व्यक्ति कब बनता है करोड़पति

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

व्यक्ति हमेशा यह कल्पना करता है कि वह धनी हो जाए। प्राचीन ग्रन्थों में ‘लक्षाधिपति’ शब्द मिलता है अर्थात् लाख रुपये का स्वामी। तब कागजी मुद्राएँ नहीं थी। भारत में तो बहुत गायों का स्वामी होने से ही धनी मान लिया जाता था और जब मुद्रा का आविष्कार हुआ तो नगर श्रेष्ठि अर्थात् नगर सेठ की धारणा ने जन्म लिया। परन्तु तब स्वर्ण मुद्राएँ हुआ करती थीं। इसलिए योगों की अवधारणाओं में अब परिवर्तन आ गया है।

आज छोटे से गांव में भी किसी के पास 200-300 गज का प्लॉट भी हो तो ही लक्षाधिपति हो जाता है। इसका अर्थ उस समय का लाख रुपया आज के अरबों रुपयों के बराबर है। ज्योतिष योगों में संशोधन करके लक्षाधिपति को अब अरबाधिपति कर देना चाहिए।

कब होता है व्यक्ति धनी?

परम्परा की ज्योतिष में कुछ शब्द बड़े मजेदार हैं। जैसे चाँदी का पाया। दूसरे, पाँचवें और नवें भाव में यदि चन्द्रमा हों तो वह चाँदी का पाया कहलाता है। इस योग में जन्मा व्यक्ति धनी होता ही चला जाता है। चाँदी के पाए में जन्मा व्यक्ति जन्म से ही विशेष होने लगता है और 50 की आयु प्राप्त होने तक सम्पन्न हो जाता है। ऐसे व्यक्ति साधारण परिस्थितियों से उठकर भी महान बन जाते हैं।

लक्ष्मीनारायण योग -

जिसकी जन्म पत्रिका में बुध ग्रह और शुक्र ग्रह एक साथ एक ही राशि में बैठे हों तो यह लक्ष्मी नारायण योग कहलाता है। ऐसे व्यक्ति धनी होते चले जाते हैं।

कुछ विद्वान केन्द्र और त्रिकोण के स्वामी ग्रहों को साथ बैठने को भी लक्ष्मी नारायण योग मानते हैं। जन्म कुण्डली के त्रिकोण भाव को लक्ष्मी स्थान माना जाता है। अर्थात् पहले, पाँचवें और नवें भाव को लक्ष्मी स्थान या भाव माना जाता है तथा जन्म पत्रिका के केन्द्र स्थानों को अर्थात् 1, 4, 7 और 10 भावों को नारायण (विष्णु) स्थान माना गया है। इनमें यदि लक्ष्मी और नारायण भावों के स्वामियों का किसी भी भाँति से ज्योतिष में वर्णित सम्बन्ध हो जाएं तो यह लक्ष्मी नारायण योग कहलाता है। यह योग अधिक सार्थक है और व्यक्ति धनी होता चला जाता है।

केन्द्र स्थान भरे हुए हों -

 

यदि केन्द्र स्थानों में अर्थात् 1, 4, 7 और 10 भावों में सभी में ग्रह स्थित हों तो यह बहुत बड़ा धन योग है।

यदि त्रिकोण स्थानों में कुल मिलाकर 4 या 5 ग्रह हो जाएं तो यह बहुत बड़ा धन योग है।

यदि दूसरे और ग्यारहवें भाव में कई सारे ग्रह उपस्थित हों तो यह महाधनी योग हो जाता है।

यदि लग्न, दूसरा भाव और ग्यारहवें भाव के स्वामी ज्योतिष में वर्णित किसी भी भाँति से परस्पर सम्बन्ध स्थापित करें तो यह महाधनी योग है।

यदि लग्न के स्वामी चौथे भाव में या चौथे भाव का स्वामी लग्न में या लग्न या चौथे भाव के स्वामी में परस्पर दृष्टि सम्बन्ध हो जाए या एक ही राशि में साथ बैठ जाएं तो बहुत सारे जमीन, मकान हो जाते हैं।

यदि पाँचवें या आठवें भाव में कई ग्रह इकट्ठे हो जाएं, परन्तु जन्म के समय, तो यह महाधन योग है।

यह सारे योग जन्म राशि चन्द्र राशि से हों तो भी वही प्रभाव होता है।

दो या तीन ग्रह उच्च राशि में हों या अपने उच्च नवांश में हों तो यह प्रबल धन योग होता है।

इस योग को ज्योतिषी अधिक समझेंगे। यदि केन्द्र भाव के स्वामी पारिजात अंश में हों, उत्तम वर्ग में हों या सिंहासन अंश में हों तो व्यक्ति धनी होता चला जाता है, बल्कि लग्न वर्गोत्तम हो अर्थात् जन्म लग्न और नवांश लग्न एक ही राशि में हो तो व्यक्ति अपने आप ही धनी होता चला जाता है। कई ग्रह भी यदि वर्गोत्तम हो जाए तो भी व्यक्ति धनी होता चला जाता है।

धन बराबर बना रहे, इसके लिए शर्त यह है कि धन योग बनाने वाले ग्रह 6, 8 एवं 12वें भाव के स्वामियों से सम्बन्ध स्थापित न करें।

यदि धन योग बनाने वाले ग्रह अस्त हों, नीच नवांश में हों तो भी धन योग नष्ट हो जाता है।

आठवें भाव का स्वामी ग्रह यदि दूसरे भाव में या ग्यारहवें भाव में बैठ जाएं तो धन योग होते हुए भी धन आता है और जाता है। लक्ष्मी स्थिर नहीं रहती।

वास्तुशास्त्र के धन योग -

वास्तुशास्त्र में कुछ बातें बहुत अच्छी हैं। उनमें ज्योतिष के योगों जैसी जटिलता नहीं होती और आम पाठक भी उसे अच्छी तरह समझ सकता है।

गजपृष्ठ भूमि - यदि किसी भी भूखण्ड में दक्षिण या पश्चिम दिशा में भूमि अधिक ऊँची हो और उत्तर या पूर्व की भूमि नीची हो तो यह गज पृष्ठ कहलाता है। लोक व्यवहार में यदि दक्षिण दिशा में भारी निर्माण हो या पश्चिम दिशा में भारी निर्माण हो या दोनों ही दिशाओं में भारी निर्माण हो तो यह गजपृष्ठ भूमि की श्रेणी में आता है। ऐसे व्यक्ति धनी होते चले जाते हैं।

 

 

 

इसका विपरीत दैत्यपृष्ठ होता है। यह शब्द वास्तुशास्त्र के तकनीकी शब्द हैं। जब पूर्व दिशा भारी हो और पश्चिम दिशा हल्की हो या उत्तर दिशा भारी हो और दक्षिण दिशा हल्की हो तो दैत्य पृष्ठ की संज्ञा में आते हैं। इस तरह की भूमि धन-नाश करा देती है। दुर्घटनाएँ आती हैं।

उत्तर दिशा, पूर्व दिशा में भूखण्ड की बाउण्ड्री पर कुछ वास्तु द्वार ऐसे होते हैं जो व्यक्ति को महाधनी बना देते हैं। कम्पास से गणना करने पर यह द्वार उत्तर दिशा मध्य, पूर्व दिशा मध्य या पश्चिम दिशा मध्य से दाहिनी ओर पड़ते हैं। इन द्वारों की गणना किसी कुशल वास्तुशास्त्री से ही करवानी चाहिए। जरा सी भी गलती होने पर लेने के देने पड़ सकते हैं। सही स्थान पर द्वार होने से, चाहे उस द्वार का एक फीट ही मिल जाए तो महाधनी होने के योग होते हैं।

 

अतिवृष्टि और अनावृष्टि के शकुन

प्रकृति का हर रूप भावी घटनाक्रम का द्योतक होता है। पेड़-पौधों से लेकर पशु-पक्षियों व अन्य जीव-जन्तुओं की प्रत्येक हरकत भावी घटनाओं की सूचक होती है। जब पेड़-पौधों में सामान्य से अधिक फूल उत्पन्न हों तो अधिक वर्षा और खुशहाली का संकेत होता है। फूल कम उगें तो वर्षा कम होती है। आम के वृक्ष पर फूल अधिक लगें तो गेहूँ की पैदावार अधिक होती है। बड़ पर फूल अधिक उगें तो जौ अधिक पैदा होता है। पीपल वृक्ष पर फल अधिक उत्पन्न हों तो - अन्न अधिक पैदा होता है। अर्जुन वृक्ष पर फल अधिक लगें तो - वर्षा बहुत अधिक होती है। जामुन के फल अधिक होवें तो - तिल की पैदावार अधिक होती है। जिस स्थान पर पेड़-पौधों के पत्ते सूखे व छिद्र युक्त हो जाएं वहाँ तेज वर्षा के काल में भी बहुत कम वर्षा होती है एवं जहाँ पेड़ों के पत्ते चिकने हों वहाँ वर्षा अच्छी होती है।

टिटहरी अपने अण्डे ऊँचे स्थान पर देवें तो अधिक वर्षा और नीचे स्थान पर देवें तो वर्षा कम होती है। सायंकाल में बादल पूर्व दिशा में उत्पन्न हों और उनकी आकृति पर्वत या हाथी जैसी होवे तो 2-5 दिन में बहुत अच्छी वर्षा होती है। उत्तर दिशा में बादल पर्वत श्रंखलाओं के समान दिखें तो 2-3 दिन में अच्छी वर्षा होती है। ऐसी स्थिति में पूर्व दिशा की हवा चले तो तेज गति से वर्षा होती है। वर्षा काल में सूर्योदय के समय सूर्य शुद्ध सुवर्ण की तरह चमकदार दिखें, उस दिन वर्षा अवश्य होती है अथवा जिस दिन मध्याह्न के समय सूर्य अत्यधिक प्रचण्ड हों उस दिन बरसात होती है। जिसे कहते हैं कि - आज तो उमस या गर्मी अधिक है, मक्खियाँ अधिक हो रही हैं, इसलिए वर्षा होने ही वाली है।

जिस रात में चंद्रमा का रंग तोता या कबूतर की आँख के समान लाल दिखाई देवे या शहद के समान गहरा पीला रंग दिखाई देवे तो जल्दी वर्षा होती है। जब पानी के स्वाद में अंतर आ जाए, हवा बंद हो, आकाश कौए के अण्डे के समान नीला दिखाई देवे तो वर्षा उसी दिन होती है। मेंढ़क आवाज करें या मोर गाते हुए नृत्य करें तो वर्षा होती है।

इन शकुनों का वर्णन वृहत् संहिता में एवं बसन्तराज शकुन में उपलब्ध है।

 

कामनापूरक शिव पूजा

पं. ओमप्रकाश शर्मा

शिव रात्रि शिव पूजा का विशेष पर्व है। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को जबकि सूर्य कुंभ में और चंद्रमा मकर राशि में होते हैं उस रात्रि को शिवरात्रि कहा जाता है। पौराणिक गाथाओं में इस रात्रि से जुड़ी कई कथाएं प्रचलित हैं। शिव पुराण के अनुसार- इस रात्रि को भगवान शिव सर्वप्रथम ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए थे। इस दिन भगवान शिव का विवाह उत्सव भी मनाया जाता है। शिव और शक्ति के मिलन की यह रात्रि है। इसे महारात्रि कहा जाता है। इस रात्रि को शिव पूजा करने का बड़ा महत्व है। भक्तजन रुद्री पाठ, शिव महिम्न स्तोत्र, शिव नामावली अथवा शिव पंचाक्षर मंत्र (ॐ नमः शिवाय) का जाप करके पुण्य लाभ करते हैं। इस रात्रि में चारों प्रहरों में चार बार पूजा करने के विधान हैं। पूजा में गंगाजल, चंदन, भस्म, अक्षत, बिल्वपत्र, भांग, धतूरा, आकड़े के पुष्प, बेर, गाजर आदि सब्जियां, पंचामृत, दूध, दही, शहद, घी आदि प्रमुखता से प्रयोग में लिए जाते हैं।

पूजा विधिः सर्वप्रथम पूजा का संकल्प करके भगवान शिव को निम्न नामों द्वारा प्रणाम करें।

1. ॐ शिवाय क्षितिमूर्तये नमः।

2. ॐ भवाय जलमूर्तये नमः।

3. ॐ रुद्राय अग्निमूर्तये नमः।

4. ॐ उग्राय वायुमूर्तये नमः।

5. ॐ भीमाय आकाशमूर्तये नमः।

6. ॐ पशुपतये यजमान मूर्तये नमः।

7. ॐ महादेवाय सोममूर्तये नमः।

8. ॐ ईशानाय सूर्यमूर्तये नमः।

9. ॐ शंकराय इंद्रमूर्तये नमः।

10. ॐ भूतेशाय शेषमूर्तये नमः।

तत्पश्चात् सभी सामग्रियों से क्रमशः शिवजी का षोडशोपचार पूजन करें। पूजा की विधि सहज ही उपलब्ध होती है अतः विस्तार भय से यहां नहीं दी जा रही है।

कामनोक्त प्रयोग :

1. लक्ष्मी प्राप्ति : जिसे धन-संपत्ति की कामना हो वह कमल पुष्पों से और बिल्वपत्रों से शिवजी का अर्चन करें। कामनोक्त पूजा में प्रयुक्त होने वाले किसी भी पदार्थ की संख्या एक लाख होती है जिसे सामूहिक रूप से भी पूरा किया जा सकता है।

2. मोक्ष प्राप्तिः मोक्ष की कामना हो वह कुशाओं से अर्चन करें।

3. आयु वृद्धिः आयु वृद्धि की कामना हो वह एक लाख दूर्वा दलों से अर्चन करें।

4. पुत्र प्राप्तिः पुत्र प्राप्ति की कामना हो, वह काले धतूरे के एक लाख पुष्पों से अर्चन करें।

5. यश प्राप्तिः जो अगस्ति के पुष्पों से अर्चन करता है उसे यश की प्राप्ति होती है।

6. भोग और मोक्ष : जो एक लाख तुलसी पत्रों से अर्चन करता है उसे भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त होते हैं।

7. शत्रु नाश : जपा के पुष्पों से अर्चन करने से शत्रुओं का नाश होता है तथा राई के एक लाख दानों से अर्चन करने से भी शत्रुओं का नाश होता है।

8. रोग नाश : कनेर के पुष्पों से अर्चन करने से रोग का नाश होता है। एक लाख उड़द के दानों से अर्चन करने से भी रोग का नाश होता है।

9. वाहन की प्राप्तिः चमेली के एक लाख पुष्पों से अर्चन करने पर मनपसंद के वाहन की प्राप्ति होती है।

10. अन्न भंडार : जूही के पुष्पों से अर्चन करें तो घर में अन्न के भंडार भरे रहें।

11. ज्वर नाश : ज्वर (बुखार) की शांति के लिए रुद्री के पाठ करते हुए जल की धारा से अभिषेक करना चाहिए।

12. प्रमेह रोग : प्रमेह रोग की शांति के लिए दूध की धारा से अभिषेक करना चाहिए।

13. बुद्धि वृद्धि : दूध में चीनी मिलाकर शिवजी का अभिषेक करें तो बुद्धि और विवेक की वृद्धि होती है।

14. गृह कलहः गृह कलह की शांति के लिए दूध में चीनी मिलाकर अभिषेक करें।

15. सुख-समृद्धिः गन्ने के रस का अभिषेक करने से सुख-समृद्धि की वृद्धि होती है।

शिवरात्रि को अपनी कामना अनुसार पूजा संपन्न करें। यदि एक लाख की संख्या एक रात्रि में पूर्ण नहीं हो सके तो इस रात्रि से यह प्रयोग प्रारंभ करके, निश्चित संख्या पूरी होने तक प्रतिदिन भी किया जा सकता है।

 

शनिदेव

डी.सी. प्रजापति

शनिदेव का स्वभाव है धीरे चलना। ऐसे ही ग्रहमंडल में शनिदेव का कक्षापक्ष सभी ग्रहों से विस्तृत एवं दूर है। इसका ज्योतिषीय प्रभाव है दीर्घकालीन, धीमी गति से परिणाम प्राप्त होना। शनिदेव की शुभ दृष्टि के बिना कोई भी व्यक्ति दीर्घकालीन योजनाओं में सफल नहीं हो सकता। अधीर एवं उतावला व्यक्ति शनिदेव के शुभ परिणामों से इसीलिए वंचित हो जाता है। भारतीय धर्मशास्त्रों एवं मिथकों में ऐसे अनेकानेक दृष्टांत हैं, जब व्यक्ति शनिदेव के कर्मफलों की भुक्ति में अपना सर्वत्र खो बैठा परंतु उसने अपना कर्मपथ (तपबल) नहीं बदला। राजा हरिश्चन्द्र, नल-दमयंती, विक्रमादित्य, सदना कसाई, नरसी-भक्त आदि ऐसे चरित्र हैं जो तप और त्याग की परीक्षा में सफल रहे और शनिदेव की न्यायपीठ के समक्ष अडिग एवं धैर्यवान होकर डटे रहे तथा विजय प्राप्त कर इतिहास पुरुष बने। ऐसे उदाहरणों से शनिदेव के मनुष्य को पवित्र करने के विधान एवं कर्मफल निष्पादन को आसानी से समझा जा सकता है। इसी पवित्रीकरण की पृष्ठभूमि में किसी कवि ने कहा है -

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।

माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आय फल होय।।

अर्थात् व्यक्ति को शनिदेव के कर्मफल परिपाक की प्रतीक्षा करनी होगी तब ही शुभफल, पवित्र फल और कर्मफल की पराकाष्ठा तक पहुँचा जा सकता है अन्यथा पूर्वकर्मों के पुद्गल के आधार पर व्यक्ति अनैतिक आचरण, अनैतिक साधनों से आजीविका कमाना, अनैतिक दिनचर्या और अनैयायिक साधनों से जीवनयापन करने लगता है और जन्म-जन्मांतर पुनर्जन्म प्राप्त कर कर्मबंधन में फँस जाता है।

फलकथन शास्त्र में शनिदेव को मूर्ति शिल्पकार, लौहार और सुनार आदि वर्गों का कारक माना जाता है। ये तीनों ही कार्य पूर्ण परिश्रम, तप, कठोर साधना और निरंतर धैर्य की अपेक्षा रखते हैं और जितने धैर्य, परिश्रम और तप से इन कार्य को किया जावे परिणाम उतने ही सुंदर एवं अनुकूल आते हैं। ज्योतिष शास्त्र में एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त ‘कारको भाव नाशाय’ है अर्थात् भाव का कारक ग्रह उसी भाव में स्थित हो तो उस भाव के शुभ परिणामों में कमी ला देता है या उन्हें समाप्त कर देता है परंतु शनिदेव इस महत्वपूर्ण सिद्धान्त के अपवाद बन जाते हैं, जब वे अपने भाव आयु स्थान (अष्टम भाव) में स्थित होते हैं तो वे व्यक्ति की आयु बढ़ा देते हैं। यदि कोई व्यक्ति दीर्घायु प्राप्त नहीं करता तो वह कम समय में महान कार्य कैसे कर सकता है इसलिए दीर्घायु एवं स्वस्थ्य जीवन ही महान कार्यों में लिप्त होता है।

शनिदेव के पवित्र कलश की इस चिंतनधारा में लेखक ने इस निष्कर्ष पर पहुँचने की चेष्टा की है कि शनिदेव सघन काले रंग का प्रतिनिधित्व करते हैं और विज्ञान के अनुसार काला रंग सभी रंगों का अवशोषण कर लेता है अर्थात् काले रंग में मिला देने से सभी रंग अपना अस्तित्व खो देते हैं। केवल काले रंग का अस्तित्व बना रहता है इसी प्रकार शनिदेव सभी ग्रहों द्वारा दिए जाने वाले फलों को अपनी न्यायपीठ पर बैठकर निष्पादित करते हैं। काले रंग में अन्य सभी रंगों का अवशोषण हो जाने का यह आशय नहीं है कि वे समाप्त हो गए अपितु यह है कि वे सभी रंग काले रंग के साथ तन्मय होकर एकाकार एकरूप हो जाते हैं और दृष्टिगोचर होता है सिर्फ काला रंग। यही निष्कर्ष है कि जन्म-जन्म के कर्मों के फलों के निष्पादन का दायित्व शनिदेव को सौंपा गया है और शनिदेव इन कर्मों के फलों की निष्पत्ति व्यक्ति के जीवन में पूर्ण न्यायिक ढंग से करते हैं। जिस प्रकार कोई न्यायाधीश जब तक किसी प्रकरण की सुनवाई करते हैं तब तक कोई भी यह कहने, समझने की स्थिति में नहीं होता कि निर्णय किसके पक्ष में होगा, ठीक इसी प्रकार शनिदेव भी व्यक्ति के कर्मों का संपूर्ण हिसाब रखते हैं और समय आने पर अपना निर्णय देते हैं, यह बात और है कि ऐसा न्यायिक निर्णय किसी व्यक्ति के पक्ष में हो या विपक्ष में। यही कारण है कि शनिदेव का कर्मफल विधान अनिश्चित, अनसुलझा, अननुमेय होता है। ज्योतिष ग्रंथों में केवल उसे समझने और समीकरण करने के प्रयत्न किए गए है। सब कुछ शनिदेव की परिधि एवं क्षेत्र में ही घटित होता है, बाहर कुछ नहीं।