गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विंष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

गुरु शब्द की व्युत्पत्ति है - गुं = हृदयान्धकारं रावयति = दूरी करोतीति गुरुः अर्थात् हृदय के अज्ञानरूपी अन्धकार को जो दूर करे वही गुरु है। प्राचीन काल में गुरुकुल परम्परा में भगवान राम जैसे राजकुल के विद्यार्थी या द्वापर युग में कौरव-पाण्डव जैसे राजपुत्र सामान्य विद्यार्थी की तरह शिक्षा पाते थे। गुरुकुल में सभी वर्गों के छात्रों के साथ समान व्यवहार होता था और सहिष्णुता सीखते थे। कालक्रम में गुरुकुल प्रणाली समाप्त सी हो गई और संस्कृति में एक तरह का क्षरण आ गया है। गुरुकुल से निकलने पर विद्यार्थी जो संकल्प लेकर निकलते थे - ‘‘माता भूमि पुत्र अहं पृथिव्याः.....’’ अर्थात् मेरा जीवन मातृभूमि की सेवा में अर्पण रहेगा और मैं लोक कल्याण के लिए समर्पित रहूँगा। गुरु की दी हुई शिक्षा से मैं अपने राष्ट्र को जीवित और जाग्रत रखूँगा।

वर्तमान में जिस गुरु परम्परा का विधान किया गया है उसके साथ भगवान वेदव्यास का नाम जुड़ा है। वेदव्यास के समय से जो गुरु परम्परा शुरु हुई और उनके उत्तराधिकारी कथाव्यास कहलाये। उनके जन्म दिन को ही गुरु पुर्णिमा मान लिया गया। उनका काम बहुत बड़ा था, क्योंकि उन्होंने वेदों का संकलन और वर्गीकरण चार भागों में किया। पुराणों को 18 भागों में विभक्त किया और इसी तरह उपनिषदों पर महान कार्य करके उन्हें 108 भागों में प्रस्तुत किया। भगवान वेदव्यास से पहले भी महान गुरु हुए हैं जिनमें देवगुरु बृहस्पति का नाम लिया जा सकता है। बिना भय के देवताओं को सम्मति देना उनका कार्य था। सन्मार्ग पर चलना और कुमार्ग को छोड़ना, गुरु की प्रथम शिक्षा थी। त्रैता युग के महर्षि वशिष्ठ और महर्षि विश्वामित्र का नाम तो आप जानते ही थे जो सम्राटों को भी अपनी सम्मति देते थे और उनसे कुछ भी अपेक्षा नहीं करते थे।

शास्त्रों में गुरु के बारे में जो वर्णन है, उन्हें इन मधुर शब्दों में व्यक्त किया गया है-

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं,

द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं,

भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि।।

सद्गुरु और परमब्रह्म का एक ही अर्थ है, इसी भाव से शास्त्रों में ‘गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म’ तो कहा ही गया है बल्कि ‘सर्वं गुरुमयं जगत्’ भी कहा गया है। गुरु विश्वामित्र के द्वारा तैयार भगवान राम - लक्ष्मण ने राक्षसों का संहार किया तो गुरु द्वारा उपदिष्ट सम्राट दशरथ शनि द्वारा रोहिणी शकट को रोकने के लिए शनिदेव से ही युद्ध को उद्वत हो गये। इतिहास में चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य को शिक्षा प्रदान करके भारत भूमि से अनाचार और अत्याचार को समाप्त करने के लिए तैयार किया और नंद वंश का सर्वनाश करा दिया। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द को तैयार किया। आदिकाल से लेकर आज तक भी बहुत सारी स्ति्रयाँ भी गुरु के रूप में प्रसिद्ध हुई हैं। आधुनिक इतिहास में शिवाजी की माता जीजाबाई का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने अपने पुत्र को अन्याय और संघर्ष के खिलाफ तैयार किया। 

इतिहास की धाराएँ बदलने वाले महान गुरु वाल्मिकि, गुरु विश्वामित्र, गुरु परशुराम, गुरु शुक्राचार्य, गुरु वशिष्ठ, गुरु बृहस्पति, गुरु कृपाचार्य और गुरु शंकराचार्य अपनी तेज तपस्या और न्याय बुद्धि के लिए प्रसिद्ध हैं। आपको देश के इतिहास में किसी धनी आदमी का नाम याद नहीं होगा परन्तु इन गुरुओं ने कालजयी ख्याति पा ली है। शुक्राचार्य और बृहस्पति तो इतने गुणी हुए कि देवताओं और असुरों के भी गुरु सिद्ध हुए और ब्रह्मा की सभा में स्थान पा गये और इन्हें यज्ञ भाग मिलता है। दूसरी तरफ ऋषि दुर्वासा जैसे नाम भी हंै, जिनके क्रोध की अग्नि से देवता और असुर सभी डरते थे। गुरुओं में भी महाविवाद रहे हैं, जैसे कि महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र में संघर्ष रहा। परन्तु महर्षि वशिष्ठ के ब्रह्मबल के सामने विश्वामित्र को हार माननी पड़ी। महर्षि वशिष्ठ की चौथी पीढ़ी में भगवान वेदव्यास हुए हैं।

द्रोणाचार्य पर सदा यह आरोप लगते रहे कि वे शिक्षा प्रदान करने में भेदभाव करते रहे हैं। सबसे बड़ा आरोप यही था कि वे अर्जुन को ही श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहते थे। परन्तु किसी भी गुरु के पक्ष में यह बात अवश्य जाती है कि अपना शिष्य या योग्य उत्तराधिकारी का चयन वह स्वयं करे।

जइया गुरु न चीन्हों, तइया सींच्या न मूलूँ। कोई - कोई बोलत थूलूँ। (शबद 35) अर्थात् जिसने गुरु को नहीं पहचाना, उसने भगवान को प्राप्त करने के लिए जड़ को भी नहीं सींचा है। गुरु विहीन लोग तो मिथ्या वार्ता ही करते हैं। निश्चै कायों-वायों होयसैं, जे गुरु बिन खेल पसारी। (शबद 42) अर्थात् यदि तुमने बिना गुरु के कोई कार्य प्रारम्भ किया तो निश्चय ही अज्ञान के कारण वह कार्य बिगड़ जायेगा। दोय दिल दोय मन, गुरु न चेला। (शबद 45) अर्थात् अगर दो प्रकार का मन हो अर्थात् द्वैत मन हो तो गुरु-शिष्य के मन में पवित्रता नहीं रहती। शिष्य को शत्-प्रतिशत श्रद्धा अर्पित करनी चाहिए।

उपरोक्त शिक्षाएँ विश्नोई पंथ की हैं।

गुरु जिस विद्या को प्रदान करते हैं वह विद्या ही मनुष्य को लक्ष्य और मोक्ष प्राप्त कराती हैं। विद्या के बारे में कहा गया है-

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं

विद्या भोगकरी यशःसुखकरी विद्या गुरुणां गुरुः।।

विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परा देवता

विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः।।

विद्या मनुष्य की वास्तविक शोभा है, सुरक्षित सम्पत्ति है, गुरुओं की गुरु है और विदेश में सबसे बड़ा भाई है। विद्या परा देवता है, धर्म प्रदायक है, और विद्यावान व्यक्ति की सर्वत्र पूजा होती है। विद्याहीन व्यक्ति पशुतुल्य हैं। इसीलिए श्रेष्ठ विद्या के लिए श्रेष्ठ गुरु का चयन करना चाहिए।

गुरु से ईर्ष्या करके व्यक्ति का सर्वनाश हो जाता है। संसार में पिता और गुरु ही ऐसे हैं जो अपने पुत्र या शिष्य को अपने से भी आगे बढ़ाना चाहते हैं। हमारा कर्म और माता दोनों ही हमारे गुुरु हैं। वो भी प्रारब्ध से प्राप्त होते हैं। परन्तु विद्या गुरु और आध्यात्मिक गुरु का चयन हम स्वयं करते हैं। गुरु के चयन में स्वतंत्रता हो सकती है परन्तु उसके बाद गुरु के बारे में परीक्षण बंद कर देना चाहिए। इतिहास में गुरुओं पर भी दोष आये हैं। महर्षि अङ्गिरा के बृहस्पति और कवि दो शिष्य थे। कवि को बृहस्पति से ईर्ष्या थी कि गुरु अङ्गिरा उसको अधिक शिक्षा देते हैं। इस कारण से वे शिवजी के पास चले गये और संजीवनी विद्या प्राप्त की। बृहस्पति देवताओं के गुरु बने और कवि शुक्राचार्य के नाम से असुरों के गुरु बने। पर इन सब के अच्छे परिणाम नहीं आये। द्रौणाचार्य के किस्से भी इसी प्रकार के हैं।

शास्त्रों में गुरु को महानता प्रदान की गई है और कहा गया है कि -

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।

गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।

कबीर दास ने इसीलिए लिखा है कि -

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, का के लागू पाय,

बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय।

 

 

 

 

अंगस्फुरण के पुराणोक्त फल

अंगस्फुरण एक ऐसी शकुन या अपशकुन बोधक प्रक्रिया है जो मनुष्य के मन मस्तिष्क को सहज ही प्रभावित करती है। यह प्रकृति प्रदत्त, भविष्य के पूर्वानुमान और शुभ लक्षणों में अधिकाधिक प्रयास करके कार्य सिद्घ की प्रेरणा देने वाला और अशुभ लक्षणों में सावधान व सचेत करने वाली दैहिक प्रक्रिया है।

अंगस्फुरण फल कह्यो स्वयं मत्स्य भगवान।

शुभ प्रयासरत, अशुभ से होहिं सचेत सुजान॥

सतयुग में भगवान अनन्त जगदीश्वर के मत्स्यावतार का वर्णन मत्स्य पुराण में किया गया है जिसके इकतालीसवें अध्याय में मनु महाराज को उद्बोधित करते हुये स्वयं अपने मुखारबिन्द से अंगस्फुरण के शुभाशुभ फलों का वर्णन करते हुये मत्स्य भगवान ने बताया-

अंङ्ग दक्षिणभागे तु शस्तं प्रस्फुरणं भवेत्।

अप्रशस्तं तथा वामे पृष्ठस्य हृदयस्य च॥

राहु-केतु का योग-संयोग कुण्डली में पितृ दोष उत्पन्न करता है।

अर्थात शरीर के दाहिने अंग में स्फुरण सर्वथा शुभ और वाम अंग का स्फुरण, पीठ और हृदय का फड़कना अशुभ होता है (अंत में मत्स्य भगवान ने पुरुष के दाहिने अंग और स्त्री के वामांगस्फुरण को शुभ बताया है)।

मत्स्यावतारी भगवान जगदीश्वर ने स्वयं अपने मुखारबिन्द से मनु महाराज को अंगस्फुरण के और भी फल बताते हुये कहा-

पृथ्वीलाभो भवेन्मूर्धिन ललाटे रविनन्दन।

स्थानं विवृद्घिमायाति भूनसों: प्रियसंगमः॥

भृत्यलब्धिश्चाक्षिदेशे दृगुपान्ते धनागमः।

उत्कण्ठोपगमों मध्ये दृष्टं राजन् विचक्षणैः॥

दृग्बन्धने सङ्गरे च जयं शीघ्रमवाप्नुयात्।

योषिद्भोगोऽपाङ्गदेशे श्रवणान्ते प्रियश्रुतिः॥

नासिकायां प्रीतिसौख्यं प्रजाप्तिरधरोष्ठजे।

कण्डे तु भोगलाभः स्याद् भोगवृद्घिरथांसयोः॥

सुहृत्स्नेहश्च बाहुभ्यां हस्ते चैव धनागमः।

पृष्ठे पराजयः सद्यो जयो वक्षःस्थले भवेत्॥

-मत्स्य पुराण अध्याय 241

सिर अर्थात् मस्तक के स्फुरण से पृथ्वी का लाभ, ललाट फड़कने से स्थान की वृद्घि, भौं और नाक फड़कने से प्रियजनों से मिलन होता है। मत्स्य भगवान फिर कहते हैं, राजन! नेत्रों के फड़कने से सेवकों का लाभ और नेत्रों के आस-पास फड़कने से धन लाभ होता है। नेत्रों के बीच में फड़कने से उत्सुकता या उत्कण्ठा बढ़ती है ऐसा राजन, बुद्घिमानों की अनुभूति है। आँख की पलकों के फड़कने से विजय शीघ्र प्राप्त होती है। नेत्रापांगों के फड़कने से स्त्री लाभ और कान फड़कने से प्रियजनों के शुभ समाचार सुनने को मिलते हैं। नाक फड़कने से प्रेम प्रवृत्ति और सौख्य की प्राप्ति, नीचे के होठ फड़कने से संतान की प्राप्ति होती है। कण्ठ से स्फुरण से भोग लाभ तथा दोनों कन्धों के फड़कने से भोग विलास की वृद्घि होती है। बाहुओं के स्फुरण से शुभेक्षुओं का स्नेह और करतल या हथेली फड़कने से द्रव्य लाभ की प्राप्ति होती है। पीठ फड़कने से पराजय तथा वक्षस्थल अर्थात् छाती फड़कने से विजय श्री की प्राप्ति होती है। इसका पश्चात मत्स्य भगवान रविसुत मनु महाराज से कहते हैं-

कुक्षिभ्यां प्रीतिरुद्दिष्टा स्ति्रयाः प्रजननं स्तने।

स्थानभ्रंशो नाभिदेशे अन्त्रे चैव धानागमः॥

जानुसंधौ परैः संधिबलवद्भिर्भवेन्नृप।

देशैकदेशनाशोऽथ जगभ्यां रविनन्दन॥

उत्तमं स्थानामाप्नोति पद्भ्यां प्रस्फुरणान्नृप।

सलाभं चाध्वगमनं भवेत् पादतले नृप॥

लाञ्छनं पिटकं चैव ज्ञेयं स्फुरणवत् तथा।

विपर्ययेण विहितः सर्वः स्त्रीणां फलागमः॥

अप्रशस्ते तदा वामे त्वप्रशस्तं विशेषतः।

दक्षिणेऽपि प्रशस्तेऽङ्गे प्रशस्तं स्याद् विशेषतः॥

अतोऽन्यथा सिद्घिप्रजल्पनात् तु फलस्य शस्तस्य च निन्दितस्य।

अनिष्टचिह्नोपगमे द्विजानां कार्य सुवर्णेन तु तर्पणं स्यात्॥

-मत्स्य पुराण अध्याय 241

अर्थात् दोनों कुक्षियों के स्फुरण से प्रेम में वृद्घि होती है। स्तनों के फड़कने से स्त्री को सन्तान प्राप्ति होती है। संधि भाग के फड़कने से बलवान शत्रुओं के साथ लाभकारी संधि व समझौता हो जाता है। मत्स्य भगवान कहते हैं कि रविनन्दन मनु महाराज, जंघाओं के स्फुरण से राज्य के किसी अंश की क्षति होती है। पैरों का फड़कना शुभ होता है। उत्तम स्थान की प्राप्ति होती है। पैरों के तलुओं के स्फुरण से लाभकारी यात्रा सम्पन्न होती है। अंग स्फुरण की ही भाँति शरीर में शरीर में जन्मजात धब्बे जिन्हे लच्छन कहा जाता है और मस्से (छोटे मांस पिण्ड) का भी फल होता है जो पुरुष के दायें अंग व स्थान और स्ति्रयों के बांये अंग व स्थान में शुभकारी होते हैं। उपरोक्त अंक स्फुरण के जो भी फल बताये गये हैं वह स्ति्रयों में विपरीत समझना चाहिये अर्थात स्ति्रयों का बायां अंगस्फुरण शुभ और दायां अंग स्फुरण अशुभ होता है और पुरुषों का दायां स्फुरण शुभ और बांया अंग स्फुरण अशुभ होता है।

इसी के अनुरूप गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी कहा है कि -

प्रभु पयान जाना वैदेही। फरकि बाम अंग जनु कहि देही॥

जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयहु रावनहि सोई॥

रामचरित मानस (सुन्दर काण्ड)

मत्स्य भगवान ने अन्त में अशुभ फलों के अनिष्ट निवारण के लिये सुपात्र विप्र को स्वर्ण दान का विधान और उपाय बताया।

 

श्रावण में शिव आराधना

ज्योति शर्मा

हिन्दू धर्म शास्त्रों में श्रावण माह की विशेष महिमा बतायी गई है। यह माह पूर्ण रूप से भगवान शिवजी को समर्पित है। सम्पूर्ण महीने भक्तगण भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए विधि-विधान से इनकी पूजा-अर्चना करते हैं व सम्पूर्ण माह व्रत करते हैं। जो कोई व्यक्ति सम्पूर्ण माह व्रत नहीं कर पाता वह श्रावण के सभी सोमवार के व्रत करके भगवान शिवजी को प्रसन्न करते हैं। कुवारी कन्याएं श्रावण के प्रथम सोमवार से १६ सोमवार का व्रत प्रारम्भ करती हैं व भगवान शिवजी व माता पार्वती से अपने अनुकूल वर प्राप्ति की प्रार्थना करती है।

श्रावण के महीने में भगवान शंकरजी जो कि रोगों का नाश करते हैं, कहते हैं बार-बार शंकर का नाम लेते हुए उनकी पूजा-अर्चना करने के लिए यह सर्वश्रेष्ठ माह माना गया है। व्रत से रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। इन दिनों बिल्वपत्र शिवजी को विशेष रूप से चढ़ाए जाते हैं। बिल्वपत्र एक ऐसा पत्ता होता है जो तुलसी के पत्ते की भांति कभी अपवित्र और अशुद्ध नहीं होता। बिल्वपत्र की अनुपल्बधता में चढ़े हुए पत्र को जल से धोकर शिवजी को चढ़ाया जा सकता है।

दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्वर्श पाप नाशनम्।

अधोर पापसंहार बिल्वपत्र शिवार्पणम्।।

अर्थात् बिल्व वृक्ष के दर्शन और बिल्वपत्र के स्पर्श मात्र से पापों का नाश हो जाता है और विधि पूर्वक पूजा के साथ भगवान शंकर को बिल्व पत्र चढ़ाया जाए तो बड़े-बड़े पापों व रोगों का नाश हो जाता है। चूंकि इन दिनों तापमान वर्षा ऋतु के कारण कम रहता है अतः विभिन्न हानिकारक जीव उत्पन्न हो जाते हैं, इनसे रक्षा हेतु शरीर के तापमान को बढ़ाना अति आवश्यक होता है। बिल्वपत्र में अपार गर्मी होती है।

श्रावण के महीने में भगवान शिवजी के जलाभिषेक के लिए भक्तगण कांवड यात्रा करके किसी पवित्र स्थान का जल लाकर भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं जिससे उन्हें विशेष फलों की प्राप्ति होती है। यदि पवित्र स्थान का जल कहीं आस-पास न हो तो जल में गंगाजल मिलाकर भी शिवजी का जलाभिषेक किया जा सकता है। भक्तगण इस माह तामसिक भोजन से परहेज करते हैं व भोजन में लहसुन व प्याज का उपयोग भी नहीं करते हैं।

रुद्राभिषेक की महिमा-

प्राचीनकाल में कश्मीर राज्य में भद्रसेन नामक राजा का साम्राज्य था। राजा के एक पुत्र था जिसका नाम सुधर्मा था, पिता-पुत्र दोनों ही शिव भक्त थे। एक बार महान ज्योतिषि ऋषि पाराशर जी राजा के पास आए। राजा ने ऋषि पाराशर जी को आग्रह किया कि वे उन के पुत्र सुधर्मा की जन्म पत्रिका देखें। पाराशरजी ने राजा के आग्रह पर राजकुमार की जन्म पत्रिका देखी और बोले - आज से सातवें दिन राजकुमार सुधर्मा की अकाल मृत्यु होने वाली है। राजा इस बात से चिंतित हो उठे और ऋषि से अकाल मृत्यु के निवारण को कोई उपाय पूछने लगे। पाराशर जी ने कहा कि यदि रुद्राष्टाध्यायी का १०००० आवृत्तियों द्वारा भगवान शंकर का जलाभिषेक किया जाए तो तुम्हारे पुत्र की अकाल मृत्यु टल सकती है।

राजा ने शीघ्र ही विद्वान ब्राह्मणों को आमंत्रित किया और सारी तैयारियाँ पूर्ण कर रुद्राभिषेक प्रारंभ करवा दिया। सातवें दिन दोपहर के समय सुधर्मा की अचानक मृत्यु हो गई। पाराशर जी ने रुद्राभिषेक के पवित्र जल से राजकुमार सुधर्मा के मृत शरीर का अभिषेक किया और मंत्र सिद्ध रुद्राक्ष के द्वारा कुछ जल बून्दें उसके मुख में डाली। भगवान शंकर के आशीर्वाद से राजकुमार जीवित हो गये। पाराशर मुनि ने राजकुमार से पूछा- तुम्हें कैसा अनुभव हुआ? तो राजकुमार ने कहा- मुझे यमराज ले जा रहे थे परन्तु बीच रास्ते में अचानक एक तेज पुंज के समान सफेद शरीर वाली जटाजूट से युक्त मूर्ति प्रकट हुई और उन्होंने यमदूतों को कठोर वचन कहे तथा मुझे मुक्त करने को कहा। यमदूत मुझे छोड़कर उनकी स्तुति करने लगे। राजकुमार के जीवित होने से राजमहल में आनन्द छा गया। राजा पुत्र सहित शिवजी की पूजा और अधिक भक्ति-भाव से करने लगे।

भगवान शंकर के रुद्राभिषेक से अकाल मृत्यु का निवारण होता है। आयु वृद्धि होती है। राजा शिव भक्त तो था ही और यह शिव कृपा ही थी कि पाराशर ऋषि मुनि उनके यहाँ समय पर आए। ईश्वर कृपा करते हैं तो किसी न किसी को माध्यम बना लेते हैं और सही समय पर सही मार्गदर्शन मिल जाता है। शिवभक्ति के लिये सावन का मास सर्व उत्तम है।

 

महारानी अहिल्याबाई होल्कर

वीरेन्द्रनाथ भार्गव

भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में एक सम्माननीय स्थान इंदौर राज्य (मध्य प्रदेश) की एक महारानी अहिल्याबाई होल्कर का रहा है। देवी अहिल्याबाई का जन्म सन् 1725 में महाराष्ट्र के चौंडी नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता श्री मानको जी शिंदे गाँव के पटेल (चौधरी) थे।

एक बार 8 वर्ष की अवस्था में अहिल्याबाई गाँव के शिव मंदिर में पूजा की थाली लेकर आई और अपने नन्हे-नन्हे हाथों से दीपक जलाकर भगवान की आरती करके ध्यान मग्न होकर पूजा करती रहीं। संयोगवश उसी संध्या को बाजीराव पेशवा के प्रतापी सूबेदार मल्हार राव होल्कर उत्तर भारत से लौटते हुए विश्राम करने हेतु मंदिर में रुके हुए थे। देवी अहिल्या की उस छवि और एकाग्रचित्त पूजा करने की विधि को मल्हार राव ने मंत्रमुग्ध होकर देखा था। प्रभावित होकर मल्हार राव ने देवी अहिल्या को अपनी पुत्रवधू बनाकर आठ वर्ष की अल्पायु में अपने पास लाकर राजनीति और राजकाज संबंधी व्यवस्थाएं, न्यायविधि अैर अस्त्र-शस्त्र शिक्षा इत्यादि, स्वयं की देखरेख में प्रदान की।

देवी अहिल्या को अपने जीवन में तीन आघात सहने पड़े थे। प्रथम, उनके पति खांडेराव होल्कर का निधन सन् 1754 में कुम्हेर (भरतपुर) के युद्धक्षेत्र में हो गया। तत्कालीन भरतपुर के जाट राजा सूरजमल ने युद्ध रोककर विधवा हुई देवी अहिल्या के लिए ससम्मान श्वेत रेशम की साड़ी प्रस्तुत कर जाट-मराठा मैत्री का शुभारम्भ किया। दूसरा आघात पुत्र वियोग तथा पानीपत के मैदान में मराठों की करारी हार के फलस्वरूप सन् 1766 में श्वसुर मल्हार राव होल्कर के निधन से हुआ। पेशवा ने अहिल्या के पुत्र माले राव को राज्य दिया किंतु आठ माह पश्चात् उसका भी निधन हो गया। देवी अहिल्या का हृदय दहल गया किंतु अपने इष्ट भगवान शिव पर आस्था रखते हुए जीवन में निराश नहीं हुईं। पुण्य सलिला नर्मदा नदी के तट पर महेश्वर को अपने राज्य की राजधानी बनाया और राजकाज का संचालन करने लगीं। अपने जीवन के अंतिम समय तक राज्य शासन सुचारू रूप से चलाया। अपनी प्रजा को वह पुत्रवत् समझती रहीं और इसी कारण वे आज तक लोकमाता और भक्त अहिल्याबाई के नाम से मानी जाती हैं। उनके जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगों में से कुछ घटनाएं उल्लेखनीय हैं। देवी अहिल्याबाई ने अपने विशाल राज्य को अपना नहीं माना अपितु उस पर तुलसी पत्र रखकर उसे शिवजी को अर्पण कर दिया और उस राज्य को भगवान शंकर का मानकर उसका संचालन किया। वे राजकोष को जनता की अमानत समझती थीं। उधर पेशवा के चचेरे भाई राघोबा (रघुनाथ राव) की गिद्ध दृष्टि होल्कर राज्य पर लगी थी। मल्हार राव और माले राव के देहांत के दो-तीन वर्ष पश्चात् वह अवसर पाकर पचास हजार सैनिकों की विशाल सेना सहित होल्कर राज्य की सीमा पर आ डटा और देवी अहिल्या को राज्य समर्पण करने का संदेश भिजवाया। देवी अहिल्या ने प्रत्युत्तर में अपनी सेना की स्त्री सेना की टुकड़ी को आगे करते हुए राघोबा को चुनौती दी कि यदि उसने स्त्री सेना पर विजय पाकर राज्य जीता तो संसार में उसे कोई वीरोचित कार्य नहीं कहेगा किंतु यदि उसकी सेना होल्कर स्त्री सेना से हार गई तो इतिहास में उसके मुख पर कालिख पुत जाएगी अतः राघोबा बिना युद्ध किये चुपचाप लौट गया।

देवी अहिल्याबाई ने अनेक धार्मिक स्थानों का जीर्णोद्धार, भारत के अनेक प्रमुख तीर्थ नगरों में धर्मशालाओं का निर्माण, पवित्र सरिता तीर्थों पर घाटों का निर्माण तथा सदाव्रत चलाए। काशी विश्वनाथ में मूल मंदिर के खंडहरों के पास नया मंदिर बनवाया जिसमें पहले छिपाकर रखा गया मूल शिवलिंग को ढूंढ कर पुनः प्रतिष्ठित किया। कालांतर में पंजाब के सिख महाराज रणजीतसिंह ने लगभग साढ़े सात क्विंटल सोने के पतरे से उस मंदिर को स्वर्ण मंडित किया। प्रभास क्षेत्र में उन्होंने सोमनाथ का भी एक नया मंदिर बनवाया। बदरीनाथ से रामेश्वरम् और द्वारका से जगन्नाथपुरी तक देवी अहिल्या के योगदान आज भी सम राष्ट्रीय भक्ति भाव का परिचय दे रहे हैं। सन् 1795 में महारानी अहिल्याबाई ने अपना जीवन पूरा किया। अनेक इतिहासकार, कवियों और महापुरुषों ने देवी अहिल्या के प्रति भावभीने उद्गार प्रकट किये हैं, जो उनके सरल रहन-सहन, विमल चरित्र और प्रशंसनीय शासन व्यवस्था के प्रमाण हैं।