जन्माष्टमी विशेष ...

भगवान कृष्ण

पं. सतीश शर्मा

भगवान कृष्ण का जन्म वृषभ लग्न में हुआ और लग्न में ही चन्द्रमा स्थित हैं। भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को उनका जन्म हुआ था और उच्च राशि में ही बृहस्पति, बुध, शनि और मंगल स्थित हैं तथा शेष सभी ग्रह अपनी-अपनी राशियों में हैं। उनके शुक्र और चन्द्रमा इतने बलवान हैं कि वे सारे जगत को मोहित करने में सफल रहे। इसमें रोहिणी नक्षत्र में चन्द्रमा होने की भूमिका बहुत अधिक रही। शुक्र और चन्द्रमा की प्रधानता से वे अपने मायालोक को विस्तार देने में सफल रहे।

 

कृष्ण के विवाह -

16 हजार रानियों का किस्सा बहुत प्रसिद्ध है। वास्तव में युद्धकालीन धर्म यह था कि विजयी सम्राट हारे हुए सम्राट के हरम को भी अपने आधीन कर लेता था। कभी राजरानियाँ रही स्ति्रयों को दुर्भाग्य नहीं झेलना पड़े इसलिए विजयी राजा हरम की सभी स्ति्रयों को विवाह का आवरण प्रदान करता था, जिससे कि सामान्य जनता भी उनसे सम्मान जनक व्यवहार कर सके। उन्हें राजकीय संरक्षण प्रदान किया जा सके। हम जानते हैं कि प्राचीन भारत के इतिहास में जो सम्राट विजयी होता था उसे राजकोष, हाथी-घोड़े और हरम व विजित भूमि मिल जाती थी। कृष्ण भगवान की रानियों की संख्या अधिक नहीं थी। रुकमणि, सत्यभामा, जाम्बवती, कालिन्दी, मित्रविन्दा, नाग्राजिती, भद्रा और लक्ष्मणा उनकी प्रमुख पत्नियाँ थीं। परन्तु यह सामाजिक दायित्व उन्हें नकरसुर से मुक्त कराई गई 16 हजार स्ति्रयों के कारण ग्रहण करना पड़ा था।

कृष्ण दार्शनिक के रूप में-

कृष्ण के समय पराशर ऋषि सांख्यदर्शन के प्रवक्ता थे। उनके पुत्र वेदव्यास ने ब्रह्मसूत्र की रचना की। वेदव्यास के शिष्य जैमिनी ने एक अलग दर्शन दिया। गुरुसंदीपनि व गर्गाचार्य की शिक्षाओं का प्रभाव भी उन पर था। परन्तु गीता में स्वयं भगवान कृष्ण ने यह उद्घोष किया है कि उन्होंने गीता का प्रथम उपदेश भगवान विवस्वान को किया था। भगवान विवस्वान तो कल्प के प्रारम्भ में थे। अर्थात् कृष्ण की रचना गीता पर उनके समकालीन गुरुओं का कोई प्रभाव नहीं था। यह संसार के श्रेष्ठ दर्शनों में है और अति प्रसिद्ध है। यह निष्काम कर्म की प्रतिष्ठा है। ज्योतिष भी कर्मफल पर आधारित वेदांग है और इसीलिए इसे वेदों का नेत्र कहा गया है।

क्या वे भगवान थे-

अवतारों में कृष्ण भगवान ही ऐसे थे जो मुखर होकर अपने को अवतार घोषित करते रहे। उनके सामने परिस्थितियाँ भी इसी प्रकार की थीं। उन्हें बार-बार अपने अवतार होने का अहसास दिलाना पड़ा। उन्हीं के काल में एक व्यक्ति तो ऐसा था जिसका नाम पौंडरिक था, जो मोरमुकुट मुरली और सुदर्शन चक्र धारण करके अपने आप को विष्णु का अवतार सिद्ध करने में लगा हुआ था। कृष्ण ने ही उसका वध कर डाला। कृष्ण ने कई बार अपनी शक्तियों का परिचय दिया। बालपन में ही कंस के भेजे हुए सारे राक्षस और राक्षसियों का संहार चमत्कारी ढंग से किया। रुकमणि का हरण करते समय भी उन्होंने अपनी मायावी शक्तियों का प्रयोग किया। दुर्योधन की महासभा में भी उन्होंने अपने उस विराट स्वरूप का दर्शन कराया, यद्यपि उस सभा का हर व्यक्ति उस स्वरूप का दर्शन नहीं कर सका था।  परन्तु भीष्म पितामह जैसे विराट व्यक्तित्व इस बात को समझ गये थे। महाभारत युद्ध काल में भी उन्होंने अपने उस विश्व रूप या विराट स्वरूप के दर्शन कराये थे परन्तु उसके लिए अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान करनी पड़ी थी। दिव्य दृष्टि प्राप्त संजय और बर्बरीक उनके उस स्वरूप के दर्शन कर पाये थे। अक्रूर सहित अन्य कई व्यक्ति और संतों को यथा- वेदव्यास को, यह रहस्य पता था। वेदव्यास को स्वयं को भी विष्णु या कृष्ण का अवतार ही माना जाता है। गोवर्धन पर्वत के माध्यम से इन्द्र को चुनौती देने का काम उन्होंने कर डाला था तथा एक अन्य अवसर पर उन्होंने अपने पुत्र को सेना सहित भेजकर स्वर्ग से पारिजात वृक्ष को मंगवा लिया था। इस पर इन्द्र ने पारिजात वृक्ष को शाप दिया कि उनमें पुष्प ही नहीं लगेंगे।

महारास एक आध्यात्मिक विलास है जिसमें गोपियों के रूप में गौलोक से आये साधु-संतों का बुद्धि विलास समाहित था। यह घटना लौकिक जगत को समझ में आने वाली नहीं है। कृष्ण के अवतार लेने की कथा तब भी स्पष्ट हुई जब स्यमंतक मणि को ढूँढ़ते हुए कृष्ण जाम्बवान की गुफा में पहुँचे और त्रेता में भगवान राम द्वारा जाम्बवान को दिये गये युद्ध के आश्वासन को पूरा किया। जाम्बवान ऐसा चरित्र था जो त्रेता में ही नहीं द्वापर में भी उपस्थित था। जब जाम्बवान कृष्ण को पराजित नहीं कर पाये तब उन्होंने करबद्ध होकर भगवान के सामने समर्पण किया और कहा कि ‘‘मुझे साक्षात् राम के सिवा कोई नहीं हरा सकता। हे प्रभो! आप कौन हो? अपने सच्चे स्वरूप का परिचय दो।’’ भगवान ने अपने स्वरूप का दर्शन कराया। जाम्बवान ने अपनी पुत्री जाम्बवंती को पत्नी रूप में स्वीकार करने की प्रार्थना की व स्यमंतक मणि भी भेंट कर दी।

पाण्डवों को महाभारत युद्ध विजय का अहंकार हो गया था। भीम का अहंकार तो हनुमान जी ने नष्ट किया परन्तु अर्जुन को भगवान कृष्ण युद्धोपरान्त बर्बरीक के कटे हुए सिर के पास ले गये जो वरदान स्वरूप सम्पूर्ण महाभारत युद्ध के दर्शन कर रहा था। बर्बरीक ने पूछने पर बताया कि मुझे तो सम्पूर्ण युद्ध में केवल सुदर्शन चक्र ही चलता नजर आया और कुछ भी नहीं। अर्जुन का अहंकार एक पल में नष्ट हो गया। अर्जुन को यह बात तब भी समझ में आ गई थी जब भगवान ने विश्वरूप के दर्शन कराये, अर्जुन का रथ युद्धोपरान्त भस्म हो गया व अब बर्बरीक ने महाभारत युद्ध में सुदर्शन चक्र की भूमिका बताई। यह बर्बरीक ही भीम के पौत्र थे, जिन्हें कृष्ण के द्वारा कलियुग में श्याम के नाम से प्रसिद्ध होने का वरदान मिला। आज राजस्थान में खाटू गाँव में श्याम का प्रसिद्ध मंदिर है।

कृष्ण ने जन्म से पूर्व और जन्म के तुरन्त बाद भी अपने मायावी होने का परिचय दिया। यहाँ तक की वसुदेव द्वारा गोकुल भ्रमण के समय बीच में यमुना के जल स्तर को कम करने में भूमिका निभाई व बाद में कालिया नाग का दमन करके चर्चा में आ गये। कंस के दरबार में हाथी कुलयवापीड़ को परास्त करके और कंस का वध करके उन्होंने अपने अवतार होने की स्पष्ट घोषणा कर दी थी। दुर्योधन को अपनी समस्त सेना देकर तथा स्वयं निःशस्त्र रहकर अर्जुन का साथ देकर उन्होंने सारे संसार को यह पाठ पढ़ाया कि अन्ततः सत्य की ही विजय होती है, संख्या बल से भी अंत में अधर्म की विजय नहीं होती।

यह ऐसे अवतार थे जिन्होंने भगवान राम की तरह मर्यादा पुरुषोत्तम होने का दावा नहीं किया और अधर्मी को उन्हीं की शैली में परास्त किया। अन्य धर्मों ने ईश्वर की तरफ से मोहम्मद या ईसा जैसे चरित्रों के माध्यम से प्रकट होना बताया जबकि भगवान कृष्ण ने सारे जगत की सृष्टि उन्हीं के द्वारा होना बताया तथा कहा कि वे ही सारे जगत् में व्याप्त हैं तथा सारा जगत उन्हीं में व्यात है। उन्होंने भक्ति, ज्ञान और कर्म का पाठ पढ़ाया और इन्हें उच्च कोटि के योग से जोड़ा तथा इन सभी के माध्यम से कृष्ण को प्राप्त होना बताया।

 

रोहिणी नक्षत्र

रोहिणी नक्षत्र है ही कमाल का। इसमें जन्म लेने वाले शुक्र और चन्द्रमा से प्रभावित होते हैं, क्योंकि शुक्र की राशि वृषभ में ही रोहिणी नक्षत्र पड़ता है और उसमें अगर चन्द्रमा आ जाएं तो यह योग लोगों को मोहित करने में सफल हो जाता है। यदि शनि और शुक्र भी बलवान हो जाएं जैसे कि भगवान श्रीकृष्ण की जन्म पत्रिका में हैं तो व्यक्ति पूरे जगत को मोहित करने में सफल हो जाता है। ऐसे लोगों को चाहे ज्ञान हो या ना हो उनके व्यक्तित्व में Mesmerism और हिप्रोटिज्म की शक्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और वे भीड़ को इकट्ठा करने में सफल हो जाते हैं। खगोलीय दृष्टि से रोहिणी नक्षत्र अति महत्त्वपूर्ण है।

मेदिनी ज्योतिष में रोहिणी को अत्यन्त महत्त्व दिया गया है। ना केवल पुराणों में रोहिणी का जिक्र है, बल्कि वर्षा और प्रलय को लेकर भी रोहिणी की भूमिका मानी गई है। इसे वृषभ राशि का मुकुट या मस्तिष्क माना गया है तथा इस राशि के 100 से 23020 मिनट तक इस नक्षत्र की स्थिति है और जब मई के अंतिम सप्ताह में सूर्य भगवान इस नक्षत्र पर प्रवेश करते हैं तो भारत  भर में लोग इंतजार करते हैं कि अब 9 तपा होगा और अगर 9 दिन सूरज बिना बरसात के तप गया तो वर्षा का मौसम अच्छा जाने वाला है।

पौराणिक कथन है कि दक्ष प्रजापति की 60 कन्याओं में से 13 कन्याओं का विवाह महर्षि कश्यप से हुआ और इस समय धरती पर जितने भी प्राणी हैं वे कश्यप की ही सन्तान हैं। 27 कन्याओं का विवाह चन्द्रमा से हुआ। यह वह नक्षत्र हैं जिनके सामने से चन्द्रमा अपने कक्षा पथ में रहते हुए गतिमान होते हैं। चन्द्रमा सबसे अधिक रोहिणी पर ही मोहित थे। रोहिणी हैं ही ऐसी। फिर आदमी जमाने की परवाह नहीं करता। इसके ठीक विपरीत दिशा में ज्येष्ठा भी ऐसे ही हैं। उत्कृष्ट और आदर्श प्रेमी। परन्तु रोहिणी में अपने माया जाल को विस्तृत और सार्वभौम कर देने की जो शक्ति है वह और किसी में नहीं है। दक्ष प्रजापति से जब उनकी अन्य 26 पुत्रियों अर्थात् रोहिणी को छोड़कर जब अन्य सभी चन्द्र पत्नियों ने शिकायत की तो दक्ष प्रजापति चन्द्रमा पर कुपित हुए और चन्द्रमा को समझाया। परन्तु चन्द्रमा कहाँ मानने वाले थे। दक्ष प्रजापति ने चन्द्रमा को क्षय होने का शाप दे दिया। जगत में अंधेरा हो गया। पृथ्वी पर भारी असर आ गया। सभी ऋषि, मुनि और देवता भगवान ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा सहित सब देवता फिर शिवजी के पास गये। शिवजी ने कहा थोड़ा बहुत उपाय हो जाएगा। परन्तु शाप को कुछ न कुछ फल भोगना ही पड़ेगा। शिवजी के आदेश पर चन्द्रमा ने शिवलिंग बनाकर जो घोर तप प्रारम्भ किया था उस जगह का नाम सोमनाथ है। आंशिक फल यह मिला कि शुक्ल पक्ष में तो चन्द्रमा पूर्णिमा की ओर बढ़ते हैं परन्तु कृष्ण पक्ष में क्षीण हो जाते हैं। आज की तारीख में चन्द्र प्रधान व्यक्तियों के जीवन में इस तरह की कलाएँ आती रहती हैं।

रोहिणी नक्षत्र में पाप ग्रहों का भ्रमण महान उत्पात उत्पन्न करता है।

 

वर्षा सम्बन्धी कहावतें

ज्योति शर्मा

प्राचीन काल से ही वर्षा ऋतु को लेकर कुछ ऐसे संकेत मिलते हैं, जिससे वर्षा कब व कैसी होगी? व्यक्ति अपने आस-पास होने वाले दृश्य से वर्षा का अनुमान लगा लिया करते थे, जो कि इस समय भी प्रचलित हैं। उनमें से कुछ कहावतें इस प्रकार से हैं -

आसाढ़ी पूनो दिया, गाज, बीज बरसन्त।

नासै लक्षण काल का, आनन्द माने सन्त।।

अर्थात् आषाढ़ मास की पूर्णमा को यदि आकाश में बादल गरजे और बिजली चमके तो वर्षा अधिक होगी और अकाल समाप्त हो जाएगा तथा सज्जन आनन्दित होंगे।

उत्तर चमकै बीजली, पूरब बहै जु बाव।

घाघ कहै सुनु घाघिनी, बरधा भीतर लाव।।

अर्थात् यदि उत्तर दिशा में बिजली चमकती हो और पूर्व की ओर हवा बह रही हो तो घाघ अपनी स्त्री से कहते हैं कि बैलों को घर के अन्तर बाँध लो, वर्षा शीघ्र होने वाली है।

उलटे गिरगिट ऊँचे चढै¸। बरखा होई भूइँ जल बुड़ै।।

अर्थात यदि गिरगिट उलटा पेड़ पर चढ़े तो वर्षा इतनी अधिक होगी कि धरती पर जल ही जल दिखेगा।

करिया बादर जीड डरवावै। भूरा बादर पानी लावै।

अर्थात् आसमान में यदि घनघोर काले बादल छाये हैं तो तेज वर्षा का भय उत्पन्न होगा, लेकिन पानी बरसने के आसार नहीं होंगे, परन्तु यदि बादल भूरे हैं तो समझो पानी निश्चित रूप से बरसेगा।

चमके पश्चिम उत्तर कोर। तब जान्यो पानी है जोर।।

अर्थात् जब पश्चिम और उत्तर के कोने पर बिजली चमके तब समझ लेना चाहिये कि वर्षा तेज होने वाली है।

चैत मास दसमी खड़ा, जो कहूँ कोरा जाय।

चौमासे भर बादला, भली भाँति बरसाइ।।

अर्थात् चैत्रमास के शुक्ल पक्ष की दशमी को यदि आसमान में बादल नहीं है तो यह मान लेना चाहिये कि इस वर्ष वर्षा ऋतु में बरसात अच्छी होगी।

जब बरखा चित्रा में होय। सगरी खेती जावै खोय।।

अर्थात् यदि चित्रा नक्षत्र में वर्षा होती है तो सम्पूर्ण खेती नष्ट हो जाती है, इसलिये कहा जाता है कि चित्रा नक्षत्र की वर्षा ठीक नहीं होती।

माघ में बादर लाल घिरै। तब जान्यो साँचो पथरा परै।।

अर्थात् यदि माघ के महीने में लाल रंग के बादल दिखायी पड़ें तो ओले अवश्य गिरेंगे। तात्पर्य यह है कि यदि माघ के महीने में आसमान लाल रंग का दिखायी दे तो ओले गिरने के लक्षण हैं।

रोहिनि बरसे मृग तपे, कुछ दिन आर्द्रा जाय।

कहे घाघ सुनु घाघिनी, स्वान भात नहीं खाय।।

अर्थात् घाघ कहते हैं कि हे घाघिन। यदि रोहिणी नक्षत्र में पानी बरसे और मृगशिरा तपे और आर्द्रा के भी कुछ दिन बीत जाने पर वर्षा हो तो पैदावार इतनी अच्छी होगी कि कुत्ते भी भात खाते - खाते ऊब जायेंगे और भात नहीं खायेंगे।

सावन केरे प्रथम दिन, उवत न दीखै भान।

चार महीना बरसै पानी, याको है परमान।।

अर्थात् यदि सावन के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को आसमान में बादल छाये रहें और प्रातःकाल सूर्य के दर्शन न हों तो निश्चित ही चार महीने तक जोरदार वर्षा होगी।

विनोपघातेन पिपीलिकामण्डोपसंक्रांन्तिरहिव्यवायः

दु्रमावरोहश्च भुजङ्गमानां वृष्टेर्निमित्तानि गवां प्लुतं च।।

अर्थात् बिना कारण चींटियाँ अपने अण्डों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाएं, व सर्प पेड़ पर चढ़े और गाय बिना कारण बैचेन हो रही हो तो समझ लेना चाहिए कि शीघ्र ही वर्षा होने वाली है।

यदि तित्तिर पत्रनिभं गगनं मुदिताः प्रवदन्ति च पक्षिगणाः।

उदयास्तमये सवितुर्द्युनिशं विसृजन्ति घना न चिरेण जलम्।।

अर्थात् यदि सूर्यास्त के समय बादल तीतर के पंख के समान हो रहे हो और पक्षी अपने ही मगन हो रहे हों और एक दिशा से दूसरी दिशा में भ्रमण कर रहे हो तो दिन व रात लगातार वर्षा होती है।

अखै तीज रोहिनी न होई। पौष, अमावस मूल न जोई।।

राखी स्रवणो हीन विचारो। कातिक पूनों कृतिका टारो।।

महि-माहीं खल बलहिं प्रकासै। कहत भड्डरी सालि बिनासै।।

अर्थात् भड्डरी कहते हैं कि वैशाख शुक्ल अक्षय तृतीया को यदि रोहिणी नक्षत्र न पड़े, पौष की अमावस्या को यदि मूल नक्षत्र न पड़े, कार्तिक की पूर्णमासी को यदि कृत्तिका नक्षत्र न पड़े तो समझ लेना चाहिए कि धरती पर दुष्टों का बल बढ़ेगा और धान की उपज नष्ट होगी।

अद्रा भद्रा कृत्तिका, असरेखा जो मघाहिं।

चन्दा ऊगै दूज को, सुख से नरा अघाहिं।।

अर्थात् द्वितीया का चंद्रमा यदि आर्द्रा, भद्रा (भाद्रपद), कृत्तिका, आश्लेषा या मघा में उदित हो तो मनुष्य को सुख ही सुख प्राप्त होगा।

जो चित्रा में खेलै गाई। निहचै खाली साख न जाई।।

अर्थात् यदि कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा-गोवर्धन पूजा, अन्नकूट, गोक्रीड़ा के दिन चित्रा नक्षत्र में चंद्रमा हों तो फसल अच्छी होती है।

पांच सनीचर पांच रवि, पांच मंगर जो होय।

छत्र टूट धरनी परै, अन्न महँगो होय।।

अर्थात् भड्डरी कहते हैं कि यदि एक महीने में पांच शनिवार, पांच रविवार और पांच मंगलवार पड़ें तो महा अशुभ होता है। यदि ऐसा होता है तो या तो राजा का नाश होगा या अन्न महंगा होगा।

सोम सुकर सुरगुरु दिवस, पूस अमावस होय।

घर घर बजी बधाबड़ा, दुःखी न दीखै कोय।।

अर्थात् पूस की अमावस्या को यदि सोमवार, बृहस्पतिवार या शुक्रवार पड़े तो शुभ होता है और हर जगह बधाई बजेगी तथा कोई भी आदमी दुःखी नहीं रहेगा।

 

सतयुगीन अवतार क्षेत्र : चित्रकूट

वीरेन्द्र नाथ भार्गव

भारतीय संस्कृति में परम्परा से कालचक्र को चार युगों में बांटा गया है जो क्रमशः सत, त्रेता, द्वापर और कलियुग हैं। प्रत्येक युग का प्रतिनिधित्व ईश्वरीय अवतार के द्वारा होना माना जाता है। अवतारों से जुड़े आख्यानों-इतिहास का वृहद वर्णन पुराणों में पाया जाता है। त्रेता युग के अवतार राम का जन्म अयोध्या (उत्तर भारत), द्वापर युग के अवतार कृष्ण का जन्म मथुरा (उत्तर भारत) और कलियुग के होने वाले अवतार कल्कि का जन्म सम्भल (उत्तर भारत) विख्यात हैं। सतयुग के अवतार का जन्मस्थान कहां है? इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर ज्ञात नहीं है। सतयुग अवतार संसार में किस स्थान पर हुआ था इसका समाधान परिस्थितिजन्य अनुमानों से ही व्यक्त किया जा सकता है। क्या यह स्थान कालचक्र के तीन युगावतारों की जन्मभूमि उत्तर भारत के अनुरुप उत्तर भारत में ही था? यह संभव है।

चित्रकूट पर बहुत शोध किया गया है और रामायण सहित अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों में उसका वर्णन पाया जाता है। भगवान राम के जीवन का एक भाग वनवास काल में चित्रकूट में ही व्यतीत हुआ था। चित्रकूट में हजारों वर्ष पुराने शैलचित्र पाए गए हैं जिनके कारण वह पर्वतीय क्षेत्र चित्रकूट के नाम से प्रसिद्ध हुआ। लगभग 200 गुफाओं में भगवान राम की कथा पर आधारित प्राचीन चित्र खोज निकाले गए हैं। ऐसे शैलचित्रों की प्राचीनता लगभग तीस हजार वर्ष पुरानी अनुमानित की गई है। चित्रकूट क्षेत्र में पाए गए मानव सभ्यता के प्राचीनतम पुरावशेषों में से एक पूर्वपाषाण काल के अस्त्र केन नामक नदी के किनारे पर बसे बरियारी नामक गांव में ढूंढ निकाले गए थे। कुछ अन्य तथ्य भी विचारणीय हैं।

1.  अनसूया आश्रम अथवा अत्रि आश्रम आज चित्रकूट क्षेत्र का एक प्रसिद्ध स्थान है जो मंदाकिनी नदी के तट पर चित्रकूट से लगभग 15 किमी. दूर है। एक बार ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने सती अनसूया के शील की परीक्षा लेने हेतु उससे नग्न होकर भोजन करवाने का संकल्प व्यक्त किया। अनसूया ने अपने तप के बल पर उन तीनों को छह-छह मास का बालक बन जाने पर नग्न होकर अपना स्तनपान करवाया। इस दृश्य को देखकर स्वयं अत्रि ऋषि भी बहुत हंसे तथा छह मास बीतने पर देवी ब्रह्माणी, लक्ष्मी तथा पार्वती जी की प्रार्थना पर अनसूया ने उन तीनों को पुनः यथावत बनाकर भेज दिया।

2. चित्रकूट क्षेत्र में ही भगवान ने भक्त को समर्पण किया था। गाथा भगवान राम के जीवन की है जब वे वनवास हेतु चित्रकूट आए थे। वहां राम के भाई भरत ने आकर बहुत आग्रह किया था कि राम वापस लौट जाएं। भरत की भक्ति-प्रार्थना का इतना अधिक प्रभाव उस समय हुआ कि स्वयं भगवान राम तक कह उठे कि हे भरत! जैसा तुम चाहोगे वैसा ही होगा। अभी तुम थके हुए हो, रात्रि विश्राम के पश्चात् सुबह अपना निर्णय देना। भगवान के इस समर्पण ने भक्त की भक्ति को हिला डाला और प्रातः भक्ति की मर्यादा के अनुरूप भगवान राम की चरण पादुकाएं लेकर भरत लौट गए।

 

3. रामचरितमानस के रचनाकर गोस्वामी तुलसीदास का जन्म चित्रकूट से 45 कि.मी. दूर राजापुर नामक स्थान पर हुआ था। एक अवसर पर वे चित्रकूट में आकर रहने लगे थे और हनुमानजी की कृपा उन पर हुई। हनुमानजी से उन्होंने श्रीराम के दर्शन करवाने की प्रार्थना की। माघ मास में एक दिन श्रीराम के दर्शन तुलसीदास को हुए किन्तु राम को वे पहचान नहीं पाए। अतः उन्होंने हनुमान जी से पुनः राम दर्शन हेतु प्रार्थना की। उसके दूसरे दिन संवत् 1607 (1550 ई.) मौनी अमावस्या थी। चित्रकूट के घाट पर स्नान करने वालों की भीड़ में एक स्थान पर तुलसीदास स्वयं चंदन घिसने लगे कि यदि भगवान राम आएं तो उन्हें चंदन लगाकर उनका स्वागत करें। उस समय बालक रूप में श्रीराम तुलसीदासजी से चंदन मांगने लगे। श्रीराम के भव्य रूप को देखकर तुलसीदास जी के होश उड़ गए। उन्हें होश में लाने हेतु तब हनुमानजी ने चेताते हुए छिप कर गाया- तुलसीदासजी को सुध-बुध खोया देखकर भगवान राम ने स्वयं चंदन लेकर तुलसीदास को चंदन लगाया और अंतर्ध्यान हो गए। वह घाट आज रामघाट कहलाता है।

4. मुगल बादशाह औरंगजेब कट्टर मुसलमान था। उसने अनेक हिंदू मंदिरों को ध्वस्त करवाया था। उसने चित्रकूट क्षेत्र में आगमन किया तथा अज्ञात दैवीय प्रेरणा के वशीभूत होकर वहां हनुमानजी का विख्यात बालाजी मंदिर का जीर्णोद्धार किया अथवा बनवाया। इस मंदिर में मुस्लिम स्थापत्य और हिंदू स्थापत्य का मिश्रण देखने को मिलता है। 16 जून, 1688 को औरंगजेब ने इस मंदिर को जागीर स्वरूप 350 बीघा जमीन दी थी। प्रसंगवश मुगल बादशाह के नौरत्नों में से एक रहीम (अब्दुल रहीम खानखाना) का जन्म स्थान रामघाट चित्रकूट क्षेत्र में नौमठा नामक स्थान पर हुआ था। रहीम निरपेक्षता से हिंदू देवताओं की प्रशस्ति करते थे और हिन्दी साहित्य में उनका योगदान है। रहीम और तुलसीदास परस्पर मित्र थे। एक बार एक निर्धन ब्राह्मण ने तुलसीदास से धन की याचना की। तुलसी ने एक पत्र लिखकर उसे रहीम के पास भेज दिया। रहीम ने तुरंत उसे धन देते हुए दूसरी ओर मुंह कर लिया। ब्राह्मण द्वारा कारण पूछने पर रहीम ने उत्तर दिया-

देनदार कोई और है, देवत है दिन रैन।

लोग भरम मुझ पर करें, याते नीचे नैन॥

चित्रकूट का मूल अथवा मुख्य पर्वत कामदगिरि है। जिसकी 5 किमी. लम्बी परिक्रमा क्षेत्र में बहुत सारे मंदिर बने हैं। भरत मिलाप मंदिर इसी क्षेत्र में है। चित्रकूट के विख्यात रामघाट पर अनेक मंदिर बने हैं जिनमें मत्तगयंदनाथ और बूढ़े हनुमानमंदिर सिद्ध स्थान हैं। यहां चरखारी मंदिर और विजावर मंदिर वास्तुशिल्प के लिए प्रसिद्ध हैं। चित्रकूट क्षेत्र काल से ऋषियों, तपस्वियों, साधुओं, भक्तों की स्थली रहा है। यहां अनेक राज्यवंशों का राज्य रहा है। चित्रकूट के अन्य प्रसिद्ध स्थल प्रमोदवन, गुप्तगोदावरी, स्फटिक शिला, जानकी कुंड, हनुमानधारा ओर सूर्यकुंड इत्यादि है। भरतकूप नामक चमत्कारी कुआं चित्रकूट से 17 किमी. दूर है जिसमें भारत  की विभिन्न नदियों का जल डाला जाता है। इससे कुएं की पवित्रता परम्परा बनी हुई है। पर्यटन के दृष्टिकोण से चित्रकूट के समीपवर्ती पर्यटन स्थल खजुराहो, महोबा, बुंदेलखंड का कश्मीर नाम से प्रसिद्ध चरखारी और मैहर इत्यादि हैं। मैहर में 51 शक्तिपीठों में से एक शारदा शक्तिपीठ है।