वास्तु पुरुष वर्गाकार या वृत्त : भूमि में या आसमान में

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

महान ऋषियों को वास्तुशास्त्र के विज्ञान के प्रवर्तन के समय अपनी असाधारण मेधा का परिचय देना पड़ा होगा, क्योंकि जब समस्त ब्रह्माण्ड की परिधि वृत्ताकार मानी गयी गृह-नक्षत्रों को भी गोल माना गया था, उनकी गतियों को, कक्षाओं को वृत्त गति में माना गया। तो ऐसा क्या तर्क रहा होगा कि वास्तु चक्र की कल्पना वर्गाकार भूखण्ड में स्थित देवता के रूप में की जाये? भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नग्नजित, विशालाक्ष, पुरन्दर, ब्रह्मा, कुमार, नन्दीश, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र तथा बृहस्पति इन 18 को वास्तुशास्त्र के प्राचीन उपदेश या आचार्य माना गया है। बाद में कुछ नाम और भी जुड़े हैं। इन सब ने वास्तु पुरुष की कल्पना की है तथा उनके स्थापन के लिए वर्गाकार भूमि को ही प्रशस्त माना गया है। अगर भूखण्ड वर्गाकार नहीं हो तो उसमें निश्चित रूप से किसी न किसी प्रतिशत में वास्तुदोष मिलता है। इसका सम्भवतः यह कारण हो सकता है कि वास्तु चक्र को त्रिआयामी माना गया है, जिसमें लम्बाई और चौड़ाई तो भूमि पटल पर ही नापी जाती है। उस पर दस दिक्पालों में से आठ देखे जा सकते हैं। चार मुख्य दिशाओं में और चार कोणों में। आकाश और पाताल आह्वान के विषय हैं और इस तरह से दसों दिक्पालों का सम्बन्ध वास्तु चक्र से जुड़ गया।

 

दर्शन को समझने के लिए वास्तु चक्र के सबसे लोकप्रिय मॉडल की हम चर्चा करेंगे जो कि 81 पद का है और भवनों के निर्माण के लिए प्रशस्त है। इसके निर्माण के लिए उत्तर से दक्षिण के लिए दस खड़ी रेखाएँ और उनको काटती हुई पूर्व से पश्चिम तक दस रेखाएँ निर्मित की जाती है और इस तरह से 9 & 9 वर्गों या पदों का वास्तु चक्र प्रकट होता है। धर्मपरायण या धर्मभीरू  भारतीय जनता से आज्ञा पालन के उद्देश्य से इन रेखाओं को देवियों का नाम दिया गया है। परन्तु यदि इसका वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाये तो यह रेखाएँ उत्तर से दक्षिण वाली देशान्तर रेखाएँ एवं पूर्व से पश्चिम तक जाने वाली अक्षांश रेखाएँ हैं। उत्तर से दक्षिण दिशा के वैद्युत चुम्बकीय प्रवाहों का लाभ लेने के लिए तथा पूर्व से पश्चिम की रेखाएँ एक दूसरे से समानान्तर प्रवाहित अन्तरिक्षीय विकिरणों, जो कि हमारे सूर्य के माध्यम से प्राप्त होते हैं, के श्रेष्ठ विनियोजन की महायोजना है। भवन रचनाओं में दीवारों का इन रेखाओं से समानान्तर निर्माण ही शास्त्र सम्मत है। अन्यथा वास्तु दोष उत्पन्न हो जाएंगे। जिन रचनाओं में यह उल्लंघन मिलते हैं, उनके परिणाम अशुभ ही मिले हैं या सफलता का प्रतिशत अत्यंत कम हो गया है।

वराह मिहिर प्रभृति विद्वानों ने वर्ग वास्तु के अलावा कुछ अन्य रचनाओं का उल्लेख तो किया जैसे वृत्त, त्रिकोण जैसी रचनाएँ परन्तु उनमें केवल कर्मकाण्ड के उद्देश्य से देवताओं का आह्वान किस रूप में किया जाये यह बताया गया है तथा कहीं पर भी वर्ग वास्तु का खण्डन नहीं किया गया है।

कुछ आधुनिक वास्तुशास्ति्रयों ने वृत्त के रूप में वास्तुचक्र को प्रचलित करने की चेष्टा की है परन्तु उसके परिणाम भी अच्छे नहीं है। वृत्त में वास्तुचक्र को प्रचलित करने में वर्ग वास्तु का निषेध आवश्यक रूप से छिपा हुआ है और जैसे ही आप वृत्त पर आधारित वास्तुचक्र को प्रस्तावित करते हैं, इस धारणा का खण्डन हो जाता है कि वास्तु चक्र वर्गाकार है एवं उस पर स्थित प्रत्येक वास्तु पद भी वर्गाकृति में है। यदि वृत्त वास्तु चक्र में स्थित देवताओं को वर्गाकृति वास्तु चक्र के देवताओं पर सुपर इम्पोज या स्थापित किया जाए तो किसी भी देवताओं से सम्बन्धित वर्ग में दोनों की आकृति व क्षेत्रफल में अन्तर आ जायेगा। इस सैद्धान्तिक पक्ष को जब भवनों पर परीक्षण किया जायेगा तो दो विधियों से प्राप्त भवनों से परिणामों में बहुत बड़ा अन्तर आ जायेगा।

आप वृत्त या त्रिकोण वास्तु को बाह्य सीमा रेखाओं पर अलग करके दिखा सकते हैं। परन्तु आप मत्स्य पुराण, मयमतम, मानसार, वास्तुराज वल्लभ, विश्वकर्मा प्रकाश तथा ऐसे ही लगभग  सभी महान आचार्यों द्वारा प्रस्तावित वर्गाकृति वास्तुचक्र की अवधारणा का खण्डन किये बिना अन्य चक्रों का प्रस्ताव नहीं कर सकते। समस्त वास्तुदर्शन इसी पर आधारित है। ऐसे सभी लोग जो मीडिया की मदद से चल रहे हैं अल्पकालिक सिद्ध होंगे। वेद-वेदाङ्गों में जो अवधारणाएँ हैं उनमें सत्य का अंश है इसीलिए उन्हें वेद-वेगाङ्गों में स्थान मिला है। इतिहास में समय-समय पर गलत धारणाओं को प्रचलन में लाने वाले बहुत सारे लोग हुए हैं, परन्तु आखिर में उनकी धारणाएँ लोकप्रिय नहीं हो पाई हैं। इन दिनों में भी ऐसी प्रवृत्ति देखने को मिल रही है। यू-ट्यूब पर कुछ लोगों ने दस दिक्पालों में से आठ दिक्पाल जो कि द्विआयामी वास्तुचक्र पर (क्योंकि नाप-जोख कागज पर होती है) आठ दिक्पालों की आठ दिशाओं को 16 दिशाओं में विभाजित करके नयी - नयी बातें कहना शुरु कर दिया है। परन्तु उनको यह समझ में नहीं आया कि त्रिआयामी या बहुआयामी आकाश और पाताल का उपविभाजन कैसे करें। परिणाम कि दस दिशाओं के वैदिक दर्शन से अलग हटकर वे कुछ नया करने के चक्कर में आठ दिशाएँ और आठ उपदिशाओं को ही सब कुछ मान बैठे। यह उनके अज्ञान का प्रदर्शन हैं जो कि मीडिया पर उपलब्ध है। परन्तु कर्मकाण्ड का कोई भी विद्वान कभी भी दस दिक्पालों के अतिरिक्त किसी भी अन्य का आह्वान नहीं करेगा और ना ही उपदिशाओं को मान्यता देगा। मीडिया के माध्यम से प्रसिद्ध हो जाने वाले ऐसे सभी लोग न केवल भारतीय संस्कृति के विपरीत कार्य कर रहे हैं बल्कि भारतीय दर्शन को भी दूषित करने का कार्य कर रहे हैं। कथाकथित नौसिखिए वैदिक ऋषियों से तो बड़े नहीं हो गये, ना ही उन्होंने ऐसी कोई शोध की है जो सारे जगत में स्थापित हो गई हो। ऐसे लोग और उनकी धारणाएँ कुछ लोगों को प्रभावित करते रहेंगे और आखिर में अपनी अवधारणाओं सहित लुप्त हो जाएंगे।

वास्तु पुरुष के लिए एक लोकप्रिय श्लोक है-

नमस्ते वास्तु पुरुषाय भूशय्याभिरत प्रभो ।

मद्गृहं धन धान्यादि समृद्धं कुरु सर्वदा ।।

इस श्लोक से अभिप्रेत है कि वास्तु पुरुष हम सबको यह सब दें तथा वह भूशय्या में स्थित हैं। परन्तु आकाश और पाताल इनसे बाहर हैं, इसलिए कूर्मपृष्ठीय वास्तु पुरुष की कमर आकाश की ओर उन्मुख है और उनका मुड़ा हुआ पेट पाताल की ओर उन्मुख है और इन दोनों ही दिशाओं का विस्तार अनन्त है।

आम आदमी के सामने यह समस्या है कि कौन वास्तविक विद्वान है, इसका पता कैसे करें। मेरी सलाह है कि आप दो तीन परीक्षण अवश्य करें कि जिससे सलाह लेने आप जा रहे हैं, वह कहीं से विधिवत शिक्षा प्राप्त किया हुआ है या नहीं। उसकी संस्था वास्तव में उचित शिक्षा प्रदान कर रही हो। परम्परा से ज्ञान प्राप्त ज्योतिषियों के बारे में यह अवश्य ज्ञान करें कि वे अपनी परम्परा की तीसरी पीढ़ी में कम से कम हों तथा गुरु से दीक्षित हों। उनके ड्राइंग रूम में टंगे हुए बहुत सारे सम्मेलनों में प्रदत्त सहभागिता प्रमाण पत्रों पर ज्यादा भरोसा नहीं करें। अगर आप शुल्क देते हैं तो आपको अधिकार है कि सम्मुख ज्योतिषी से अपनी पिछली कुछ घटनाओं का समयक्रम अवश्य ज्ञान कर लें। जिसको भूत आता है, वह भविष्य भी बतायेगा। कानूनी क्षेत्रों का एक वाक्य यहाँ भी याद रखें कि ‘क्रेता सावधान’ अर्थात् सारा उत्तरदायित्व विक्रेता का ही नहीं है क्रेता का भी कुछ दायित्व बनता है।

 

 

गोचर में शनि

ज्योति शर्मा

राशि चक्र भ्रमण में शनि देव का विशेष विचार करना चाहिए। शनि देव जन्म राशि से बारहवें, जन्म राशि पर व जन्म राशि से दूसरे भाव में गोचर करते हैं तो उस राशि की साढ़ेसाती कहलाती है, अर्थात् शनि जिस राशि से पिछली राशि होते हैं तो व्यक्ति की साढ़ेसाती प्रारम्भ हो जाती है। जन्म राशि से गोचर करें तो मध्यम साढ़ेसाती कहलाती है व राशि से द्वितीय भाव में आये तो अंतिम साढ़ेसाती के ढाई वर्ष (उतरती साढ़ेसाती) कहलाती है। शनिदेव एक राशि में ढाई वर्ष तक रहते हैं व तीन राशियों में साढ़े सात वर्ष तक गोचर करते हैं। इसलिए व्यक्ति के जीवन पर साढ़ेसाती का प्रभाव साढ़े सात वर्ष तक रहता है।

गोचर में शनि सदैव सत्य के साथ रहते हैं अर्थात् कर्मानुसार व्यक्ति फलों की प्राप्ति करता है। यदि शनि अशुभ हों और गुरु गोचरवश शुभ हों तो भी शनि अशुभ फल ही प्रदान करेंगे। शनि का गोचर यदि शुभ हो व गुरु-राहु अशुभ हों तो भी अशुभ फल प्राप्त होते हैं। शनि, राहु व गुरु शुभ हों तो सर्व प्रकार से शुभाशुभ ही प्राप्त होंगे। वर्षफल विचार करते समय इन बातों का सदैव ध्यान रखना चाहिए। शनि के गोचर का विचार करते समय ग्रहों की दृष्टि एवं ग्रह योगायोग को भी ध्यान में रखकर फलकथन करना चाहिए। सामान्य बारहवें भाव के शनि अतिव्यय, अचानक से धन हानि, प्रवास, अशांति एवं शरीर कष्ट देते हैं। लग्न में शनि स्वास्थ्य हानि, चित्त अशांति, कार्यों में बाधाएं एवं असफलता देते हैं। दूसरे भाव में वाद-विवाद, बंधुओं से झगड़ा, पारिवारिक चिंता, अशुभ समाचार प्राप्त होते हैं। जन्म राशि से गोचर में शनि पहले, छठे ग्यारहवें हों तो सभी प्रकार के सुख देते हैं। राशि से द्वितीय, पंचम एवं नवम हो तो कार्यों में सफलता एवं भाग्योदय कराते हैं। राशि से तीसरे, सातवें व दसवें हो तो शुभ फल व मिश्रित फल प्राप्त होते हैं। चतुर्थ, अष्टम व द्वादश राशि से हो तो धन हानि, बाधाएं एवं सर्व प्रकार से कष्ट होते हैं।

 साढ़ेसाती में शनि शरीर के किस अंग पर क्या प्रभाव देंगे, वह इस प्रकार से है-

जन्म राशि से बारहवें भाव (प्रथम ढाई वर्ष) में शरीर के चार अंगों पर प्रभाव डालते हैं। पहले सात माह मस्तिष्क पर, नौ महीने नेत्र, अगले आठ माह मुख पर एवं अगले छः माह कण्ठ पर प्रभाव डालते हैं।

शनि देव जन्म राशि से गोचर (द्वितीय ढाई वर्ष) करते समय शरीर के इन चार अंगों को प्रभावित हैं। पहल दस महीने हृदय पर, अगले ग्यारह माह उदर पर, अगले पांच माह नाभि पर एवं अगले चार महीने गुप्तांग पर।

राशि से दूसरे शनि (अंतिम ढाई वर्ष) शरीर के तीन अंगों को प्रभावित करते हैं। पहले 13 माह घुटनों पर, 12 माह जांघों  पर एवं अंतिम 5 महीने पैरों पर प्रभाव डालते हैं।

इसी प्रकार शनि देव जिस अंग पर गोचर करते हैं उस अंग का क्या फल होता? यह जानने के लिए जन्म नक्षत्र से वर्तमान नक्षत्र अर्थात् शनि जिस नक्षत्र से गोचर कर रहे हैं, उस नक्षत्र तक गिनने पर जो नक्षत्र आए उसका निम्न परिणाम होता है-

जन्म नक्षत्र से वर्तमान           अंग        फल

 शनि नक्षत्र तक

1                                                                              मुख        हानि

2 से 5                                                                  दांयी भुजा    जय

6 से 11                                                                पैरों पर      भ्रम

12 से 16                                                             हृदय        धन लाभ

17 से 20                                                             बांयी भुजा    भय  

21 से 23                                                             सिर        राज्य लाभ

24 से 25                                                             सिर        सुख

26 से 27                                                             गुह्य        मृत्यु भय

उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति का जन्म नक्षत्र कृत्तिका है और वर्तमान में शनिदेव आर्द्रा नक्षत्र से गोचर कर रहे हैं तो कृत्तिका से आर्द्रा नक्षत्र गिनने पर चार संख्या प्राप्त होती है अर्थात् शनिदेव बांयी भुजा पर अपना प्रभाव देते हैं और फलस्वरूप उस व्यक्ति को हर कार्य विजय प्राप्त होती है।

 

परम्परा की कुछ बातें

हमारे शास्त्रों में अश्वत्थ (पीपल) की महिमा बतायी गयी है। ‘अथर्ववेद’ में ‘अश्वथो देवसदनः’ पीपल को देवताओं का घर ही कहा है। अतएव उसकी पूजा से भी देवताओं की पूजा होती है। ‘अश्वत्थः र्सववृक्षाणाम्’ इस पद्य में भगवान ने पीपल को अपनी विभूति माना है। लौकिक दृष्टि के अनुसार भी यह पुत्र प्रदाता माना गया है, इसमें आयुर्वेद के अनुसार स्त्री के वन्ध्यत्वदोष के हटाने की अद्भुत क्षमता है।

तुलसी के महत्त्व को बताने वाले ये पद्य प्रसिद्घ हैं-

तुलसीकाननं चैव गृहे यस्यावतिष्ठते।

तद्गृहं तीर्थभूतं हि नायान्ति यमकिङ्करा॥

तुलसीविपिनस्यापि समन्तात् पावनं स्थलम्।

क्रोशमात्रं भवत्येव गाङ्गेयेनेव चाम्भसा॥

इससे तुलसी के आस-पास का स्थान पवित्र माना गया है, उसमें मलेरिया की विषाक्त वायु को दूर करने की अद्भुत क्षमता है। मरने के समय भी तुलसी मिश्रित गंगाजल पिलाया जाता है, जिससे आत्मा पवित्र हो ओर सुख शान्ति से लोकान्तर की प्राप्ति हो। विषाक्त वायु तुलसी से स्वच्छ हो जाता है। मलेरिया के उत्पादन में सहायक मच्छर इससे दूर भागते हैं। यह सब प्रकार के ज्वरों को हटाकर स्वास्थ्य देती है। जिन रोगियों को स्वास्थ्यार्थ गंगातट के पास जाने में सुविधा न हो, उन्हें तुलसी सेनीटोरियम में रक्खा जाता है, वही लाभ उन्हें वहाँ मिल जाता है। हमारे पूर्वज जडोपासक नहीं थे। जड़ वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता मानकर उनकी पूजा किया  करते थे। स्वास्थ्य के होने से ही धर्माचरण में प्रवृत्ति हो सकती है, अतः स्वास्थ्यवर्धक वस्तु का धर्म से संबंध अनुचित भी नहीं है।

चरणामृत का वैज्ञानिक महत्त्व : उसी देवमन्दिर में फिर हम चरणामृत लेते हैं, जिसका माहात्म्य अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्’ प्रसिद्घ ही है। वह हमारे लिये दिव्य औषधि का काम देता है। पूजा के समय ताम्रपात्र में रक्खी शालग्राम की प्रतिमा का मंत्रोपचार से गंगाजल द्वारा संस्कार होता है। तुलसीदल, केशर, चन्दन, कस्तूरी आदि पदार्थ उसमें मिले रहते हैं। शालग्राम गण्ड की नदी का पदार्थ विशेष है, जिसमें छोटे छोटे सुवर्ण कण मिले रहते हैं। वेद सुवर्ण से सौ वर्ष की आयु बताता है। ताँबे का प्रभाव तो विज्ञानप्रसिद्घ है ही। उसमें रक्खा हुआ जल रोगनाशक होता है, फिर गंगाजल की कीटाणुनाशिनी शक्ति तो विश्वविदित ही है। तुलसीदल में भी विविध व्याधियों को दूर करने की सामर्थ्य है। केशर, चन्दन, कस्तूरी का तो बहुत रोगों में उपयोग किया ही जाता है और फिर वेदमंत्रों की शक्ति हिन्दू संस्कृति में प्रसिद्घ ही है। इधर वही जल शंख में डाला हुआ और भी शक्तिसम्पन्न हो जाता है। तब वह जल एक अमृत का काम करता है। उसके सेवन से अकालमृत्यु नहीं होने पाती। इधर मन्दिर में प्रातःकाल जाना पड़ता है, इस व्याज से प्रातःभ्रमण भी हो जाता है। प्रात-र्भ्रमण के लाभ भी जगत्प्रसिद्घ हैं। और फिर उस समय हमारे पालक भगवान से हमारी एकता हो जाती है। धूप तथा घृत का चतुर्मुख दीपक, उसका शुद्घ आलोक इत्यादि सभी पदार्थ हमारी अकाल मृत्यु को दूर करते हुए- ‘विष्ण्पादोदर्क पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते’ इस पद्य को चरितार्थ किया करते हैं। यह बात अर्थवाद न होकर सत्य है, क्योंकि इस अवसर की निष्काम भगवद्भक्ति मुक्ति देकर हमारे पुनर्जन्म को हटा देती है। इस प्रकार चरणामृतपान से शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक लाभ होते हैं।

शंखनाद : श्रीजगदीश चन्द्र वसु ने अपने वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा सिद्घ कर दिया है कि जहाँ शंख का नाद जाता है, वहाँ तक रोग के अनेक विषाक्त कीटाणु उस नाद के सुनने से ही नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार वहाँ की वायु शुद्घ होती है। हमारे यहाँ भी प्रसिद्घ है कि ‘शंख बाजे, भूत भागे।’ कीटाणु  भी सूक्ष्म भूतों के अन्तर्गत होते हैं। इधर यह शंख गूंगों को भाषण शक्ति प्रदान करता है। इसलिये छोटे छोटे बच्चों के गले में छोटे छोटे शंखों की माला पहनायी जाती है। इससे बच्चे जल्दी बोलने लग जाते हैं, उन्हें दृष्टिदोष भी नहीं होता। इसकी श्रेष्ठता होने से ही मन्दिर में आरती के समय भक्तों पर शंख का जल डाला जाता है। यूरोपीय वैज्ञानिकों ने भी शंख में मनुष्यहितकारिणी  विद्युत मानी है। शंख में यदि गंगाजल को सिद्घ करके पिलाया जाय तो कीटाणुमूलक सब रोग दूर हो सकते हैं। इसमें कोई विशिष्ट व्यय भी नहीं होता। इसके अनेक लाभों को देखकर प्राचीन काल में स्ति्रयाँ शंख की चूड़ियाँ पहनती थीं, अब भी बंगाल में पहनती हैं, जिसका-

बहुभिर्योगे विरोधो रागादिभिः कुमारीशखवत्।

‘सांख्यदर्शन’ के सूत्र में संकेत किया गया है।

 जपना 108 बार क्यों? :  हमारे श्वास प्रत्येक पल में 6 निकलते हैं। 2॥ पलों के एक मिनट में हमारे 15 श्वास निकलते हैं। इस हिसाब से एक घंटे में 900 तथा दिन भर के 12 घंटों में 10,800 श्वास हमारे निकलते हैं। एक दिन के इतने श्वासों में हमें अपने इष्टदेव को याद करना चाहिये। परन्तु लोकयात्रा में इतना संभव नहीं, अतः 10,800 के पिछले दो शून्यों को हटाकर 108 बार इष्टदेव का जप किया जाता है।

                अथवा इसमें एक अन्य रहस्य है। माया का अंक 8 होता है और ब्रह्म का 9 अंक। माया में परिवर्तन या परिवर्धन होता है, ब्रह्म में नहीं। देखिए 8 का पहाड़ा। 8 x 1 = 8, 8 x 2=16 (1 + 6 = 7)। यह आठ का पहाड़ा दुगना होने पर 7 हो गया है। 8 x 3 = 24 (2 + 4 = 6), अब वही 6 हो गया है। इसी प्रकार आगे भी क्रम क्रम से वह कम होता जाता है। जैसे - 8 x 7 = 56 (5 + 6 = 11, 1 + 1 = 2), यहाँ पर 2 ही रह जाते हैं। 8 x 9 = 72 (7 + 2 = 9) यहाँ वही बढ़कर 9 हो जाता है।  पर ब्रह्म का अंक 9 उसी रूप में रहता  है। जैसे कि 9 का पहाडा देखिये- 9 x 1 = 9, 9 x 2=18 (1 + 8 = 9), 9 x 3 = 27, (2 + 7 = 9), 9 x 7 = 63 (6 + 3 = 9) इत्यादि। इसमें कोई विकार नहीं हुआ।

हिन्दू जाति प्रारम्भ से ही सूर्यभक्त रही है, इसलिये उसकी सन्ध्या में सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है। सविता (सूर्य) का ही गायत्री रूप में जप होता है। जप में साधन माला होती  है। उसकी 108 मणियाँ होती हैं।  सूर्य के 12 भेद होते हैं, उसका बारहवाँ भेद विष्णु है। सूर्य की 12 राशियां होती हैं। वह सूर्य ब्रह्मरूप है। ‘तदेवाग्निस्तदादिव्यः’ (यजुः वा. सं. 32।1)। ब्रह्म का अंक 9 है, यह पहले कहा जा चुका है। 12 अंकवाले सूर्य के साथ 9 अंकवाले ब्रह्म को गुणा करने से 108 संख्या होती है। इस कारण सूर्यात्मक विष्णु का जप भी 108 बार होता है। 108 का योग 1 + 8 = 9 होता है। 9 अंक ब्रह्म का प्रतीक होता है। यह कहा ही जा चुका है। इसलिये ब्रह्मवित सन्यासियों के नाम के साथ भी ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’ इस न्याय से ब्रह्म का प्रतिनिधि ‘श्री 108’ लिखा जाता है।

 

त्राटककर्म

निरीक्षेन्निश्चलदृशा सूक्ष्मलक्ष्यं समाहितः।

अश्रुसम्पातपर्यन्तमाचार्यैस्राटकं स्मृतम्॥

समाहित अर्थात एकाग्रचित हुआ मनुष्य निश्चल दृष्टि से सूक्ष्म लक्ष्य को अर्थात लघु पदार्थ को तब तक देखे, जब तक अश्रुपात न होवे। इसे मत्स्येन्द्र आदि आचार्यों ने त्राटककर्म कहा है।

त्राटक कर्म टकटकी लागे। पलक-पलक सो मिलै न तागे।।

नैन उधारे ही नित रहै। होय दृष्टि फिर शुकदेव कहे॥

आंख उलटि त्रिपुटी में आनो। यह भी त्राटक कर्म पिछानो॥

जैसे ध्यान नैन के होई। चरणदास पूरण हो सोई॥

सफेद दिवाल पर सरसों बराबर काला चिह्न दे उसी पर दृष्टि ठहराते ठहराते चित समाहित और दृष्टि शक्ति सम्पन्न हो जाती है। मैस्मेरिज्म में जो शक्ति आ जाती है वही शक्ति त्राटक से भी प्राप्त है।

मोचनं नेत्ररोगाणां तन्द्रादीनां कपाटकम्।

यत्नतस्राटकं गोप्यं यथा हाटकपेटकम्॥

‘त्राटक नेत्ररोगनाशक है। तन्द्रा-आलस्यादि को भीतर नहीं आने देता। त्राटककर्म संसार में इस प्रकार गुप्त रखने योग्य है जैसे सुवर्ण की पेटी संसार में गुप्त रखी जाती है।’ क्योंकि-

भवेद्वीर्यवती गुप्ता निर्वीर्या तु प्रकाशिता’

उपनिषदों में त्राटक के आन्तर, बाह्य और मध्य-इस प्रकार तीन भेद किए गए हैं। हठयोग के ग्रंथों में प्रकार-भेद नहीं है।

पाश्चात्यों का अनुकरण करने वाले कुछ लोग मद्यपान, मांसाहार तथा अम्ल-पदार्थादि अपथ्य-सेवन करते हुए भी ‘मैस्मेरिज्म’ विद्या की सिद्धि के लिए त्राटक किया करते हैं। परंतु ऐसे लोगों का अभ्यास पूर्ण नहीं होता। अनेकों के नेत्र चले जाते हैं और अनेक पागल हो जाते हैं। जिन्होंने पथ्य का पालन किया है वही सिद्धि प्राप्त कर सके हैं।

यम-नियमपूर्वक आसनों के अभ्यास के नाडीसमूह मृदु हो जाने पर ही त्राटक करना चाहिए। कठोर नाड़ियों को आघात पहुंचते देर नहीं लगती। त्राटक के जिज्ञासुओं को आसनों के अभ्यास के परिपाककाल में नेत्र के व्यायाम का अभ्यास करना विशेष लाभदायक है। प्रातःकाल में शांतिपूर्वक दृष्टि को शनैःशनैः बायें, दायें, नीचे की ओर, ऊपर की ओर चलाने की क्रिया को नेत्र का व्यायाम कहते हैं। इस व्यायाम से नेत्र की नसें दृढ़ होती हैं। इसके अनन्तर त्राटक करने से नेत्र को हानि पहुंचने की भीति कम हो जाती है।

त्राटक के अभ्यास से नेत्र और मस्तिष्क में उष्णता बढ़ जाती है। अतः नित्य जलनेति करनी चाहिए तथा रोज सुबह त्रिफला के जल से अथवा गुलाबजल से नेत्रों को धोना चाहिए। भोजन में पित्तवर्धक और मलावरोध (कब्ज) करने वाले पदार्थों का सेवन न करें। नेत्र में आंसू आ जाने के बाद फिर उस दिन दूसरी बार त्राटक न करें। केवल एक ही बार प्रातःकाल में करे। वास्तव में त्राटक का अनुकूल समय रात्रि के दो से पांच बजे तक है। शांति के समय में चित्त की एकाग्रता बहुत शीघ्र होने लगती है। एकाध वर्षपर्यन्त नियमित रूप से त्राटक करने से साधक के संकल्प सिद्ध होने लगते हैं, दूसरे मनुष्यों के हृदय का भाव मालूम होने लगता है, सुदूर स्थान में स्थित पदार्थ अथवा घटना का सम्यक प्रकार से बोध हो जाता है।