क्या विश्व युद्ध होगा? पं. सतीश शर्मा

 

चीन और अमेरिका दोनों ही एक उच्च कोटि की मनोवैज्ञानिक लड़ाई लड़ रहे हैं। दोनों की जन्म पत्रिकाओं में कुछ बातें एक जैसी हैं। जैसे कि दोनों की जन्म पत्रिकाओं में दूसरे भाव में शनि स्थित हैं जो कि महाधनी बनाने के योग हैं। दोनों के चन्द्रमा सप्तम भाव में स्थित हैं तथा शनि की राशियों में हैं। दोनों की ही जन्म पत्रिका में बुध वक्री हैं। दोनों के ही प्रबल धनयोग हैं, परन्तु अमेरिका की जन्म पत्रिका के लाभ भाव में 4 ग्रह एक साथ स्थित हैं जो कि उसका श्रेष्ठ योग है। इस समय अमेरिका राहु महादशा की गुरु अन्तर्दशा में चल रहा है, जो कि उसके आर्थिक लाभ का समय है। शनि महादशा की गुरु अन्तर्दशा चीन को चल रही है जो कि 24 अगस्त को  समाप्त हो जाएगी। 24 अगस्त 2022 से चीन बुध महादशा में प्रवेश कर जायेगा, जो कि 17 वर्ष तक चलेगी। अमेरिका राहु महादशा में 2036 तक रहेगा।

   

         

अमेरिका की जन्म पत्रिका के 12वें भाव में स्थित राहु ही उसकी परेशानियों का कारण हैं। अति महत्वाकांक्षा, अनाप-शनाप खर्चा तथा अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में जज बने रहने की इच्छा इसलिए संभव है, क्योंकि जन्म पत्रिका में महाधनी योग हैं। शत्रु के विनाश की क्षमता है क्यों कि छठे भाव पर केतु और मंगल का पूर्ण प्रभाव है। ÒKiller instinctUÓ के मामले में अमेरिका की जन्म पत्रिका कमाल की है, जबकि चीन की जन्म पत्रिका में छठे भाव पर पाप ग्रहों का प्रभाव ना के बराबर है और ना ही ये लक्षण उसकी चन्द्र कुण्डली में हैं, इसलिए मनोवैज्ञानिक घुडकियों से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। दोनों की जन्म पत्रिका में बुध वक्री हैं, इसलिए इनकी वणिक वृत्ति अर्थात् माल बेचने की क्षमता और इच्छा उच्च कोटि की है। आने वाला दशाक्रम दोनों का ही अच्छा नहीं है। परन्तु यहाँ हम इस बात की चर्चा करेंगे कि क्या दोनों देश महायुद्ध की स्थितियों में चल रहे हैं।

दोनों ही देश महान साम्राज्यवादी हैं। एक तरफ अमेरिका, इरान, ईराक, अफगानिस्तान व अब युक्रेन में फँसा हुआ है और रूस के साथ शीतयुद्ध काल के बाद अप्रत्यक्ष युद्ध की स्थिति में चल रहा है। परन्तु अब उसके विरुद्ध दो बड़े देश हैं। अमेरिका की जन्म पत्रिका में कितने ही बड़े धनयोग हों, बजट का एक बड़ा हिस्सा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सेनाओं की तैनाती में खर्च होता है। अगर यह ना हो तो अमेरिका सारे संसार को खरीद सकता है। अमेरिकी सेनाओं का तेल का खर्चा बारुद के खर्चे से भी ऊँचा है और कई राष्ट्रों के बजट से भी ऊँचा है। उधर चीन हिटलरकालीन जर्मनी की राह पर है। द्वितीय विश्व युद्ध के समय अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में सुई तक जर्मन सिल्वर की बिकती थी। वही मुद्रा चीन ने अपना रखी है। अपने चीन में निर्मित सामान से दुनिया के बाजार को पाट दो और उनकी अर्थव्यवस्थाओं को ध्वस्त कर दो। अमेरिका माल बेचकर लाभ कमाना चाहता है, जबकि चीन दुनियाँ के बाजारों में अपना माल खपाकर अपनी कम्पनियों को आगे बढ़ाना चाहता है और यह आर्थिक साम्राज्यवाद के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। परन्तु अब खेल दूसरा हो गया। क्योंकि आर्थिक साम्राज्यवाद की धारणा युद्ध आधारित साम्राज्यवाद की मनोवृत्ति में प्रवेश कर गई है और इन राष्ट्रों की बंदर घुड़कियों के माहौल से निकलकर वास्तविक युद्ध परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं। परन्तु दोनों ही देश यह जानते हैं कि अगर प्रत्यक्ष युद्ध में शामिल होना पड़ा तो इन दोनों ही राष्ट्रों का संसार में सबसे प्रमुख बने रहने का सपना खण्डित हो जायेगा और वह राष्ट्र कभी उठ नहीं पायेगा। उनकी स्थिति ब्रिटेन जैसी हो जागी। जिसके राष्ट्र का सूरज कभी अस्त नहीं होता था, आज वह बहुत पिछड़ गया है।

क्या विश्व युद्ध होगा?

चीन विश्व युद्ध छेड़ने की स्थिति में नहीं है। कर्क लग्न वाले चीन की जन्म पत्रिका में इस समय वक्री शनि सप्तम भाव में  हैं, जो कि वक्री होने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय जनमत उसके विरुद्ध कर देंगे। यही शनि जनवरी 2023 के बाद कुम्भ राशि में आ जायेंगे जहाँ वे करीब सवा दो वर्ष रुकेंगे। यह शनि चीन में बर्बादी के रास्ते खोलेंगे और शासन के विरुद्ध एक विद्रोह की भी सम्भावना है। उधर अमेरिका की जन्म पत्रिका में शनि इस समय छठे भाव में चल रहे हैं, वक्री हैं और शत्रुओं के विरुद्ध आक्रामक रूख बनाये हुए हैं। जनवरी के बाद यही शनि कुम्भ राशि में आ जायेंगे, जो कि अमेरिका को अन्तर्राष्ट्रीय जनमत जुटाने में मदद करेंगे। तब तक यूक्रेन युद्ध का पटाक्षेप हो चुका होगा। चूंकि अमेरिका की जन्म पत्रिका में उस समय आठवें भाव में शनि नहीं होंगे, इसलिए चीन के मुकाबले अमेरिका की स्थिति ज्यादा अच्छी रहेगी। मीन राशि के बृहस्पति इस समय चीन की मदद कर रहे हैं परन्तु अप्रैल 2023 के बाद मेष के बृहस्पति अमेरिका की ज्यादा मदद करेंगे।

 

इस समय की ग्रह स्थितियाँ बड़ी विचित्र चल रही हैं। जगत लग्न में मंगल पिछले 8 महीने से तनाव और युद्ध का माहौल बनाये हुए थे। परन्तु आज ही वे अपनी मेष राशि को छोड़कर वृषभ राशि में आ गये हैं और उतने उग्र नहीं रह जाएंगे। दूसरी तरफ शनि और गुरु जब एक साथ वक्री होते हैं तब इतिहास बनाने वाली घटनाएँ जन्म लेती हैं। अगले कुछ महीनों तक ये दोनों ग्रह एक साथ वक्री रहेंगे और प्रत्यक्ष युद्ध की परिस्थितियाँ व बंदर घुड़कियों का दौर भी चलता रहेगा। जगत लग्न की जन्म पत्रिका में चारों केन्द्र ग्रहों से भरे हुए हैं। इसीलिए भी मेदिनी ज्योतिष के अनुसार यह महा तनाव का समय है। व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए भी यह समय अमेरिका और चीन दोनों के विरुद्ध है। चीन का माल बिकना कम हो रहा है और अमेरिका का माल उधार में ज्यादा बिक रहा है। भला सोचिये यूक्रेन अगले पच्चीस साल में भी उधारी नहीं चुका पायेगा। उधर चीन ने रूस का दूर रहकर तो साथ दिया परन्तु अपने सैनिक युद्ध में नहीं उतारे। अगर चीन का ताइवान को लेकर युद्ध होता है तो रूस अपने सैनिक क्यों उतारेगा? और रूस तो अपने प्राकृतिक संसाधनों के कारण मैदान में डटा हुआ है, चीन ऐसा नहीं कर पाएगा। इस समय ताइवान युद्ध में चीन के विरुद्ध भारत के प्रत्यक्ष सहयोग की सम्भावनाएँ सबसे ज्यादा है और अमेरिका को न केवल भारत, बल्कि ऑस्टे्रलिया, जापान और कोरिया की भरपूर मदद रहेगी। ये सारे ही देश चीन के सैनिक और आर्थिक साम्राज्यवाद के घोर विरोधी हैं।

जो देश केवल मनोवैज्ञानिक घुड़कियाँ देता है और हमेशा ही पडौसी देशों को डराने वाली भूमिका में रहता है, वह विश्व युद्ध छेड़ने की हिम्मत नहीं करेगा। जो बात मनोवैज्ञानिक आधार पर कही जा सकता है, इन देशों की जन्म पत्रिकाएँ भी इस बात का समर्थन करती हैं। इसलिए ज्योतिष के आधार पर यह कहना उचित होगा, कि चूंकि चीन का विपरीत समय है और इस बात को चीन समझ भी रहा है, इसलिए विश्व युद्ध की परिस्थितियाँ टल जाएंगी। यह भी भविष्यवाणी की जा सकती है कि अगले दो साल के अन्दर चीन की अन्दरूनी परिस्थतियाँ बहुत विकट हो जाएंगी और चीन का सारा ध्यान अन्तर्राष्ट्रीय उपद्रवों के बजाय अपनी ही समस्याओं को हल करने में केन्दि्रत हो जाएगा। मैं इस बात का भी खण्डन करता हूँ कि चीन विश्व की सबसे प्रमुख अर्थव्यवस्था बन जाएगी। ग्रहों की गणना कम से कम अगले तीन वर्ष तक उसके विपरीत है।

 

सामुद्रिक शास्त्र

सामुद्रिक शास्त्र की रचना शिवजी के दूसरे पुत्र स्वामी कार्तिकेय या स्कन्द के द्वारा की गई है। स्कन्द को देवताओं का सेनापति भी माना गया है। इसीलिए ज्योतिष में मंगल ग्रह के समाधान के लिए स्कन्द की आराधना बताई गई है।

सामुद्रिक शास्त्र की उत्पत्ति की कथा बड़ी रोचक है। शिवजी के पुत्र कार्तिकेय ने स्त्री और पुरुषों के शुभ और अशुभ लक्षण  तथा शरीर पर निशान, चिह्न या रेखाओं पर आधारित कुछ भविष्य कथनों की रचना की। गणेशजी ने उनके इस काम में विघ्र उपस्थित किया। सम्भवतः इसीलिए गणेश जी को विघ्नकर्ता कहा जाता है। कथानक यह है कि कार्तिकेय ने गणेशजी का दाँत उखाड़ लिया। यद्यपि दाँत उखाड़ने से सम्बन्धित किस्से और भी हैं। शिवजी के आक्षेप करने पर कार्तिकेय ने गणेशजी की शिकायत की और कहा कि मैंने पुरुष लक्षणों की तो रचना कर दी परन्तु गणेशजी ने स्त्री लक्षणों की रचना नहीं करने दी। शिवजी के पूछने पर कार्तिकेय ने शिवजी का भी एक अंग लक्षण बता दिया कि आप कपाली के नाम से प्रसिद्ध होंगे। इस पर शिवजी ने क्रोधित होकर कार्तिकेय की रचना को समुद्र में फेंक दिया। बाद में कभी जब स्वयं समुद्र उस रचना को लेकर शिवजी के पास आये तो शिव जी प्रसन्न हुए और समुद्र को आदेश दिया कि तुम स्त्री लक्षणों के बारे में भी लिखो और यह शास्त्र तुम्हारे नाम से ही प्रसिद्ध होगा। तब से इस शास्त्र का नाम सामुद्रिक शास्त्र पड़ा। शंकर जी ने कार्तिकेय से कहा कि तुम गणेश जी का दाँत वापिस लगा दो। किसी किसी जगह यह भी कथन मिलता है कि गणेश जी ने ही उस रचना को समुद्र में फेंक दिया था।

सामुद्रिक शास्त्र में स्त्री और पुरुषों के अंग लक्षण, वास्तुशास्त्र, मुखाकृति, पाँवों की रेखाएँ, स्वप्र और शकुन को भी शामिल किया गया है।

 

रक्षा बंधन

ज्योति शर्मा

श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन का त्यौहार मनाया जाता है। रक्षा+बंधन अर्थात् रक्षा का वचन लेना। रक्षाबंधन प्राचीन काल से ही प्रचलित है। शास्त्रों में कई पौराणिक उल्लेख मिलते हैं कि भगवान विष्णु ने जब वामन अवतार लेकर राजा बली से तीन पग भूमि मांगी। राजा बली ने तीन पग भूमि देने का वचन दे दिया। भगवान विष्णु ने एक पग में सारा आकाश, दूसरे में पूरी धरती व तीसरे पग के लिए भगवान विष्णु ने कहा अब कुछ भी धरती पर शेष नहीं है, इस पर राजा बली ने अपना सिर आगे करते हुए कहा भगवान तीसरा पग मेरे सिर पर रख दें। इस पर भगवान विष्णु ने राजा बली की भक्ति से प्रसन्न होकर वचन मांगने को कहा, राजा बली ने भगवान विष्णु को अपने समीप रहने का वचन मांग लिया। इस पर देवी लक्ष्मी चिंतित हो उठीं और उन्होंने राजा बली को रक्षा सूत्र बांधकर अपना भाई बना लिया और भगवान विष्णु को अपने साथ विष्णु लोक ले आई, तभी से यह पवित्र पर्व (रक्षा बंधन) प्रारम्भ हुआ।

रक्षाबंधन वाले दिन प्रातःकाल को स्नान आदि करके सोन श्रवण बनाकर मुख्य द्वारों पर लगाए जाते हैं और उनकी पूजा करके रक्षा सूत्र व मिष्ठान अर्पित किए जाते हैं। इसके पश्चात् अपने कुल देवता की पूजा करके उन पर भी रक्षा सूत्र अर्पित किया जाता है। इस दिन सभी स्ति्रयाँ जब तक अपने भाई को रक्षा सूत्र नहीं बांधती तब तक वह अन्न ग्रहण नहीं करती है।

इस दिन अधिकतर भद्रा होती है। भद्रा का त्याग करके ही भाइयों की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधना चाहिए। सर्वप्रथम भाई के दाहिने हाथ में अक्षत देकर तिलक लगाकर रक्षा सूत्र बांधते हैं और निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।

येन बद्धो बली राजा, दानवेन्द्रो महाबलः।

तेन त्वां मनुबध्नामि रक्षे माचल माचल।।

इसके पश्चात् श्रीफल भेंट करते हुए भाई की लम्बी आयु व सुख-समृद्धि की प्रार्थना ईश्वर से करनी चाहिए और बहन को भाई से अपनी रक्षा का वचन लेना चाहिए।

भद्रायां द्वे न कर्त्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा।

शास्त्रानुसार रक्षाबंधन भद्राकाल में नहीं किया जा सकता। मुहूर्त्त चिंतामणिकार के अनुसार यदि रक्षाबंधन के दिन भद्रा होने की स्थिति में सूर्यास्त के बाद प्रदोषकाल में करना चाहिए अर्थात् सूर्यास्त के बाद ही रक्षा बंधन का त्यौहार मनाया जाना चाहिए।

 

हिमालय का शिवलिंग शिखर

वीरेन्द्र नाथ भार्गव

भारतीय संस्कृति में हिमालय पर्वत और गंगा नदी का अभिन्न स्थान है। हिमालय प्राचीन काल से ही ऋषि मुनियों, योगियों, तपस्वियों का साधना क्षेत्र रहा है। हिमालय को धार्मिक परम्परा के अनुसार महादेव शिव और महादेवी पार्वती का घर माना जाता है। पौराणिक गाथाओं के अनुसार अंतरिक्ष से गंगा नदी का वेगवान अवतरण सर्वप्रथम, महादेव शिवजी के मस्तक पर हुआ था जहाँ शिवजी की जटाओं में गंगा का वेग कम हुआ और उस कम वेगवान गंगा ने धरती का स्पर्श किया। इस पौराणिक गाथा के आध्यात्मिक स्वरूप की भौतिक अभिव्यक्ति के अनुसार उत्तराखंड राज्य के चार विख्यात हिमालयी धामों में से एक धाम गंगोत्री (गौमुख क्षेत्र) को गंगा का उद्गम माना जाता रहा है। हिमालय के अनेक विशाल शिखरों (चोटियों) का नामकरण महादेव शिवजी के नाम पर है जो क्रमशः आदि कैलाश (ओम्) पर्वत, कैलाश पर्वत (तिब्बत), नीलकंठ पर्वत और शिवलिंग पर्वत इत्यादि हैं। एक सहज जिज्ञासा होती है कि शिवजी तो एक थे और उनके नाम पर कम से कम चार अलग-अलग शिखर हैं तब गंगा नदी का अंतरिक्ष से अवतरण इनमें से किस शिखर विशेष पर हुआ माना जाए? ऐसा ही एक संभावित नामकरण और गंगावतरण के प्रसंग से जुड़ा समाधान शिवलिंग से जुड़ा प्रतीत होता है। उसका संक्षेप यहाँ प्रस्तुत है। यथा -

उत्तराखंड राज्य के उत्तर काशी जनपद में यमुना और गंगा नदी के उद्गम पर स्थित प्रसिद्ध धाम यमुनोत्री और गंगोत्री हैं। उत्तरकाशी नगर के विख्यात शिव मंदिर की आध्यात्मिक महत्ता स्कंदपुराण के केदार खंड में व्यक्त है। शिव मंदिर परिसर में रोपा गया विशाल त्रिशूल पौराणिक परम्परा की पुष्टि करता है। उत्तरकाशी से गंगोत्री तक के 100 कि.मी. लंबे गंगातट के सहारे मार्ग के मध्य अनेक छोटे बड़े धार्मिक आस्था से जुड़े स्थल हैं। यथा गगंनानी नामक स्थान पर गरम पानी का स्त्रोत व कुंड है जहाँ श्रद्धालु स्नान, तर्पण व मनौतियाँ मानते हैं। गगंनानी से आगे हरसिल नामक स्थान है जो प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर व मीठे सेवफल के लिए प्रसिद्ध है। गंगोत्री मार्ग पर आगे दर्शनीय सात ताल (सात झीलों का समूह) है, आगे भैरों घाटी पड़ती है जहाँ श्रद्धालु भैरव मंदिर में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। इस घाटी से बहुत ऊँचे शिखर, बहुत गहरी घाटियाँ और घने विशाल देवदार वृक्षों को देखा जा सकता है। गंगोत्री धाम समुद्र तल से 10,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है जो परम पावन, रमणीक शांतिदायक स्थान है। यहाँ लगभग 1200 वर्ष पूर्व आदि शंकराचार्य ने गंगामाता का मंदिर सर्वप्रथम बनवाया था। कालांतर 18वीं शती में एक गोरखा सेनानी अमरसिंह थापा ने मंदिर बनवाया और उसके उपरांत जयपुर के महाराजा ने मंदिर बनवाया। नवंबर तक यह स्थान भारी हिमपात से पूरा हिमाच्छादित हो जाता है और गंगा माता की प्रतिमा को 35 कि.मी. पीछे अपेक्षाकृत नीचे के सुरक्षित स्थान पर लाया जाता है और अनवरत पूजा होती है। शीतऋतु की कठोर शीत में भी अनेक साधु व तपस्वी गंगोत्री में अपना निवास बनाए रखते हैं। गंगोत्री के निकट गौरीकुंड, केदारकुंड और पटांगनी नामक दर्शनीय स्थल हैं। गंगोत्री से गंगा का उद्गम स्थल गौमुख तक नियमित मार्ग नहीं है अतः बहुत सीमित संख्या में यात्री वहाँ तक की यात्रा करते हैं। मार्ग में 14 कि.मी. आगे भोजबासा नामक विश्राम स्थल पड़ता है। गौमुख से 6 कि.मी. आगे नन्दनवन-तपोवन हैं। ये दोनों स्थान गौमुख के सामने पड़ते हैं जहाँ से शिवलिंग शिखर की अनुपम छटा स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। पर्वतारोहियों के लिए ये स्थान आधार शिविर का काम करते हैं जहाँ से भागीरथी, शिवलिंग, मेरु, केदारडोम, सतोपंथ, कालिंदीखाल व अन्य शिखरों की चढ़ाई की जाती है। गौमुख के समीप शिवलिंग पर्वत के नामकरण से स्वतः संकेत है कि पूर्वकाल में ऋषियों ने अंतरिक्ष से उतरी गंगा का धरती पर स्पर्श का स्थल शिवलिंग पर्वत को चयनित और नामांकित किया। संभव है भविष्य में कैलाश मानसरोवर परिक्रमा के समान पवित्र शिवलिंग पर्वत परिक्रमा की परिपाटी आरंभ हो जाए।