्ज्वलन करते समय विविध प्रकार के वेदोक्त, शास्त्रोक्त व पुराणोक्त मंत्र प्रयोग किए जाते हैं यथा-

साज्यं वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया।

दीपं गृहाण देवेशः त्रैलोक्य तिमिरापहम्॥

इस प्रकार प्रार्थना की जाती है कि हे इष्टदेव आप हमारे(सेवकों के द्वारा) द्वारा दिए गए शुद्ध घी और शुद्ध कपास की बत्ती से संयुक्त अग्नि के सहित इस दीपक को ग्रहण कीजिये और तीनों लोकों के अंधकार को आप दूर कीजिये। तीनों लोकों से तात्पर्य बहुत गहरा है। यह तीन लोक शब्द विविध प्रकार की विशेषताओं को लिए हुए होता है अर्थात् धरती, आकाश और पाताल यह तीन लोक-प्रातः, मध्याह्न व सायंः यह तीन संध्या; बाल, युवा और वृद्ध यह तीन अवस्थाएं होती है। यह विविध तिकड़ी बहुत महत्वपूर्ण होती है। साधक प्रार्थना करता है, हे अग्निदेव -

अयमिह प्रथमो धायि धातृर्भिहोता यजिष्ठ अध्वरेष्वीड्य।

यमप्न वानो भृगवो विरुरुचिर्वनेषु चित्रं विभ्वं विशे-विशे॥

आपको हम सर्वप्रथम आमंत्रित करते हैं और आपकी स्थापना करते हैं। आप भक्त की प्रार्थना सुनते ही तुरंत पधारते हैं और यजमान की कामनाओं को सुनकर के तत्तद देवताओं तक पहुंचा देते हैं। एक अन्य स्थान पर ऋग्वेद में कहा है कि हे अग्निदेव यद्यपि आपका मार्ग कृष्ण है, धूम्र भरा है तथा आप उत्पन्न होने से पूर्व घोर अंधकार तथा आपकी उत्पत्ति भी घोर अंधकार से ही होती है लेकिन प्रकट होते ही आप तमाम अंधकार को दूर कर देते हैं, धूम्र को समाप्त कर देते हैं, वातावरण को शुद्ध कर देते हैं और प्रकृति में प्रकाश फैला देते हैं। इसीलिए आपको हमारे (साधकगणों के) मन के अंधकार को समाप्त करने के लिए सर्वप्रथम हम आमंत्रित करते हैं और आप यजमान के पुरोहित और देवताओं के दूत बनकर के यजमान के द्वारा दिया गया हव्य-कव्य को यथोचित देवताओं तक पहुंचा देते हैं।

दीप प्रज्ज्वलन को लेकर के सीधा-साधा अर्थ यह लगाया जाता है कि जहां दीपक जलता है, वहां के स्थान को वह शुद्ध करता है, कीटाणु रहित करता है। कहा जाता भी है कि ‘जा घर दीपक न जले, वा घर भूत समान।’इसलिए किसी भी स्थान को पूर्ण अंधकारमय कभी नहीं रखा जाता। व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने स्थान के किसी भी कोने को प्रकाशरहित न होने दें। वहां प्रकाश अवश्य करें।

इसी क्रम में दीपावली विशेषतौर पर दीप प्रज्ज्वलन का ही त्यौहार होता है जिसमें कि प्रत्येक घर में सुहागिनियों के द्वारा असंख्य दीप प्रज्ज्वलित किए जाते हैं। देखो हमारी प्रथा, कि हमारे घर की स्ति्रयां स्वयं तो अपने घर में दीप जलाती ही हैं, साथ ही लोकाचार निभाने हेतु त्यौहार की बधाई आस-पड़ौस अथवा कोई रिश्तेदार के यहां जब देने जाती हैं तो एक थाली में सजाकर कई दीपक ले जाती हैं। जिस घर में जाती हैं, वहां एक दीपक बधाई के तौर पर रख देती हैं।

 

गुरु (बृहस्पति)

बृहस्पति सौर मंडल का सबसे बड़ा ग्रह है। इसका द्रव्यमान अन्य सभी ग्रहों के द्रव्यमानों के योग से भी बहुत अधिक है। पृथ्वी के भूमध्यीय व्यास 7926 मीन और ध्रुवीय व्यास में अन्तर बहुत कम है मगर बृहस्पति का भूमध्यीय व्यास 88,000 मील से भी अधिक है और ध्रुवीय व्यास 84,000 मील से कुछ कम। इससे यह ज्ञात होता है कि यह धु्रवों पर बहुत अधिक चपटा है। यह ध्रुवों पर चपटापन दो कारणों से है (1) इसका अपने अक्ष (धुरी) पर घूमने का समय 9.841 घंटे है अर्थात यह अपनी धुरी पर बहुत तीव्र गति से घूम रहा है। इस तीव्र गति के कारण भूमध्य रेखा वाले स्थान बाहर को निकलकर बड़े हो जाते हैं। (2) यह एक ठोस और चट्टानों वाला ग्रह नहीं है। यह हाईड्रोजन और हीलियम जैसी गैसों का गोला है। इसका घनत्व 1.314 है। इसके विपरीत बुध, शुक्र, पृथ्वी और मंगल ग्रह ठोस चट्टानों के बने हुए हैं। इसके वायुमण्डल में 81 प्रतिशत हाईड्रोजन, 17 प्रतिशत हीलियम और शेष में पानी की बूंदें, बर्फ के कण, अमोनिया के कण आदि हैं। इसकी सूर्य से औसत दूरी 7783 लाख किलोमीटर है। साम्पातिक काल 11.862 वर्ष है। संयुतिकाल 398.88 पृथ्वी के दिन हैं। इसके पथ की उत्केन्द्रता (चपटापन) 0.0485 है।

गुरु के उपग्रह

                सन् 1985 तक इसके 16 उपग्रह ज्ञात थे। हो सकता है कि कुछ छोटे उपग्रहों का पता नहीं चला हो। चार बडे उपग्रहों (इओ, यूरोपा, गैनीमीड और कैलिसटो) को गैलीलिओ ने 1610 में खोजा था। ये 4.2 लाख से 19 लाख किलोमीटर की इससे दूरी पर वृत्ताकार पथ पर इसके भूमध्य रेखा वाले तल में भ्रमण कर रहे हैं। इनमें गैनीमीड का व्यास 5262 किलोमीटर है जो बुध के व्यास 4878 किलोमीटर से भी बडा है। कैलिसटो का व्यास 4800 किलोमीटर है जो बुध के व्यास से थोडा ही कम है। इसके चार छोटे उपग्रह भी इसकी भूमध्य रेखा वाले तल में (जो कि इसके पास है) भ्रमण करते हैं। इनमें से 3 सन् 1979 में वोयेजर से देखे गए। इन आठ के अलावा चार और उपग्रह बृहस्पति की भूमध्य रेखा से 110 से 120 लाख किलोमीटर की दूरी पर ग्रह की दिशा में ही भ्रमण कर रहे हैं।

                अन्तिम चार उपग्रह वक्री (ग्रह की गति के उल्टे) गति से 210 लाख से 240 लाख किलोमीटर की ग्रह से दूरी पर भ्रमण करते हैं। अन्तिम आठ उपग्रहों को ट्रोजन नामक लघुग्रह से काफी चीजों में समानता है। इनकी धरा बहुत काली है, ये 5 प्रतिशत प्रकाश को परावर्त करते हैं। ऐसा संभव है कि यह पहले लघुग्रह रहे हों और बाद में बृहस्पति के प्रभाव में आकर उसके उपग्रह बन गए हों।

गुरु ग्रह के छल्ले

                गुरु ग्रह के चारों ओर वृत्ताकार छल्ले वोयेजर-1 से मार्च 1979 में देखे गए। इनका घनत्व शनि के छल्लों से अरबों गुना कम है। यह चमकदार ग्रह बिम्ब के अति समीप होने के कारण पृथ्वी से नहीं देखे जा सके।

गुरु की ऊर्जा

                गुरु को जितनी ऊर्जा सूर्य से मिलती है उससे दोगुनी यह परावर्त करता है। यह अधिक गर्मी इसके ग्रह बनने से पहले जमा हुई ऊर्जा में से होती है। कुछ गर्मी इसके सिकुडने के कारण पैदा होती है। यह सिकुडन लगभग 1 किलोमीटर प्रतिवर्ष है।

नवार्ण मंत्र प्रयोग

पं. अशोक दीक्षित

हमारे देश में शाक्त सम्प्रदाय के अंतर्गत विशेषतया दुर्गा माँ की पूजा, पाठ तथा उपासना पद्धतियों के बारे में नियम बतलाए गए हैं। दुर्गा पूजन में विशेषतः श्री सूक्त का प्रयोग किया जाता है। साथ ही साथ जितनी भी उपासना पद्धतियां हैँ, उनकी सिद्धि तथा सम्पूर्णता किन्हीं अति महत्वपूर्ण बीजमंत्रों पर आधारित है। जितने भी बीजमंत्र शाक्त सम्प्रदाय में प्रचलित हैं, उनमें सर्वोपरि स्थान नवार्ण मंत्र का आता है। नवार्ण शब्द से तात्पर्य नौ अक्षर या नौ वर्ण से संयुक्त ही नवार्ण मंत्र है। नवार्ण मंत्र के नौ अक्षर नवदुर्गा के परिचायक है। ॐ प्रणव कहलाता है। अन्य जो अक्षर हैं वे बीज कहलाते हैं। प्रत्येक बीजाक्षर क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कुष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिद्धिदात्री इन नौ दुर्गाओं के द्योतक है। नवदुर्गा विधान के अंतर्गत जिस नवार्ण मंत्र का आधान किया गया है वह यह है-

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे

नवदुर्गा पूजा में तथा जप में इसी का प्रयोग किया जाता है। शाक्त सम्प्रदाय में मत-मतांतरों के चलते नवार्ण मंत्र के भी कई प्रकार हैं, वे निम्न हैं-

1. ऐं ह्रीं क्लीं ल्रीं श्रीं क्लीं नमः।

2. ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।

3. हूँ ऐं ऐं ह्रीं चामुण्डायै स्वाहाः। (इति डामरोक्त)

4. ऐं ह्रीं क्लीं लंृ ह्रीं नमः। (इति दाक्षिणात्याः)

5. हूँ ऐं ऐं ह्रीं चामुण्डायै स्वाहाः।(इति सारस्वताः)

उपरोक्त प्रकार से शाखा भेद, स्थान भेद तथा शिक्षा (गुरु आज्ञा) भेद से नवार्ण के कई प्रकार है तथापि ‘‘ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे यह रूप सर्व प्रामाणिक है। यही अति प्रचलित है। इसके अर्थ महत्व के साथ-साथ इसकी महिमा भी अति विशाल है। नवार्ण मंत्र का प्रत्येक अक्षर प्रत्येक शक्ति का रूप होता है।  शक्ति के उपासकों के लिये माँ भगवती की उपासना में नवार्ण मंत्र का विशेष महत्व है। दुर्गा सप्तशती के पाठ के आदि और अंत में सम्प्रदायानुसार यथाशक्ति नवार्ण नामक मूल मंत्र का जप करना आवश्यक है। इसका स्वरूप है- ‘ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’।

ऐं- यह सरस्वती बीज है। इसमें दो अंश हैं। ऐ+बिन्दु। ऐ का अर्थ सरस्वती है और बिन्दु का अर्थ है दुखःहरण अर्थात माँ सरस्वती हमारे दुःखों को हरण करे। यहां भुवनेश्वरी बीज के माध्यम से महालक्ष्मी की संस्तुति की गई है।

ह्रीं- यह शक्ति बीज या माया बीज है। इसमें ह+र+ई+नाद+बिन्दु अंश हैं। ह का अर्थ शिव, र का अर्थ प्रकृति, ई का अर्थ महामाया, नाद का अर्थ विश्वमाता और बिन्दु का अर्थ दुःखहरण अर्थात शिवसहित विश्वमाता शक्ति मेरे दुःखों को दूर करें।

क्लीं- यह कृष्ण बीज या काम बीज माना गया है। इसमें क+ल+ई और बिन्दु- ये चार अंश हैं। क का अर्थ है कृष्ण, काम या काली, ल का अर्थ है इन्द्र या लोकपाल, ई का अर्थ है महामाया या तुष्टि और बिन्दु का अर्थ है सुखकर। इस प्रकार इस कृष्ण बीज या काम बीज या काम बीज का अर्थ है कमनीय भगवान कृष्ण हमें सुख, शांति, तुष्टि और पुष्टि प्रदान करें। लोकनायिका महाकाली हमें सुख व शांति प्रदान करे। डामर तंत्र के अनुसार यहां कामबीज के माध्यम से आनन्द प्रधान महाकाली के स्वरूप को सम्बोधित किया गया है। ऐं ह्रीं क्लीं तीनों बीज मिलाने पर अर्थ होगा- महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती नामक तीनों मूर्तियों के स्वरूप वाली।

चामुण्डायै- चा+मु+ण्डा। चा=चित्, मु=मूर्त सद्रूप, ण्डा (न्दा) आनन्दरूप। अर्थात् सत्-चित्आनन्दा रूपा चामुण्डा देवी को।

विच्चे - विद्+च+इ। विद् का अर्थ है जानते हैं, च का अर्थ है चिन्तयामः अर्थात चिन्तन करें, इ (इमः) का अर्थ है जायें, चेष्टा करें, यागादि कर्म करें अर्थात नमस्कार करें और जानें। ‘‘इ’सम्बोधन है महामाया, माता के लिये। ‘‘ई’ पदच्छेद करने पर याचना अर्थ होगा। इसका अर्थ इस प्रकार होगा कि हम मन की शुद्धि के लिये विविध पूजा आदि कर्म करें, इसके पश्चात विक्षेप की निवृत्ति तथा मन की चंचलता को दूर करने के लिये चिन्तन, ध्यान व उपासना करें। कर्म, उपासना और ज्ञानरूप साधनों से जानी जा सकने वाली अपनी आत्मरूपा सच्चिदानन्दमयी मूर्ति आदि शक्ति महामाया को हम अविधारूप अंधकार को हटाते हुए प्राप्त करें। डामर तंत्र नवार्ण मंत्र भाष्य में कहा है-

निर्धूतनिखिलध्वान्ते नित्यमुक्ते परात्परे।

अखण्डब्रह्मविधायै चित्सदानन्दरूपिणीम्॥

अनुसंदध्महे नित्यं वयं त्वां दृदयाम्बुजे।

इत्थं विशदयत्येषा या कल्याणी नवाक्षरी॥

अस्या महिमलेशोऽपि गदितुं केन शक्यते॥

सम्पूर्ण मंत्र का भावार्थ किया जाये तो आशय होगा-हम महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती नामक तीन मूर्तियों तथा सत्-चित्-आनंद ब्रह्मस्वरूप, आद्या योगमाया को प्राप्त करने के लिये पूजा एवं ध्यान द्वारा उसका ज्ञान करते हैं।

इसके साथ-साथ कल्पद्रुम में भी इस मंत्र के बारे में व्याख्या की गई है। इसके प्रत्येक अक्षर के स्वरूप को वहां बतलाया गया है, यथा-

ऐं बीजमादिन्दु समानदीप्तं ह्रीं सूर्य तेजोद्युतिमद्वितीयम्।

क्लीं मूर्ति वैश्वानररूपतुल्यं तृत्तीयमानन्त्यसुखाय चिन्त्यम्॥

चां शुद्ध जाम्बूनदकांतितुर्यं मुं पंचमम् रक्ततरंप्रकल्प्य।

डां षट्क मुग्रार्तिहरं सुनीलं यै सप्तमं कृष्णतरं रिपुघ्नम्।

विं पाण्डुरं चाष्टममादिसिद्धं चै धुम्रवर्णं नवमं विशालम्॥

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। इति नवाक्षरो मंत्रा।

इन नौ बीजों से युक्त नवाक्षर मंत्र को विधि अनुसार जपने से सकल पदार्थों की सिद्धि होती है।

नवार्ण मंत्र प्रमुखतः बीज मंत्र है। मंत्र व बीज मंत्रों में भी भेद होता है।

मंत्र की शक्ति व स्वरूप सदैव एक सा तथा किसी कामना विशेष पर आधारित होता है। इन्हें काम्य मंत्रों के रूप में भी जाना जाता है। काम्य मंत्रों का प्रभाव बढ़ाने तथा श्रेष्ठ व शीघ्र फल प्राप्त करने हेतु इन मंत्रों में बीजमंत्रों का संयोग किया जाता है। बिना बीज मंत्रों के संयोग के कोई भी मंत्र प्रभावकारी नहीं होता। यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मंत्रों के अलंकरण ही बीजमंत्र होते हैं।