ज्योतिष के प्रसिद्ध पंचमहापुरुष योग

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो एडिटर

प्राचीन ऋषियों ने पाँच ग्रहों को लेकर प्रसिद्ध पंचमहापुरुष योग गढ़े हैं। ये ग्रह हैं बृहस्पति, शनि, मंगल, बुध और शुक्र। यदि यह ग्रह अपनी उच्च राशि या स्वराशि में स्थित होकर जन्म पत्रिका के केन्द्र स्थान में स्थित हों तो महापुरुष योग बनाते हैं। वराहमिहिर ने लिखा है-

जीवेन भवति हंसः सौरेण शशः कुजेन रुचकश्च।

भद्रो बुधेन बलिना मालव्यो दैत्यपूज्येन।।

इन योगों में जन्म लेने वाले व्यक्ति असाधारण हो जाते हैं।

कौन हैं ये पाँच महापुरुष?

बृहस्पति जब केन्द्र में अपनी उच्च राशि कर्क या अपनी स्वराशि धनु या मीन में स्थित हों तो हंस योग होता है। जब जन्म पत्रिका के केन्द्र स्थान में शनि, तुला राशि, मकर या कुम्भ राशि में स्थित हों तो शश योग होता है। मंगल अपनी उच्च राशि मकर या अपनी स्वयं की राशि मेष या वृश्चिक में स्थित होकर केन्द्र में स्थित हों तो रुचक योग होता है। इसी प्रकार जन्म पत्रिका के केन्द्र स्थान में मिथुन या कन्या राशि में बुध हो जाये तो उसे भद्र योग कहा जाता है। शुक्र यदि मीन राशि जो कि उनकी उच्च राशि है या उनकी अपनी राशियाँ वृषभ या तुला में स्थित हों तो वह मालव्य योग कहलायेगा।

 

 

बृहस्पति बलवान होने से वाणी में ओज आता है, शनि से कांति प्राप्त होती है, मंगल से बल मिलता है, बुध से वाणी मिलती है,शुक्र से स्नेह तथा  गुरु से गुरुत्व या श्रेष्ठत्व मिलता है।

हंस महापुरुष योग वाले व्यक्ति दयावान, स्थिरता प्रदान करने वाले, सबके साथ समान व्यवहार तथा देवताओं और ब्राह्मणों का सम्मान करने वाले होते हैं। हँस योग वाला व्यक्ति यदि शासक हो तो राजसी गुणों से सम्पन्न होता है। तामसिक गुणों वाला हो तो भी चाहे नकारात्मक गुण ही हों फिर भी उच्च कोटि के होते हैं।

शनि से शश योग बनता है, उसका शरीर का मध्य भाग कृषकाय होता है। अधिकार सम्पन्नता चाहता है, छिद्रान्वेषी होता है और बहुत भूमि का स्वामी होता है। रुचक योग वाला व्यक्ति साहसी होता है, शत्रुओं को परास्त करने वाला तथा सेनापति या शासक हो जाता है। भूमि, शस्त्र या अग्नि कर्म करता है।

जिस व्यक्ति का जन्म बुध ग्रह के कारण बने भद्र महापुरुष योग में हुआ है, वह सुन्दर होता है, क्षमाशील होता है, स्थिर स्वभाव, धार्मिक आचरण, चाल में मद, विभिन्न विद्याएँ सीखने वाला, नृत्य और संगीत में प्रवीण होता है। यह व्यक्ति भी प्रसिद्ध हो जाता है। जिस व्यक्ति का जन्म शुक्र ग्रह से बनने वाले मालव्य योग में होता है, वह सुन्दर, धनी और राजसी लक्षणों से युक्त होता है। ये लोग जीवन के आखिर में परम धार्मिक हो जाते हैं और बहुत सम्पत्ति सृजित करते हैं।

ये सारे योग अति महत्त्वपूर्ण हैं और इनमें से कोई एक भी योग जन्म पत्रिका में मिल जाये तो व्यक्ति का जीवन सफल हो जाता है। यदि  एक से अधिक योग किसी जन्म पत्रिका में मिल जायें तो व्यक्ति महान बनने लगता है। वराहमिहिर तो यहाँ तक कहते हैं कि इन योगों के कारण व्यक्ति राजाओं का मित्र और अन्य लोगों का प्रिय हो जाता है।

यह योग स्ति्रयों की जन्म पत्रिकाओं में भी देखे जाने चाहिए।

प्राचीन ऋषियों का यह मानना था कि जो ग्रह बलवान होते हैं, वे व्यक्ति को अपनी ही दिशा में ले जाते हैं और अपने ही विषयों से लाभ कराते हैं। इनका श्रेष्ठ फल तब आता है, जब ऐसे ग्रह की महादशा आती है। इसकी गणना ज्योतिष के माध्यम से की जा सकती है। ऐसे ग्रहों की महादशा जब आती है तो उसकी छाया भी चेहरे और शरीर पर देखने को मिलती है। ग्रह अपनी विशेष कांति प्रदान करते हैं, जिसे पहचाना जा सकता है। सामान्यतया बृहस्पति और बुध ग्रह यदि लग्न में स्थित हों तो व्यक्ति को पूर्व दिशा की ओर ले जाते हैं। मंगल दक्षिण दिशा की ओर, शनि पश्चिम दिशा की ओर तथा चन्द्रमा उत्तर दिशा की ओर ले जाने की कोशिश करते हैं। ज्योतिष ग्रन्थों में मिलता है कि ये ग्रह इन दिशाओं में अति बलवान होते हैं और ऐसा होने पर ग्रहों में जो जन्मकालीन दोष होते हंै, उनका भी निवारण होने लगता है।

पंचमहापुरुष योगों में एक से अधिक योग स्थित हों तो ग्रहों में परस्पर संषर्घ रहता है कि व्यक्ति के जीवन को किस ओर ले जायें। परन्तु जैसे-जैसे ग्रहों की दशाएँ आती हैं, सम्बन्धित ग्रह ही परिणाम देने लगते हैं। सूर्य और चन्द्रमा को पंचमहापुरुष योगों में शामिल नहीं किया गया है। चन्द्रमा तो अपनी उच्च राशि या कर्क राशि में होने पर अपने-आप ही शक्तिशाली हो जाते हैं और सूर्य अपनी मेष राशि या सिंह राशि में बलवान हो जाते हैं और उनके फल भी पंचमहापुरुष योगों से कम नहीं होते हैं।

प्रायःकर पंचमहापुरुष योग वाले व्यक्ति ग्रह के स्वभाव के अनुसार विशेषज्ञता प्राप्त कर लेते हैं जिस कारण से वे शासन के उच्चाधिकारियों से निकट सम्बन्ध स्थापित करने में सफल हो जाते हैं। उन्हें मित्रता भी उन्हीं लोगों की पंसद होती है।

 

 

 

विद्या के प्रकार

पं. ओमप्रकाश शर्मा

आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्चेति विद्याः।

संसार में विद्यमान विविध विषयक जितनी भी विद्याऐं है वे मुख्यतया चार प्रकार की होती हैं। यूं कहा जाये तो अतिशयोक्ति कतई न होगी कि दुनिया भर की सम्पूर्ण योग्यता मुख्यतया चार भागों में विभाजित  हो गई।

ये चार भाग ज्ञान की चार धाराएं हैं जो चार दिशाओं के समान हैं। विद्या के प्रकार निर्धारण में भी कई मत-मतान्तर हैं। पर चार विभाग ही करना ज्यादा उचित है।

ये चार विभाग क्रमशः 1. आन्वीक्षकी 2. त्रयी 3. वार्ता 4. दण्डनीति है। इस चार विभाग के कारण खोजें, अनेकों मिल जायेंगे। जैसे वर्ण व्यवस्था जो कि भारतीय संस्कृति का मुख्य आधार रही है। ये भी चार हैं। कार्मिक विभाग भी चार ही हैं। 1. राज करने वाला 2. रक्षा करने 3. व्यापार करने वाले एवं 4. सेवा नौकरी यानि उच्च पदस्थो के कार्यों को संपादित करने वाले।

1.आन्वीक्षकी : विद्या के इस विभाग के अंतर्गत लौकिक आधार पर रहकर अध्ययन व अन्वेषण करते हुये पारलौकिक रहस्यों की परतों का उद्घाटन करने की योग्यता प्राप्त करना आता है। मुख्य रुप से सांख्य, योग और लोकायत (नास्तिक दर्शन), ये आन्वीक्षकी विद्या के अन्तर्गत है। यूं भी कह सकते हैं कि शरीर को स्वस्थ, मन को प्रसन्न एवं परमात्म विषयक चिंतन करना तथा समाज को धर्म के मार्ग पर युक्ति एवं तर्कपूर्ण  व्याख्यान व प्रवचन देते हुये आगे बढ़ाना इस विद्या का मुख्य ध्येय है।

चूंकि त्रयी विद्या में धर्म-अधर्म, वार्ता में अर्थ-अनर्थ का और दण्डनीति में सुशासन-दुःशासन का ज्ञान अन्तर्निहित होता है। इन त्रयी आदि विद्याओं की मुख्यता, गौणता अर्थात इनके बलाबल, प्रधानता व अप्रधानता  का निर्धारण भिन्न-भिन्न युक्तियों से आन्वीक्षकी विद्या के माध्यम से किया जाता है। इसीलिये आन्वीक्षकी विद्या लोकोपकारी भी मुख्य रुप से कही जाती है। यही विद्या सुख-दुख, ज्ञान-अज्ञान, अर्थ-अनर्थ, उचित-अनुचित के मध्य निर्णायक की भूमिका अदा करती है। ब्रह्म विद्या भी यही है। जिसे आंखों से न देखा जाकर, अनुभव से जाना जाता है क्योंकि प्रकृति के हर अंश पर माया का यानि भ्रम का आवरण चढ़ा रहता है। इस आवरण के पार आन्वीक्षकी  विद्या प्राप्त करके ही देखा जा सकता है तभी यह निर्णय हो पाता है कि क्या सही है और क्या गलत। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि - आदि मध्यान्त हीनाय निर्गुणाय गुणात्मने।

अर्थात- ‘हे अर्जुन आदि (प्रारम्भ) भी मैं ही हूँ, मध्य भी मैं ही हूँ और अन्त तथा शेष भी मैं ही हूँ। निर्गुण और सगुण भी मैं ही हूँ।’ तर्क यह है कि जब सर्वत्र ही परब्रह्म परमेश्वर विद्यमान हैं तो फिर बाकी क्या रहा?

यह विद्या ही सभी विद्याओं का आश्रय, प्रत्यक्ष दर्शन कराने वाली, सभी प्रकार के कार्यों का साधन करने वाली एवं सभी धर्मों का भी आश्रय मानी गई है।

जिस जातक की जन्म कुण्डली में बृहस्पति व सूर्य जितने प्रबल होते हैं  उसकी आन्वीक्षण शक्ति भी उतनी ही अधिक होती है। निर्बल होने पर जातक अनिर्णय से भरा रहता है।

2.त्रयी विद्या : त्रयी से तात्पर्य वेद त्रयी अर्थात ऋक्, यजु और साम इन तीन वेदों पर आधारित विद्या। जिससें इनके रहस्यों का ज्ञान हो सके। इनके साथ-2 अथर्ववेद और इतिहास वेद भी वेद कहे जाते हैं।

वेदों में पुरुष रुप ब्रह्म और स्त्री स्वरुपा प्रकृति का विविध विषयक ज्ञान संग्रहित है। ब्रह्म को जहां एक ही समवेत स्वर में मानलिया गया है वही प्रकृति को चौबीस मुख्य प्रकारों में विभाजित माना गया है। यह प्रकृति ही माया है जिसके आवरण से ब्रह्म को अनेक रुपों में पूजा जाता है।

वैदिक ज्ञान को वेदाङ्गों के रुप में विभाजित कर शिक्षा की प्रणाली विकसित की गई। वेदाङ्ग 6 हैं-1. शिक्षा 2. कल्प 3. व्याकरण 4. निरुक्त 5. छन्द और 6. ज्योतिष । ये 6प्रकार की शिक्षा प्रणालियां हैं या यों कहे कि वैदिक ज्ञान की 6प्रमुख शाखाऐं हैं। प्रत्येक शाखा अपने आप में पूर्ण व अद्भुत तथा योजित हैं। ये शाखाएं मनुष्य के जीवन क्रम को नियंत्रित करती हैं जीवन को समुचित व मानवोचित प्रकार से जीना सिखाती है।

प्रकृति में विद्यमान वस्तु विशेष का क्या उपयोग है, कैसे उपयोग किया जाता है। इसका ज्ञान त्रयी विद्या के माध्यम से प्राप्त होता है। इस विद्या  के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति के स्तर का निर्धारण, उसके कर्तव्यों का, कार्यों का, नियमों व आचरणों का निर्धारण व सामाजिक व्यवस्थाओं व परिपेक्ष का नियमन त्रयी विद्या प्रदत्त ज्ञान पर ही आधारित होता है।

जीवन क्रम को व्यवस्थित करने व समुदाय, समाज या राष्ट्र का एकीकरण, उसकी खुशहाली से जुड़े कार्यों  का निर्वाह समुचित प्रकार से त्रयी विद्या को प्राप्त करके ही किया जा सकता है।

त्रयी विद्या से प्राप्त ज्ञान, चारों वर्णों, चारों आश्रमों और जीवन चक्र के सभी स्तरों पर सुदृढ़ता व सुसम्पन्नता प्रदान करता है और जिन्दगी जीने के लिये अत्यन्त उपयोगी है।

आगे बढ़ने से पूर्व यह अवश्य जान लें कि वर्ण व्यवस्था कर्मों पर आधारित वेदों में थी। अब उसका कुछ स्वरुप जातिगत हो गया है हर वर्ग व वर्ण विशेष का व्यक्ति आजीविका कैसे कमाये, वह कैसे रहे, वह किस पद को कैसे प्राप्त करे और पद को कैसे बनाये रखे। ये सभी शंकायें त्रयी विद्या से दूर होती हैं। अपने अस्तित्व का निर्माण व उसे बनाये रखने के लिये त्रयी विद्या प्रदत्त ज्ञान अति आवश्यक है।

स्कूल कॉलेजों में पढ़ी जाने वाली शिक्षा इसी विद्या के अंतर्गत आती है।

जन्मपत्रिका के अंतर्गत बुध-गुरु-शुक्र व सूर्य इस विद्या के प्रमुख कारक होते हैं। हालंाकि ये सभी शिक्षा के अलग-2 विषयों के कारक होते है। पर शिक्षा में आगे बढ़ने के लिये इनमें से किसी एक का प्रबल होना और उसका द्वितीय व पंचम भाव से सम्बन्ध होना आवश्यक है। बली होकर यदि भाव से सम्बन्ध ना हो तो कोई मतलब नहीं।

3. वार्ता विद्या : वार्ता से तात्पर्य व्यवहार कुशलता एवं वार्तालाप प्रधान कार्य जैसे समस्त प्रकार के व्यवसाय और व्यापार से संबंधित शिक्षायें इसी विद्या के अंतर्गत आती हैं। यही विद्या है जो व्यक्ति में कार्य कुशलता और प्राप्त शिक्षा का उत्तरोत्तर नई-नई तकनीकों के माध्यम से प्रयोग करने की योग्यता का विकास करती है। धन उपार्जन के समस्त व्यवहारिक  कार्य व उद्योग इस विद्या के दम पर सफल होते हैं। इस विद्या से अर्जित धन व प्रभाव से व्यक्ति राज्य पक्ष तथा शत्रुपक्ष  को अपने वश में कर लेता है। आज जितने भी व्यवसाय व व्यापार  परक कोर्स जैसे एम.बी.ए., एम.सी.ए., सी.ए., आदि सभी इसी विद्या के अंतर्गत आते हैं।

जन्म पत्रिका में शुक्र-बुध-मंगल-सूर्य व गुरु इसी विद्या के परिचायक हैं पर इनमें से जो प्रबल है उसका दशम भाव से तथा एकादश भाव से संबंध होना आवश्यक है। शुक्र प्रबल हो तो नवीनतम सॉफ्ट तकनीकी व्यवसायों से बुध-प्रबल हो तो लेखन-वादन, वाणिज्य कर्म व्यापार आदि से मंगल-अग्रि संबंधी तथा भूमि संबंधी व्यवसायों से सूर्य हो तो राज्य पक्ष से तथा गुरु हो अध्ययन-अध्यापन से जुड़ी वस्तुओं के व्यापार एवं न्याय तथा धर्म संबंधी कार्यों को करने से आजीविका प्राप्त होती है।

4. दण्डनीति : ‘भय बिन प्रीत न होई’दण्ड व्यवस्था यदि नहीं हो तो सर्वत्र ही अराजकता फैल जाती है। उक्त तीनों विद्याओं में दण्ड नीति विविध स्वरुपों में सर्वत्र विद्यमान है कोई भी विद्या या विषय बिना दण्ड के अप्रासंगिक ही सिद्घ होती है।

वर्तमान में पुलिस अकादमी, रक्षा अकादमी, न्यायपालिका आदि तथा धार्मिक व सामाजिक संस्थाएं एवं जन सामान्य की सुविधाओं  से जुडे क्षेत्रों में नियंत्रण रख सकने की योग्यता इसी विद्या के माध्यम से आती है।

 

स्ति्रयों में राजयोग के लक्षण

स्ति्रयों के शारीरिक लक्षणों से भी राजयोग का ज्ञान किया जाता है।

1. जिस कन्या के पैर के तलुए लाल अर्थात पगथली और पृथ्वी के मध्य स्थान हो। कोमल, सरल हो तथा पूरी पगथली  लाल होती है। ऐसी कन्याओं को पृथ्वी पर आवाज धम् करते हुये कभी नहीं चलनी चाहिये।

2. जिस कन्या की पगथली में कमल, शंख, रथ, ध्वजा, चक्र तथा मछली के आकार के चिन्ह हो वह अवश्य राज करती है। ये चिन्ह किसी लेन्स की सहायता से देखे जा सकते है सामान्य नंगी आंखों से नहीं देखे जा सकते । अनुभवी लोग तो देख सकते हैं।

3. जिस कन्या के पैर का अंगूठा ऊंचा व गोल हो कन्या खूब राज सुख भोगती है।

4. जिस स्त्री के घुटने, गोल मोटे और स्पष्ट होवें वह अवश्य ही राजरानी होती है।

5. जिस कन्या की कमर का नाप स्वयं की 24 अंगुल के बराबर हो वह अवश्य ही राजा  (ऐश्वर्यशाली पुरूष)का वरण करती है।

6. जिस स्त्री की हथेली कोमल और निर्मल रक्त वर्णी रेखाओं वाली हों वह राज सुख अवश्य भोगती है पर रेखाएं अति न्यून वा अत्यधिक नहीं हो तो अच्छा होता है।

7. स्त्री की हथेली में स्वास्तिक का चिन्ह सौभाग्य और पुत्रवती होने का लक्षण है। जबकि कमल का चिन्ह हो तो वह स्त्री भी स्वयं राज करने वाली होती है।

8. जिस स्त्री की कोमल हथेली में नदी के प्रवाह के समान घुमावदार चिन्ह हो तो वह बहुत बडे राजा की पत्नी या स्वयं अधिकारी बनती है। इसके अतिरिक्त छत्र, कमल, चंवर, गाण कछुआ और शंख के चिन्हों में से एक भी यदि हो तो राज योग प्राप्त कराने वाले होते हैं।

9. स्त्री के पैर और हाथों की अंगुलियों के नाखून लाल और चिकने हो। साथ ही हाथ की ऊंगलियों नख मूल में अर्धचंद्र का निशान हो वह अवश्य ही राज करती है और प्रसिद्घ होती है।

10. जिस स्त्री की गर्दन में तीन रेखाएं हो तथा भौंहे अलग-अलग हो, यह भी राजयोग का लक्षण है।

11. जिस स्त्री के ऊपर और नीचे की दांतों की संख्या समान हो वह जब तक जीती है सुख भोगती है।

12. जिस स्त्री के मस्तिष्क में बीचों बीच तिल या मसा हो, यह राजयोग का ही लक्षण हैं।

13. जिस स्त्री के गाल के बीचों बीच लाल रंग का मसा हो तो हृदय रेखा के बीचों बीच तिल या लहसुन का निशान हो तो अवश्य ही राजयोग देता है। दोनों में से एक भी लक्षण राजसुख प्राप्त कराने हेतु पर्याप्त है दोनों हो तो सोने पे सुहागा।

14. मोटी आंखे, ऊंची व छोटी नाक राजयोग का ही लक्षण है।

15. जिस स्त्री के मस्तिष्क पर बीच में रेखाओं के द्वारा त्रिशूल का निशान बनता है व हस्त्री बहुत बड़ा राज पद औा अधिकार प्राप्त करती है।

इस प्रकार जन्म कुण्डली के माध्यम से तथा जन्म कुण्डली के अभाव में शारीरिक लक्षणों से राजयोगों का ज्ञान किया जा सकता है।

जो स्ति्रयां या युवतियां अति कर्मठ और महत्वाकांक्षी हैं और उनमें उपरोक्त में एक भी लक्षण नहीं तो निराश न होंवे। वे माता पार्वती के लिए व्रत करें, श्री विष्णु भगवान की पूजा करें और सूर्य देव की उपासना करती रहें। उनकी कामना शीघ्र पूरी होती है। तात्पर्य यह है कि स्ति्रयों को व्रत सदा माता पार्वती को आधार बनाकर करने चाहिये। पूजा सदा भगवान विष्णु की यदि अकेले करनी हो, पति के साथ तो किसी भी पूजा में शामिल हो सकती है। तथा उपासना भगवान सूर्य की ही सदा करें। सफलता अवश्य मिलती है।

 

मंगल जनित रक्त विकार

डॉ. वृंदा राव

आयुर्वेद और ज्योतिष में बहुत गहरा संबंध है। ज्योतिष के आधार पर मंगल ग्रह ही रक्त संबंधी रोगों के मुख्य कारण होते हैं।  ‘रक्त’ यह शब्द सुनते-पढ़ते ही हमें लाल रंग ध्यान आ जाता है। रक्त में यह लाल रंग उसमें मौजूद लौह धातु के तत्व हीमोग्लोबिन के कारण होता है। यह लौह तत्व के  माध्यम से हमारे सम्पूर्ण शरीर को ऑक्सीजन पहुँचाता है।

रक्त के संगठन का उचित होना एवं रक्त की मात्रा शरीर में समुचित होना, हमारे शरीर की क्रियाशीलता के लिए अति आवश्यक है।

किसी भी गोरे-गुलाबी, सक्रिय व्यक्ति की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होता है, उसका कारण यही है। उस व्यक्ति का रक्त शुद्ध (विकार रहित) है, रक्त की मात्रा शरीर में उचित है तथा रक्त का प्रवाहण भी शरीर में ठीक प्रकार से है। नियमित रूप से व्यायाम करने से रक्त-प्रवाहण अच्छा रहता है तथा पसीना बहने से त्वचा-निर्मल, तेजयुक्त हो जाती है।

आयुर्वेद में मूल रूप से तीन दोष माने गये हैं- वात, पित्त और कफ। शल्यविद् आचार्य सुश्रुत ने वात, पित्त एवं कफ के उपरान्त रक्त को चौथा दोष माना है। जबकि आचार्य चरक ने-रक्त एवं शरीरे पित्तान्तर्गत कहकर रक्त को अलग दोष न मानकर पित्त दोष में ही रक्त का समावेश कर दिया है।

जब रक्त शुद्ध होता है, तब रक्त की गणना रस, रक्तादि सप्त धातुओं (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र) में की जाती है किन्तु वात, पित्त, कफ के द्वारा रक्त दूषित होने पर रक्त विकार या रक्त दुष्टि जाना जाता है।

रक्त का विशेष स्थान त्वचा में माना जाता है इसलिए त्वचा में होने वाली दुष्टि (कुप्रभाव) को रक्त दुष्टि माना जाता है। रक्त विकार के हेतु-

रक्त का पित्त दोष से सीधा सम्बन्ध होने से पित्त को दूषित करने वाले, सभी कारण रक्त को भी दूषित करते हैं अर्थात् जिन कारणों से शरीर में पित्त विकार पनपता है, मूलतः वे ही रक्तदोष के मुख्य कारण होते हैं।

आहारज हेतु (अंतरंग कारण) : अम्ल रस (खट्टा), लवण रस (नमकीन), कटु रस (तीखा) का अति मात्रा में सेवन करना, सरसों, दही, गुड़, मछली, मांसाहार, शराब, क्षार का अति सेवन करना, तले हुए पदार्थ का अतिसेवन, तेज मसालेदार पदार्थों का अतिसेवन, विरुद्ध आहार करना, बासी भोजन।

1. संयोग विरुद्ध : दूध-दही की बनावट, दूध-मछली का एक साथ सेवन।

2.  संस्कार विरुद्ध : शहद को गरम करके अथवा दही को गरम करके सेवन करना।

3. मात्रा विरुद्ध : शहद और घी का समान मात्रा में सेवन करना।

Fast Food, Junk Food, Artificial Colours, Flavour and Preservatives युक्त पदार्थों का अति सेवन, अति शीत , अति उष्ण, अति तीक्ष्ण पदार्थों का सेवन पित्त में विकार लाता है।

विहारज हेतु (बाह्य कारण) : धूप का अति सेवन, अग्नि का अति सेवन, अति स्वेद और अस्वेद, अति क्रोध, अति शोक, अति भय, ईर्ष्या एवं पापकर्म भी पित्त विकार के मुख्य कारण होते हैं।

उपरोक्त आहारज एवं विहारज कारणों के सेवन से शरीर का शुद्ध रक्त- तत्काल या दीर्घकाल प्रभाव से दूषित हो जाता है। शरीर का प्राकृतिक, निर्मल, शुद्ध रक्त का रासायनिक संगठन  बदल जाता है। रक्त विकार में क्लेद (शरीस्थ जलीय तत्व)दूषित होकर रक्त को दूषित करते हैं।

रक्त दोष के लक्ष्ण : त्वचा में वैवर्ण्य, त्वचा का निस्तेज होना, लाल रंग के चकत्ते, फुंसियां होना, काले-नीले चकत्ते होना, श्वेत चकत्ते होना, खुजली होना, जलन, दाद होना, तीव्र स्राव का होना, पीलिया होना।

तीक्ष्ण स्राव युक्त रक्त विकार संक्रामक होने से इस अवस्था में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। ऐसा रोग कपड़ों और स्पर्श के माध्यम से शीघ्र संक्रमण फैलाता है।

रोग : पामा, विचर्चिका, दद्रु (दाद), विसर्प, उदर्द, श्वित्र, कुष्ठ, मसूरिका, रोमान्तिका, शीतपित्त, ज्वर।

उपचार : बाह्य एवं आभ्यंतर दो प्रकार से उपचार संभव हैं।

रक्त विकार यदि शरीर के कम हिस्सों में प्रभावी हो तथा रोग के अन्य लक्षणों के प्रकट होने पर शमन चिकित्सा द्वारा औषध का रासायनिक एवं आभ्यंतर प्रयोग से लाभ मिलता है।  त्रिफला चूर्ण, कुटकी चिरायता चूर्ण, सुदर्शन-चूर्ण, आरोग्यवर्धिनी वटी, गंधक रसायन, महामंजिष्ठादि चूर्ण, खदिर चूर्ण, गुडूची इत्यादि का आभ्यंतर प्रयोग चिकित्सकीय देख-रेख में लाभदायक होता है। इसके अतिरिक्त चंदन लेप, नीम पत्र का क्वाथ,नीम तेल, मरिच्यादि तेल, कुरंज तेल, दशाङ्ग लेप स्थानिक प्रयोग हेतु उपयोगी रहते हैं।

यदि रक्त विकार शरीर के अधिक भाग में  वैवर्ण्य, कण्डू, स्राव होने पर शोधन चिकित्सा (पंचकर्म चिकित्सा) द्वारा रोग निवारण संभव होता है।

रक्त विकार पित्त प्रधान होने से-‘विरेचनं पित्त हराणाम्’सूत्र के आधार पर रक्त रोगों में विरेचन चिकित्सा कारगर सिद्ध होती है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि चिकित्सा शमन हो या शोधन प्रकार की, चिकित्सक के मार्गदर्शन में ही उपचार आवश्यक है। रक्त विकार का उपचार करने के बाद भी आहारज-विहारज अपथ्य सेवन करने से रोग का पुनः उद्भव होने की पूरी संभावना रहती है। इसलिए पथ्य-अपथ्य का विशेष ध्यान रखना अत्यावश्यक है।