महान लोगों के धनयोग

पं. सतीश शर्मा

प्रस्तुत कुण्डली आराध्या बच्चन की है। इस कन्या का जन्म जब हुआ तो यह कन्या जन्म से ही सैंकड़ों करोड़ की वारिस हो गई। इस जन्म पत्रिका में ऋषि पाराशर द्वारा कहा गया एक प्रसिद्ध धनयोग नजर आता है। धनभाव के स्वामी उच्च राशि के होकर लाभ भाव में बैठे हैं और लग्न के स्वामी बृहस्पति लग्न, पंचम व एकादश भाव को देख रहे हैं जो कि धनप्रदायक हैं। त्रिकोण के स्वमी मंगल, दूसरे त्रिकोण में बैठे हैं और लग्नेश गुरु से दृष्ट हैं। चन्द्रमा भी लग्न को देख रहे हैं। सभी तरह से लग्न, दूसरे भाव और लाभ भाव (11वें भाव) का सम्बन्ध स्थापित हो रहा है जो कि व्यक्ति को महाधनी बनाता है। ऐसे लोग मुँह में सोने की चम्मच लेकर पैदा होते हैं।

 

इनसे भी बड़ा योग इनके दादा अमिताभ बच्चन की कुण्डली में है। इस कुण्डली में भी दूसरे और एकादश भाव के स्वामी बृहस्पति ही हैं और दूसरे भाव को देख भी रहे हैं। यह प्रबल धनयोग है। उधर लग्नेश शनि लग्न को देख भी रहे हैं। चार ग्रहों का दूसरे भाव को देखा जाना प्रबल धनयोग की सृष्टि कर रहा है। इस समय उनको भाग्य के स्वामी की महादशा 2034 तक रहेगी, जो कि भाग्यवृद्धि चाहती है। इस कुण्डली में भी वही योग मौजूद हैं जो व्यक्ति को जन्मजात प्रसिद्ध या धनी बनाते हैं। हम सब जानते हैं कि अमिताभ बच्चन स्वयं एक प्रसिद्ध पिता की संतान है।

 

तीसरी जन्म पत्रिका बिड़ला घराने के कुमार मंगलम बिड़ला की जन्म पत्रिका में उपलब्ध है। इस जन्म पत्रिका में दूसरे (धन भाव) के स्वामी 11वें भाव (लाभ भाव) में स्थित हैं। 11वें भाव के स्वामी लग्न में स्थित हैं और लग्न के स्वामी दूसरे भाव में स्थित हैं। यह अपने आप में बहुत बड़ा धन योग है। लग्न, दूसरा भाव और 11वें भाव के स्वामी ग्रह यदि परस्पर सम्बन्ध करें तो यह प्रथम श्रेणी का धनयोग है। इन्होंने भी एक धनी घराने में जन्म लिया अर्थात् सोने की चम्मच मुँह में लेकर पैदा हुए।

 

रतन टाटा जब 10 वर्ष के थे तब इनके माता-पिता में तलाक हो गया था और इनकी दादी नवाज बाई टाटा ने इनका पालन-पोषण किया। रतन टाटा के पिता को टाटा परिवार के ही रतनजी टाटा ने गोद लिया था। इस तरह से ये धनी परिवार में जन्म लेकर उसे आगे बढ़ाने में सफल रहे। इनके भी योग शक्तिशाली हैं। लाभ भाव के स्वामी लग्न में, लग्न के स्वामी दूसरे भाव में और दूसरे भाव के स्वामी शनि की दृष्टि लग्न पर, यह एक अति शक्तिशाली धन योग है। इन तीन भावों का सम्बन्ध अर्थात् धन भाव, लग्न और एकादश भाव का सम्बन्ध यदि ज्योतिष में स्थापित हो जाए तो व्यक्ति  धनी और मानी परिवार में ही जन्म लेता है। उसके गत जन्मों के कर्म और उनका संचय उच्च कोटि का होता है और वह इस जन्म में लौकिक सिद्धियों में बदल जाता है।

 

फलित ज्योतिष के लगभग सभी ग्रन्थों में एक विशेष योग लग्न को लेकर मिलता है। लग्न के स्वामी ग्रह जिस भी भाव में बैठ जायें, उस भाव की वृद्धि कर देते हैं। दूसरे भाव में बैठ जाएं तो धन वृद्धि कर देंगे, तीसरे भाव में बैठ जायें तो सिंह जैसा पराक्रम देते हैं। ‘लग्नेश सहजे षष्ठे सिंहतुल्य पराक्रमः’ ऐसा व्यक्ति दुस्साहसी होता है और उसमें नेतृत्व क्षमता होती है। अगर लग्नेश 5वें भाव में स्थित हों तो सन्तान की वृद्धि होती है। दशम भाव में स्थित हों तो राज्य मिलता है।

 

इस लेख में जिस योग का विश्लेषण किया गया है, वह पाराशर ऋषि ने इस आधार पर कहा है कि लाभ भाव तो आपके व्यापार आदि से लाभ है तो उसमें दैनिक लाभ भी शामिल है। अगर लाभ भाव के स्वामी लग्न में बैठ जायें तो धर्नाजन की क्षमता अत्यधिक हो जाती है। यदि लाभ के स्वामी दूसरे अर्थात धन भाव में बैठ जायें तो यह भाव बढ़ती हुई अचल सम्पत्तियों की सूचना देता है। यह ठीक इसी तरह से हैं कि लग्न के स्वामी चतुर्थ भाव में बैठ जायें तो कई-कई शहरों में सम्पत्तियाँ हो जाती है। महारानी एलिजाबेथ के चौथे भाव के स्वामी और लग्न में सम्बन्ध स्थापित हो गया तो सोने की चम्मच तो मुँह में लेकर पैदा हुई हैं, उनको कई देशों पर शासन भी करने को मिला। सोने की चम्मच का यह एक आदर्श उदाहरण है। इस कुण्डली में लग्न के स्वामी और धन भाव के स्वामी शनि दूसरे भाव में स्थित हैं और  इसलिए यह पाराशर प्रणीत प्रसिद्ध धन योग बना है। साथ ही इसमें चौथे भाव के स्वामी लग्न में स्थित हैं और लग्न में रहते हुए चतुर्थ भाव को देख रहे हैं। इसलिए इस जन्म पत्रिका में अपार वैभव, ऐश्वर्य और अपार सम्पत्तियों के योग बने हुए हैं। हम सब जानते हैं कि ये भी सोने की चम्मच मुँह में लेकर पैदा हुई हैं। यह अलग बात है कि इनकी जन्म पत्रिका में राहु की स्थिति अच्छी ना होने के कारण इनके जीवन काल में ही बहुत सारे देश इनके हाथ से निकल गये और राजपरिवार पर बहुत सारे संकट भी आए।

 

लग्न धन भाव और एकादश भाव में परस्पर सम्बन्ध स्थापित हो जाएं तो वह जन्म पत्रिका अन्य जन्म पत्रिकाओं के मुकाबले सैंकड़ों गुणा अधिक शक्तिशाली हो जाती है। यदि तीन सहयोग की अपेक्षा दो ही सहयोग उपस्थित हों तो भी जन्म पत्रिका कम शक्तिशाली नहीं होती।

 

तंत्र शक्ति

ऋषियों ने लौकिक कर्म के साथ आध्यात्म की भी प्रस्तावना की और उसे अत्यंत प्रभावी बनाने के लिए मंत्रों का आविष्कार किया। मंत्रों की एक विशिष्ट श्रेणी को तंत्र कहा गया है। स्मृति संहिता में जिन चौदह विद्याओं का उल्लेख है उनमें तंत्र को शामिल नहीं किया गया है। किसी पुराण में भी उसको शामिल नहीं किया गया है। आगम, यंत्र और यामल इन तीन शाखाओं में तंत्रों को संकलित करके ईसा से पूर्व ही प्रचलन में ला दिया गया था।

वाराही तंत्र के अनुसार तंत्र के 9 लाख श्लोंकों में से एक लाख श्लोक भारत में हैं। बहुत सारे तंत्रों की पाण्डुलिपियां या प्रथम रचना उपलब्ध ही नहीं है। ऐसा माना जाता है कि इन एक लाख श्लोकों की ही पुनरावृत्ति होकर, उन्हीं में खंडन-मंडन होकर वे 9 लाख श्लोक हो गए। भारत का बहुत सारा तंत्र शास्त्र तिब्बती भाषा में ऋग्युद् के रूप में संकलित हो गया है।

तंत्र शब्द सुनते ही ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई शक्तिशाली प्रयोग है और तुरंत परिणाम ला देगा। कलियुग में तो तंत्र का अर्थ बुरा करने की कोई योजना सा लगता है परंतु यह सच नहीं है। तंत्र का अर्थ किसी भी मंत्र प्रयोग को अत्यधिक प्रभावी कर देना है। इससे घटनाओं की तीव्रता प्रभावित होती है। भगवान शंकर तांत्रिकों के आराध्य हैं। तंत्र-ग्रंथों में भगवान शिव की आराधना से ही शुरु किया जाता है। तंत्र का विकास गौड और बंग देशों में अधिक हुआ और ईसा पूर्व से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक भारत, चीन, तिब्बत, थाई देश, मंगोलिया, कंबोज आदि देशों में रहा। भारतीय तंत्र के केन्द्र बिन्दु शिव हैं जबकि बौद्ध तंत्र के केन्द्र बिन्दु बुद्ध हैं। तंत्र की एक लिपि भी विकसित की गई। तंत्र करने वाले शाक्त भी कहे जाते हैं क्योंकि वे शक्ति की आराधना करते हैं। इस रूप में अधिकांश तांत्रिक साधक देवी के ही उपासक हैं परंतु बाद में वैष्णव सम्प्रदाय भी तंत्र का प्रयोग करने लग गए।

बौद्ध धर्म के वज्रयान में धन और एैश्वर्य की कामना बहुत बढ़ गई थी। वे तंत्र के वामाचार की सीमा से भी आगे बढ़कर तंत्र प्रयोग करने लगे। तांत्रिकों की चक्र पूजा में माँ-बेटी या पुत्रवधु को मात्र नारी प्रतीक के रूप में उपस्थित होने की आज्ञा वैष्णव चक्र में है। इन महिलाओं के साथ संभोग का आदेश नहीं है परंतु वज्रयान में इसे भी स्वीकार कर लिया गया है। वज्रयान में ही इसका भारी विरोध भी हुआ। शैव तंत्रों में चंडी, तारा, वाराही, महाविद्या, भैरव, भैरवी, काली की कल्पनाएं हैं तो बुद्ध वज्रतारा व वज्रशत्रु को मानते हैं। शैव तंत्र और बौद्ध तंत्र दोनों में ही दक्षिणावर्त न्यास का महत्व है। माला, मंत्र, मातृका हृदय कवच में गुप्त रखते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि वज्रयानी तंत्र का उद्गम स्थल आंध्र ही माना जाता है।

नाथ सम्प्रदाय में ध्यान योग और हठ योग मिलता है। वे अत्यंत शक्तिशाली हो जाते थे। मछन्दरनाथ, गोरखनाथ, नागार्जुन व भर्तृहरि को बहुत सारी सिद्धियां प्राप्त थीं। साबर तंत्र नाथ सम्प्रदाय से ही निकला गया बताते हैं। साबर तंत्र में संस्कृत से इतर प्रयोग भी हैं। मोहम्मद पीर की शपथ ली जाती है इसलिए वे मुस्लिमों में भी मान्य हो गए। वैदिक संहिताओं में इन सबके उल्लेख नहीं मिलते हैं इसलिए तंत्र को बाद की उत्पत्ति मानकर उसके विकास के मार्ग बाद में ही खोजे जाने चाहिए।

तंत्र आत्मदर्शन का एक मार्ग है। तंत्र के साथ मंत्र जुड़े हुए है। ध्वनि, रंग व रेखा के प्रयोग तंत्र में खूबसूरती के साथ किए गए हैं। बिन्दु की कल्पना तंत्र का सर्वश्रेष्ठ प्रयोग है। शून्य और रेखाओं का संयोग संसार को अभिव्यक्त करने में किया गया है। बिन्दु रेखा के रूप में विस्तार पाकर वाणी को अभिव्यक्ति देता है और तंत्र के माध्यम से ध्वनि शब्दों का संयोजन अत्यंत मुखर और शक्तिशाली हो उठता है। वेदों के अंतिम भाग अथर्ववेद में मंत्र शक्ति को अत्यंत प्रभावशाली बनाकर प्रस्तुत किया गया है।

हमारे शरीर में असाधारण शक्तियां छिपी हुई हैं। शरीर के चेतना बिन्दुओं को यदि जागृत कर दिया जाए और उनसे काम लिया जाए तो अकल्पनीय कार्य किये जा सकते हैं। अष्टसिद्धियों से तात्पर्य मानव शरीर में संतुलित रूप से छिपी हुई उन सभी शक्तियों को जागृत करना है जो ईश्वर ने हमें दी तो हैं परंतु हम उनका प्रयोग करने का ज्ञान नहीं रखते। जब हम किसी एक सिद्धि को जागृत कर लेते हैं तो ही चमत्कार सा लगने लगता है। इस कार्य के लिए तंत्र और मंत्र का सहारा लिया गया है। यदि यंत्रों की ग्राफिक्स का अध्ययन किया जाए तो उनका वैज्ञानिक आधार खोजा जाना संभव है। अभिचार कर्म और मारण, उच्चाटन जैसे प्रयोगों में किसी त्रिकोण की रचना करके उसके बीच में र और ठ जैसे बीज मंत्रों को स्थापित किया जाता है। आकर्षण और पुष्टिकर्म में चतुष्कोण वाले यंत्र बनाए जाते हैं। देवी के अधिकांश यंत्रों में बीसा का प्रयोग किया जाता है अर्थात् यंत्र में किधर से भी गणना कर लें योगफल 20 आता है परंतु इन सब तंत्र या यंत्रों को प्रयोग में लाने से पहले प्रथम तो वमन और विरेचन जैसे आयुर्वेद में बताए गए कर्मों को किया जाता है और शरीर को शुद्ध करने के बाद, अष्टांगिक योगमार्ग के द्वारा शक्ति प्राप्त की जाती है।

सामान्यतः तंत्र का अर्थ लोग मारण, मोहन, वशीकरण, बाजीकरण, उच्चाटन आदि से ही समझते हैं। उड्डीश तंत्र में आयु बढ़ाने, गंध और सौंदर्य बढ़ाने के प्रयोग भी किए गए हैं। बाजीकरण के अंतर्गत काम शक्ति बढ़ाने के प्रयोग शामिल किए गए हैं। कालांतर में यह जाना जाने लगा कि तंत्र का प्रयोग ईश्वर प्राप्त करने के अतिरिक्त अन्य कार्यों में किया जाना चाहिए।

वास्तव में तंत्र शास्त्र भारतीय प्राच्य विद्याओं की उन्नत शाखा है, जिसमें प्रकृति की शक्तियों के भरपूर प्रयोग में लेने की क्षमताएं विद्यमान थीं। कुछ तांत्रिकों के हल्के कार्य से एक नकारात्मक भावना भी समाज में उत्पन्न हुई, अतः इसे लोक कल्याणकारी मार्ग में लगाए जाने की आवश्यकता आज के युग में है।

 

 

हस्त विज्ञान

स्वं एन.पी. थरेजा

अंगूठा व्यक्ति का बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग है जैसा कि माना जाता है कि मस्तिष्क व अंगूठे का आपस में गहरा संबंध है। ऐसा माना है कि अंगूठे का केन्द्र मस्तिष्क में है। अंगूठा व्यक्ति की तार्किक शक्ति, शारीरिक शक्ति व इच्छा शक्ति को बताता है तथा ये भी कि वह व्यक्ति अपने को कितना जान सकता है। यह पूरे हाथ की चाबी है। अंगूठे से इतना कुछ पता चल सकता है कि बहुत से हस्तविद् व्यक्ति के जीवन के भिन्न-भिन्न रूपों को जानने के लिए केवल इसी के आधार पर निर्भर करते हैं। अंगूठे की कीमत हम इस बात से जान सकते हैं कि बिना इसकी सहायता के हम कुछ भी ठीक से पकड़ने में असमर्थ रहते हैं, इसके बिना हम बहुत कमी अनुभव करते हैं। अंगूठे से हमें पता लगता है कि व्यक्ति अपने गुणों व योग्यता का पूरा उपयोग कर सकता है या उसकी सफलता केवल आकस्मिक होगी। किसी को भी अंगूठे के बारे में नीचे लिखी बात जैसे अंगूठे का नाप, स्थिति, बनावट, कोमलता व किस तरह का है, जाननी चाहिये।

लंबा अंगूठा : जब हम अंगूठे को बराबर वाली अंगुली (बृहस्पति अंगुली) के बराबर पकड़े और अंगूठा उस अंगुली के तीसरे भाग के सिरे तक पहुंचे तब उसे हम लम्बा अंगूठा कहते हैं। ये बहुत ही अच्छा चिह्न है क्योंकि व्यक्ति शक्तिशाली, उत्साही, सोचने की शक्ति वाला व कार्यशील होता है। उस व्यक्ति का काम करने का अपना ढंग होता है व काम का ढंग तर्कसंगत होता है। वह भावुक कम बुद्धिमान अधिक होता है। लम्बे अंगूठे वाले व्यक्तियों की रुचि यंत्र विज्ञान या औद्योगिक विज्ञान में होती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी वे ठीक होते हैं।

बहुत लम्बा अंगूठा : जब अंगूठा बृहस्पति की अंगुली के तीसरे भाग को आसानी से पार कर जाता है तब वह बहुत लम्बा अंगूठा माना जाता है। ऐसे व्यक्ति हृदय से नहीं वरन मस्तिष्क से काम लेते हैं। वे कुछ जिद्दी स्वभाव के होते हैं और हमेशा बुद्धिमान भी नहीं होते। वे अपना प्रभुत्त्व जमाने वाले व अत्याचारी होते हैं। उनकी शक्ति नियंत्रण के बाहर होती है। उन्हें कई बार अलग रहने का दुख उठाना पड़ता है।

छोटा अंगूठाः यह अंगूठा बृहस्पति की उंगली की नीचे तक या उससे थोड़ा ही ऊपर पहुंचता है। वह व्यक्ति कोई भी निर्णय लेने में असमर्थ होता है व कभी इधर कभी उधर सोचता है। उसकी तर्क शक्ति कमजोर होती है वह भावुक अधिक होता है। मस्तिष्क से काम लेने की अपेक्षा अपनी भावनाओं में बह जाता है। उसमें आत्म निर्णय की शक्ति नहीं होती। इच्छा शक्ति भी कम होती है तथा वह लापरवाह भी होता है।

बहुत छोटा अंगूठा : यह अंगूठा बृहस्पति की अंगुली की तली तक ही पहुंचता है और उसे गरीबी का सामना करना पड़ता है।

औसत अंगूठा : यह अंगूठा बराबर वाली अंगुली के प्रथम भाग के बीच तक पहुंचता है, ऐसे व्यक्ति संतुलित बुद्धि के होते हैं। उनमें इच्छा शक्ति व शारीरिक शक्ति दोनों होती है।

हमें अंगूठे की स्थिति भी देखनी होती है कि वह नीचे की ओर स्थित है या ऊपर की ओर। अंगूठे की तली गुरु की अंगुली के बीच जगह छोटी है या बड़ी।

ऊंची स्थिति : जब अंगूठा इस प्रकार स्थित होता है कि गुरु की उंगली व अंगूठे के बीच की चौड़ाई कम हो तब वे व्यक्ति बुद्धिमान कम होते हैं तथा उनमें अनुकूलता भी कम होती है।

नीची स्थिति : जब अंगूठा नीचे की ओर स्थित होता है, हाथ खोलने पर अंगूठे व गुरु की अंगुली के बीच बड़ा स्थान बनता है तब उन व्यक्तियों में बहुत से मानवीय गुण होते हैं। वे मित्रता वाले सामाजिक उदार, सहायक व दूसरों की धन से मदद करने वाले होते हैं। वे मुसीबत में पड़े व्यक्तियों के प्रति सहानुभूति दिखाते हैं। वे स्वतंत्र स्वभाव के होते हैं और उनका व्यक्तित्त्व अलग होता है। जो भी हो वे किसी से अधिक संबंध नहीं बनाते न किसी की सहायता लेना पसंद करते हैं, न किसी के सामने झुकते हैं। वे स्वतंत्र स्वभाव के होते हैं और स्वतंत्र रहना पसंद करते हैं।

 

 

अब हम अंगूठे की बनावट और उसके लचीलेपन पर विचार करते हैं।

बड़ा अंगूठा : ये शक्तिशाली चरित्र का प्रतीक है। व्यक्ति भावना की अपेक्षा मस्तिष्क से अधिक काम लेता है, वह आत्म निर्भर होता है। उसे जल्दी प्रभावित नहीं किया जा सकता। वह बड़ा व्यवहारिक होता है।

छोटा अंगूठा : ये कमजोर चरित्र का प्रतीक है। व्यक्ति आसानी से प्रभावित हो जाता है, वह भावनाओें से प्रेरित होता है। वह व्यक्ति योजनाएं बनाता रहता है पर कभी उनको पूरी नहीं करता।

मोटा अंगूठा : ये व्यक्ति दूसरों की परवाह नहीं करता। वह अपने विचार व आवेश में पाशविक प्रकृति का होता है।

पतला अंगूठा : ऐसा व्यक्ति अच्छे चरित्र वाला होता है व दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करता है। वह कलात्मक व साहित्यिक प्रकृति का होता है।

चौड़ा अंगूठा : व्यक्ति शारीरिक रूप से शक्तिशाली होने के साथ-साथ दृढ़ निश्चयी भी होता है। वह आक्रामक स्वभाव का होता है तथा अपनी बाधाओं पर विजय पाता है। कभी-कभी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हिंसा का सहारा लेने में भी नहीं झिझकता।

मौलिक हाथ : अंगूठा केला जैसा लगता है। लगता है कि मांस का टुकड़ा हाथ से चिपका दिया है। यह व्यक्ति जिद्दी व जंगली स्वभाव का होता है तथा उसमें सभ्यता की कमी होती है। न वह दूसरों की भावनाओं को देखता है न अपनी भाषा के प्रयोग की ओर।

 

असुर संस्कृति में मातृशक्ति उपासना

वीरेन्द्र नाथ भार्गव

विश्व हिंदू संस्कृति में विख्यात पर्यटन स्थल नैनीताल (हिमालय क्षेत्र) की अधिष्ठात्री नैनीदेवी का मंदिर श्रद्धा का एक महान तीर्थ है। इस मंदिर से जुड़ा आधारभूत सत्य प्रायः विस्मृत सा हो चला है कि नैनीदेवी की प्रतिमा मूल रूप से असुरों की कुलदेवी नगरदेवी नीना की प्रतिमा है जो ई.पू. छठी शती में असुर सभ्यता (असीरिया-इराक) के निर्णायक पतन के फलस्वरूप असीरिया की राजधानी निनवे (वर्तमान मोसुल नगर, इराक) से सुरक्षित रूप से भागते हुए असुरों के द्वारा भारत में लाई गई थी और उसे नैनीताल में स्थापित किया गया था। ई.पू. छठी शती में नैनीताल में असीरिया के इन्हीं असुरों के पूर्वजों के द्वारा पराजित किये गये सीथियन-शकों ने सर्वप्रथम आकर सुरक्षित-सुंदर स्थान का चयन करके बसाया था। ये शक-सीथियन ही संभवतः महात्मा बुद्ध के पूर्वज रहे थे जिनके आधार पर उन्हें शाक्यमुनि के नाम से भी जाना जाता है। निनवे नगर की स्थापना लगभग ई.पू. 2000-2300 की अवधि के मध्य असुरों की अधिष्ठात्री देवी नीना के मंदिर की स्थापना के साथ ही असुर साम्राज्य की एक राजधानी के रूप में की गई थी। तब वहां नीनादेवी को ईस्तर देवी के रूप में भी जाना गया था।

ईस्तर शब्द मूल रूप से असुर और बेबीलोन की भाषा का अष्टरथ शब्द से निकला हुआ है जिसका एक रूपांतरण स्टार (तारा) आज भी अंग्रेजी सहित योरोपीय भाषाओं में समावेश किया हुआ है। निनवे नगर में कालांतर में अन्य ईस्तर देवी के मंदिर भी बने थे। मातृदेवी ईस्तर के विभिन्न रूपों-नामों के अनुरूप अन्न, चिकित्सा, युद्ध तथा उपासना इत्यादि से जुड़े अनेक प्राचीन मातृदेवियों के मंदिर संपूर्ण एशिया महाद्वीप में प्रचलित हो गए थे। ई.पू. छठी शती में शरणार्थी असुरों के साथ उनके पूर्वकाल के शत्रु रहे शक-सीथियनों के द्वारा नैनीताल क्षेत्र में उदार व्यवहार किया गया  तथा उनको समाज में सम्मानपूर्ण स्थान दिया गया था। इससे सहज प्रतीत होता है कि जब असुरों से पराजित होकर ई.पू. सातवीं-आठवीं शती में शक-सीथियन शरणार्थी के रूप में भारत आए थे तब भारतीयों ने भी उन्हीं विदेशी शकों-सीथियनों के साथ उदार-मानवीय व्यवहार किया था। कदाचित यही कारण रहा था कि उत्तर भारत के आर्य बहुल क्षेत्र में भी शाक्य मुनि गौतम बुद्ध के पूर्वज राजा शुद्धोधन इत्यादि का भारतीय समाज में सम्मान था और उनके संस्कृत आधारित नामों से स्पष्ट है कि वे भारतीय समाज से एक रूप हो गए थे।

विगत काल में हिंदू संस्कृति और भारत राष्ट्र पर विधर्मी और विदेशी आक्रमण, विध्वंस, मंदिरों को लूटा जाना तथा प्राचीन पुस्तकालयों-शिक्षण संस्थाओं को नष्ट किये जाने के फलस्वरूप धर्म-उपासना से जुड़ी अनेक ऐतिहासिक सामग्री लुप्त हो गई है। इनमें भारत और प्राचीन असीरिया (असुरों) सहित प्राचीन मिस्र, प्राचीन बेबीलोन-सुमेर सभ्यताओं से एकरूप रही मातृशक्ति उपासना वाला इतिहास भी रहा है। उपलब्ध पुरासामग्री और संदर्भों से कुछ रोचक बची हुई सूचनाएं मिलती हैं। इनमें से अनेक सूचनाएं पाश्चात्य विद्वानों के भारत विरोधी अथवा हिंदू विरोधी पूर्वाग्रह के कारण विकृत अथवा असत्य पूर्ण प्रस्तुत की गई हैं। स्वयं हिंदू विद्वान अथवा भारतीय विद्वान भी अनेक पौराणिक संदर्भों का अनर्थ करने के कारण सत्य से विमुख होकर व्याख्या करने की भूल कर बैठते हैं। भारतीय धर्म साहित्य में जहां स्थूल (भौतिक) सूक्ष्म (दैविक) और कारण (आध्यात्मिक) सूचना है तो साथ ही प्रस्तुत वर्णन करने की वाणी को चार भागों में विभाजित कर प्रस्तुत किया है जो क्रमशः बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परावाणी हैं।

किसी भी आधारभूत सत्य को मात्र स्थूल वर्णन में प्रस्तुत करने की चेष्टा करने के फलस्वरूप त्रुटियां होना स्वाभाविक है। अतः यही सत्य हिंदू संस्कृति में असुर संस्कृति के प्रस्तुत अंश के साथ किया गया है। सतयुग का इतिहास देवासुर संग्राम से भरा पड़ा है। असुरों की देवताओं से परम्परागत शत्रुता का आधारभूत कारण क्या था? असुरों ने प्रायः ब्रह्मा और शिवजी की तपस्या करके वरदान प्राप्त किये थे किन्तु वे विष्णु के भक्त बहुत कम हुए हैं। तब असुरों में मातृशक्ति उपासना का प्रचलन कब से आरंभ हुआ? इत्यादि अनेक सहज जिज्ञासाएं हैं जिनका उत्तर जानने की प्रायः सभी को रुचि रहती है।

एक पौराणिक आख्यान के अनुसार असुर और देवता सौतेले भाई थे। ऋषि कश्यप की दो पत्नियां दिति और अदिति थीं जिनसे दैत्य (असुर) और देव उत्पन्न हुए थे। कश्यप से ही हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप जैसी तेजस्वी बलवान संतान पैदा हुई किन्तु वे ऋषि नहीं कहलाईं। कालांतर में असुर वंशजों को ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के उपरांत भी ऋषि नहीं बनने और कहलाने से वंचित रहने का आधारभूत कारण पता चला कि देव कामदेव के द्वारा ब्रह्माजी के द्वारा नियत उत्पत्ति व्यवस्था में हस्तक्षेप किया जाना और वह भी अपनी सौतेली माता के साथ भेदभाव किया जाना रहा था। देवताओं के द्वारा ऐसा कृत्य असुरों ने कभी भी क्षमायोग्य नहीं समझा और जब-जब असुर बलवान हुए तब-तब उन्होंने स्वर्ग और देवराज इन्द्र पर सर्वप्रथम आक्रमण करके उनको दंड देना चाहा। यही देवासुर संग्राम का मूल कारण था।

भृगु के एक वंशज परशुराम का हिंदू संस्कृति में अवतार का स्थान है। असुर पत्नी होने के उपरांत भी भृगु की आध्यात्मिक महत्ता के अनुरूप त्रेता में भगवान राम ने जब अवतार लिया था तो उनके वक्ष पर जन्म से ही ऋषि भृगु के चरण चिह्न बने हुए थे। स्वयं असुर गुरु शुक्राचार्य की सत्यनिष्ठा पर विश्वास करके देवताओं के गुरु बृहस्पति का पुत्र उनका शिष्य बना था। सतयुग के पौराणिक काल के अंतिम चरण में देवी दुर्गा की उत्पत्ति हुई और दुर्गादेवी के हाथों से असुर शक्ति की निर्णायक पराजय हुई और बलशाली महिषासुर मारा गया था। संभवतः मातृशक्ति की महत्ता से परिचय पाकर असुरों में मातृशक्ति मातृदेवी उपासना की परम्परा का आरम्भ हुआ।

प्राचीन बेबीलोन नगर की मातृदेवी ईस्तर का वाहन सिंह था तथा उस नगर के मुख्य द्वार का नाम सिंहद्वार था। उत्तरी इराक के दो हजार वर्ष पुराने बसे नगर में कुल चौदह मंदिरों के पुरावशेष पाए गए। इनमें से एक मंदिर असुरबेल देवता का था। एक अन्य मंदिर में पाई एक त्रिशूलधारी प्रतिमा को ईरानी पाताललोक का दैत्य अहिरमन व्यक्त किया गया है। इस प्रतिमा में सर्प बने हैं तथा एक ओर सिंहासन पर आसीन देवी बैठी दिखाई गई हैं।