माँ दुर्गा के 9 स्वरूप

ज्योति शर्मा

                माँ दुर्गा को परम शक्ति के रूप में 9 रूपों में पूजा जाता है। इन 9 रूपों को पापों का विनाश करने वाला माना गया है। हर एक रूप में माँ के अलग-अलग वाहन व अलग-अलग अस्त्र-शस्त्र हैं परंतु यह सब माँ दुर्गा की तरह एक ही माने जाते हैं। शिवजी की जीवनसंगिनी के रूप में ही माँ की आराधना अपने वैवाहिक जीवन को कुशहाल बनाने के लिए माता पार्वती के रूप में पूजा की जाती है। दुर्गा सप्तशती ग्रंथ के अन्तर्गत देवी कवच स्त्रोत में नव दुर्गा के नाम बताए गए हैं।

 

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।

तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।।

पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।

सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्।।

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।

उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना।।

 

1. नवरात्रि का प्रथम दिन श्री शैलपुत्री -

भगवान शंकर को यज्ञ भाग न मिलने के कारण सती ने दक्ष प्रजापति के यज्ञ में अपने आपको भस्म कर लिया। इन्होंने ही अगले जन्म में शैलपुत्री के रूप में जन्म लिया। शिव को पाने के लिए इन्होंने घोर तपस्या की। इनके दांये हाथ में त्रिशूल है और बांये हाथ में कमल है। ये वृषभ पर आरूढ़ हैं। आदि शक्ति श्री दुर्गा का प्रथम स्वरूप श्री शैलपुत्री हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के प्रथम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त मूलाधार चक्र में स्थिर करके अपनी साधना प्रारंभ करनी चाहिए। श्री शैलपुत्री का महत्व और शक्ति अनन्त है। इनके पूजन से मूलाधार चक्र जाग्रत होता है, जिससे साधक को मूलाधार चक्र जाग्रत होने से प्राप्त होने वाली सिद्धियाँ स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। इस देवी का पूजन करने वाली स्ति्रयों को भगवान शिव जैसे पति की कामना रहती हैं और पुरुषों को भगवान शिव की कृपा की कामना रहती है।

2. नवरात्रि का द्वितीय दिन श्री ब्रह्मचारिणी - 

श्री दुर्गा का द्वितीय स्वरूप श्री ब्रह्मचारिणी है। यहां ब्रह्मचारिणी का अर्थ तपश्चारिणी ही है। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। अतः ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं। इनके दांये हाथ में जप माला और बांये हाथ में कमण्डल है। नवरात्र के द्वितीय दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त स्वाघिष्ठान चक्र में स्थिर कर साधना करना चाहिए। श्री ब्रह्मचारिणी के पूजन से साधक को स्वाधिष्ठान चक्र जागृति होने की सिद्धियाँ स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। श्री ब्रह्मचारिणी भक्तों और सिद्धों को अनन्तफल देने वाली हैं। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य सदाचार, संयम की वृद्धि होती है। जीवन के कठिन संघर्षों में भी उसका मन कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता। माँ ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है। इन देवी ने हजारों वर्ष तक तपस्या की और सूखे विल्वपत्र तक खाना छोड़ दिया जिसके कारण इनका नाम अपर्णा भी पड़ गया। यह देवी कठिन संघर्ष की प्ररेणा देती हंै।

3. नवरात्रि का तृतीय दिन श्री चन्द्रघण्टा - 

श्री दुर्गा का तृतीय स्वरूप श्री चन्द्रघण्टा है। इनके मस्तक पर घण्टे के आकार का अर्धचन्द्र है, इसी कारण इन्हें चन्द्रघण्टा देवी कहा जाता है। नवरात्र के तृतीय दिन इनका पूजन और अर्चन किया जाता है। इस दिन साधक को अपना चित्त मणिपूर चक्र पर स्थिर करके अपनी साधना करनी चाहिए। श्री चन्द्रघण्टा के पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियाँ स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। इनकी उपासना से हमें समस्त सांसारिक कष्टों से मुक्ति हो जाती है। सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं। हमें निरन्तर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखते हुए साधना की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिये परम कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है। इनके शरीर का रंग सोने के समान चमकीला है, इनके दस हाथ हैं, यह सिंह पर सवार हैं और युद्ध मुद्रा में खड्ग और अन्य अस्त्र-शस्त्र से विभूषित हैं। इनकी कृपा से अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं।

4. नवरात्रि का चतुर्थ दिन श्री कूष्माण्डा -

श्री दुर्गा का चतुर्थ स्वरूप श्री कूष्माण्डा है। ईषत् हास्य से ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से पुकारा जाता है। नवरात्र के चतुर्थ दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त अनाहत- चक्र पर स्थिर करके साधना करनी चाहिए। श्री कूष्माण्डा के पूजन से अनाहत चक्र जागृति की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। श्री कूष्माण्डा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। माँ कूष्माण्डा अत्यल्प सेवा और भक्ति से भी प्रसन्न होने वाली हैं। यदि साधक सच्चे हृदय से इनका शरणागत बन जाए तो फिर उसे अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो जाती है। इन देवी की आठ भुजाएं हैं इनके हाथों में कमण्डल, धनुष-बाण, कमल पुष्प, अमृत कलश, चक्र तथा गदा हैं आठवें हाथ में सिद्धियों व निधियों को देने वाली जप माला है। यज्ञ में इन्हें कुम्हडे की बलि दी जाती है। यह आदि शक्ति है व सूर्य लोक में यही रह सकती हैं। ब्रह्माण्ड की सभी शक्तियों में इनका तेज व्याप्त हैं, यह रोग-शोक नाशक हैं और शीघ्र प्रसन्न होती है।

5. नवरात्रि का पंचम दिन श्री स्कन्द - 

श्री दुर्गा का पंचम स्वरूप श्री स्कन्द है। शिव पुत्र श्री स्कन्द (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कन्द माता कहा जाता है। नवरात्र के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त विशुद्ध चक्र पर स्थित करके साधना करनी चाहिए। इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियाँ स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। श्री स्कन्द की उपासना से साधक की समस्त इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। इस मृत्युलोक में ही उसे परम शान्ति और सुख का अनुभव होने लगता है। उसके लिए मोक्ष का द्वार स्वयमेव सुलभ हो जाता है। श्री स्कन्द की उपासना से बालरूप स्कन्द भगवान की उपासना से स्वयमेव हो जाती है। यह विशेषता केवल इन्हीं को प्राप्त है, अतः साधक को श्री स्कन्दा की उपासना की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। यह दाहिनी तरफ की ऊपर वाली भुजा में स्कन्द को लिये हुए है और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है, बांये तरफ की ऊपर वाली भुजा वरद मुद्रा में ेहै और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। इनका वर्ण शुभ्र हैं और यह कमल के आसन पर हैं। इन्हीं को पद्मासना भी कहा जाता है। इनका वाहन सिंह हैं। ये मोक्षदायिनी है और इनकी पूजा से तेज मिलता है। कालिदास ने इन्हीं की आराधना की थी।

6. नवरात्रि का षष्ठम दिन श्री कात्यायनी - 

धर्म-अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाली श्री दुर्गा का षष्ठम् स्वरूप श्री कात्यायनी है। कात्य गोत्र में उत्पन्न महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदि शक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्र के षष्ठम दिन इनका पूजन और आराधना होती है। इस दिन साधक को अपना चित्त आज्ञा चक्र में स्थिर करके साधना करनी चाहिए। श्री कात्यायनी की उपासना से आज्ञा चक्र जागृति की सिद्धियाँ साधक को स्वयमेव प्राप्त हो जाती हैं। श्री कात्यायनी की भक्ति और उपासना द्वारा साधक को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है। उसके रोग, शोक संताप भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं। यह ब्रज मण्डल की अधिष्ठात्री देवी भी हैं ब्रज की गोपियों ने कृष्ण को पाने के लिए कालिंदी यमुना के तट पर इनकी पूजा की थी। यह सर्वप्रथम वैद्यनाथ स्थान पर प्रकट हुई थी इनकी चार भुजाऐं हैं। दांये तरफ की ऊपर वाली भुजा अभय मुद्रा में है, नीचे वाली भुजा वर मुद्रा में है, बांये तरफ  की ऊपर वाली भुजा में तलवार है और नीचे वाली भुजा में कमल है, यह सिंह वाहिनी हैं।

7. नवरात्रि का सप्तम दिन श्री कालरात्रि - 

श्री दुर्गा का सप्तम स्वरूप श्री कालरात्रि है। ये काल का नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि कहलाती हैं। नवरात्र के सप्तम दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट) में स्थिर कर साधना करनी चाहिए। श्री कालरात्रि की साधना से साधक को भानुचक्र जागृति की सिद्धियाँ स्वयमेव प्राप्त हो जाती है। इनकी उपासना से सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं। इनके शरीर का रंग कृष्ण है, रूप भयानक है, सिर के बाल बिखरे हुए हैं और यह गर्दभ की सवारी करती हैं। इनके तीन नेत्र है, चार भुजाएं हैं। दांये तरफ का ऊपर वाला हाथ वरद मुद्रा में हैं, नीचे वाला अभय मुद्रा में हैं। इनका ही नाम शुभंकरी है। यह ग्रह बाधाओं को दूर करती हैं।

8. नवरात्रि का अष्टम दिन श्री महागौरी - 

श्री दुर्गा का अष्टम् स्वरूप श्री महागौरी है। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती हैं। नवरात्र के अष्टम् दिन इनका पूजन और अर्चन किया जाता है। इस दिन साधक को अपना चित्त सोमचक्र (उर्घ्व ललाट) में स्थिर करके साधना करनी चाहिए। श्री महागौरी की आराधना से सोम चक्र जागृति की सिद्धियाँ स्वयमेव प्राप्त हो जाती हैं। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है। ये भक्तों का कष्ट दूर करती हैं। इनकी उपासना से आर्तजनों के असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाते हैं। ये मनुष्य की वृत्तियों को सत् की ओर प्रेरित करके असत् का विनाश करती हैं। इनकी आयु आठ वर्ष मानी गयी है। इन्हें ही श्वेताम्बर धरा कहा गया है। यह वृषभ पर आरूड़ हैं। इनके हाथ में त्रिशूल और ड़मरू है तथा एक हाथ वरद मुद्रा में है। नवरात्रि के आठवें दिन आठ वर्ष से कम उम्र की कन्याओं को भोजन कराना चाहिए और उनका पूजन करना चाहिए।  

9. नवरात्रि का नवम दिन श्री सिद्धिदात्री - 

भगवान शिव ने भी इन दुर्गा की कृपा से सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इसलिए श्री दुर्गा का नवम् स्वरूप श्री सिद्धिदात्री है। इन देवी के कारण ही शिव का आधा शरीर नारी का हुआ था इसलिए शिव अर्द्धनारीश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए। नवरात्र के नवम् दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त निर्वाणु चक्र (मध्य कपाल) में स्थिर कर अपनी साधना करनी चाहिए। श्री सिद्धिदात्री की आराधना से निर्वाण चक्र जागृति की सिद्धियाँ साधक को प्राप्त होती हैं। श्री सिद्धिदात्री की विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है।

हिमालय के नंदा पर्वत पर इनका प्रसिद्ध तीर्थ है। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व की सिद्धियाँ यह प्रदान करती हैं। इनके हाथ में चक्र गदा, शंख और कमल पुष्प हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी उपासना अमृत पद दिलाती है।