इतने भोले भी नहीं भगवान शिवजी

पं. सतीश शर्मा

भगवान शिव को भोले नाथ इसीलिए कहा जाता है कि थोड़ी सी तपस्या से ही प्रसन्न हो जाते हैं। कोई - कोई भगवान तो बहुत बड़ी तपस्या से प्रसन्न होते हैं पर शिवजी जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं। एक किस्सा भी गढ़ लिया गया है। एक चोर शिवलिङ्ग के ऊपर ऊँचाई पर लटक रहे चाँदी के छत्र को चुराना चाहता था और कोई साधन नहीं देखकर उसने शिवलिङ्ग पर ही पैर रखा और छत्र को उतार लिया। तुरंत ही भगवान प्रकट हो गये। बोले - ‘‘कोई धतूरा चढ़ाता है, कोई आकड़ा चढ़ाता है, कोई विल्व पत्र चढ़ाता है। तुम तो स्वयं ही चढ़ गये। माँगों, वर माँगो।’’

यह उदाहरण उनकी सरलता को प्रकट करने के लिए है। परन्तु तमाम हिन्दू पुराण कथाएँ इन प्रकरणों से भरी पड़ी हैं कि ब्रह्माण्ड व्यापी संतुलन बनाये रखने के लिए भगवान शिव ने देवताओं और असुरों दोनों का अस्तित्व बनाये रखा। बारी - बारी से दोनों का पतन होता रहा और पीड़ित होने पर अंत में शिवजी ने ही उनका त्राण किया। हम आज चैक और बेलेन्स की बात करते हैं, ऑडिट एवं अकाउण्ट्स की बात करते हैं, संतुलन बनाने तथा नियंत्रण बनाये रखने की यह कला कोई भगवान शिव शंकर से सीखें। वे सबसे बड़े और महान कूटनीतिज्ञ हैं और रणनीतिज्ञ हैं। जब - जब असुरों का प्रकोप बढ़ा, तब-तब उन्होंने अवतार लिये और प्रत्येक अवतार से असुरों का संहार किया और देवताओं को पुनः स्वर्ग दिलाया। स्वर्ग वंचित देवताओं को इस प्रक्रिया में कई बार तो हजारों वर्ष गुजारने पड़ते थे, जब तक कि उनका अहंकार या अमर्यादित आचरण नष्ट नहीं हो गया, तब तक उनको स्वर्ग की पुनः प्राप्ति नहीं हुई।

हम में से बहुत सारे लोग विष्णु के 24 अवतारों के बारे में जानते हैं परन्तु शिवजी के अवतारों के बारे में कम जानते हैं। शिवजी के अवतार महाकाल और रुद्रअवतारों के रूप में जाने जाते हैं। महाकाल, तार, बालभुवनेश, षोड़श श्रीविद्येश, भैरव, छिन्नमस्तक, धूमवान, बगलामुख, मातंग तथा कमल ये सब महाकाल के दस अवतार हैं। इन सभी अवतारों से तारादेवी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती और बगलामुखी जैसी उनकी शक्तियाँ हुईं। उधर 11 रुद्र अवतारों के रूप में आए यथा- कपाली, पिङ्गल,  भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुध्न्य, शम्भू, चण्ड तथा भव। एक कथानक है कि यदि रावण 11 सिर अर्पण कर देता तो अमर हो जाता। बचे एक रुद्र ने हनुमान जी के रूप में अवतार लिया और विष्णु अवतार राम के सेवक के रूप में रहकर रावण का संहार किया।

भगवान विष्णु के सभी अवतार राजसी वैभव और राजसी लक्षणों से युक्त हैं, जबकि शिवजी की कल्पना एक संन्यासी, विरक्त, हठयोगी और पर्वत आरण्य में रहने वाले भगवान के रूप में की गई है, जो सदा ध्यान मग्न रहते हैं। जहाँ विष्णु के अवतार प्रवृत्तिमार्गी हैं, शिवजी के अवतार बल्कि स्वयं शिवजी निवृत्तिमार्गी हैं। वे समस्त सांसारिक उपक्रमों से निवृत्त होकर मुक्तिमार्ग खोजते हैं। भारतीय वाङ्गमय में उन्हें नटराज के रूप में प्रतिष्ठित किया गया, जहाँ वे योगीराज हैं। एक बार जब उनके विवाह का प्रसङ्ग आया तो उनकी बारात ब्रह्माण्ड की सबसे ऐतिहासिक बारात सिद्ध हुई, जिसमें भूत, पिशाच, पशु, कीड़े-मकोड़े तक थे।  वे पशुपति नाथ भी कहलाते हैं। नन्दी, क्षेत्रपाल, भैरव, डाकिनी, शाकिनी, यातुधान, बैताल, ब्रह्मराक्षस, शंखकर्ण, कंकराक्ष, विकृत, विशाख और वीरभद्र जैसे बहुत सारे गण थे। पवित्र- अपवित्र सभी तरह के वेश थे। गंधर्व, किन्नर, देवता, जगन्माताएँ, देवकन्याएँ और सभी सिद्धिदात्री देवियाँ भी थी। उनकी बारात का उपहास उड़ाया गया। परन्तु ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियाँ उनकी बारात में थी। आपको ध्यान होगा कि महादेवी ने जब यज्ञ कुण्ड में आत्मदाह कर लिया तो शिवजी के गणों ने यज्ञ ध्वंस कर दिया तथा दक्ष प्रजापति का सिर काट दिया। वस्तुतः यह यज्ञ भाग की लड़ाई थी। इस प्रकरण में भगवान शिव ने दक्षयज्ञ में भाग लेने वाले देवताओं और संतों को दण्डित करके यह संदेश दिया कि वे ही सर्वशक्तिमान हैं।

हाँ एक जगह शिवजी भगवान विष्णु के सामने मात खा गये। वह किस्सा महर्षि भृगु का है। हुआ यह कि बहस छिड़ गई कि त्रिदेवों में सर्वश्रेष्ठ कौन हैं? महर्षि भृगु को ब्रह्मा के मानस पुत्रों में माना जाता है तथा वे प्रजापति भी हैं। सरस्वती नदी के तट पर ऋषियों की बहुत बड़ी परिषद् में यह बहस छिड़ गई कि तीनों देवों में कौन बड़ा है? इसका उत्तरादायित्व भृगु को सौंपा गया। पहले वे ब्रह्मा की सभा में गये और वहाँ अपने पिता को न तो प्रणाम किया और ना स्तुति की। इससे ब्रह्मा को क्रोध आया, यद्यपि उन्होंने क्रोध दबा लिया। फिर कैलाश पर अपने बड़े भाई रुद्रदेव के पास पहुँचे। भगवान रुद्र उनका आलिंगन करना चाहते थे परन्तु भृगु ने यह कहा कि तुम उन्मार्गगामी हो और आलिंगन अस्वीकार कर दिया। भगवान क्रोधित हुए और भृगु को त्रिशूल लेकर मारने को उद्वत हुए। बड़ी मुश्किल से पार्वती ने उन्हें शांत किया। अब भृगुजी विष्णु भगवान के पास पहुँचे। वहाँ पहुँच कर उन्होंने भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर एक लात मारी। भगवान विष्णु अपनी शय्या से उठ गये और भृगु के चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया और कहा कि कहीं आपके कोमल चरणों को कष्ट तो नहीं हुआ। भृगु की बात सुनकर ऋषियों की मण्डली ने निर्णय किया कि जो सात्विकता के प्रेमी हैं उन्हें भगवान विष्णु का ही भजन करना चाहिए।

कई-कई राक्षस अति शक्तिशाली हुए और उनके वध के लिए भगवान शंकर को भगवान विष्णु की भी मदद लेनी पड़ी। उनमें शंखचूड़ का नाम सबसे प्रमुख है। यह किस्सा इतना बड़ा है कि शिवजी से युद्धरत शंखचूड़ की पत्नी तुलसी का सतीत्व हरण छद्म वेशधारी विष्णु ने किया, तब जाकर शंखचूड का वध हो पाया। इसके बाद तुलसी अपने दिव्य रूप में आ गई और भगवान विष्णु ने उन्हें स्वीकार किया। एक अन्य प्रकरण में अन्धकगणों के विनाश के समय शिवजी के पसीने से उत्पन्न राक्षस के दमन के लिए ब्रह्मा इत्यादि देवताओं ने उस राक्षस पर विजय प्राप्त की, जिसे बाद में वास्तु पुरुष के रूप में जाना गया। एक अन्य महाशक्तिशाली तारकासुर को समाप्त करने के लिए शिवजी ने विवाह करना और उससे पुत्र उत्पन्न करने का संकल्प लिया। शिवजी के पुत्र कार्तिकेय, जिन्हें स्कंद भी कहा गया है, देवताओं के सेनापति हुए और तारकासुर का संहार हुआ। रावण का भी संहार नहीं हुआ होता यदि विष्णु अवतार रूपी राम और रुद्रावतार रूपी हनुमान ने एक साथ ही लंकापति के विरुद्ध युद्ध नहीं किया होता।

सब देवताओं के पहचान चिह्न (ID Proof) होते हैं। भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र, भगवान कृष्ण की मुरली व मोरपंख, गणेश जी का चूहा व वक्रतुण्ड, इन्द्र का वज्र, लक्ष्मीजी का कमल व वरदहस्त, सरस्वती जी की वीणा, महाकाली की रौद्रमुद्रा व मुण्डमाल तथा हनुमान जी की गदा व हाथ में पर्वत, भगवान राम का हाथ में धनुष-बाण इत्यादि-इत्यादि। परन्तु अपने भोले नाथ इन सभी से अधिक सम्पन्न हैं। सिर में चन्द्रमा व गंगा, हाथ में त्रिशूल, डमरू, भस्मावृत्त शरीर, अंगों पर लिपटे हुए सर्प, रुद्राक्ष माला, नीलवर्णी ग्रीवा तथा ताण्डव मुद्रा, शिवजी की पहचान किसी भी रूप में की जा सकती है।

माँ पार्वती ने भगवान राम को लेकर संदेह खड़ा कर दिया था। यह संदेह इतिहास के भक्तिकाल में सर्वाधिक था जब शैव और वैष्णव आपस में ही संघर्षरत थे। तुलसी दास को भगवान राम से कहलवाना पड़ा ‘शिवद्रोही मम दास कहावा, सो नर मोहि सपनेहु नहिं पावा’। भगवान शिव और विष्णु (सुदर्शन चक्र और शेषनाग) दोनों के ही पहचान चिह्नों में नाग या सर्प का होना सम्भवतः माया का प्रतीक है, जिससे संसार की सृष्टि संभव है। वास्तव में भगवान शिव उन्हीं के लिए भोले नाथ है, जिनकी उनमें अगाध आस्था है। अन्य सभी के लिए वे बहुत अगम्य देव हैं और भारतीय दर्शन के प्राण तत्व हैं।

 

नवग्रहों का पूजन क्यों?

ज्योति शर्मा

ग्रह व नक्षत्रों की किरणें भूमि पर पड़ती हैं। परंतु विभिन्न खगोलीय कारणों से अंतरिक्ष विकिरण कम-ज्यादा हो सकते हैं। ज्योतिष उपायों में से एक उपाय मंत्र अनुष्ठान का भी है जिससे कमी की पूर्ति की जा सकती है। यहां ग्रहों के विषय लिखें जा रहे हैं।

सूर्य- सूर्य को सभी ग्रहों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। ज्योतिष ग्रथों में सूर्य को ग्रहों का राजा, पिता व आत्म आदि के कारक माने गए हैं। जन्म पत्रिका में यदि सूर्य की स्थिति अच्छी है तो व्यक्ति का जीवन स्वस्थ और समृद्धि से परिपूर्ण रहता है।

चंद्रमा- चंद्रमा को मन, औषधि व माता आदि के कारक कहे गए हैं। मन का संचालन करने के कारण यदि चंद्रमा कुण्डली में अच्छे नहीं हैं तो व्यक्ति का मन कभी स्थिर नहीं रह पाता। कई शास्त्रों में तो  चंद्रमा का काफी बली होना भी अच्छा नहीं बताया गया है। ये दो प्रकाशित ग्रह (सूर्य-चंद्रमा) जन्म पत्रिका में अच्छी स्थिति में हैं तो व्यक्ति का जीवन स्वतः ही काफी हद तक अच्छा व्यतीत होता है।

बृहस्पति- बृहस्पति देवताओं के गुरु होने के कारण देव गुरु कहलाते हैं। ज्योतिष शास्त्र में गुरु को शिक्षा, ज्ञान व सुनने  व अच्छे स्वास्थ्य आदि के कारक माने गए हैं। नक्षत्रों में सबसे तेज नक्षत्र गुरु के माने गए हैं। विवाह व संतान कारक भी बृहस्पति देव हैं।

शुक्र- शुक्र मान-सम्मान, वैभव व भोग-विलास आदि के कारक माने गए हैं। जिसकी जन्म पत्रिका में शुक्र शुभ स्थिति में होते हैं वह व्यक्ति नृत्य कला व संगीत में रुचि रखने वाले होते हैं।

मंगल- मंगल को ज्योतिष में सेनापति का दर्जा दिया गया है। मंगल अग्नि, पराक्रम और बल आदि के कारक हैं। जिसकी जन्म पत्रिका में मंगल अच्छी स्थिति में होते हैं वह व्यक्ति किसी भी कार्य का नेतृत्व काफी बखूबी निभाते हैं। इनको आगे बढ़कर कार्य करना बेहद पसंद होता है। ऐसे व्यक्ति खेल-कूद व सेना में अच्छा प्रदर्शन करते हैं।

बुध- बुध ग्रह बुद्धि, ज्ञान, वाणी व हंसी-मजाक आदि के कारक माने गए हैं। इन्हें राजकुमार का दर्जा दिया गया है।  जिसके बुध अच्छे हों वह व्यक्ति वाक्-कौशल, वक्ता व अच्छा व्यापारी होते हैं।

शनि- शनि देव को न्यायप्रिय बताया गया है। शनि सेवक के कारक बताए गए हैं। ज्योतिष में शनिदेव को सुख-दुःख की अनुभूति प्रदान की गई है। कहते हैं शनिदेव व्यक्ति को सोने की भांति तपाकर उसका व्यक्तित्व निखारते हैं।

राहु-केतु- राहु-केतु को छाया ग्रह माना गया है। इनकी कोई भी राशि नहीं होती, यह जिस राशि व ग्रह के साथ स्थित होते हैं वैसा ही परिणाम देते हैं।

श्रीकामः शांतिकामो वा ग्रहयज्ञं समाचरेत्।

अर्थात् श्री और शांति के इच्छुक व्यक्ति को नवग्रहों का पूजन अवश्य कराना चाहिए। नवग्रहों के पूजन से चेतन तत्व को जागृत कर दुष्प्रभावों का निवारण किया जाता है व इनके पूजन से वातावरण व परिवार में सुख-शांति के साथ-साथ सकारात्मक ऊर्जा का भी प्रवेश होता है।

मंत्र, मणि व औषधि यह तीन उपाय प्रमुख हैं। मंत्र, अनुष्ठान, वैदिक यज्ञ, ग्रहों के रत्न व औषधि के रूप ग्रह से संबंधित यज्ञ काष्ठ से आहुतियाँ ग्रहों को प्रसन्न करने के लिए दी जाती हैं।

 

 

पवित्र कलश हैं शनिदेव

डी.सी. प्रजापति

जब किसी कुंडली में शनिदेव चंद्रमा से केन्द्र में और लग्न से केन्द्र में हों तो ऐसा व्यक्ति महत्वपूर्ण हो जाता है और समय की रेत पर सदा के लिए अपने निशान छोड़ जाता है अर्थात् इतिहास पुरुष बन जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि शनिदेव उसे पूर्वजन्मकृत संचित शुभ कर्मों के फल एक साथ देकर उसे महान बना देना चाहते हैं। रामचरित मानस में कहा गया है कि -

तपबल रचहिं प्रपंच विधाता। तपबल विष्णु सकल जगत्राता।।

तपबल शंभु करहिं संहारा। तपबल शेष धरहिं महिभारा।।

तप के बल पर प्रकृति के समस्त नियम बंधे हैं, महान कार्य केवल तप साधना से ही संभव हैं। यदि तपबल क्षीण होता है तो व्यक्ति का पतन होने लगता है। शनिदेव को ज्योतिष में तपस्वियों, कर्मानुरागियों, मजदूरों, कर्मकारों, कर्मजीवियों, का प्रतिनिधि ग्रह माना है। कठोर तप, कठोर साधना, कठोर श्रम, कठोर परिश्रम आदि शनिदेव की कृपा कटाक्ष के बिना संभव नहंी हैं। ऐसा जान पड़ता है कि किसी कुंडली में शनिदेव की केंद्रस्थ शुभ स्थिति, इस बात का द्योतक होती है कि व्यक्ति के पूर्व जन्मकृत कर्मों में शुभ कर्मों का संग्रहण है जो अब उसे पवित्र एवं निर्मल बुद्धि देकर महान कर्म कराना चाहते हैं। हमने अपने पूर्व लेखों में यह पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि यदि व्यक्ति के पुराने खाते (प्रारब्ध कर्म) में अशुभ फलों की संचिति है तो ऐसा व्यक्ति अवश्य ही मायावी संसार में लिप्त होकर पुनः कर्मबंधन में पड़कर पुनर्जन्म लेने के लिए विवश हो जाता है। कई बार तो ऐसा देखा जाता है कि पूर्वजन्मकृत संचित अशुभ कर्मों की फलान्विति इतनी तीव्रता से होती है कि क्षण भर में सब कुछ नष्ट हो जाता है। ऐसी स्थिति प्रायः तब मिलती है जब किसी कुंडली में शनिदेव मृत्यु भाग अंशों में हों। शनिदेव के मृत्यु भाग अंश निम्न हैं :

मेष राशि से आरंभ कर मीन तक क्रमशः 10, 4, 7, 9, 12, 16, 3, 18, 28, 14, 13 और 15 होते हैं। जन्मकुण्डली में शनिदेव इन मृत्यु भाग अंशों में स्थित हों तो बहुत शुभ स्थिति में होते हुए भी निष्फल हो जाते हैं। इसलिए एक ज्योतिषी को शनिदेव की इस स्थिति का भविष्यफल कथन करते समय विशेष ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि शनिदेव के कर्मविधान में सब कुछ ठीक-ठाक होते हुए भी इन अंशों में स्थित होने पर तात्कालिक रूप से सभी अनुकूल परिस्थितियाँ प्रतिकूलता में बदल जाती हैं और व्यक्ति ठगा सा रह जाता है। शनिदेव के इन मृत्यु भाग अंशों के साथ-साथ हमें लग्न और चंद्रमा के मृत्यु भाग अंशों पर भी विचार कर लेना चाहिए क्योंकि बिना शरीर (तन सुख) और बिना मन (मानसिक बल) के व्यक्ति कितनी भी अच्छी स्थिति में हों, तब भी वह कुछ महान करने की स्थिति में नहीं रहता है।

लग्न के मृत्यु भाग अंश मेष राशि से आरंभ करके मीन राशि तक 1, 9, 22, 24, 25, 23, 18, 20, 24 और 10 हैं और चंद्रमा के मृत्यु भाग अंश मेष से आरंभ करके मीन राशि पर्यन्त क्रमशः 26, 12, 13, 25, 24, 1, 26, 14, 13, 25, 5 और 12 हैं। किसी जन्म कुण्डली में इन मृत्यु भागों में शनि, चंद्र या लग्न की स्थिति होने पर यद्यपि कुण्डली में अन्य ग्रह स्थिति बहुत शुभ दिखाई देती है परंतु ऐसा शुभत्व नहीं मिलता और सब कुछ आशाओं के विपरीत हो जाता है, मानों कर्मफल पुद्गल की समाप्ति हो रही है। व्यक्ति ऐसी स्थिति में मुक्त हो जाता है चाहे तो सांसारिक सुखों से उसका संबंध टूट जाए अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो जाए अथवा तपस्या के बल पर कर्मफल बंधन से मुक्त होकर उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। कई महान संतों की कुण्डली में शनिदेव की ऐसी ही विशेष स्थिति के कारण महान फलों की प्राप्ति (बंधन मुक्ति) देखी जा सकती है।

ज्योतिष ग्रंथों में पंचमहापुरुष योगों की विवेचना की गई है। इन पंच महापुरुष योगों में से एक महापुरुष योग शनिदेव के कारण बनता है जो शश योग नाम से जाना जाता है। शश योग शनिदेव के लग्न से केन्द्र में अपनी उच्च या स्वराशि में होने पर बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला व्यक्ति धन सम्पत्ति एवं नौकर-चाकरों के सुख भोगता है परंतु शश योग से युक्त व्यक्ति दूसरों के धन का हरण करने से नहीं चूकते अथवा वे दूषित एवं अनैतिक साधनों से धन कमाते पाए गए हैं। इसी प्रकार एक अन्य योग भी देखने को मिलता है कि शनि और शुक्र अतिमित्र ग्रह हैं परंतु वास्तविकता यह है कि शनि की दशा एवं शुक्र अन्तर्दशा या शुक्र दशा एवं शनि अन्तर्दशा में अच्छे परिणाम नहीं मिलते हैं अपितु प्रतिकूल एवं हानिप्रद परिणाम देते हैं, ऐसा उल्लेख भावार्थ रत्नाकार ग्रंथ में मिलता है। ज्योतिष जगत में ये दोनों ग्रह समान रूप से परिणामदायी माने जाते हैं। दोनों अहंवादी हैं, स्वयं के अस्तित्व एवं प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए परस्पर हानि पहुंचा सकते हैं। कई बार पाया जाता है कि शनिदेव और शुक्रदेव से प्रभावित दो प्रभावशाली व्यक्ति परस्पर नीचा दिखाने के प्रयास करते पाए जाते हैं। ज्योतिषीय मीमांसा के दृष्टिकोण से इन ग्रहों में सुख, प्रसन्नता, ऐंद्रिय सुख आदि के प्रदायक होते हैं, वहीं शनिदेव त्याग, तपस्या, वैराग्य परिश्रम आदि में व्यक्ति को निरत रखने की चेष्टा करते हैं और आरम्भ हो जाता है द्वन्द्व।

 

राहु-केतु का योग-संयोग कुण्डली में पितृ दोष उत्पन्न करता है

शास्त्रों में कहा गया ‘‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे’’ अर्थात् यह शरीर रूपी पिण्ड कहाँ से आता है और कहाँ जाता है इसका उत्तर यह है कि यह ब्रह्माण्ड का अंग है। ब्रह्म से पैदा होकर उसमें समा जाता है। प्रश्न उठता है कि हम शरीर से पूर्व कहाँ थे? माता के गर्भ में। माता के गर्भ से पूर्व कहाँ  थे- पिता के पेट में, पिता के पेट से पूर्व पिता के वीर्य में, पिता का वीर्य कहाँ से बना- गेहूं से, गेहूं कहाँ उत्पन्न हुआ खेत में, खेत में किन तत्वों ने उत्पन्न किया, पंच तत्वों ने, पंच तत्वों में मुख्य रहा जल, जल कहाँ से उत्पन्न हुआ चन्द्रमा से, अग्नि ने पकाया, अग्नि सूर्य से उत्पन्न हुई, मिट्टी मंगल से। इस प्रकार हमारे जीवन को उत्पन्न करने में सबसे अधिक महत्व ग्रहों की रश्मियों का है। जिस भी ग्रह के तत्व की अधिकता होती है उसी ग्रहों की कलाओं को लेकर हमारा शरीर उत्पन्न होता है। उन्हीं ग्रहों की रश्मियां जीवन भर हमें प्रभावित करती रहती हैं। इन्हीं ग्रहों में राहु-केतु भी ग्रह हैं जिन्हें ज्योतिष शास्त्र में छाया रूप कहा गया। इनकी छाया से आदमी काला पड जाता है। जीवन भर परेशान हो जाता है उन्हें जीवन भर अनेक उपद्रवों का सामना करना पडता है।

किन कारणों से कौन सा पितृ दोष मनुष्य को प्राप्त होता है, इसके उत्तर में हमारे ज्योतिष शास्त्र, ज्योतिष रत्नाकर, वृहद जातकम्, चिन्तामणि, भाव मंजरी और विख्यात ज्योतिष काटवे तथा मुख्य रूप से पाराशर होरा शास्त्र के 86वें अध्याय में पूर्वशापफलाध्यायः के दूसरे व तीसरे श्लोक -

अपुत्रस्य गति नास्ति शास्त्रेषु श्रूयते मुने। अपुत्रः केन पापेन भवतीति वद प्रभो॥

जन्मलग्नाच्च तज्ज्ञानं कथं दैवविदां भवेत्। अपुत्रस्य सुतप्राप्तेरूपायं कृपयोच्यताम्॥

मैत्रेय एवं पाराशर ऋषि की चर्चा बताती है कि किन कारणों से पितृ दोष होता है। हमारे यहाँ लडकी का विवाह न होना, हर समय आपदा, बीमारी, कष्ट, कलह, संतान का न होना, कर्ज, मुकदमा आदि अनेक समस्यायें पितृ दोष के कारण होती हैं और इनको बताने के लिए राहु-केतु ग्रहों व अन्य ग्रहों से युति एवं संयोग पितृ दोष को बता देता है। वैसे तो कुण्डली के 12 घरों में कहीं न कहीं राहु और केतु 180 अंश पर होते हैं, ये जिस भी घर में होते हैं उस घर को नष्ट तो करते ही हैं लेकिन किसी भी ग्रह के साथ अगर संयोग बनाते हैं तो उसे उस ग्रह से संबंधित पितृ दोष दे देते हैं। जैसे चन्द्रमा के साथ राहु का संयोग सर्प श्राप दोष बना देता है जिसे हम पितृ दोष कहते हैं। वृहत्पराशरहोराशास्त्र के 10वें श्लोक में कहा गया है -

चन्द्रेण संयुते दृष्ट सर्पशापात् सुतक्षयः। कारके राहुसंयुक्त पुत्रेशे बलवर्जिते॥

अर्थात् यदि राहु चन्द्र की युति पुत्र की आयु के लिए हानिकर होती है तथा यह ग्रहण योग होता है यह जिस भी भाव में होता है उस भाव  को नष्ट कर देता है।

पितृ श्राप में भी राहु-केतु मुख्य भूमिका निभाते हैं, जिसे वृहत्पाराशरहोराशास्त्र के 27वें श्लोक में कहा गया है -

लग्नपंचमभावस्था भानुभोमशनैश्चराः। रन्ध्रे रिःफे राहुजीवौ पितृशापात् सुतक्षयः॥

अर्थात् 1,5 भाव में किसी भी प्रकार से सूर्य, मंगल व शनि स्थित हो तथा 8,12 भाव में राहु व गुरु हो तो यह पितृ श्राप (पितृ दोष) कहलाता है।

मातृ श्राप (मातृ दोष) के बारे में महर्षि पाराशर कहते हैं-

हिबुके पंचमे पापे मातृशापात् सुतक्षयः। मातृस्थानाधिपे भौमे शनि राहु समन्विते।

अर्थात् पंचम भाव या माता के स्थान भाव में शनि-राहु आ जायें तो मातृ दोष होता है।

भ्रातृस्थानाधिपे पुत्रे कुजराहुसमन्विते। नाशस्थाने तुचन्द्रारौ भ्रातृशापातसुतक्षयः।

अर्थात् अगर भाई के स्थान में राहु की युति बन जाये तो भातृत्व दोष हो जाता है।

पुत्रस्थाने बधे जीवे कुजराहुसमन्विते। लग्ने मन्दे सुताभावो झेयो मातुलशापतः।

अर्थात् माता के भाव में अगर मंगल-राहु की युति बन रही है तो मातुल (मामा) का दोष माना जाता है।

सप्तमे मन्दशुक्रौ च रन्धे्रशे पुत्रभे रवौ। लग्ने राहुसमायुक्ते पत्नीशापात् सुतक्षयः।

अर्थात् स्त्री के सप्तम स्थान में अगर पापग्रह उपस्थित हैं और राहु की युति हो रही है तो स्त्री दोष के द्वारा पितृ दोष माना जाता है।

गुरुक्षेत्रे यदा राहुः पुत्रे जीवारभानुजाः। जीवारराहुभिर्युक्ते ब्रह्मशापात् सुतक्षयः।

अर्थात् यदि गुरु के साथ राहु की युति हो रही हो तो यह बताती है कि ब्राह्मण को सम्मान में अपशब्द कहे गये हैं जिसके कारण जातक कष्ट भुगत रहा है।

उक्त के अतिरिक्त भी अगर कुण्डली में किसी भी भाव में राहु के साथ जो भी गृह बैठा है उसका दोष इस प्रकार होता है- राहु चन्द्र युति माता का दोष, राहु-सूर्य पिता का दोष, राहु-बृहस्पति बाबा (ब्राह्मण) का दोष, राहु-मंगल भाई का दोष, राहु-बुध बेटी का दोष, राहु-शुक्र पत्नी का दोष, राहु-केतु-शुक्र पत्नी और पत्नी की माँ का दोष, शनि-राहु सर्प और संतान का दोष उत्पन्न करती है।

उक्त विश्लेषण स्पष्ट करता है कि कुण्डली में राहु-केतु की अन्य ग्रहों से युति एवं योग जातक को जीवन भर नाना कष्टों से दुःखी करते रहते हैं मनुष्य और ज्योतिषी इस विषय को नहीं समझ पाते  की किस कारण मनुष्य कष्टों से घिरा है।

उक्त दोषों को दूर करने के लिए ज्योतिष शास्त्र ने कई उपाय बताये हैं, जैसा कुण्डली में दोष होता है उसका अलग अलग उपाय शास्त्रों में वणिर्त है।  वैसे सामान्य उपाय महानारायण गायत्री, षोडष पिण्ड श्राद्घ, सर्प पूजा, ब्राह्मणों को गौ दान, कन्या दान, कुंआ, बावडी, तालाब इत्यादि बनवाना, वृक्ष में पीपल, बड आदि को लगवाना व विष्णु के मंत्रों का जाप करना तथा प्रेत श्राप को दूर करने के लिए श्रीमद्भागवद का यथोचित् पाठ करवाना आदि हैं।