अब तुला में हैं सूर्य - घटना प्रधान महीना

पं. सतीश शर्मा

हर ग्रह की एक उच्च राशि होती है और एक नीच राशि होती है। सूर्य अब 17 अक्टूबर के बाद से अपनी नीच राशि में आ गये हैं, जहाँ वह एक महीना रूकेंगे। मेष राशि में सूर्य अपनी उच्च राशि में रहते हैं जो हर वर्ष अप्रैल मध्य से मई मध्य का समय  होता है और छह महीने बाद परिक्रमा पथ का आधा पूरा करने पर वे अपनी नीच राशि में आ जाते हैं। चातुर्मास का समापन दीपावली के 11 दिन बाद होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा तुला राशि में रहते हुए अंधकार की प्रखरता को दर्शाते हैं। एक तो सूर्य अपनी नीच राशि में और उस पर अमावस्या के चन्द्रमा। आश्चर्य कि ऋषियों ने इस दिन को इतना महत्त्व प्रदान कर दिया कि घर-घर दीपक जलाकर वर्ष के सबसे शक्तिशाली पर्व के रूप में बदल दिया। किस देश में नहीं हैं हिन्दू? सब जगह यह प्रकाश पर्व मनाया जाता है।

आषाढ़ शुक्ल एकादशी के दिन देवशयन होता है। भगवान विष्णु अपनी शेषशैय्या पर चार महीने विश्राम करते हैं और कार्तिक शुक्ला एकादशी जो कि दीपावली के 11 दिन बाद आती है, के दिन अपनी शयन अवधि पूरी करते हैं। इसी दिन तुलसी विवाह होता है तथा खाटू श्याम जी का जन्म दिन होता है।  सूर्य देव नवम्बर मध्य में अपनी वृश्चिक राशि में आएंगे, परन्तु विवाह और मुहूर्त्त इत्यादि का प्रारम्भ तुला राशि में सूर्य के रहते ही हो जाता है। यह बात अलग है कि वर्ष के श्रेष्ठ ज्योतिष और वास्तु के मुहूर्त्त तुला राशि की अपेक्षा वृश्चिक राशि के सूर्य में अधिक आते हैं। अधिक भी और सबसे शानदार मुहूर्त्त भी। इस वर्ष यद्यपि कार्तिक शुक्ला एकादशी नवम्बर प्रथम सप्ताह में ही आ जाएगी परन्तु शुक्र अस्त होने के कारण जिसे तारा डूबना भी कहते हैं, अच्छे मुहूर्त्त नवम्बर के अंतिम सप्ताह से ही मिलना शुरू होंगे।'

परन्तु इन सब धार्मिक विषयों के महत्त्व से अलग सूर्य देव शनि को वक्रत्व से मुक्त कर देंगे। 24 अक्टूबर से पहले ही 23 अक्टूबर को शनि वक्री से मार्गी हो जाएंगे और रूस-यूके्रन युद्ध और तलवार से भी पैनी धार वाले तेल युद्ध की घटनाओं की तीव्रता में बड़ा अन्तर आ जाएगा। जैसे कोई बहुत बीमार व्यक्ति अंतिम साँस से पहले अपनी चमक जरूर दिखाता है और ऐसा लगता है कि वह ठीक हो रहा है, यूरोप में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिलेगा। दोनों ही देश अपने-अपने अरमान निकालने का भयानक उपक्रम करेंगे।

                                               

उधर मेदिनी ज्योतिष में जापान की प्रभावी राशि तुला मानी गयी है। जनवरी 2023 तक शनिदेव मकर राशि में रहते हुए तुला राशि पर दृष्टिपात करेंगे। चूंकि तुला राशि ज्योतिष में शनि की उच्च राशि मानी गयी है। इसलिए तुला राशि को लाभ देंगे। लेकिन चूंकि पहले से ही सूर्य और केतु बैठे होंगे, इसलिए 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर की अवधि के बीच में तुला राशि के सूर्य जापान में कुछ ना कुछ उत्पात चाहेंगे या जापान के अन्तर्राष्ट्रीय रिश्तों में कुछ तल्खी लाएंगे। जापान को रूस से अपने रिश्तों में बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता है। ज्योतिषियों का एक बड़ा वर्ग जापान की लग्न तुला मानता है, जिसमें वक्री शनि दशम भाव में स्थित हैं। छठे भाव में बैठे मंगल और शुक्र की युति धनी बनने की भविष्यवाणी तो करती है परन्तु सूर्य से उनका सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाया। इस वर्ष जापान में आर्थिक तंगी रहेगी परन्तु अगला वर्ष जापान के लिए शानदार जाने वाला है। परन्तु यह दिवाली भी जापान की टेक्नोलॉजी के लिए अच्छी जाएगी। जापान और चीन की जन्म पत्रिकाओं में एक समानता है कि जैसे जापान की जन्म पत्रिका में लाभ के स्वामी सूर्य चौथे भाव में बैठे हैं वैसे ही कर्क लग्न की चीन की जन्म पत्रिका में लाभ भाव के स्वामी चौथे भाव में बैठे हैं। दोनों ही धन योग हैं परन्तु अपने देश की सीमाओं को लेकर सदा चिंतित रहेंगे। चूंकि तुला राशि के सूर्य  चीन की जन्म पत्रिका के चौथे भाव में दिवाली के आगे-पीछे रहेंगे, चीन के लाभ में भारी कमी आ जाएगी। कुम्भ के शनि चीन को भी बहुत ज्यादा परेशान करेंगे।

 

उधर कन्या लग्न के पाकिस्तान के लिए भी तुला राशि के सूर्य खराब परिणाम लाकर देंगे। पाकिस्तान की जन्म पत्रिका के 11वें भाव में सूर्य, शुक्र, शनि और बुध हैं, जिनमें से शुक्र और शनि अस्त हैं। जनवरी के बाद पाकिस्तान की जन्म पत्रिका के छठे भाव में जब कुम्भ के शनि आ जाएंगे तो जितना दिवाली का समय उनके लिए खराब जायेगा, उससे भी अधिक कुम्भ राशि के शनि पाकिस्तान को 2 वर्ष तक बहुत सताएंगे। कोई अन्तर्राष्ट्रीय मदद सुधार नहीं लाने वाली है और उन्हें भारी शर्तों पर कर्ज लेना पड़ेगा और कर्ज की मात्रा बढ़ती ही चली जाएगी। अन्तर्राष्ट्रीय राजनय में पाकिस्तान को मुँहकी खानी पड़ेगी और उसके लिए अन्दरूनी कलह विनाशकारी सिद्ध होगी। कोई भी आश्चर्यजनक समाचार जनवरी, 2023 से दिसम्बर 2024 के बीच में मिल सकता है। हजारों बल्कि ज्यादा नागरिकों को तथा राजनयिकों को जेल में ठँूस दिया जायेगा। सेना में भी फूट पड़ जाएगी।

विस्तार भय से अन्य देशों की जन्म पत्रिकाएँ नहीं दे रहा हूँ, परन्तु इस एक महीने में अर्थात् तुला राशि के सूर्य में कम से कम 20-25 देशों में बड़ी-बड़ी घटनाएँ आएंगी।

 

दीप प्रज्ज्वलन का ज्योतिषीय आधार

ज्योति शर्मा

दीपावली विशेषतौर पर दीप प्रज्ज्वलन का ही त्यौहार होता है जिसमें कि प्रत्येक घर में सुहागिनियों के द्वारा असंख्य दीप प्रज्ज्वलित किए जाते हैं। देखो हमारी प्रथा, कि हमारे घर की स्ति्रयां स्वयं तो अपने घर में दीप जलाती ही हंै, साथ ही लोकाचार निभाने हेतु त्यौहार की बधाई आस-पड़ौस अथवा कोई रिश्तेदार के यहां जब देने जाती हैं तो एक थाली में सजाकर कई दीपक ले जाती हंै। जिस घर में जाती हंै, वहां एक दीपक बधाई के तौर पर रख देती हैं। लोकमान्यता के अनुसार भगवान श्रीराम रावण का वध कर चौदह वर्ष के वनवास के उपरांत कार्तिक माह की अमावस्या को अयोध्या लौटे थे। इसी उपलक्ष्य में दीपावली का त्यौहार मनाया जाता है।

ज्योतिषीय दृष्टि से देखें तो हम पायेंगे कि इस समय सूर्य नारायण जो कि आत्माकारक कहे जाते हैं, वे इस समय अपनी नीच राशि तुला पर गोचर कर रहे होते हैं। सूर्य जब नीच राशि पर गोचर करते हैं तो संसार में भी अद्भुत परिवर्तन करने की ताकत वह रखते हैं। ऋषियों ने यह जान लिया था कि इस समय चंद्र, सूर्य से समुचित मात्रा में प्रकाश का ग्रहण नहीं कर पाते होंगे इसलिए भी रात्रि में दीप जलाने की प्रथा प्रारम्भ की होगी। कार्तिक मास पूरा का पूरा और उसका प्रत्येक दिन भारतीय परम्परा के अनुसार दीप प्रज्ज्वलन का होता है। भारत देश में विशेष तौर पर उत्तरी भारत में कार्तिक स्नान की परम्परा अत्यधिक व्याप्त है। इस मास में सूर्य उदय से चार घटी पूर्व शैय्या त्याग का विधान है। स्त्री व पुरुष दोनों ही, विशेष रूप से स्ति्रयां इस मास में सूर्य उदय से पूर्व स्नान करती हैं और कार्तिक मास पुराण का श्रवण करती हैं। पौराणिक कथाओं से भाव-विभोर होकर के पूरी श्रद्धा के साथ सद्गृहस्थों की गृहणियां दीप प्रज्ज्वलित करती हैं। दीपावली को अत्यधिक मात्रा में दीपक जलाने की आवश्यकता ऋषियों ने बतायी क्योंकि अमावस्या की रात्रि होती है जो घोर अंधकार से व्याप्त होती है। चंद्र दर्शन के अभाव से भी यह और अंधियारी हो जाती है। एक तो पूरे में मास ही सूर्य के नीच राशि में गोचर के कारण प्रकाश की विशेष कमी होना, उसमें भी यदि अमावस्या तिथि हो तो प्रकाश की कमी की कल्पना ही की जा सकती है। ऐसे में प्रकृति से संतुलन बनाए रखने के लिए विशेष प्रकाश शक्ति प्राप्त करने हेतु अत्यधिक मात्रा में दीप जलाये जाते हैं। शायद दीपावली के इस पर्व को मनाने व इसमें अत्यधिक दीपक जलाने, रोशनी करने, फूलझड़ी, पटाखे जलाने के पीछे रहस्य यही रहा होगा। दीप प्रज्ज्वलन को मात्र एक परम्परा या रूढ़ि मानकर के नहीं औषधीय रूप में भी लेना चाहिए और अपने-अपने परिवार व इस जगत के कल्याण व सुख-समृद्धि हेतु अवश्यमेव पूरी श्रद्धा के साथ इस त्यौहार को सविधि मनाकर दीप प्रज्ज्वलन करना चाहिए।

दीपावली के दिन दीप प्रज्ज्वलन का सर्वश्रेष्ठ समय सायं सूर्यास्त के पश्चात् का होता है जबकि प्रदोषकाल होता है। प्रदोषकाल के साथ-साथ स्थिर लग्न व चतुर्घटिका मुहूर्त भी शुद्ध हो तो सर्वश्रेष्ठ होता है। गृहस्थ में गृहलक्ष्मी का पूजन करने हेतु प्रदोषकाल व शुभ, लाभ, अमृत के चतुर्घटिका मुहूर्त जब प्राप्त हों उसी समय सर्वप्रथम दीप प्रज्ज्वलन करके ही पराशक्ति श्री महालक्ष्मी की पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए। इस प्रकार से पूजा करने से परिवार में सुख-समृद्धि आती हैं, परिवार की वृद्धि होती है, धन-धान्य की वृद्धि होती है, परिवार में सुख-शांति आती है। कहा जाता है कि घर की प्रधान सौभाग्यशाली सुहागिनी जो स्त्री होती है वह दीपावली की अर्द्धरात्रि में अपने घर की झाड़ू लगावें, आंगन की झाड़ू लगावें और अर्द्धरात्रि होने से कुछ पूर्व ही घर के सारे कचरे को बाहर भवन से नैऋत्य में डाल दें। पश्चात् घर के प्रधान आंगन में हो सके तो गाय का गोबर लेकर उसको वर्गाकार लीपें। उस पर आटा, हल्दी, गुलाल आदि के द्वारा रंगोली बनाएं और एक बड़ा दीपक प्रज्ज्वलित करें। जिस घर में यह दीपक जलता है उस घर में महालक्ष्मी नारायण भगवान के साथ गरुड़ पर बैठकर के श्री गणेश जी अर्थात् सद्बुद्धि के साथ एवं महा सरस्वती रूपी श्रेष्ठ वाणी एवं महाकाली रूपी आलस्य नाशिनी शक्ति के रूप में घर में प्रवेश करती हैं और परिवार को समृद्ध करती हैं। अलक्ष्मी के दोष का निवारण व शुभलक्ष्मी की प्राप्ति और उस प्राप्ति की चिरकाल तक स्थापना घर में अथवा व्यापार में करने के लिए निश्चित रूप से पूरी श्रद्धा के साथ दीपावली पर्व को दीप प्रज्ज्वलनोत्सव के रूप में मनाएं और सुख-समृद्धि पाएं।

 

शकुन-अपशकुन

ब्रह्माण्ड में सिर्फ  मनुष्य को ही अपने कल की चिंता सताया करती है, पशुु पक्षी सब अपने वर्तमान में जीते हैं, पर मनुष्य अपने वर्तमान में जीते हुए भी सदैव अपने भविष्य की चिंतातुरता में उलझा रहता है। अपने इस कल को जानने की इतनी आतुरता है कि हमने मनुष्यों के रूप-रंग-अंग-प्रत्यंग-गठन-तिल-मस्सा आदि से भविष्य का अनुमान करने के साथ-साथ बाहरी परिस्थितियों में घटित होने वाले शकुनों तक से अपना भविष्य जानने की अभीप्सा की।

तब हमारे ऋषि-मुनियों ने बाह्य स्थित नक्षत्र, ग्रह व तारों के आलोक में अपने अंतर में इन ज्योतिषीय पिण्डों का साक्षात्कार कर जन-जन को इनका ज्ञान कराया था। इस रहस्यमयी विद्या को हम भी अंतर्मुखी होकर अपनी प्रज्ञा को जागृत कर निमित्त एवं शकुनों द्वारा मिल रहे संकेतों को ग्रहण कर निमित्त रूप भविष्य का निर्माण कर सकने में सक्षम है। ज्योतिष ही इस निमित्त व शकुन को बताने का साधन है।

निमित्त

किसी घटना को घटने में माध्यम होने वाली या सहायक होने वाली परिस्थितियां कहलाती हैं निमित्त। जिन लक्षणों को देखकर भूतकाल एवं भविष्य में घटित हुई और घटने वाली घटनाओं का निरुपण किया जाता है, वही तो निमित्त है। व्यवहार जगत में हमें दो प्रकार के निमित्त मिलते हैं, प्रथम कारक निमित्त-जैसे घड़े का निर्माण करने में कुम्हार सहायक है। द्वितीय सूचक निमित्त- जिनसे किसी घटना के सम्पन्न होने या कार्य के पूर्ण होने की सूचना मिलती है, जैसे कि यदि सिग्नल झुका है तो हमें सूचना मिली है कि रेलगाड़ी आने वाली है।

निमित्त व शकुन की ज्योतिष में यह मान्यता है कि प्रत्येक घटना के घटित होने के पहले प्रकृति में विकार उत्पन्न होता है। इन प्राकृतिक विकारों की पहचान से व्यक्ति भावी शुभ-अशुभ घटनाओं को सरलतापूर्वक जान सकता है। इसी प्रकार ग्रह-नक्षत्रादि की गतिविधि का भूत, भविष्य और वर्तमान कालीन क्रियाओं के साथ कार्य कारण भाव संबंध स्थापित है। यह ग्रह या अन्य प्राकृतिक कारण किसी व्यक्ति का इष्ट-अनिष्ट संपादन नहीं करते बल्कि इष्ट या अनिष्ट रूप में घटित होने वाली भावी घटनाओं की सूचना देते हैं। निमित्त के भेद निम्नानुसार हैं-  

1. व्यंजन निमित्त - जातक का तिल, मस्सा, आदि को देखकर शुभाशुभ का निरूपण करना ही व्यंजन निमित्त ज्ञान है। जैसे कि पुरुष के दाहिनी अंग में और नारी के बायीं ओर तिल, मस्सा होना शुभ होता है। उदाहरण के रूप में पुरुष की हथेली में तिल होने से भाग्य की वृद्धि, पैर में तिल होने से राजा होता है।

2. अंग निमित्त - व्यक्ति के हाथ, पांव, ललाट, मस्तक और वक्षस्थल आदि शरीर के अंगों को देखकर शुभाशुभ का निरूपण करना अंग निमित्त है। यदि भुजाएं लंबी हों तो व्यक्ति श्रेष्ठ होता है। विशाल मस्तक वाला मनुष्यों में पूजनीय होता है। जिस व्यक्ति की जीभ इतनी लंबी हो, जो नाक के अग्रभाग को स्पर्श कर लें तो वह योगी या मुमुक्षु होता है। नसजाल, अंग बनावट, अंग विस्तार व अंगों की आभा इससे भी निमित्तों का पता चलता है।

3. स्वर निमित्त - चेतन प्राणी व अचेतन वस्तुओं के शब्द सुनकर शुभाशुभ का निरूपण करना स्वर निमित्त कहलाता है।

4. भौम निमित्त - भूमि के रंग, भूमि की चिकनाहट, रूखेपन के द्वारा शुभाशुत्व का पता चलना ही भौम निमित्त है। इस निमित्त से गृह निर्माण योग्य भूमि, देवालय निर्माण योग्य भूमि, जलाशय निर्माण भूमि आदि का पता चलता है।

5. छिन्न / छंद निमित्त - वस्त्र, शस्त्र व आसन और छत्र आदि यदि फट जाते हैं तो उन्हें देखकर शुुभ-अशुभ फल का निरूपण करना।

6. अन्तरिक्ष निमित्त - सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र व शनि के उदय एवं अस्त द्वारा शुभाशुभ को कहना ही अंतरिक्ष निमित्त है। 

7. लक्षण निमित्त -  व्यक्ति के हाथ-पैर पर स्वास्तिक, कलश, शंख, चक्र आदि चिह्नों के द्वारा व रेखाओं के द्वारा शुभाशुभ का निरूपण करना लक्षण निमित्त है।

8. स्वप्न निमित्त - व्यक्ति को आने वाले स्वप्नों के द्वारा शुभ एवं अशुभ का वर्णन करना। स्वप्न के भी कई प्रकार हैं, वे किस प्रहर में एवं किस अवस्था में देखे गए हैं, के अनुसार फल निरुपित किया जाना।

कलश पूजन

डी.सी. प्रजापति

हमारे शाश्वत सांस्कृतिक संस्कारों में किसी भी मांगलिक या अन्य किसी कार्य के आरंभ में कलश पूजन एक अनिवार्य अनुष्ठान होता है। कलश पूजन के पीछे भारतीय मनीषी बहुत सारे रहस्यों को गर्भित किए हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि संसार की समस्त क्रियाएं इसी कलश रूपी रहस्यमयी शक्ति के चारों ओर चक्कर लगा रही हैं।

कलश किसका प्रतीक है? : कलश पूजन के पीछे क्या अवधारणा निहित रही है, इस पर विचार करते हैं। भारतीय वाङ् मय और धार्मिक शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि भगवान विष्णु की नाभि कमल से सृष्टि की उत्पत्ति हुई और कमल से ब्रह्माजी की। कलश में रखा जल, उस जल स्रोत का प्रतीक होता है जिससे यह सृष्टि बनी थी। एक अन्य शास्त्रीय दृष्टान्त में समुद्र मंथन के समय देव और असुरों के समक्ष अमृत से भरा कलश प्रकट हुआ, यही कलश, इस शाश्वत जीवन का प्रतीक था। ये तो कलश के शास्त्रीय धार्मिक आधार हैं।

अन्यत्र यदि हम देखें तो यह कलश जलपात्र होता है और व्यावहारिक जगत में शुद्ध और पवित्र जल, मानव जीवन के संचालन के लिए अत्यन्त आवश्यक होता है। जल के बिना मनुष्य का जीवन असंभव हो जाता है। रहीम दास कवि ने तो यहां तक कह दिया कि रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरे, मोती मानुस चून।।

अर्थात् पानी के बिना यह संसार सूना है। कलश पूजन के पीछे भारतीय संस्कृति की मूल भावना यह थी कि संसार में हम कुछ भी करें परन्तु वह जल के बिना संभव नहीं होगा, जल में अपार और असीमित शक्ति है इसीलिए भारत की संस्कृति मनुष्य को प्रत्येक मांगलिक आदि कार्यों से पहले जल की पूजा कराती है और अप्रत्यक्षतः यह संदेश देती है कि संसार में जल अमूल्य है। यह अमृत है, यह रस है, इसकी सदैव रक्षा करना, इसे बचाना, इसका मान-सम्मान करना, जल शक्ति की कभी अवहेलना मत करना। जल में यह गुण समाविष्ट है कि उसके सम्पर्क में आने से सब कुछ धुल जाता है। जल की संगति का अर्थ है, विकारों को पवित्र और निर्मल बनाना अतः कलश को उस शुद्ध जल का प्रतीक मानकर पूजा जाता है जो मनुष्य के जीवन को संचालित करता है, उसे विकार रहित, रसपूर्ण, शुद्ध, शांत, शीतल बनाता है। कलश पूजन में यह अभिप्रेत है कि जीवन में जब भी विकार उत्पन्न हों, क्रोधाग्नि बढ़े, आवेश आ जाए, मन निराश हो, अपवित्रता की मात्रा बढ़ जाए तब इस शुद्ध पवित्र जल का सेवन करना, इसके उपयोग से सभी प्रकार के विकार स्वतः धुल जाएंगे। कलश में उस दिव्य शक्ति का निवास माना गया है, जिसके केवल सामने रखकर पूजने मात्र से मनुष्य विकार रहित हो जाता है।

हमने आरंभ में विष्णु भगवान के नाभिकमल से सृष्टि की उत्पत्ति का उल्लेख किया है और इस कलश को उसी नाभिकमल का प्रतीक माना जाता है जिससे जगत का सृजन और विकास हुआ है। क्या हम नहीं जानते कि नाभि कोई भी हो, वह आरंभ और अंत का कारक होती है। मनुष्य की नाभि ही लीजिए, जब मनुष्य गर्भ में होता है तो उसमें सर्वप्रथम नाभि के माध्यम से ही जीवनी शक्ति, रक्त संचार आरंभ होता है और यह नाभि माता की नाभि से जुड़ी होती है। कैसा अद्भुत खेल है प्राकृतिक ऊर्जाओं का, एक नाभि दूसरी नाभि से जुड़कर शक्तिपात करके सृजन करती रहती है। कलश पूजन इसी ब्रह्म ऊर्जा का प्रतीक है जिसके माध्यम से हमारे पूर्वजों ने हमारा ध्यान इसी ऊर्जा के अस्तित्व की ओर आकर्षित किया है। हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि हमें जीवनभर प्राकृतिक ऊर्जाओं से सामंजस्य बनाकर रखना होगा और उन्हें जीवन में उचित ढंग से प्रयुक्त करना होगा। कलश ऊर्जा का पिंड स्वरूप होता है, हमें ऊर्जा की संतुलित आवश्यकता होती है। कलश में हम यथेष्ट ऊर्जा का संग्रहण मानते हैं अर्थात् जगत में परिव्याप्त विशाल ऊर्जाओं की यथेष्ट मात्रा ही हमारे जीवनयापन के लिए पर्याप्त होती है, अत्यधिक ऊर्जा या शक्ति इसका दुरुपयोग कराती है या आक्रामक बना देती है।

ज्योतिष में कलश स्थापन को वरुण पूजा, समुद्र, नदियों, वेदों, वनस्पतियों के प्रतीक चिह्नों के साथ किया जाता है। जल से संकल्प साक्ष्य रूप में अभिप्रेत है।

भारतीय संस्कृति में नवरात्रा स्थापन के समय घट स्थापना या कलश स्थापना की जाती है। इसी घट या कलश के समक्ष बैठकर नौ दिन तक मंत्र, यंत्र या तंत्र, जैसा भी व्यक्ति चाहे, साधना की जाती है। यह कलश या घट दैवी शक्ति का प्रतीक होता है। पुनः हम कलश स्थापना के माध्यम से ब्रह्माण्डीय शक्ति का आह्वान करके उसे आत्मसात करने की चेष्टा करते हैं और कई बार, कई साधक शक्तिपात करा पाने में सफल भी रहते हैं। उनमें कई गुणा शक्ति का संचार हो जाता है। उनके स्पर्श मात्र से दुःख, कष्ट दूर होने लगते हैं, इसे माँ देवी की शक्ति कहा जाता है। कलश पूजन की परार्थ के लिए की जाने वाली यह विधि कलश स्थापना का अद्भुत संयोग है। कलश ईश्वरीय शक्ति का प्रतीक है और उसमें ईश्वरीय शक्ति के सदुपयोग और परहित उपयोग की शर्त निहित रहती है। कलश पूजन के माध्यम से भारतीय संस्कृति व्यक्ति को सजग और सावधान करती है कि इस शक्ति या ऊर्जा का परार्थ और परहित में उपयोग करना है, स्वार्थ और दुर्भावनावश नहीं। यदि इस सकारात्मक ऊर्जा का दुरुपयोग किया गया तो दुष्परिणामों का प्रतिफल भी अवश्य भोगना होगा।

अस्तु कलश पूजन की भारतीय संस्कृति में जो महत्ता है, उस पर प्रकाश डाला गया है कि कलश पूजन (ब्रह्माण्डीय ऊर्जा) हमारे जीवन के आरंभ से लेकर अंत तक चलता है, यह आदि भी है तो अंत भी।

 

 

 

 

कार्तिक का महीना रोग विनाशक

डॉ सुमित्रा अग्रवाल, कोलकाता

शरीर है तो दैहिक कष्ट है ही।  कस्तो से निवृति के लिए कुछ लोग योग साधना करते है, कुछ खाने पिने का ख्याल रखते है, समय समय पर शारीरिक जाँच भी करते है और फल फूल वनस्पति का सहारा भी लेते है।  शरीर को स्वस्थ रखने के लिए पांचों तत्वों का संतुलन आवश्यक है।

 स्कन्दा पुराण में बताया गया है कार्तिक के बारे में -

रोगापहं पातकनाशकृत्परं सद्बुद्धिदं पुत्रधनादिसाधकम्।

मुक्तेर्निदानं नहि कार्तिकव्रताद् विष्णुप्रियादन्यदिहास्ति भूतले ।

इस मासको जहाँ  रोगविनाशक कहा गया है, वहीं सद्बुद्धि प्रदान करने वाला, लक्ष्मी का साधक तथा मुक्ति प्राप्त कराने में सहायक बताया गया है। कार्तिक में तुलसीवन-पालन की प्रमुखता बताई गई है। तुलसीका सेवन और कार्तिक में तुलसी आराधना की विशेष महिमा है। जब से संसार में संस्कृति का उदय हुआ, तभी से तुलसी को रोगनिवारक औषधि के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसके आरोग्यप्रद गुणों के कारण इसकी लोकप्रियता इतनी अधिक है कि लोग इसे भक्ति भावना की दृष्टि से देखते हैं और इसकी पूजा करते हैं। तुलसी दो प्रकार की होती है! काली और सफेद । काली तुलसी अधिक गुणकारी है। इसके अतिशय गुणों के कारण इसे प्रत्येक घर में स्थान मिले इसीलिए हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इसे धार्मिक स्वरूप दिया है। आयुर्वेद शास्त्र में तुलसी को रोग हर कहा गया है, शास्त्रीय भाषा में तुलसी को यमदूतों के भय से मुक्ति प्रदान करने वाला भी बताया गया है ।  कार्तिक के महीने में ऋतू परिवर्तन होता है।  इस समय नाना प्रकार की बीमारिया मौसम के परिवर्तन से आती है, तुलसी का सेवन अत्यंत लाभ दायक होता है।  अम्लता, पेचिश, कॉलाइटिस जैसी पाचनतंत्र की बीमारियों में तुलसी का रस निश्चय ही लाभ देता है। तुलसी के पत्तों का रस और अदरक का रस एक चम्मच शहद के साथ लेने से ज्वर, खाँसी और दमे में अच्छा लाभ होता है।बारिस के कारण मच्छरों का प्रकोप बढ़ जाता है और मलेरिया का खतरा रहता है। मलेरिया के ज्वर में तुलसी का रस अमोघ सिद्ध होता है। वातावरण सीत कल की तरफ अग्रसर होने के कारण सीत लहार चलने लगती है और सर्दी जुकाम और शिरोवेदना दूर करता है तुलसी का रस । तुलसी का रस मूत्र पिण्ड की कार्य शक्ति बढ़ाता है और रक्त के कॉलेस्टरोल का प्रमाण घटाता है।

कार्तिक के रोग विनाशक होने के पीछे तुलसी की महिमा छुपी है।