प्राचीन ऋषि श्रेष्ठ वैज्ञानिक भी थे

पं. सतीश शर्मा

प्राचीन भारतीय ऋषि अपने समय के श्रेष्ठ वैज्ञानिक थे। उनके बहुत सारे शोध कार्य उच्च कोटि के थे परन्तु बाद में उन शोध कार्यों को आगे बढ़ाने की परिस्थितियाँ नहीं रही और उन शोध कार्यों का श्रेय बहुत सारे पाश्चात्य वैज्ञानिक ले गये। कई अंग्रेज वैज्ञानिकों ने प्राचीन भारतीयों के किये गये कार्यों का उपहास भी उड़ाया तो बहुत सारे लोगों ने प्राचीन ग्रन्थों को पढ़-पढ़ कर, उनके सूत्रों को समझ करके अपनी स्थापनाएँ दी। भारतीय ज्ञान की चोरी करके भी वे प्रसिद्ध हो गये। ऐसे कुछ उदाहरण मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ।

विद्युत - रामायण कालीन महर्षि अगस्त्य ने अगस्त्य संहिता का रचना की, जिसमें विद्युत उत्पादन की विधियाँ दी गई हैं।

संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्।

छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभिः काष्ठापांसुभिः॥

दस्तालोष्टो निधात्वयः पारदाच्छादितस्ततः।

संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्॥

अर्थात् एक मिट्टी के बर्तन में तांबे की पट्टी डालें तथा कॉपर सल्फेट डालें, फिर बीच में गीली लकड़ी का बुरादा लगायें, फिर ताँबा व जस्ता डालें तथा तारों को मिलाएँगे तो विद्युत उत्पादन होगा।

इस श्लोक को पढ़कर ही थॉमस एडिसन ने बिजली का आविष्कार किया था। ऐसा उन्होंने स्वीकार भी किया है।

परमाणु सिद्धान्त -  परमाणु बम  के आविष्कार का श्रेय रॉबर्ट ओपन हाइमर को दिया जाता है। परन्तु परमाणु सिद्धान्त का जनक डॉल्टन को माना जाता है। परन्तु इन सबसे हजारों वर्ष पहले महर्षि कणाद ने परमाणु सिद्धान्त का आविष्कार किया था। वैदिक ऋषि कणाद ने वह प्रसिद्ध सूत्र लिखे जिसमें उन्होंने स्थापित किया था कि द्रव्य में बहुत छोटे-छोटे परमाणु होते हैं।

विमान शास्त्र - महर्षि भारद्वाज ने विमानों के निर्माण, रख-रखाव और उपयोग को लेकर शास्त्र लिखा है। राइट बन्धुओं ने तो अब आविष्कार किया परन्तु उनसे ढाई हजार वर्ष पूर्व ऋषि भारद्वाज ने यात्री विमान, युद्धक विमान, एक ग्रह से दूसरे ग्रह जाने वाले विमान और विमान को अदृश्य करने की तकनीक पर भी लिखा है।

ज्योमैट्री, ट्रिग्रोमैट्री या शुल्व शास्त्र - ऋषि बौधायन ने ईसा से आठ सौ वर्ष पहले रेखागणित, ज्यामिति, त्रिकोणमिति या गणित के बहुत सारे सूत्र दिये थे। पाइथोगोरस वगैहरा तो बाद की रचना है।

गुरुत्वाकर्षण बल - भाष्कराचार्य ने, जिसका काल न्यूटन से भी पाँच सौ वर्ष पहले का है, गुरुत्वाकर्षण के विषय में जान लिया था। जिसका उल्लेख उन्होंने सिद्धान्त शिरोमणि ग्रन्थ में किया है। उन्होंने भी कर्ण कुतूहल ग्रन्थ की रचना की, जिसमें गणित और खगोल विज्ञान के सम्बन्ध को बताया गया है। उन्होंने ही ग्रहण के कारण बताये थे।

शल्य चिकित्सा - आज से 26 सौ वर्ष पहले महर्षि सुश्रुत ने मोतिया बिन्द, अंग प्रत्यारोपण, पथरी का इलाज और प्लास्टिक सर्जरी जैसी पद्धतियों का विकास किया और बहुत सारे शल्य उपकरणों का वर्णन भी किया है। उन्होंने उपकरणों को उबाल कर उन्हें बैक्टीरिया रहित बनाने की विधि भी विकसित की।

स्वर्ण निर्माण - नागार्जुन उच्च कोटि के रसायन शास्त्री थे तथा उन्होंने कक्षपुट, आरोग्य मंजरी, योगसार और योगाष्टक जैसे ग्रन्थ लिखे। उन्होंने पारे के बहुत सारे संस्कार करके उससे सोना बनाने की विधि प्रतिपादित की। आज हम जानते हैं कि पारे और सोने के परमाणु भार में केवल एक परमाणु का अन्तर है, परन्तु नागार्जुन को यह पहले ही पता लग गया था। छोटे स्तर पर यह विधि खर्चीली थी परन्तु उस समय सोने का भी अभाव था।

पृथ्वी का केन्द्र - प्राचीन भारतीय ज्योतिषी उज्जैन को पृथ्वी का केन्द्र मानते थे और वहीं से समस्त ज्योतिष गणनाएँ प्रारम्भ हुई तथा लंकोदय जैसे शब्द अस्तित्व में आए। इसमें लंका शब्द का प्रयोग है। कई वैज्ञानिक अन्वेषण उज्जैन को लेकर सफल रहे हैं। आधुनिक काल में ग्रीनविच को पृथ्वी का कल्पित केन्द्र माना गया है परन्तु उसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला नियम लागू हुआ है।

राहु-केतु की गणना - राहु और केतु को ग्रह की संज्ञा दी गई है। परन्तु इनका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है। प्राचीन ऋषियों ने न केवल राहु-केतु की गति का ज्ञान किया, बल्कि उन्हें सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण का कारण भी माना गया। ग्रहण अवधि की भविष्यवाणी के कारण लोग पंचांग का विश्वास करने लगे।

धातु विज्ञान - नागार्जुन ने ही रसरत्नाकर नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें सोना, चाँदी, ताँबा जैसी धातुओं को शुद्ध करने की विधियाँ बताईं। इन विधियों से धातुओं के अयस्कों से धातु निर्माण किया जाता था। इन विधियों का लाभ उठाकर ही दिल्ली के लौह स्तम्भ जैसी रचनाएँ बनाई गई। ढाई हजार वर्ष बाद भी यह लौह स्तम्भ सुरक्षित है और जंग भी नहीं लगी है।

शून्य का आविष्कार - ब्रह्मगुप्त, भाष्कराचार्य और आर्यभट्ट ने गणित के शून्य पर बहुत कार्य किया। दशमलव प्रणाली का आविष्कार तो आर्यभट्ट ने किया। हालांकि कुछ भारतीय यह दावा भी करते हैं कि शून्य का प्रयोग बहुत पहले से होता रहा है।

स्पेक्ट्रम - प्रिज्म का आविष्कार बहुत आधुनिक है, जिससे सूर्य किरणों के सात रंग तलाश किये गये। परन्तु वैदिक रचनाकाल में ही सप्तरश्मि तथा सप्ताश्व जैसे शब्द प्रयोग में आ गये थे। हम जानते हैं कि चित्तौड़ राज घराने का राज्य चिह्न सात घोड़ों से युत रथ पर भगवान सूर्य का आरुढ़ होना है, अर्थात् ऋषियों को यह मालूम था कि सूर्य वर्णक्रम में सात रंग है।

 

शनि का उपाय, नीलम ही नहीं बिच्छू बूटी भी

ऋषियों ने ज्योतिष के उपायों में मंत्र-मणि और औषधि की प्रस्तावना की है। शनि का मंत्र आप जानते ही हैं, वे इस प्रकार हैं-

1.            ॐ शं शनैश्चराय नमः

2.            ॐ शमाग्निभिः करच्छन्नः स्तपंत सूर्य शंवातोवा त्वरपा अपास्निधाः

3.            ॐ नीलांजन समाभासम्। रविपुत्रम् यमाग्रजम्।

                छाया मार्तण्डसंभूतम। तम् नमामि शनैश्चरम्।।

4.            सूर्यपुत्रो दीर्घेदेही विशालाक्षः शिवप्रियः द

                मंदचार प्रसन्नात्मा पीडां हरतु मे शनिः

5.            नमस्ते कोणसंथाचं पिंगलाय नमो एक स्तुते

                नमस्ते बभू्ररूपाय कृष्णाय च नमो ए स्तुत

                नमस्ते रौद्रदेहाय नमस्ते चांतकाय च

                नमस्ते यमसंज्ञाय नमस्ते सौरये विभो

                नमस्ते मंदसज्ञाय शनैश्चर नमो ए स्तुते

                प्रसाद कुरू देवेश दिनस्य प्रणतस्य च

                कोषस्थह्म पिंगलो बभू्रकृष्णौ रौदोए न्तको यमः

                सौरी शनैश्चरो मंदः पिप्लदेन संस्तुतः

                एतानि दश नामामी प्रातरुत्थाय ए पठेत्

                शनैश्चरकृता पीडा न कदचित् भविष्यति

6.            ॐ प्रां प्रीं प्रौ सः शनैश्चराय नमः

शनि के उपाय के रूप में जब मंत्र अनुष्ठान करते हैं, तो यज्ञ समिधा में शमी (खेजड़ी) वृक्ष की काष्ठ का प्रयोग करते हैं। परन्तु परम्परा में शनि के उपाय के रूप में यदि नीलम प्रयोग ना लिया जा सके तो बिच्छू बूटी की जड़ धारण करने की सलाह दी जाती है। बिच्छू बूटी की केवल जड़ ही नहीं, बल्कि पौधे का हर भाग गुणकारी होता है। पेट की समस्याएँ, मधुमेह, कैंसर, महिलाओं के श्वेत व रक्त प्रदर तथा पुरुषों के प्रोस्टेट की सूजन का उपाय बिच्छू बूटी से किया जाता है।

अंग्रेजी में नेटल लीफ के नाम से प्रसिद्ध बिच्छू बूटी इसलिए भी प्रसिद्ध है कि इसका पौधा डंक मार देता है। पत्तियाँ चुभ जाती हैं, इसका तेल यदि त्वचा पर लग जाये तो त्वचा में जलन फैल जाती है। इसका वानस्पतिक नाम अर्पिका डाइओका है। यह हृदय के लिए भी, टॉक्सीफिकेशन के लिए, प्रेग्नेंसी में सहायक, महिलाओं की मासिक धर्म की अनियमितताओं को दूर करने में सहायक, यूरिनरी ट्रैक  इंन्फेक्शन के लिए अच्छी दवा है। पुरुषों में प्रोस्टेट कैन्सर को यदि रोकना है गोखरू और बिच्छू बूटी का प्रयोग बहुतायात से किया जाता है। यह दोनों पुरुष नपुंसकता के इलाज के लिए भी श्रेष्ठ हैं।

आमतौर से शनिदेव को स्नायुतंत्र और वात-विकारों के लिए उत्तरादायी ठहराया जाता है। परन्तु मनोवैज्ञानिक नपुंसकता तथा नाड़ी शैथिल्य के लिए भी शनि को उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। यह आश्चर्यजनक है कि महिलाओं के यूटरस में इंफेक्शन व कैंसर तथा पुरुषों में प्रोस्टेट की सूजन और उससे जुड़े कैंसर निर्माण, दोनों का ही उपाय बिच्छू बूटी है। यद्यपि पुरुषों को गोखरू, अश्वगंधा, क्रौंच, मुसली, शतावरी आदि का प्रयोग करने की भी सलाह दी जाती है।

ज्योतिष में प्रयोग -

किसी भी शुक्ल पक्ष के शनिवार को यदि पुष्य नक्षत्र भी पड़ जाये तो बिच्छू बूटी की जड़ को उखाड़ कर ले आना चाहिए और चाँदी के ताबीज में धारण करके शनि मंत्र से अभिमंत्रित कर लेना चाहिए। अगर चाँदी के ताबीज में धारण ना कर सकें तो सीधे ही धारण कर लेना चाहिए। याद रहे इसकी पत्तियाँ नुकीली होती हैं और उन्हें सीधा छू लिया तो त्वचा में चुभने पर बिच्छू के डंक जैसी जलन होती है। परन्तु यह बात पत्तियों के साथ है जड़ों के साथ नहीं।

 

आयुवृद्धि और कायाकल्प

वीरेन्द्र नाथ भार्गव

मानव सभ्यता के इतिहास में अमर होने की आकांक्षा सदैव से रही है। वैदिक संस्कृति में भी मृत्योर्मा अमृतम् गमय का उद्बोधन पाया जाता है। असुर संस्कृति में भी अनेक असुर राजाओं ने घोर तप करके अमर हो जाने अथवा उसके समकक्ष हो जाने के ब्रह्माजी अथवा शिवजी से वरदान प्राप्त किए थे। पौराणिक साहित्य में वृद्ध च्यवन ऋषि द्वारा पुनः यौवन प्राप्त करना, राजा ययाति  द्वारा अपने पुत्र पुरु से उसका यौवन प्राप्त करना, सत्यवान-सावित्री की गाथा के अनुसार सत्यवान की आयु बढ़ाया जाना और आदि शंकराचार्य की आयु का दोगुना होकर बत्तीस वर्ष की हो जाना इत्यादि आख्यान देखने या पढ़ने को मिलते हैं। आधुनिक वैज्ञानिक भी इसी दिशा में चेष्टारत हैं कि स्टेमसैल तकनीक (कोशिका विकास तकनीक) द्वारा अमरता प्राप्त करने के स्वप्न को पूरा किया जाए। किन्तु प्रकृति में मृत्यु का विधान अटल है जिसके लिए महाभारत के यक्ष प्रसंग में यक्ष के अंतिम प्रश्न का उत्तर युधिष्ठिर द्वारा इस प्रकार दिया गया था।

प्रश्न : किं आश्चर्यम् ? अर्थात् संसार में आश्चर्य क्या है?

उत्तर : प्रतिदिन प्राणी यमराज द्वारा उठाया जा रहा है (मृत्यु को प्राप्त होता है) फिर भी जो जीवित हैं वे इस प्रकार हैं कि जैसे वे धरती पर सदैव के लिए रहेंगे अतः प्राकृतिक आयु से यदि वही उच्चतम उद्देश्य प्राप्त करना सहज है तो आयुवृद्धि करके उससे आगे का उच्चतम क्या हो सकता है? इस प्रसंग का एक सुंदर विवेचन रामाश्रम सत्संग (मथुरा) के प्रवर्तक डॉ. चतुर्भुज सहाय ने किया है। उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर कायाकल्प की उपयोगिता पर जानकारी प्रकाशित की है। उनके अनुसार कायाकल्प, काया (शरीर) को नया बना लेना और बुढ़ापा दूर करके युवा बन जाने के अर्थों में प्रयुक्त होता है किंतु यदि पथ्य में कोई चूक रह जाए अथवा कायाकल्प की प्रक्रिया अवधि में कोई मानसिक विकार उत्तेजित हो जाए तो लाभ होने के स्थान पर हानि हो जाती है। ऐसे विघ्नों से प्रयोग विफल हो जाता है और प्रयोगकर्त्ता कुष्ठादि रोगों से ग्रस्त हो जाता है। कभी-कभी विफल प्रयोग के कारण प्राण भी निकल जाते हैं।

डॉ. सहाय ने कायाकल्प के नुस्खे, क्रिया तथा विधियों का वर्णन करते हुए कहा है कि आध्यात्मिक उन्नति में कायाकल्प का कोई विशेष योगदान नहीं होता। केवल इतना ही योगदान है कि स्वस्थ शरीर से यौगिक क्रियाएं, भजन, पूजन इत्यादि अच्छी प्रकार से किए जा सकते हंै। कायाकल्प तो स्थूल देह की होती है किन्तु सूक्ष्म और कारण शरीर में मिथ्याभिमान जैसे भयंकर रोग लग जाते हैं। कायाकल्प का रिवाज अधिकतर योगियों में पाया जाता है किन्तु संत और भक्ति सम्प्रदाय वाले इस ओर से उदासीन रहते हैं।

कायाकल्प दो प्रकार से किया जाता है। एक औषधियों द्वारा, दूसरा क्रियाओं द्वारा। इनके भी आगे दो भेद और होते हैं यथा कुटी प्रवेशिका और वात तापिक विधि। कुटी प्रवेशिका की प्रक्रिया चालीस दिन, छह मास अथवा एक वर्षपर्यन्त अंधेरी कोठरी में रहकर वायु के झोंकों से रहित वातावरण में केवल दूध और चावल के उपयोग द्वारा सम्पन्न की जाती है। मल-मूत्र का त्याग भी अंधेरे वातावरण में किया जाता है। प्रायः उत्तरायण सूर्य के समय शुक्ल पक्ष की तिथि में इस प्रक्रिया में प्रवेश कर प्रथम दूध और घी को पीकर शरीर का शोधन किया जाता है। तत्पश्चात् औषधि का प्रयोग किया जाता है।

कायाकल्प की औषधियां दो प्रकार की मानी जाती हैं। उनमें से एक रसादिक श्रेणी की होती हैं जिनमें पारा, हरताल और संखिया का सेवन किया जाता है। विशेष औषधियों के अंतर्गत सोमलता, लक्ष्मणबूटी, संजीवनी बूटी और रुद्रवन्ती इत्यादि हैं। साधारण कायाकल्प औषधियों में सूर्यकान्ता, ब्राह्मी, इन्द्रायण, भिलावा, आंवला, सर्पबूटी, अजश्रृंगी और पद्मा इत्यादि हैं लेकिन परम संत डॉ. सहाय ने परामर्श व्यक्त किया है कि कायाकल्प की बातों के चक्कर में पड़ना जीवन नष्ट करना ही है अपितु परमात्मा का हर समय हृदय में ध्यान रखना तथा उसी की इच्छा पर अपना जीवनयापन करना चाहिए। यही धर्म है, यही कर्त्तव्य है और इसी में प्राणी की भलाई निहित है।

 

माला में 108 मनका ही क्यों?

ज्योति शर्मा

प्राचीन काल से ही जप करना, पूजा, उपासना आदि एक अभिन्न अंग रहा है। जप करने के लिए माला का प्रयोग किया जाता है। मालाएं विभिन्न प्रकार की होती हैं जैसे - रुद्राक्ष, तुलसी, वैजयन्ती, स्फटिक, कमल कट्टा आदि। हिन्दू धर्म में अधिकांश माला 108 मनकों की ही होती है। हर एक अंक जो कि धर्म से जुड़ा हुआ है उसके पीछे हमारे प्राचीन ऋषियों की गहन सोच थी साथ ही हर अंक के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक कारण भी जुड़ा हुआ है। अधिकांश लोगों के मन में यह सवाल उठता है कि माला में 108 मनकों का क्या महत्व होता है? ऐसी ही कुछ मान्यताओं के बारे में हम धार्मिक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चर्चा करेंगे -

24 घंटों में एक व्यक्ति 21,600 बार सांस लेता है। चूंकि व्यक्ति 12 घंटों में वह 10,800 बार सांस का प्रयोग अपने इष्टदेव का स्मरण करने में करना चाहिए परंतु यह सम्भव नहीं है, इसलिए आखिरी के दो शून्य हटा दिए हैं जिससे कि वह व्यक्ति 108 सांसों में ही प्रभु का स्मरण कर सकें।

दूसरी मान्यता सूर्य पर आधारित है। एक वर्ष में सूर्य 21,6000 कलाएं बदलते हैं अर्थात् सूर्य हर 6 महीने में उत्तरायण और 6 महीने दक्षिणायन रहते हैं। इस प्रकार 6 महीने की कुल कलाएं 108000 होती हैं। अंतिम 3 शून्य हटाने पर 108 अंकों की संख्या मिलती है और माला के एक-एक मनका सूर्य की एक-एक कलाओं का प्रतीक माना गया है।

तीसरी मान्यता ज्योतिष शास्त्र के अनुसार समस्त ब्रह्माण्ड 12 भावों पर आधारित है। इन 12 भागों को 12 राशि की संज्ञा दी गई है। ज्योतिष में प्रमुख रूप से नवग्रहों का उल्लेख मिलता है। इस तरह 12 राशि व 9 ग्रहों का गुणनफल करने पर 108 संख्या प्राप्त होती है। यह संख्या सम्पूर्ण विश्व का प्रतिनिधित्व करने वाली सिद्ध हुई है।

चतुर्थ मान्यता भारतीय ज्योतिष के अनुसार 27 नक्षत्रों के आधार पर है कि प्रत्येक नक्षत्र को 4-4 चरणों में बांटा गया है। अतः 27 x 4 = 108 चरण प्राप्त होते हैं जो कि सबसे पवित्र माने गए हैं। हिन्दू धर्म में श्री108 लगाकर धर्माचार्य, जगत् गुरुओं को संबोधित करके उनका सम्मान किया जाता है।

शिव पुराण में रुद्राक्ष की माला से जप करना सर्वश्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि इसमें कीटाणु नाशक शक्ति के अलावा विद्युतीय और चुम्बकीय शक्ति भी पायी जाती है। मंत्र जप को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है परंतु संख्याहीन जप निष्फल बताए गए हैं। अलग-अलग मंत्र जाप के लिए अलग-अलग मालाओं का प्रयोग किया जाता है।

तुलसी पौधा हिन्दू संस्कृति में अत्यन्त शुभ बताया गया है। अपनी प्रबल विद्युत शक्ति के कारण तुलसी की माला धारण करने से शरीर की विद्युत शक्ति नष्ट नहीं होती और व्यक्ति हमेशा ऊर्जावान बना रहता है। माला में तुलसी की गंध व स्पर्श से ज्वर, सिर दर्द, चर्म रोग, रक्त दोष आदि रोगों से लाभ मिलता है और संक्रामक बीमारी तथा अकाल मृत्यु नहीं होती है। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि तुलसी माला धारण करने से व्यक्ति सभी अनिष्टों से दूर रहता है।

शालिग्राम पुराण में कहा है -

तुलसीमालिकां धृत्वा यो भुक्ते गिरिनंदिनी। सिक्थेसिक्थे स लभते वाजपेयफलाधिकम्।।

स्नानकाले तु यस्यांगे दृश्यते तुलसी शुभा। गंगादिसर्वतीर्थेषु स्नातं तेन न संशयः।।

अर्थात् तुलसी की माला भोजन करते समय शरीर पर होने से अनेक यज्ञों का फल मिलता है। तुलसी की माला जो कोई व्यक्ति धारण करके स्नान करता है उसे गंगा आदि समस्त पुण्यसारिताओं के स्नान किया हुआ समझना चाहिए।