कोलकाता: बंगाल में 75 साल पहले देश के स्वाधीन होने के अवसर पर लोगों में गजब का उत्साह था और देशभक्ति की फिल्में दिखा रहे सिनेमाघर पूरी तरह भरे होते थे। यह जोश और खुशी कई हफ्तों तक रही तथा रुपहले पर्दे पर एक के बाद एक देशभक्ति से सराबोर फिल्में लगती गईं।

ब्रिटिश शासन के दौरान सिनेमाघरों तक लोगों की पहुंच सीमित हुआ करती थी लेकिन अब उन्हें अपनी भावनाओं को पर्दे पर देखने से रोकने वाला कोई नहीं था। स्वतंत्र भारत के पहले दिन शहर के सबसे पुराने सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमाघर ‘टॉकी शो हाउस’ ने सुधीर बंधु की फिल्म ‘वंदे मातरम’ दिखाई थी।

इस फिल्म का निर्माण 1946 में हुआ था तथा इसमें मोलिना देवी और छवि विश्वास ने अभिनय किया था। छवि विश्वास ने बाद में तपन सिन्हा की ‘काबुलीवाला’ और सत्यजीत रे की ‘जलसागर’ जैसी फिल्मों में काम किया था जिससे वह मशहूर हो गए थे।

मोलिना देवी ने बंगाली और हिंदी फिल्मों में काम किया था। उत्तर, मध्य और दक्षिण कोलकाता में कुछ सिनेमाघरों ने ‘स्वप्न ओ साधना’ फिल्म प्रदर्शित की थी जिसे देखने के लिए लोग उमड़ पड़े थे। अग्रदूत द्वारा निर्देशित इस फिल्म के लिए तकनीशियनों के एक समूह ने निर्देशक के रूप में हस्ताक्षर किये थे।

फिल्म में संध्यारानी और जाहर गंगोपाध्याय ने मुख्य भूमिका निभाई थी। बंगाल के सिनेमाघरों में एक अगस्त 1947 को देशभक्ति की एक अन्य फिल्म ‘मुक्तिर बंधन’ प्रदर्शित की गई थी।

इस फिल्म का निर्देशन अखिल नियोगी ने किया था और राजलक्ष्मी देवी तथा तारा भादुड़ी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। छाया और पूर्णा सिनेमाघरों में ‘जयतु नेताजी’ नामक वृत्तचित्र दिखाया गया था जिसमें सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिन की वीडियो रिकॉर्डिंग थी।

यह रिकॉर्डिंग आजाद हिंद फौज और मेजर जनरल शाहनवाज ने बनाई थी। वृत्तचित्र का वितरण करने वाली कंपनी ऑरोरा फिल्म कारपोरेशन के प्रबंध निदेशक अंजन बोस ने यह जानकारी दी। वृत्तचित्र की शुरुआत राष्ट्र गान से होती थी और अंत में राष्ट्रीय गीत बजता था।

दक्षिण कोलकाता में बसुश्री सिनेमाघर के मालिक देवजीवन बासु उन दिनों सिनेमाप्रेमियों के बीच जबर्दस्त जोश के सुने किस्से याद करते हैं। उन्होंने कहा, “हमारे सिनेमाघर का उद्घाटन दिसंबर 1947 में हुआ था। मैंने जो सुना उसके हिसाब से उस समय बहुत ज्यादा सिनेमाघर नहीं हुआ करते थे लेकिन कोलकाता के लोग हमेशा से सांस्कृतिक रुचि वाले थे। उस समय के लोगों को देशभक्ति की फिल्में बेहद पसंद आती थीं।”

जाने माने निर्देशक संदीप राय ने कहा कि 1940 के दशक में बनी फिल्में उम्मीद और सकारात्मकता से परिपूर्ण होती थीं।