शनि की साढ़े साती

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

29 अप्रैल, 2022 को शनिदेव मकर राशि से कुम्भ राशि में प्रवेश कर रहे हैं। अब तक पिछले ढाई साल में मिथुन और तुला राशि को शनि की ढैय्या या लघु कल्याणी लगी हुई थी और धनु, मकर और कुम्भ राशि वालों को साढ़ी साती लगी हुई थी। इनको पुनः साढ़े साती 12 जुलाई से 17 जनवरी तक रहेगी, क्योंकि शनिदेव 29 अप्रैल 2022 को कुम्भ राशि में प्रवेश करने के बाद पुनः 12 जुलाई को मकर राशि में आ जाएंगे और वहाँ 17 जनवरी, 2023 पर्यन्त रहेंगे। इसका कारण यह है कि शनिदेव 5 जून को वक्री होकर कुम्भ राशि से मकर राशि की ओर चलने लगेंगे और 12 जुलाई को वापिस मकर राशि में आ जाएंगे। वक्री का मतलब आभासी गति से उल्टा चलना।

अब 29 अप्रैल से कर्क और वृश्चिक वालों को शनि की ढैय्या या लघु कल्याणी रहेगी और मकर, कुम्भ और मीन राशि वालों को साढ़े साती रहेगी। इनके परिणामों को जानने से पूर्व हम जान लें कि यह साढ़े साती है क्या?

साढ़े साती का शाब्दिक अर्थ है कि शनिदेव का साढ़े सात वर्षों तक तीन राशियों में भ्रमण। राशियों की गणना चन्द्र राशि से की जाती है। आपकी जन्म राशि से पिछली राशि में जब शनि प्रवेश करेंगे और फिर आपकी राशि पर ढाई साल रहेंगे और आपकी राशि से अगली राशि में ढाई साल रहेंगे। मोटे तौर से साढ़े साती 2700 दिनों की मानी गई है, कुछ लोग 2800 दिन की भी मानते हैं। 2700 दिनों की गणना इस प्रकार है-

दिन                   स्थान          फल

100                                                         मुख           हानिकारक रहता है।

500 तक                दायीं भुजा       विजय, लाभ एवं सफलता

1100 तक               पावों पर        यात्रा कारक

1101 से 1600 तक         पेट पर         लाभ, सफलता और सिद्धिदायक

1601 से 2000 तक         बायीं भुजा      रोग, कष्ट, दुःख और हानि

2001 से 2300 तक         मस्तक पर       लाभप्रद, सरकारी कार्यों में सफलता

2301 से 2500 तक         नेत्र पर         उन्नति एवं सौभाग्य वृद्धि

2501 से 2700 तक         गुदा पर        अशुभ, शारीरिक कष्ट

इस तालिका से यह स्पष्ट होता है कि शनि साढ़े साती काल में दुःख ही नहीं देते, सुख भी देते हैं। बल्कि सुख के दिन दुःख के दिनों से  दुगने हैं। बल्कि जन्म लग्न, सूर्य लग्न तथा चन्द्र लग्न, इन दिनों से ही जन्म पत्रिका के केन्द्र भाव में या त्रिकोण भाव में शनि स्थित हों तो अत्यंत शुभ फल देने की स्थिति में आ जाते हैं। चन्द्र राशि से चौथे और आठवें भाव में अगर शनि गोचर करें तो इसे ढैय्या कहते हैं और इसके अशुभ फल प्राप्त होते हैं। इस बार यह हो रहा है कि ना केवल शनि राशि बदल रहे हैं बल्कि बृहस्पति, राहु और केतु भी अप्रैल माह में ही राशि बदल चुके हैं। इसलिए इन ग्रहों के मिश्रित परिणाम होंगे।

विंशोत्तरी दशा पद्धति में 120 वर्ष की गणना की जाती है जिनमें से शनिदेव को 19 वर्ष प्रदान किये गये हैं। शनि की दशा के समय ही यदि साढ़े साती आ जाये तो परिणामों में तीव्रता आ जाती है। ज्योतिष में शनि को दण्डनायक कहा गया है और ये कर्मों का फल प्रदान करते हैं। शनि की दशा या साढ़े साती काल में व्यक्ति साधारण नहीं रह पाता, बल्कि उसका उत्थान या पतन देखने को मिलता है।

कुछ लग्नें ऐसी हैं जिनके केन्द्र में शनि इन दो-ढाई साल में पंच महापुरुष योग बनाएंगे। गोचरवश यह पंचमहापुरुष योग वृषभ राशि, सिंह राशि, वृश्चिक राशि वालों को रहेगा। ये शनि इन राशियों के लिए अपने पाप फलों में कमी कर लेंगे और शुभ फलों में वृद्धि करेंगे। शनि के इस योग को शश योग कहते हैं।

शनि देव के किस्से बहुत हैं। सूर्य पत्नी छाया के गर्भ में जब शनि थे तो वे शंकर भक्ति में खान-पान तक भूल गई थी। शनि काले वर्ण के हो गये। जब जन्म हुआ तो सूर्य ने आरोप लगाया कि यह मेरा पुत्र नहीं हो सकता। तभी से शनि सूर्य से शत्रुता रखते हैं और सूर्य ने भी शनि को शाप दिया कि वे क्रूर दृष्टि रखने वाले मंद गति के हो जाएं।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लेख है कि बालक गणेश को देखने जब शनि आये तो माता पार्वती ने उनसे कहा कि बालक को देख क्यों नहीं रहे हो? शनि देव ने कहा कि मेरी पत्नी का शाप है कि मैं जिसकी तरफ देखूँगा वह नष्ट हो जायेगा। पार्वती की जिद पर जब शनि ने गणेश जी को देखा तो उसके परिणाम स्वरूप बाद में शंकर जी के त्रिशूल से गणेश जी का सिर विच्छेद हुआ। पार्वती ने भी शनि को शाप दिया कि तुम अंग हीन हो जाओ। बाद में शनिदेव ने गणेश जी की उपासना की और भगवान विष्णु ने उन्हें संसार मोहन कवच प्रदान किया।

दशरथ जी को यह ज्ञान था कि रोहिणी नक्षत्र के शकटवेध, जिसमें शनि रोहिणी नक्षत्र मण्डल में प्रवेश करते, 12 वर्ष तक का अकाल पड़ेगा। ऐसा वशिष्ठ ऋषि ने बताया था। यह जानकर अपने दिव्य आयुधों से युक्त राजा दशरथ शनि से ही युद्ध करने पहुँच गये। तब तक शनि कृत्तिका नक्षत्र में ही थे। राजा दशरथ के उपक्रम को देखते हुए, शनिदेव प्रसन्न हुए और कहा कि हे सम्राट, मैं तुम्हारी तपस्या और पुरुषार्थ से प्रसन्न हूँ। तुम कोई वरदान माँगो। इस पर दशरथ ने वर माँगा कि ‘‘जब तक सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी इस संसार में हैं तब तक आप रोहिणी नक्षत्र का शकटवेध नहीं करेंगे।’’ शनि ने उन्हें ऐसा वरदान दिया तथा कहा कि 12 वर्ष तक तुम्हारे राज्य में कोई अकाल नहीं पड़ेगा और तुम्हारी यश, कीर्ति तीनों लोकों में फैलेगी। फिर दूसरा यह वरदान दिया कि तुम्हारे द्वारा रचित स्तोत्र से जो मेरी आराधना करेगा उसे मैं, साढ़े साती, ढैय्या या शनिकृत दोषों से पीड़ा नहीं दूँगा।

खगोलीय दृष्टि से शनिदेव उत्तरी अक्षांशों में स्थित रोहिणी नक्षत्र मण्डल से भ्रमण नहीं करते हैं। शनि का विचलन अपनी कक्षा में इतना ही होता है कि वह रोहिणी तक नहीं पहुँचते। दशरथकृत स्तोत्र इस प्रकार है-

नमः कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च।

नमः कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नमः।।

नमो निर्मांसदेहाय दीर्घश्मश्रुटाय च।

नमो विशालनेत्राय शुष्कोदरभयाकृते।।

नमः पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णे च वै पुनः ।

नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते।।

नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नमः।

नमो घोराय रौद्राय भीषणाय करालिने।।

नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते।

सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च।।

अधोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते ।

नमो मन्दगते तुभ्यं निस्ति्रंशाय नमोऽस्तु ते।।

तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च।

नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नमः।।

ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मजसूनवे।

तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात्।।

देवासुरमनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगाः।

त्वया विलोकिताः सर्वेनाशं यान्ति समूलतः।।

प्रसादं कुरु मे देव वरार्होऽहमुपागतः।

एवं स्तुतस्तद सौरिग्रहराजो महाबलः।।

(पद्म पु. उ. ३४।२७-३५)

 

घर में प्रसन्नता फैलाने के चमत्कारिक उपाय

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करें आपहूँ शीतल होय॥

यह घर परिवार में खुशियां फैलाने का सबसे बड़ा मंत्र है जिस घर-परिवार के व्यक्ति एक दूसरे से इस प्रकार बात करेंगे जिसमें एक दूसरे के प्रति प्यार, आदर सम्मान है तो उस घर में कभी भी अप्रसन्नता, दुःख, बीमारी इत्यादि का वास ही नहीं होगा। कुछ इस प्रकार के आचार विचार हैं जो लम्बे समय तक एक संतति से दूसरी संतति तक विरासत में मिलते रहते हैं। ये  प्र्रयोग गौर करने पर ही नजर आते हैं लेकिन ये वास्तव में छोटे  नहीं होते, यह वह शक्ति है जो बड़ी से बड़ी दवाई में भी नहीं होती। कुछ इस प्रकार के ही नुस्खे हैं जिन्हें आप अपने आचरण में लायें तो घर में खुशहाली, समृद्धि और अच्छे स्वास्थ्य के लाभ उठायेंगे।

प्रातः जल्दी उठकर अपने दोनों हाथों को आपस में रगड़ कर उनके दर्शन करें व अपने मुंह पर उनकी गर्मी का स्पर्श करावें एवं नासिका (नाक) का जो स्वर खुला हो अर्थात जिस नासिका से श्वास बाहर निकल रही हो वह पैर पहले धरती पर रखें।

1.            अपने परिवार के बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेवें एवं नित्य कर्म करें।

2.            घर में नकारात्मक ऊर्जा समाप्ति के लिए कम से कम सप्ताह में एक बार नमक डालकर पोंछा लगवाएं, इससे सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है।

3.            जब भी घर में वापस आयें तो हाथ में कुछ न कुछ खाद्य पदार्थ अवश्य ही लायें। खाली हाथ घर में आने से विपरीत प्रभाव पड़ते हैं।

4.            यदि घर में बच्चों का मन पढ़ाई-लिखाई में न लगता हो या बच्चे पढ़ाई-लिखाई में कमजोर हों तो शुभ तौर से शुक्ल पक्ष के किसी भी वृहस्पति वार को किसी दोनें में पाँच प्रकार की मिठाई तथा एक जोड़ा बड़ी इलाचयी किसी मंदिर के पीपल के वृक्ष के नीचे श्रद्धा पूर्वक धूप-दीप करवाकर रखवाएं, ऐसा लगातार तीन गुरुवार करवायें। इससे बच्चों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और उनका मन पढ़ाई में लगेगा।

5.            परिवार के सभी सदस्य कम से कम दिन में एक बार का भोजन एक साथ मिलकर करें।

6.            प्रत्येक शनिवार एवं अमावस्या को घर की पूरी सफाई करें और कूड़ा-कचरा घर के बाहर फेंक दे एवं पांच अगरबत्तियाँ या धूप जलाकर घर के प्रत्येक कमरे में ले जाएं एवं दक्षिण दिशा के शुद्ध एवं पवित्र स्थान पर लगाएं। इससे पित्तरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

7.            घर में जिस स्थान में आप अपना धन या आभूषण रखते हैं वहां पर पीले कपड़े में सूखे छुआरे रखें इससे धन को स्थायित्व मिलता है।

8.            अनजान भय, डर, रोग, मानसिक स्थिरता, शान्ति के लिये फिरोजा को चांदी की अंगूठी में जड़वाकर, पंचामृत से शुद्ध कर महामृत्युंजय मंत्र की एक माला से अभिमंत्रित कर, शुभ दिन में मध्यमा या कनिष्ठिका अंगुली में पहनने से शुभ ऊर्जा का संचार शरीर में होने लगता है। फिरोजा से बिच्छू इत्यादि विषैले जीव से बचाव होता है। यह यदि हरे रंग का हो तो बुधवार को एवं नीले रंग का होने पर शनिवार को तथा हल्का आसमानी होने पर शुक्रवार को धारण करना अच्छा रहता है।

9.            बच्चों को नजर लगने पर, फिरोजा चांदी में जड़वाकर, शनिवार के दिन शुद्ध कर धूप-दीप से हनुमान जी का स्मरण कर काले धागे में बच्चों को पहनाने से लाभ होता है।

10.          रोज कम से कम दिन में तीन बार यह स्मरण करें कि हम उस परम पिता परमेश्वर की सबसे उत्तम रचना हैं एवं हम सब कुछ कर सकते हैं।

11.          प्रतिदिन व्यायाम करें, व्यायाम करने से शरीर के हार्मोन्स का उचित स्राव होता हैं जिससे हम शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ रहते हैं।

12.          मेडिटेशन करें, ध्यान लगाने से चित्त शांत रहता है।

13.          चीखें! मनोवैज्ञानिकों के अनुसार अपनी असहमति दर्शाने के लिए चीखें। जैसे बच्चे करते हैं ताकि जल्द उसे भुलाकर पुनः खुश हो सके।

14.          पानी जब बहता है तो निर्मल व स्वच्छ रहता है परन्तु एक जगह ठहर जाने पर सड़ने लगता है इसी प्रकार जीवन में अनेक प्रकार के उत्तार-चढ़ाव आने  पर उनके लिये तैयार रहें तो तनाव मुक्त होकर जीयेंगे।

15.          हार को स्वीकार मत करो, नकारात्मक ताकतों को चुनौती दो, अतीत झुक जायेगा। आपकी निश्चय ही जीत होगी, इस प्रकार की सोच रखनी चाहिए।

16.          अगर आप कर्ज मुक्त नहीं हो पा रहे हैं तो कर्ज की किश्त शुक्ल पक्ष के प्रथम मंगलवार को देना शुरु करें।

17.          किसी भी शुक्ल पक्ष के प्रथम शनिवार से पीपल की सेवा शुरु करें। इसके लिये पीपल की जड़ों में दूध, गुड़, मीठा जल चढ़ायें तथा सरसों के तेल का दीपक और काली धूप बत्ती अर्पित करें, पीपल की जड़ों को बांयें हाथ से तीन बार स्पर्श कर सिर पर लगाएं, छः माह में दरिद्रता दूर होनी शुरु हो चुकी होगी।

18.          वैवाहिक-जीवन में प्रसन्नता और खुशी के लिये गुरुवार को गाय के भोग अर्थात् दो आटे के पेड़े पर थोड़ी हल्दी लगाकर, थोड़ा गुड़ तथा चने की गीली दाल रखकर गाय को खिलाना चाहिये। वैसे गाय को प्रतिदिन रोटी देने के बाद ही भोजन करना चाहिये।

19.          किसी लड़की की कुण्डली में मंगली योग है और इससे विवाह में बाधा आ रही है तो वह लड़की स्वयं मंगल चण्डिका स्तोत्र का पाठ मंगलवार को करें तथा शनिवार को सुन्दरकाण्ड का पाठ करें, इससे वैवाहिक बाधा दूर होती है।

20.          आपके पति आपकी उपेक्षा करते हैं या आपके पति पर कोई संकट आने वाला है तो आप किसी भी माह के शुक्ल पक्ष के प्रथम शुक्रवार से ऐसा करें। अपने नहाने के पानी में थोड़ी सी पीसी हल्दी मिलाकर स्नान करें ऐसा प्रतिदिन भी किया जा सकता है शुरुआत शुक्रवार से ही करनी चाहिये।

इस प्रकार कई ऐसे छोटे-छोटे उपाय है जिनसे घर में खुशहाली समृद्धि आती है। आपके मुंह से निकले एक-दो शब्द  यदि किसी व्यक्ति को प्रसन्नता प्रदान कर सकते हैं और आप  वह भी नहीं कर सकें तो आपसे बढ़कर तुच्छ अन्य कोई नहीं आखिर इसमें आपका व्यय ही क्या होता है यह तो बस ऐसा ही है जैसे कि अपने दीये से दूसरे दीये को जलाना। इनमें न आपका तेल लगता है न बाती किन्तु दूसरे के घर में उजाला हो जाता है।

 

 

नौ ग्रह एवं रोग

भारतीय प्राचीन ज्योतिष एवं आयुर्वेद दोनों ही शास्त्रों में यह मान्यता है कि मनुष्य अपने पूर्वाजित अशुभ एवं पापकर्मों के कारण रोगी बनता है। इसकी जानकारी जातक की कुण्डली में स्थित ग्रहों की स्थिति के अनुसार की जाती है।

                यदि व्यक्ति अपने आहार-विहार की प्रकृति विरोधी चाल-चलन एवं अनियमितता के कारण ही रोग होते हैं और यदि मनुष्य इन पर समुचित नियंत्रण रखे तो वह स्वस्थ एवं दीर्घायु प्राप्त कर सकता है परन्तु पूर्व जन्म के कर्मों के फलस्वरूप ही ग्रह अपना प्रभाव देते हैं कि मनुष्य का शरीर उपयुक्त पदार्थों के सेवन में अनियमितता बरतता है एवं बीमार हो जाता है एवं ग्रहों की अनुकूल स्थिति में होने पर ही ठीक होता है अन्यथा मृत्यु के प्राप्त या मृत्यु तुल्य कष्ट पाता है।

                आयुर्वेद में रोग उत्पत्ति के कारणों का उल्लेख मिलताा है कि मनुष्य के पूर्व कर्म ही उसके रोगों का मुख्य कारण होते हैं कभी-कभी पूर्व के एकत्रित कर्मों के कारण से एवं दोषों के प्रकोप से और कभी दोनों से ही पित एवं कफजनित शारीरिक एवं मानसिक रोग होते हैं।

                ज्योतिष के द्वारा यह जाना जा सकता है कि व्यक्ति को कौन-कौन से शारीरिक रोग एवं कष्ट भविष्य में पहुचाऐं।

                उपरोक्त विवेचना से स्पष्ट है कि आयुर्वेद भी नवग्रहों से अलग नहीं है क्योंकि नवग्रहों का प्रभाव सजीव एवं निर्जीव दोनों पर ही बराबर पड़ता है एवं इनके प्रभावों से कोई नहीं बच सकता। इसकी जानकारी वैदिक ऋषियों ने वैदिक काल में ही कर ली थी। वैज्ञानिक खोजों एवं ऋषियों के गहन अन्वेक्षणों एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यह मालुम हुआ है कि सभी नौग्रह आदिकाल में एक किसी अत्यन्त तेज या शक्तिशाली पूज के प्रस्फूटन से प्राप्त हुयें होंगे एवं इन्हीं से नक्षत्रों-पिण्डों एवं तारों की उत्पत्ति हुई होगी।

                कालान्तर से  ही विद्वानों की जिज्ञासा इन ग्रहों की गति, स्थिति एवं मानव जीवन पर होने वाले प्रभावों के बारे में अधिक से अधिक जानने की रहती है ज्योतिष शास्त्र हमारे ऋषियों का एक प्रमाणिक एवं वैज्ञानिक शास्त्र है जिसका उद्भव वेदों से हुआ है।

                ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार इन ग्रहों का प्रभाव प्रत्येक जीव पर पड़ता है। ये प्रभाव प्रत्यक्ष या कुछ परोक्ष होते हैं। जीव  का जन्म से मरण तक इन प्रभावों को वहन करना होता है। प्रत्यक्ष प्रभाव चन्द्रमा के द्वारा ज्वार-भाटा का उत्पन्न होना होता है चन्द्रमा जल को प्रभावित करते हैं एवं मानवशरीर में 75 जल होता है। इस प्रकार मनुष्य के शरीर के संचालन में चन्द्रमा का बहुत बड़ा योगदान होता है। चन्द्रमा के द्वारा ही मनुष्य का शरीर, मन एवं मस्तिष्क का प्रभावित होना सहज और स्वाभाविक होता है। मानसिक रोग से विक्षिप्त रोगियों के लक्षण पूर्णिमा की रात्रि में ज्यादा बढ़ जाते हैं संसार भर में अधिंकाश आत्महत्याऐं एवं मृत्यु की घटनाएं पूर्णचन्द्र की स्थिति में ही होती है। इसी प्रकार से सूर्यादि ग्रहों के प्रभाव भी होते हैं।

                इसी प्रकार से हमारे दिमाग में अनेक प्रश्न उभरते हैं कि दुर्घटनाएं क्यों होती है, गृह कलह क्यों होता है। कुछ ही व्यक्ति सम्पन्न क्यों होते हैं, व्यक्ति दाम्पत्य सुख, पुत्रसुख आदि से वंचित क्यों रहता है आदि। इन सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है वह है ग्रहों का शुभ एवं अशुभ प्रभाव का जातक पर पड़ना। ग्रह स्थान एवं स्थिति के परिणाम स्वरूप अच्छा एवं बुरा प्रभाव देते हैं। यदि ग्रह खराब दृष्टि या अनिष्ट स्थान से युक्त तो अपने फल के स्वरूप में वह व्यक्ति को कष्ट प्रदान करते हैं इसके विपरीत शुभ दृष्टि या अच्छे स्थानों पर होने पर व्यक्ति को सुख-सौभाग्य, समृद्धि में वृद्धि करते ही पुराणों के अनुसार भू-लोक में ही नहीं वरन् देवता दानव-यक्ष गर्धव आदि भी इन ग्रहों के प्रभाव से नहीं बच पाते। इन्हीं ग्रहों के प्रभाव से राजा सौदास को नहीं चाहते हुये भी नर मांस का भक्षण करना पड़ा। राहु के प्रभाव से ही राजा नल को वनवास भोगना पड़ा। भगवान गणेश जी को शनिदेव के कारण गोवर में निवास करना पड़ा था तथा भगवान शिव को भी शनिदृष्टि से बचने के लिए कैलाश छोड़कर हाथी बनकर वन में विचरण करना पड़ा था

अंगारक विरोधेन रामों, राष्ट्रनिरोधितः।

अष्टयेन राशांकेन हिरणाकश्यपुर्भृतः।।

इसी प्रकार मंगल के प्रभाव से भगवान श्रीराम को भी राज्याभिषेक से वंचित होकर वनवास जाना पड़ा था। तथा अष्टम भावस्थ चन्द्रमा के प्रकोप से हिरण्याकश्यपपुत्र का हनन हुआ। इसी प्रकार सप्तम भाव में अशुभ मंगल के कारण श्रीराम के दाम्पत्य सुख से वंचित रहना पड़ा था।

रविणा सप्तमस्थे, रावणौ निपातितः।

गुरुणा जन्मसंस्थेन, हती राजा दुर्योधन।।

जन्मकुण्डली के सप्तमस्थ सूर्य के प्रकोप से रावण का सपरिवार हनन हुआ तथा लग्न के अशुभ बृहस्पति के कारण दुर्योधन की मृत्यु हुई। बुध की पीड़ा से पाण्डवों को दास वृत्ति का सामना करना पड़ा तथा षष्ठ भावस्थ शुक्र के अनिष्ठ प्रभाव से युद्ध में हिरणाक्ष मारा गया। .

                जब जब ग्रहों का अशुभ प्रभाव जातक पर पड़ता है तो उपयुक्त औषधि भी अपना अनुकूल प्रभाव प्रकट नहीं कर सकती, यदि उचित चिकित्सा करना है तो पहले ग्रह को अनुकूल बनाना चाहिये, तत्पश्चात् रोगी की चिकित्सा करनी चाहिये। अर्थात ग्रहशक्ति के बाद ही औषधिकारगर सिद्ध होती है।

                उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्राणी मात्र पर विशेष रूप से प्रबुध मानव पर नवग्रहों के शुभ एवं अनिष्ठ प्रभाव पड़ते हैं इन अशुभ एवं शुभ प्रभावों के परिणामस्वरूप मनुष्य के जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आते हैं। जिनका समाधानमात्र ग्रहशान्ति से ही सम्भव होता है।

 

प्राचीन सभ्यताओं में इष्ट देवियाँ

वीरेन्द्र नाथ भार्गव

मानव सभ्यता में इष्टदेवी के प्रसंग की सार्थकता को व्यक्त करने वाली एक ऐतिहासिक घटना कुछ वर्ष पूर्व घटी थी, जब पाकिस्तान की सेना के एक सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर शाहनवाज ने तनोट (जैसलमेर) में देवी के मंदिर में श्रद्धापूर्वक छत्र चढ़ाया था। सन् 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय शाहनवाज पाकिस्तान की सेना में थे और तब उन्होंने भारत में तनोट क्षेत्र तक को घेरकर भारी गोलाबारी की थी। तभी उन्होंने देखा कि तनोट मंदिर के परिसर में गिरे अनेक तोपों के गोले नहीं फट पा रहे हैं अपितु परिसर के बाहर सारे गिरने वाले गोले फट रहे थे। तनोट देवी के इस चमत्कार ने मुसलमान शाहनवाज के अंतर्मन में इष्टदेवियों के प्रति श्रद्धा विश्वास को जागृत किया। सेवानिवृत्ति के पश्चात उन्होंने भारत सरकार से अनुमति प्राप्त करने के उपरांत  तनोट में देवी को श्रद्धा-सुमन सहित छत्र चढ़ाया। हिंदू धर्म में तैंतीस करोड़ देवी-देवता माने गए हैं। इनमें इक्यावन शक्तिपीठ सहित अनेक इष्टदेवियाँ, लोक देवियाँ, ग्राम देवियाँ और कुल देवियाँ इत्यादि हैं। संसार की ज्ञात अनेक प्राचीन सभ्यताओं यथा नील नदी के तट पर पनपी मिस्र सभ्यता और दजला-फरात नदियों के तट पर पनपी सुमेर, अक्कड़, चाल्दिया, बेबीलोन और असीरिया (असुर सभ्यता) इत्यादि में भी मातृदेवी-इष्ट देवियों की पूजा परम्परा का प्रचलन था। उनको संक्षेप में यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है, यथा-

संसार की ज्ञात सर्वप्रथम अथवा प्राचीनतम इष्टदेवी अथवा आदि शक्ति का वर्णन प्राचीनतम धर्मग्रंथ ऋग्वेद में पाया जाता है। ऋग्वेद के दशम मंडल के 125वें सूक्त में आदि शक्ति व्यक्त करती हैं कि ‘मैं ब्रह्माण्ड की अधीश्वरी हूँँ। मैं ही सारे कर्मों का फल और ऐश्वर्य देने वाली हूँ। मैं चेतन और सर्वज्ञ हूँ। मैं एक होते हुए भी अपनी शक्ति से नाना रूप भासती हूँ। मैं मानव जाति की रक्षा के लिए युद्ध ठानती हूँ और शत्रु का संहार कर पृथ्वी पर शांति की स्थापना करती हूँ। मैं ही भूलोक और स्वर्गलोक का विस्तार करती हूँ। मैं जनक की भी जननी हूँ। जैसे वायु अपने आप चलती है, वैसे ही मैं भी अपनी इच्छा से समस्त विश्व की स्वयं रचना करती हूँ। अखिल विश्व मेरी विभूति है। मैं अपनी शक्ति से यह सब कुछ हूँ।’

लगभग चार-साढ़े चार हजार वर्ष पूर्व इराक में दज़ला-फ़रात नदियों के क्षेत्र में विकसित हुई मानव सभ्यताओं में मातृ देवियों के लिए अष्टरथ संबोधन पाया गया। इसी संबोधन के आधार पर विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों में इष्टदेवी के लिए इस्तर, इष्टर, इष्ट, ईस्ट (पूर्व दिशा) तथा स्त्री शब्दों में ध्वनिसाम्य के अनुरूप एक ही भूमिका वाला अर्थ प्रयुक्त होना संभव प्रतीत होता है। प्राचीन मिस्र में अनेक देवियों की पूजा की जाती थी और उनकी अनेक प्रतिमाएं पाई गई हैं। इनमें से इष्ट देवी के चयन हेतु सर्वाधिक लोकप्रिय और उनकी रक्षा करने वाली देवी ईसिस थी। प्राचीन यूनान और रोमन सभ्यताओं में ईसिस देवी की पूजा परम्परा को अपनाया गया। एक उल्लेख के अनुसार ईसिस के पिता सेब धरती के देवता और माता नूत देवी आकाश की देवी थीं। मिस्र की इन देवियों के साथ पौराणिक आख्यान भी जुड़े थे।

दजला-फरात क्षेत्र में सुमेर सभ्यता का एक विख्यात नगर निप्पुर था। यहाँ की इस्तर देवी का नाम निन-लिन था। देवी निन-लिन का एक अन्य नाम निन-हर-सग का भी उल्लेख मिलता है। निन-लिन वायु की देवी थी किन्तु निन हर सम पर्वत की देवी थी। ई.पू. ढाई हजार वर्ष पुरानी अक्कड़ संस्कृति में ईस्तर देवी का नाम अनुनित था जिसका मंदिर परस्पर युद्धों में ध्वस्त हो गया था। ई.पू. छठी शती में उसी क्षेत्र के एक राजा नबूनिधस (नव निधि का संभावित अपभ्रंश) ने उस देवी के मंदिर का जीर्णोद्धार किया था। बेबीलोन की इष्ट देवी का नाम जरबनित अथवा जरपनित था जो उर्वरा अथवा बीज की देवी थीं। बेबीलोन नगर के मुख्य प्रवेश द्वार का नाम इस्तर गेट था और उसका वाहन/प्रतीक सिंह था। बेबीलोन के उत्तर में दज़ला नदी के तट पर असुरों ने दो राजधानियाँ बसाई थीं। इनमें से प्रथम राजधानी का नाम अशुर अथवा असुर था और उनकी इस्तर देवी का नाम अश्शरितु था जिसके विषय में सूचना ज्ञात नहीं है। असुर राजवंश के एक शासक सेना चरिब ने अरबिल नामक नगर में इस्तर देवी का मंदिर बनवाया। इस मंदिर में ज्योतिष का कार्य भी किया जाता था। यह मंदिर अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर सेना चरिब के वंशज सम्राट असुरबानीपाल के द्वारा पहुंचा दिया गया था। असुरबानीपाल ने इस मंदिर को संपूर्ण असीरिया साम्राज्य में सर्वाधिक महत्ता दी थी। असुरबानीपाल ने तत्कालीन विश्व का सबसे बड़ा पुस्तकालय बनवाया था जिसमें पकी मिट्टी की पट्टिकाओं पर पौराणिक गाथाएं, इतिहास, ज्योतिष इत्यादि विषयों पर लगभग 40,000 पट्टिकाओं को तैयार करवाया। दैववश असुर बानीपाल का निधन ई.पू. 624 में हो गया और उसके उत्तराधिकारियों में परस्पर युद्धों के फलस्वरूप ई.पू. 612 में प्रचण्ड असुर सभ्यता सदैव के लिए ध्वस्त हो गई। असुरों की सर्वाधिक विख्यात और भव्य राजधानी निनवे थी। इस नगर की स्थापना असुरों ने इस्तर देवी नीना के नाम पर निनवे रखकर की थी। इस नगर का संस्थापक ई.पू. 2300 में राजा सरगौन प्रथम (सर्वगुण प्रथम का संभावित अपभ्रंश) था। ई.पू. 612 में असीरिया के पतन के पश्चात असुरों में भगदड़ मच गई। भागते हुए असुरों का एक समूह नीना देवी की प्रतिमा को सुरक्षित भारत ले आया और उन्होंने नैनीताल क्षेत्र में शरण ली। वहाँ उस प्रतिमा को पुनः स्थापित करके मंदिर बनाया जो आज नैनी देवी के नाम से विश्वविख्यात है और वह सुंदर नगर नैनीताल कहलाता है।

लगभग दो हजार वर्ष पहले पश्चिम एशिया के पेतरा, हथरा और मक्का के इस्लाम पूर्व काबा मंदिर में अल्लात, मन्नात और उज्जा नामक देवियों की व्यापक पूजा होती थी। अलात का एक अर्थ उल्का अथवा जलती हुई मशाल होता है। भारत में भी इक्यावन शक्तिपीठों में देवियों की व्यापक पूजा की परम्परा है। स्थानीय इष्टदेवियों के पूजा स्थल प्रायः संपूर्ण भारत में फैले हुए हैं।