क्या नरेन्द्र मोदी के जीवन को खतरा है?

पं. सतीश शर्मा

अभी-अभी रूसी जासूसी संस्था एफ.एस.बी. (के.जी.बी. का नया नाम) ने टर्की से आये एक आतंकवादी को पकड़ा है तथा खबर यह आई है कि वह किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति को मारने के लिए सुसाइड बांबर के रूप में रूसी हवाई अड्डे के माध्यम से दिल्ली पहुँचना चाहता था। दोनों तरह की खबरे बाजार में हैं कि वह प्रधानमंत्री को मारना चाहता था या किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति को मारना चाहता था। इस आतंकवादी को आई.एस.आई.एस. के किसी प्रतिनिधि ने टर्की में प्रशिक्षण दिया था। यह व्यक्ति मध्य एशियाई क्षेत्र के एक देश का मूल निवासी है।

 

हम इस घटना का और दुनियाभर में फैले आतंकवादियों के मन में नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी शासन के विरुद्ध पल रही घृणा का ज्योतिष के माध्यम से विश्लेषण करने की कोशिश करते हैं। नरेन्द्र मोदी की जन्म पत्रिका की सबसे बड़ी खासियत केन्द्र स्थानों में पाँच ग्रहों का उपस्थित होना है। इससे भी बड़ा एक राजयोग है जिसमें चन्द्रमा से केन्द्र में स्थित बृहस्पति से बन रहे गजकेसरी योग को चन्द्रमा से ही केन्द्र में बैठे शुक्र का सहयोग मिल रहा है। मैं इस योग को शुक्र केसरी योग नाम दे रहा हूँ। मजे की बात यह है कि चतुर्थ भाव में बैठे बृहस्पति को दशम भाव में बैठे शुक्र दृष्टिपात कर रहे हैं, बल्कि दोनों ही ग्रह एक-दूसरे पर दृष्टिपात करके इस योग को कई गुना अधिक शक्तिशाली बना रहे हैं।

नरेन्द्र मोदी की जगत ख्याति का रहस्य उनके जिस योग में छिपा हुआ है, वह यह है कि लग्न में स्थित मंगल चतुर्थ भाव को दृष्टिपात कर रहे हैं। उधर चतुर्थ भाव के स्वामी शनि चतुर्थ भाव पर दृष्टिपात कर रहे हैं। याद रहे दशम भाव में स्थित शनि व्यक्ति को थोड़ा सा डिक्टेटर बनाते हैं। नेपोलियन बोनापार्ट, अल्बर्ट आइंस्टीन, मार्टिन लूथर किंग, शेख मुजीबुर्र रहमान आदि के दशम भाव में शनि थे। ये सब इतिहास बनाने में सफल हुए।

शेख मुजीबुर्र रहमान की हत्या के बाद मुझ से उनके वारिसों में एकमात्र बचे हुए अब्दुल हसनात जयपुर आकर मिले थे और उन्होंने शेख हसीना वाजेद के भविष्य के बारे में पूछा था। वे शेख मुजीबुर्र रहमान की पुत्री हैं और उस समय जेल में थीं। मैंने उनके शनि का अध्ययन किया कि क्या वे मारी तो नहीं जाएंगी? मैंने 2008 में भविष्यवाणी की कि वे जेल से बाहर आ जाएंगी और दुबारा प्रधानमंत्री बनेंगी। उनका शनि थोड़ा अलग था। उन्होंने अजमेर शरीफ के खादिम कलीमुद्दीन चिश्ती के माध्यम से मेरी एक बड़ी ज्योतिष सभा में आकर तारीफ की और धन्यवाद अदा किया। शेख हसीना लम्बे समय से शासन में हैं।

ऐसे शनि जबरदस्त उत्थान कराते हैं परन्तु आखिर में अचानक दृश्य पटल से दूर हो जाते हैं। ये सारे लोग इतिहास बनाने में सफल हुए और लम्बे समय तक याद किये जाएंगे। प्रश्न यह है कि दशम शनि वाले हिटलर का या नेपोलियन का पतन एक अलग ढ़ंग से हुआ। हिटलर एक बंकर में मारा गया और नेपोलियन बोनापार्ट सेन्ट हेलेना द्वीप में सात साल कैद रहा। उनकी पत्नी दुर्भाग्य का कारण बनी।

क्या नरेन्द्र मोदी की कुण्डली में ऐसा है?

मेरा अनुमान है कि देश के बाहर के कुछ संगठन व देश के अन्दर ही कुछ लोग नरेन्द्र मोदी की जान के लिए खतरा हैं।  आप गौर करें कि जो लोग भारत में शासन के दावेदार रहे हैं, उनके आसपास के या विश्वसनीय कुछ लोगों की मृत्यु स्वाभाविक ढ़ंग से नहीं हुई है। जनता में अफवाहें भी रही हैं। सत्ता के लिए संघर्ष न केवल खिलजियों, मुगलों, तुर्क व मंगोलों में रहे हैं बल्कि सम्राट अशोक के बारे में भी यह कथन है कि सम्बन्धियों के बहुत बड़े रक्तपात के बाद वे शासन में आये थे। सत्ता का चरित्र ही यही है। सत्तासीन लोगों को हटाये बिना शासन प्राप्ति संभव नहीं है। लोकतंत्र में चुनाव के माध्यम से व तानाशाही में बल प्रयोग या रक्तपात के माध्यम से ऐसी कोशिशें सदा ही हुई है। परन्तु नरेन्द्र मोदी की कुण्डली में मध्यम आयु के योग हैं।

नरेन्द्र मोदी का आयु योग -

जैमिनी ऋषि ने आयु गणना के जो तीन आयाम बनाये हैं, उनमें वे एक ऐसे योग का लाभ पा रहे हैं जो अपवाद स्वरूप है। ‘पितृलाभगे चन्द्रे, चन्द्र मन्दाभ्याम्’ अगर लग्न या सप्तम भाव में चन्द्रमा हों तो चन्द्रमा और शनि की स्थिति से ही आयु निर्धारण करना चाहिए। उनके चन्द्रमा स्थिर राशि में हैं और शनि भी स्थिर राशि में हैं। दोनों स्थिर राशि में होने से उनको मध्यायु का योग बना है, जिसकी ऊपरी सीमा 80 वर्ष है। अगर केन्द्र में बृहस्पति हों तो कुछ आयु और भी बढ़ जाती है। शनि पर बृहस्पति की दृष्टि होने के कारण कक्षा हानि भी नहीं होगी। अर्थात् मध्यायु योग बना रहेगा। किसी कारण से कक्षा हानि होती भी है तो एक अन्य योग उपलब्ध है- ‘रोगेशे तुंगे नवांश वृद्धिः’’ अर्थात् अष्टमेश यदि उच्च राशि में हो तो नौ वर्ष आयु और मिल जाती है। लग्न में अपनी ही राशि में बैठे मंगल आयु योग को पुष्ट करते हैं। इनके आत्मकारक शनि से त्रिकोण स्थान शुद्ध है और आयु हानि नहीं करते हैं। इन सब बातों से नरेन्द्र मोदी मध्यायु योग के ठहरते हैं जिसकी औसत गणना 80 वर्ष की है।

क्या उनकी मारक दशाएँ चल रही हैं?

नहीं, वे इस समय मंगल महादशा की राहु अन्तर्दशा में चल रहे हैं, जो कि मई 2023 तक रहेगी। उसके बाद गुरु अन्तर्दशा रहेगी जो कि अप्रैल 2024 तक रहेगी और उसके बाद मंगल महादशा की शनि अन्तर्दशा रहेगी जो कि अप्रैल 2024 से मई 2025 तक रहेगी। इसी अन्तर्दशा में आम चुनाव होंगे। चुनाव का भविष्यफल मैं फिर कभी लिखूँगा। अभी तो आयु पक्ष पर ही चर्चा करनी है। जनवरी, 2023 से मार्च, 2025 तक शनिदेव कुम्भ राशि में रहेंगे और इस समय वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चतुर्थ भाव में भ्रमण करते हुए उनकी लग्न पर दृष्टिपात करेंगे। शनि की लग्न पर दृष्टि अच्छी नहीं मानी जाती। इस अवधि में ही वे दो बार वक्री भी होंगे, 18 जून, 2023 से कुछ महीनों के लिए तथा जून, 2024 से कुछ महीनों के लिए। राशि कुम्भ ही रहेगी। परन्तु उनको प्रथम तो बृहस्पति ही मीन राशि में रहते हुए लग्न पर दृष्टिपात करेंगे और अप्रैल 2023 तक सुरक्षित रखेंगे। इसके बाद बृहस्पति देव मेष राशि में आ जाएंगे जो पुनः आयु रक्षा करेंगे। मई 2023 से अप्रैल, 2024 तक बृहस्पति की अन्तर्दशा है और जब पुनः शनि की अन्तर्दशा आएगी तब उनके बृहस्पति वृषभ राशि में रहते हुए एक वर्ष तक लग्न पर दृष्टिपात करेंगे। इसका मतलब आयु को खतरा नहीं है। आतंकवादी उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएंगे। बल्कि कुम्भ राशि के शनि शत्रुहंता योग बना रहे हैं और उनकी लोकप्रियता को और भी बढ़ा देंगे।

 

घर में कौन से वृक्ष लगाएं?

यह लेख उन लोगों के लिए अधिक काम का है जिन्होंने भूमि खरीद कर मकान बनाया है। परन्तु फ्लेट्स में रहने वालों के लिए अगर वे गमले में या बोनसाई वृक्ष लगाते हैं तो उनके भी उपयोग का हो सकता है।

दूध वाले वृक्ष, काँटे वाले वृक्ष और फल वाले वृक्ष मकान के समीप अच्छे नहीं होते हैं। दुग्ध वाले वृक्ष धन नाश करने वाले, काँटे वाले वृक्ष शत्रुभय तथा फल वाले वृक्ष संतान का नाश कराते हैं। वास्तुराजवल्लभ नाम के ग्रंथ में यह कहा गया है कि चंपा, गुलाब, केला, जाती और केतकी के वृक्ष शुभ होते हैं। अगर वृक्ष लम्बे हों तो एक प्रहर के बाद वृक्ष की छाया अगर घर पर पड़े तो शुभ नहीं मानी गई है। घर के नजदीक पीले फूलों वाले वृक्ष भी नहीं होने चाहिए। वास्तुप्रदीप नामक ग्रंथ में तो अग्नि कोण में गुल्लर का वृक्ष होने पर मृत्यु या पीड़ादायक बताया गया है। दक्षिण दिशा के सारे ही वृक्ष अशुभ होते हैं।

चंदन, अंगूर, पीपली और अनार का वृक्ष शुभ माना गया है, परन्तु जिन वृक्षों की दिशाओं के हिसाब से प्रशंसा की गई है उनमें मकान से उत्तर की ओर कैत, पूर्व दिशा में बरगद और पश्चिम दिशा में पीपल शुभ कामना गया है।

पुननाग, नीम, अनार, केसर, जयन्ती, चंदन, वचा, अपराजिता, मधु, बेल, आम, दालचीनी, नागर आदि वृक्ष शुभ कामना गये हैं। परन्तु मकान के अन्दर पीपल, कदम्ब, केला और बीजू नींबू अशुभ माने गये हैं और उस घर की वंश वृद्धि रूक जाती है। पूर्व दिशा में पीपल और पश्चिम दिशा में बरगद अशुभ माने गये हैं।

वास्तुशास्त्र के अनुसार वृक्ष तभी फलदायक होते हैं जब वे भूमि से सम्बन्ध स्थापित करें। अर्थात् उनकी जड़े भूमि में गई हुई हों। अगर वृक्ष की जड़े गमलों के कारण भूमि से सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाती हैं तो उनके अशुभ लक्षण समाप्त हो जाते हैं।

आजकल इस बात का ज्ञान करना बड़ा मुश्किल हैं कि जो फर्नीचर हम काम में ले रहे हैं उनकी लकड़ी कहाँ से आई है। परन्तु अशुभ माने गये वृक्षों की लकड़ी दुःख देती है। बाल, वृद्ध व रुग्ण वृक्षों की लकड़ी अशुभ होती है। जिस तरह से मृत देह से मुक्त आत्मा का मोह बहुत बार बना रहता है इसी प्रकार मृत वृक्ष का प्राण तत्त्व बहुत दिनों तक फर्नीचर की लकड़ी में भी मौजूद रहता है। वृक्ष योनि का का पुनर्जन्म होने पर ही वह आत्मा मुक्त होती हैं, इसलिए भवन काष्ठ का परीक्षण करना भी यदि सम्भव हो तो कर लेना चाहिए।

 

तीर्थयात्रा की महत्ता

ज्योति शर्मा

तारयितुं समर्थः इति तीर्थः।

अर्थात् जो तार देने, पार कर देने में समर्थ होता है, वह तीर्थ कहलाता है। तरना सद्विचारों, सत्कर्मों एवं संतों के सत्संग से ही हो सकता है। जहां संतों, महात्माओं का सत्संग आदि प्राप्त हो वह तीर्थ स्थल कहलाता है। तीर्थ स्थलों पर प्राकृतिक सौंदर्य अपने आप होने लगता है। तीर्थयात्रा के पुण्य का उल्लेख धर्मशास्त्रों में अनेक बार हुआ है। शिव पुराण, अथर्ववेद, पद्मपुराण व स्कंदपुराण का बहुत भाग तीर्थ महात्म्य से ही ओतप्रोत है।

महाभारत वनपर्व में कहा गया है कि जो पुण्य, अग्निष्त्येम जैसे विशल यज्ञों से उपलब्ध नहीं हो सकता, वह तीर्थ स्थल से सहज-सुलभ हो जाता है।

पुलस्त्य ऋषि ने कहा है -

पुष्करे तु कुरुक्षेत्रे गंगायां मगधेषु च।

स्नात्वा तारयते जन्तुः सप्त सप्तावशंस्तया।।

अर्थात् पुष्कर, कुरुक्षेत्र, गंगा और मगध देशीय तीर्थ में स्नान करने वाला व्यक्ति अपनी सात पीछे की और सात आगे की पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। देवी भागवत में कहा गया है कि जिस प्रकार कृषि का फल अन्न उत्पादन है उसी प्रकार निष्पाक बनना ही तीर्थयात्रा का प्रतिफल है। अथर्ववेद में उल्लेख मिलता है कि तीर्थ यात्रा करने वाला तीर्थयात्री तीर्थादि द्वारा बड़े-बड़े पापों और आपत्तियों से मुक्त होकर पुण्यलोक की प्राप्ति करता है।

शास्त्रकारों ने कहा है कि तीर्थ में जिसकी जैसी श्रद्धा होती है उसे वैसा ही फल मिलता है। जो यथोक्त विधि से तीर्थयात्रा करते हैं, सम्पूर्ण द्वंद्वों को सहन करने वाला है, वह धीर पुरुष स्वर्ग में जाते हैं। ऐसा नारद पुराण में उल्लेख मिलता है-

कामं क्रोधं च लोभं च यो जित्वा तीर्थमाविशेम्।

न तेन किंचिदप्राप्तं तीर्थभिगमनाद् भवेत्।।

अर्थात् जो काम, क्रोध और लोभ जीतकर तीर्थ में प्रवेश करता है, उसे तीर्थयात्रा से सब कुछ प्राप्त हो जाता है।

स्कंद पुराण में तीर्थ के संबंध में कहा गया है कि सत्य तीर्थ है। क्षमा करना तीर्थ के समान फलदायक है। इंद्रियों पर नियंत्रण करना तीर्थ के समान उपकारी है। सब प्राणियों पर दया करना तीर्थ के समान पुण्य देने वाला है। जो सरल जीवन व्यतीत करता है वह भी तीर्थ समझना चाहिए। तीर्थ में यह  सबसे श्रेष्ठ है- अंतःकरण की अत्यंत विशुद्धि।

यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुंसयताम्।

निर्विकाराः क्रियाः सर्वा स तीर्थफलमश्नुते।।

अर्थात् जिसके हाथ, पैर और मन भली-भांति संयम में हों तथा जिसकी सभी क्रियाएं निर्विकार भाव से सम्पन्न होती हो, वही तीर्थ का पूरा फल प्राप्त कर सकता है।

यस्य हस्तौ च पादौ च वाङ्मनस्तु सुसंयते। विद्या तपश्च कीर्तिश्च स तीर्थफलमश्रुते।।

अश्रद्दधानः पापात्मा नास्तिकोऽच्छिसंशयः। हेतुनिष्ठाश्च पंचैते न तीर्थफलभागिनः।।

 

अर्थात् जिसके हाथ, पैर, मन और वाणी सुसंयत है तथा जिसकी विद्या, कीर्ति और तपस्या पूरी है उसे ही तीर्थ का फल मिलता है। श्रद्धा रहित पापी, संशय ग्रस्त, नास्तिक और तार्किक इन पांच प्रकार के लोगों को तीर्थ का फल नहीं मिलता।

पद्म पुराण में कहा गया है कि तीर्थों में ब्रह्म परायण, साधु-सज्जन मिलते हैं, उनका दर्शन मनुष्य के पापों को क्षय करता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह मद्य ये सब मन के मैल हैं। मन का निर्मल रहना परम तीर्थ है। महाभारत समाप्त होने के उपरान्त धर्मराज युधिष्ठिर ने तीर्थ यात्रा करने की निश्चय किया, साथ ही अपने चारों भाईयों व द्रौपदी को भी साथ लिया। प्रस्थान करने से पूर्व वे भगवान श्रीकृष्ण के पास गए और तीर्थ पर जाने की आज्ञा मांगी। भगवान श्रीकृष्ण ने आज्ञा देते हुए युधिष्ठिर को अपना कमण्डलु देते हुए कहा कि-जहां-जहां तीर्थ स्थानों, नदियों और सरोवर में स्नान करोगे, वहां-वहां इसको भी स्नान करवाना।

काफी दिनों बाद धर्मराज युधिष्ठिर लौटे तो वह कमण्डलु लौटाने के लिए भगवान श्री कृष्ण के पास पहंुचे और कमण्डलु लौटाते हुए कहा मैंने इसको सभी स्थानों पर स्नान कराया है। श्रीकृष्ण ने कमण्डलु को अपने हाथ में लिया और जमीन पर पटक दिया। कमण्डलु के टुकड़े-टुकड़े हो गए। उन टुकड़ों को श्रीकृष्ण ने प्रसाद के रूप में वहां उपस्थित सभी लोगों में बांट दिया।

जिसने भी प्रसाद चखा, मुंह कड़वा हो गया। लोग उसे थूकने लगे और मुंह बनाने लगे। यह सब देखकर श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर से पूछा, यह कितने तीर्थ घूमकर आ रहा है और कितने स्थानों पर स्नान किया है। फिर भी इसका कड़वापन दूर क्यों नहीं हुआ? धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा - आप भी कैसी बात करते हैं, नहाने मात्र से कमण्डलु का कड़वापन भला कैसे निकल सकता है? भगवान श्रीकृष्ण ने समाधान करते हुए कहा- यदि ऐसा है तो तीर्थ स्थान का बाह्योपचार करने मात्र से अंत का परिष्कार, धुलाई, मजाई कैसे हो सकती है। धर्मराज ने अपनी गलती सुधारी और आत्मशोधन की गरिमा को जाना।

महाभारत, वेदों, पुराणों, उपपुराणों में तीर्थ करने से पापों की निवृत्ति, पुण्य, संचय, मुक्ति और स्वर्ग की प्राप्ति, देवताओं की अनुकम्पा, आत्मशक्ति, मनोकामनाओं की पूर्ति जैसे लाभ गिनाएं हैं परंतु तीर्थयात्रा मन, श्रद्धा व इंद्रियों पर नियंत्रण पूर्ण विश्वास, साफ मन और आत्मा से किया जाए तो व्यक्ति का जीवन सफल हो जाता है।

तीर्थयात्रा का उद्देश्य है - अंतकरण की शुद्धि और आत्म कल्याण। अतः आत्म कल्याण के इच्छुकों को तीर्थयात्रा का पुण्य लाभ लेना चाहिए।

 

पति की मंगलकामना के लिए करे हरितालिका व्रत

डॉ सुमित्रा अग्रवाल

 

किसने शुरुआत की इस तीज के व्रत की -

हिमालय की पुत्री पार्वतीजी ने इस व्रत की शुरुआत की। पार्वतीजी हिमालय राज के घर में जन्म लेने से पहले राजा दक्ष के घर में जन्मी थी और उनका विवाह भगवान शंकर से हुआ था।  दक्ष के यहाँ हो रहे यज्ञ में शिवजी आमंत्रित नहीं थे फिर भी माता सती समारोह में गई और वहां जाकर जब पति शिवजी का अपमान हुआ तो उसे सहन नहीं कर पाई और वहीं जल कर देह त्याग दी।  हिमालय और मैना की तपस्या के फलस्वरूप उनकी पुत्री के रूप में पुन: जन्म लिया और शिवजी को स्वामी के रूप में पाने के लिए पूजा, साधना, तपस्या की।

पौराणिक कथा

 भविष्य पुराण में हरितालिका व्रत के बारे में बताया गया है। एक समय की बात है जब देवर्षि नारद ने हिमालय से कहा कि आपकी कन्या ने अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या की है और भगवान विष्णु इससे बहुत प्रसन्न हुए हैं और वह आपकी पुत्री से विवाह करने की इच्छा रखते हैं इसलिए मैं आपके पास उनका संदेश लेकर आया हूं और आपकी इच्छा जानना चाहता हूं। क्या आपको यह विवाह प्रस्ताव स्वीकार है? नारद जी की ऐसी बात सुनकर भला कोई व्यक्ति कैसे इंकार कर सकता था। हिमालय ने मुदित होकर कहा देवर्षि इसमें मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। हर्ष, उल्लास के साथ नारद जी विष्णु जी के पास पहुंचे और कहा कि हिमालय अपनी पुत्री का विवाह आपसे करने के लिए स्वीकृति दे चुके हैं। जब यह बात हिमालय की पुत्री पार्वती जी को पता चली तो उन्हें बहुत दु:ख हुआ और उन्होंने अपने प्राण त्यागने तक की सोच ली। जब उनकी सखी ने उन्हें इस तरीके से विलाप करते हुए देखा तो कहा कि एक काम करो तुम जंगल में चली जाओ और भगवान शंकर की तपस्या करनी चालू कर दो। सच्चे हृदय से अगर तुम भगवान शंकर को वर के रूप में पाने की कामना करोगी तो शिवजी से तुम्हारा विवाह अवश्य होगा। पार्वती जी अपनी सखी के साथ घनघोर जंगल में तपस्या करने के लिए चली गई। जब हिमालय को यह पता चला तो वह बहुत ही दुखी हुए कि उनका दिया हुआ वचन भंग हो जायेगा। सभी सेवक माता पार्वती जी को खोजने में लग गए। उधर एक नदी के किनारे पहुंचकर पार्वती जी ने भगवान शंकर की घोर तपस्या शुरू कर दी। भाद्र शुक्ल की तृतीया को व्रत उपवास करके शिवलिंग का पूजन और रात्रि जागरण करके पार्वती जी ने भगवान शंकर को प्रसन्न किया।  पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर पूजा स्थल पर प्रकट हुए और उन्हें अपनी अर्द्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया और वह कैलाश पर्वत चले गए। अगले दिन सुबह जब पार्वती जी पूजन सामग्री को नदी में प्रवाहित कर रही थी उसी समय हिमालय राज उन्हें वहां खोजते पर पहुंच गए।  पुत्री के मन की बात जानकर उन्होंने शास्त्रोक्त विधि-विधान के अनुसार शिव-पार्वती का विवाह करा दिया।

फिर शिव जी ने कहा -हे पार्वती! इस व्रत को जो भी करेगी और मेरी आराधना करेगा, मैं उस कुमारी को मनोवांछित फल दूंगा, जो विवाहित स्त्री परम श्रद्धा पूर्वक इस व्रत को करेगी उसे तुम्हारे समान अचल सुहाग मिलेगा। तभी से यह व्रत को करने का प्रचलन शुरू हो गया।  इसी प्रकार यह परंपरा बहुत प्राचीन समय से अभी तक चली आ रही है।

हरितालिका व्रत कुमारी कन्या कर सकती हैं, अपने भावी सुंदर पति के लिए। भगवान से प्रार्थना कर सकती है ताकि उनको मनचाहा पति मिले। सुहागन औरतें इस व्रत को करती हैं ताकि उनके स्वामी की आयु लंबी हो, उन्हें अटल सौभाग्य मिले और वह सुहागन ही इस पृथ्वी पर से जाएं। ऐसी मान्यता है कि जो स्त्री इस व्रत को करती है  वह सौभाग्यशाली होती है, संसार में जब तक रहती है तब तक सुख को प्राप्त करती है और अंत में शिवलोक को प्राप्त होती है।  व्रत के प्रभाव से स्त्री के सब पाप नष्ट हो जाते हैं और करोड़ों यज्ञों का फल मिलता है।

पूजन विधि -

यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को किया जाता है। यदि इस दिन हस्त नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है।  इस व्रत को केवल स्त्रियां ही कर सकती हैं, फिर चाहे वह कुमारी हो या विवाहित हो।  शास्त्रों में सधवा व विधवा सभी के लिए इस व्रत को रखने का उल्लेख बताया गया है। तृतीया के दिन इस व्रत को करने से पहले स्त्रियाँ हाथों में मेहंदी लगाती है, तिल के पत्तों से अपना सिर भिगोती है और एक साथ एक समूह बना कर गीत गाती है। तृतीया के दिन प्रात:काल दैनिक कार्य करके, स्नान करके, निर्जल उपवास किया जाता है। स्त्रियाँ गणेश जी की पूजा करके, 'उमा महेश्वर सायुज्य सिद्धये हरियाली का व्रतमह करिष्ये'  से संकल्प करके सात जन्म तक राज्य और अखंड सौभाग्य प्राप्त करती है।

इस वर्ष यह व्रत 30 अगस्त को है।