कर्मफल : भाग्य और स्वतंत्र इच्छा

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

ज्योतिष के शिक्षकों के सामने सदा ही यह प्रश्न रहा है कि सब कुछ गत जन्मों के कर्मों के परिणामस्वरूप ही है या इस जन्म में कुछ स्वतंत्र रूप से करके कर्म फल को बदला जा सकता है। एक अन्य प्रश्न यह आता है कि ज्योतिष दर्शन है, विज्ञान है या कला है। देशभर के शिक्षकों से वार्ता होती रहती है। देश की सर्वश्रेष्ठ संस्था का मैं प्रतिनिधि हूँ और उस नाते सभाओं में, कार्यक्रमों में और विचार-मंथन प्रक्रियाओं में इस विषय पर बुद्धि विलास होता ही रहता है। मैं इन्हीं सब प्रश्नों का उत्तर दूँगा।

केवल गत जन्मों का कर्मफल या स्वतंत्र इच्छा भी?

गीता में यह उल्लेख है कि इस जन्म में जो कुछ भी है, वह गत जन्मों का परिणाम है। फिर भी गीता कर्म का उपदेश देती है। अगर सब कुछ ही गत जन्मों का परिणाम है तो भगवान कृष्ण को यह क्यों कहना पड़ा कि कर्म करो, परन्तु फल की इच्छा मत करो? इसका मतलब भगवान कृष्ण ने भी इशारा तो कर ही दिया है कि चाहे भगवत भक्ति ही हो, कुछ कार्य करने की स्वतंत्रता शेष बच रहती है। सत्कर्म, दुष्कर्म या अकर्म की श्रेणियाँ मनुष्य तय कर सकता है कर्मक्षय या आगामी जीवन का अच्छा मार्ग तय कर सकता है। सभी दर्शन यह मानते हैं कि अगर जन्म-पुनर्जन्म, कर्म संचय या 84 लाख योनियों का अस्तित्व हम मानें तो एक जन्म में ही मोक्ष होना आवश्यक नहीं है। यह अवश्य है कि अनन्त योनिचक्र में अधोगमन से मुक्ति पाने का श्रेष्ठ उपाय मनुष्य योनि में ही सम्भव है, अगर उसे कर्म स्वातंत्र्य की सुविधा उपलब्ध हो। इसलिए श्रेष्ठ पुरुषों ने इसके उपाय बताये हैं।

सभी धर्मों ने अपने प्रवर्तकों की आज्ञा मानी है और उन्हें पूजनीय माना है या भगवान माना है। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को ही ईश्वर उद्घाटित होने दिया और समय-समय पर अपने अवतार होने के प्रमाण भी दिये। अतिमानवीय शक्तियों के प्रमाण भी दिये। युद्ध भूमि में गीता का उपदेश एक अद्भुत घटना है तथा संजय, बर्बरीक व अर्जुन को दिव्यदृष्टि एक अलौकिक घटना है।

गीता में प्रमुख उपदेश यही है कि जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु अवश्य होगी तथा जब तक कर्म संचय बना हुआ है तब तक पुनर्जन्म लेना ही पड़ेगा। अगर भगवान कृष्ण ने मार्ग बताये हैं तो वह इस बात का प्रमाण है कि स्वतंत्र इच्छा का या स्वतंत्र कर्म का मौका फिर भी बचा रहता है। चाहे अपनी भक्ति का नियोजन भगवान की इच्छापूर्ति में ही हो, परन्तु वह काम्यकर्म की श्रेणी में तो आता ही है।

जहाँ तक ज्योतिष का सम्बन्ध है, परम्परा के ज्ञान से संकेत मिलता है कि कुछ योग यह संकेत देते हैं कि जीवन में कर्मक्षय किया जा सकता है और उस निमित ज्योतिष योगों का प्रयोग करते हुए मार्ग तलाश किये जा सकते हैं। ग्रहों का वक्री होना इस बात का संकेत है कि इस जन्म में गत जन्म में किये गये कर्मों का क्षय करने का मौका इस जन्म में मिला है। देवगुरु बृहस्पति दशम भाव अर्थात् कर्म भाव को यदि किसी भी भाँति प्रभावित करते हैं तो यह माना जाता है कि उनके जीवन में एक दिन कोई आश्चर्यजनक परिवर्तन आयेगा और आजीविका मार्ग या कर्म मार्ग बदल जायेगा। यह घटनावशात् भी हो सकता है और गुरु की प्रेरणा से भी। तुलसीदास और कालीदास का जीवन इस बात का प्रमाण है कि घटनावशात् उनके जीवन बदल गये और उन्हें वह मार्ग मिल गया जो कि उनके प्रारब्ध में था। महाराज भर्तृहरि का महारानी पिङ्गला से बिछोह यद्यपि गुरु गोरखनाथ प्रेरित था, परन्तु इस घटना ने उनका जीवन बदल दिया। उनके लिखे हुये तीन ग्रन्थ - शृंगारशतक, नीतिशतक और वैराग्यशतक, उनके वीतराग हो जाने के बाद के हैं। उनके गुरु गोरखनाथ ने जब अपनी ही पत्नी को माता कहकर भिक्षा माँगने की आज्ञा दी तो भर्तृहरि ने ऐसा किया और वे मोह के सभी बन्धनों से मुक्त हो गये। अब भर्तृहरि के सामने जीवन मार्ग को सुधारने के लिए विकल्प था और उन्होंने उसे अपनाया। हम वाल्मीकि का भी किस्सा जानते हैं, जब वे कुमार्ग से सत्मार्ग की ओर प्रवृत्त हुए और उनका जीवन ही बदल दिया।

इसी बात को कृष्ण इस भाँति कहते हैं -

‘‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।’’

अर्थात् भगवान कृष्ण भी यह कहते हैं कि ‘‘हे अर्जुन! सभी धर्मों का त्याग करके मेरी शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त करके मोक्ष प्रदान कर दूँगा।’’ एक अन्य स्थान पर भगवान पुनः कर्म करने की प्रेरणा देते हैं।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि च ते प्रसिद्धयेद् अकर्मणः।।

अर्थात् अपना निहित कर्म करो, क्योंकि कर्म ना करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो शरीर निर्वाह भी नहीं हो सकता है। यह प्रश्न उठ सकता है कि ईश्वर निष्काम कर्म करने की प्रेरणा देते हैं, परन्तु एक यह तर्क भी सामने आया है कि अन्त में ईश्वर प्राप्ति की कामना तो रहती ही है।

ज्योतिष को वेदों का नेत्र कहा गया है अर्थात् वेदों का ज्ञान प्राप्त करना है तो ज्योतिष का ज्ञान आवश्यक है। समस्त पौराणिक ग्रन्थों में गुरु की महानता का दिग्दर्शन है। किसी भी क्रिया में गुरु का मंत्र भी पढ़ा ही जाता है। गुरु ही ईश्वर की प्राप्ति करा सकते हैं। एक जगह कहा गया है -

‘‘गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय। बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।’’

‘‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥’’

इस सब में यह संकेत छिपा हुआ है कि कर्मों की गति को बदलने के लिए इस जन्म में कोई न कोई माध्यम होना आवश्यक है और यह माध्यम गुरु ही हो सकते हैं, जो अज्ञान के अन्धकार को दूर करके प्रकाश के मार्ग पर ले जायें तथा ईश्वर से साक्षात् करायें। यह कर्म ही स्वतंत्र इच्छा है और ईश्वर ने इस जन्म में कुछ न कुछ हमारे लिये ऐसा छोड़ रखा है जिसे स्वतंत्र इच्छा कहते हैं और जिसका प्रयोग करके हम मोक्ष मार्ग की ओर प्रवृत्त हो सकते हैं।

 

बालकों की दिनचर्या ऐसी बनायें

1. अपने बच्चों को सूर्योदय से पूर्व जागने एवं सूर्यास्त के बाद शयन की आदत डालें।

2. बालकों को हमेशा दक्षिण दिशा की ओर सिर करके सुलावें।

3. बच्चे जब प्रातःकाल जागें तो 1-2 मिनिट भगवान का कीर्तन उनके सामने करें।

4. बच्चों को जागते ही मुँह धोने, जल पीने, शौच जाने एवं बड़ों को नमस्कार करने की आदत डालें।

5. बच्चों को स्नान के पश्चात खेल-कूद, विद्याध्यन या अन्य ग्रह कार्यों में व्यस्त रखें। यदि बच्चे कुछ चीजों को तोड़-फोड़ दें तो उन्हें डाटें नहीं क्योंकि यह बुद्धि के विकास का समय होता है इस समय अति अंकुश ठीक नहीं।

6. बच्चों को प्रातःकाल पूर्वाभिमुख एवं सायंकाल रात्रि काल में पश्चिमाभिमुख बैठाकर भोजन कराना चाहिये। भोजन करते समय बालक को पालथी मारकर बैठाना चाहिये। इससे ओज की वृद्घि होती है व पाचन तंत्र स्वस्थ रहता है।

7. बालकों को कम मिर्च-मसाले वाले शुद्ध, स्निग्ध व पौष्टिक भोज्य पदार्थ जिमाने चाहिये।

8. दांत निकलते समय अक्सर बच्चों का स्वास्थ्य बिगड़ता है इसलिए माता-पिता धैर्य से काम लेवें। बच्चों को चावल-मंूग का सुपाच्य भोजन करावें, बिल्कुल भी तेज मिर्च-मसाले या गरिष्ठ भोजन ना करावें।

9. बच्चों की आवश्यकता पूरी हो लेकिन दुराग्रह की पूर्ति कभी ना करें।

10. बच्चों के कपड़े स्वच्छ व ढीले हो कभी भी तंग कपड़े ना पहनावें। इससे रक्त संचरण में बाधा आती है।

11. माता-पिता या बड़े भाई-बहिन छोटे बच्चों को प्रतिदिन बाग-बगीचों, मंदिर या मैदानों में कुछ देर खेलने ले जावें।

12. बच्चों को ज्वरादि हो जावें तो रामरक्षा कवच का झाड़ा देना चाहिये।

13. बालकों के मन में यह बात भर दी जावें कि- भूत-पिशाच निकट नहीं आवे। महावीर जब नाम सुनावे॥

14. बालकों में नियमित पढ़ाई और पढ़ाई को व्यवहार में लाने की प्रवृत्ति  डालें।

15. बालकों में कौतूहल अधिक रहता है इसलिए उनकी इच्छाओं का उचित समाधान अवश्य करना चाहिये। अज्ञानता या निर्दयता नहीं दिखानी चाहिए।

16. अपने बच्चों पर परीक्षा का कभी बोझ नहीं डालना चाहिये।

17. बच्चों को शयन कराते समय, उन्हें पेशाब करा लेना चाहिये, हो सके  तो हाथ-पैर व मुँह धुलाना चाहिये।

18. बालकों को महीने में एक बार रेचक (अदरक, तुलसी या नींबू का रस) मौसम के अनुसार देना चाहिये। इससे पाचन तंत्र स्वस्थ रहता है

19. प्रत्येक रविवार को बच्चों को दूध, रोटी व शक्कर मिलाकर या अलग-2 अवश्य खिलावें। इससे मेधा शक्ति बढती है।

20. बालकों को प्रतिमाह मंगलवार व शनिवार को तेल की मालिश विशेषतः शीत ऋतु में करके कुछ देर धूप में लिटाना या बैठाना चाहिये। इससे अस्थियां मजबूत होती है।

21. ईर्ष्यालु स्ति्रयों के नजर दोष से बचाने के लिए बच्चों के  गले में ईष्टदेव मंत्र का ताबीज बांधना चाहिये तथा विशेष अवसरों पर राई व साबुत नमक उसारकर कर अग्रि में डालना चाहिये।

22. भोजन कराते समय बच्चों के हाथ-पैर व मुख धुलाना चाहिये व सिर तथा कपाल को थोड़ा आर्द्र रखना चाहिये। तथा भोजन के बाद बच्चों के नेत्र अवश्य धुलाने चाहिये।

23. बच्चों की पढ़ने की मेज पर बांयी और से प्रकाश की व्यवस्था रखनी चाहिए तथा रीढ़ की हड्डी को सदा सीधी रखकर ही पढ़ने की आदत डालें। झुककर पढ़ने से फेफड़े खराब होने का डर रहता है।

24. बालकों को शिक्षा देने के लिए सरलतम उदाहरणों को लेते हुये, कठिन सूक्ष्म नियमों में प्रवृत करना चाहिये। ज्ञानेन्दि्रयों की वृद्धि हेतु, प्राकृतिक वस्तुओं के चित्र, गंध व रसों का ज्ञान  कराना चाहिये।

 

नाड़ी दोष- संतान पीडा

ज्योति शर्मा

आज प्रत्येक व्यक्ति अपना जीवन साथी मनोनुकूल चाहता है, अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति विवाह बंधन में बंधने से पूर्व जीवन की नैया चलाने के लिए अनुकूल जीवन साथी की तलाश करता है। जीवन साथी देखने में सुन्दर होना अनुकूलता के लिए पर्याप्त नहीं है अतः इसके लिए जीवन साथी का स्वभाव, आचरण, आयु एवं व्यक्तित्व इत्यादि बातों पर विचार किया जाना चाहिए। हम विवाह विचार सुसन्तति से सुखपूर्वक जीवन एवं धार्मिक भावना के लिए करते हैं। हमारे महान ऋषियों ने दाम्पत्य जीवन को सुखमय एवं वंश वृद्घि योग्य बनाने के लिए ज्योतिष के माध्यम से जन्म पत्रिका द्वारा वर-वधु के गुण मिलान विधि का निर्माण किया जिसके फलस्वरूप हम सुयोग्य वर या वधु का निर्णय कर सकते हैं। गुण मिलान को अष्टकुट मिलान कहते हैं अर्थात् यह मिलान वर और कन्या की राशि,राशिश एवं नक्षत्रों के आधार पर किया जाता है।

जिसमें आठ बातों का ध्यान रखा जाता है वर्ण, वैश्य, तारा, योनि, ग्रह, मैत्री, गण, भकूट तथा नाड़ी ये अष्टकुट वर वधु के गुण मिलान में देखे जाते है उन अष्टकूटों के पृथक-पृथक गुणांक होते है। अष्टकूट में नाड़ी कूट सबसे अधिक गुणांक वाला है, ज्योतिष शास्त्र के अनुसार नाड़ी दोष होने पर स्वास्थ्य एवं संतान के लिए घातक होता है सुस्वास्थ एवं सुसन्तति के लिए नाड़ी दोष का परिहार होना आवश्यक है। ज्योतिष में नाड़ी कूट के तीन प्रकार- आदि, मध्य एवं अन्त्य बताये गये हैं। सभी 27 नक्षत्रों को तीन नाडियों बांटा गया है जो इस प्रकार है-

1. अश्विनी, आर्द्रा, पुनर्वसु, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, ज्येष्ठा मूल, शतभिषा और पूर्वा भाद्रपद- इन नक्षत्रों में जन्म लेने वाला जातक या जातिका को नाड़ी ‘आदि’ होती है।

2. भरणी, मृगशिरा, पुष्प, पूर्व फाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढा, धनिष्ठा और उत्तरा भाद्रपद इन नक्षत्रों में जन्म लेने वाले जातक या जातिका की नाड़ी ‘मध्य’ होती है।

3. कृत्तिका, रोहिणी, आश्लेषा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढा , श्रवण और रेवती- इन नक्षत्रों में जन्म लेने वाले जातक या जातिका की नाड़ी और अन्त्य होती है।

तीन नाडियों को त्रिदोष की संज्ञा दी गयी है अर्थात् कफ, पित और वात। वात प्रधान नाड़ी आदि, पित प्रधान नाडी मध्य तथा कफ प्रधान नाड़ी को अन्त्य माना गया है। अगर वर तथा वधु को नाड़ी एक हो गयी तो यह दोनों के स्वास्थ्य तथा संतान के लिए अशुभ होती है जैसे वर की नाड़ी आदि तथा वधु की नाड़ी आदि यानि वात प्रधान है, तो दोनों के संयोग से शरीर में वात प्रधान रोगोत्पति की संभावना प्रबल होगी तथा जिसका संतान के स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। ठीक इसी प्रकार वर-वधु की दोनों मध्य नाड़ी हो तो पित्त जन्य रोग तथा दोनों की अन्त्य नाड़ी हो तो फल जन्य रोग से पीड़ित होने की संभावना होती है जो कि संतान उत्पति में पीड़ा तथा स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पडता है अतः पुरुष एवं कन्या की नाड़ी का एक होने पर संतान के सुख में कमी आती है, इसीलिए आवश्यक है कि पुरुष तथा कन्या की नाड़ी एक न होकर अलग-अलग होनी चाहिए।

 

विवाह और तिथि नक्षत्रादि

विवाह को लेकर बहुत सारी बातें शास्त्रों में कही जाती है। पुराने योगों का फलन अब प्रायः अलग संदर्भों में देखा जाने लगा है। आज से 500 वर्ष पहले जो परिस्थितियां थीं वे अब नहीं हैं। तब तलाक की बात सोची भी नहीं जा सकती थी, आज ऐसा संभव हो गया है। दूसरी तरफ कम से कम भारत में तो कानून ऐसा है कि एक विवाह के रहते दूसरा विवाह या एक पत्नी के जीवित रहते दूसरा विवाह किया जाना कानूनन संभव नहीं। अतः इस संदर्भ में कुछ बातों का पुनर्विचार किया जाना आवश्यक है जिससे कि विवाह की रक्षा हो सके।

कुछ नक्षत्रों की चर्चा विवाह के संदर्भ में विशेष रूप से किया जाना उचित है। पुष्य नक्षत्र को विवाह में वर्जित कर दिया गया है। इसके लिए एक श्लोक मिलता है-

समस्तकर्मोचितकालपुष्यो दुष्यो विवाहे मदमूर्छितत्वात्।

सहस्रपत्रप्रसवेन तस्मादिहापि भक्तो भुवि लोकसंघैः॥

ब्रह्मा द्वारा विवाह में मदान्ध होने के कारण पुष्य नक्षत्र को विवाह कार्यों के लिए अशुभ माना जाने लगा है। बाद में शास्त्रों में इसके प्रावधान कर दिए गए थे।

भगोडु बाल्मीकिरिहाह सौम्यं सीता सिषेवे न सुखं तदूढा।

भैमी तथैवाभिजिदृक्षमत्रिस्तच्छापमायोडु तदीयमस्मात्॥

पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में सीता का विवाह हुआ था। सीता को विवाह का सुख प्राप्त नहीं हो सका। बाल्मिकी ऋषि ने इस पर टिप्पणी की है और इस नक्षत्र को भी विवाह के लिए शुभ नहीं माना गया है। अभिजित नक्षत्र में दमयन्ती ने विवाह किया तो नल उसे भूल गए। अत्रि ऋषि ने इसीलिए अभिजित नक्षत्र की विवाह में निन्दा की है।

मूल नक्षत्र को पहले विवाह में शुभ नहीं माना जाता था परन्तु मूल नक्षत्र में माता देवकी का विवाह हुआ और उन्होंने भगवान कृष्ण को जन्म दिया। इसके बाद से मूल नक्षत्र को विवाह में शुभ माना जाने लगा।

दक्ष प्रजापति की पुत्रियों का विवाह कश्यप ऋषि के साथ मघा नक्षत्र में हुआ था जिसके परिणाम बहुत सुन्दर रहे। इसलिए मघा नक्षत्र को भी विवाह कार्यों में शुभ माना जाने लगा।

जिस तरह से ऊपर बताये गये प्रत्येक नक्षत्र के बारे में कोई न कोई पौराणिक कथन मिलता है और शास्त्रोक्त धारणाएं बनाई गई हैं उसी तरह अष्टकूट मेलापक में कई बातों का समावेश कर लिया गया है परन्तु कई बातें आ नहीं पातीं। कुछ बातों पर हम यहां चर्चा कर सकते हैं-

1. यदि स्त्री और पुरुष की परस्पर राशियां एक दूसरे से सप्तम, चतुर्थ व दशम, तृतीय व एकादश या दोनों की एक ही राशि हो तो ऐसे दम्पत्ति का कुल सम्पन्न होता है और उसे प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। यदि कन्या की राशि से वर की राशि 6-8, 5-9 तथा 2-12 हो तो इस भकूट दोष के कारण संबंध अच्छे नहीं रहते, पर किसी आचार्य ने कहा है कि यदि दोनों के राशि स्वामियों में मित्रता हो तो इस दोष में कमी आ जाती है। 

2. यदि पुरुष के जन्म नक्षत्र के बहुत पास ही स्त्री का जन्म नक्षत्र हो तो पत्नी सुखी रहती है। परन्तु यदि पति के जन्म नक्षत्र से स्त्री का जन्म नक्षत्र बहुत दूर हो तो वह कष्ट प्राप्त करती है।  इसका उल्टा फल भी होता है। यदि स्त्री के जन्म नक्षत्र से पति का जन्म नक्षत्र समीप हो तो वह अशुभ होता है तथा स्त्री के जन्म नक्षत्र से बहुत दूर हो तो पति का शुभ होता है। परन्तु, रामदैवज्ञ ने बताया है कि पत्नी के जन्म नक्षत्र से पति का जन्म नक्षत्र दूसरा हो तो वह पति के लिए या स्वयं के लिए अशुभ होता है।

3. कुंभ, वृष, मिथुन, मेष और मकर राशियों में स्थित सूर्य में विवाह प्रशस्त बताया गया है। चन्द्र, शुक्र और गुरु जिस नक्षत्र पर नहीं हों तो वह नक्षत्र विवाह के लिए शुभ बताए गए हैं।

4. अधिक मास, क्षय मास, सिंहस्थ गुरु, गुरु और शुक्र के वृद्धत्व और बालत्व में विवाह की वर्जना की गई।

5. जन्म नक्षत्र, जन्म मास, जन्म लग्न और जन्मदिन में विवाह की निन्दा की गई है।

6. दिन में जन्म हो तो रात्रि का विवाह और कृष्ण पक्ष में जन्म हो तो शुक्ल पक्ष में विवाह शुभ माना गया है।

7. ज्येष्ठ कन्या और ज्येष्ठ वर हो तो ज्येष्ठ मास में विवाह नहीं किए जाते।

8. ज्येष्ठ पंचक में प्रथम गर्भ से उत्पन्न कन्या, प्रथम गर्भ से उत्पन्न वर, ज्येष्ठ मास में उत्पन्न कन्या एवं ज्येष्ठ मास में उत्पन्न वर तथा ज्येष्ठ मास में दोनों का विवाह यह ज्येष्ठ पंचक या शुक्र पंचक कहलाते हैं। इनमें समभाव हो अर्थात् इनमें से दो परिस्थितियां हों या चार परिस्थितियां हो तब तो शुभ माना गया है अन्यथा अशुभ कारक यहां तक कि मृत्यु कारक माना गया है।

9. एक ही मां से उत्पन्न भाई-बहिनों का विवाह एक ही वर्ष में नहीं किया जाना चाहिए। परन्तु किसी-किसी आचार्य ने एक ही मां से उत्पन्न दो भाईयों के एक ही वर्ष में विवाह की आज्ञा कलियुग में दे दी।

10. भाई के विवाह के छः महीने बाद बहिन का विवाह किया जा सकता है परन्तु बहिन के विवाह के पश्चात भाई का विवाह कभी भी किया जा सकता है।

11. किसी-किसी आचार्य ने कहा है कि दूसरे सहोदर का विवाह सौर वर्ष के परिवर्तन होने पर किया जा सकता है।

12. गालव ऋषि ने वक्री और अतिचारी गुरु को विवाह कार्य में शुभ माना है तथा अन्य कार्यों में अशुभ माना है। परन्तु अन्य आचार्यों ने इस मत का समर्थन नहीं किया है।

13. सिंह राशि के गुरु में गोदावरी नदी के उत्तरी तट से भागीरथी नदी के दक्षिणी तट तक तथा सिन्धु नदी तक के क्षेत्रों में विवाह का निषेध किया गया है। इसका यह अर्थ भी निकलता है कि सिंहस्थ गुरु का दोष केवल तब तक ही रहता है जब तक कि मघा नक्षत्र में गुरु स्थित है।

14. सिंहस्थ गुरु में विवाह की रक्षा के लिए अन्य कई प्रावधान हैं परन्तु यहां उनकी चर्चा नहीं की जा रही है।

15. मकर राशि में बृहस्पति होने पर भी कई प्रान्तों में विवाह का निषेध किया गया है।

16. आश्विन मास में विवाहिता सुख प्राप्त नहीं करती। श्रावण मास में विवाह करने से स्त्री को गृह सुख का अभाव, आषाढ़ मास में विवाह करने से शोक, कार्तिक में विवाह करने से तेज एवं शक्ति की हानि, चैत्र में विवाहिता मद्यपान या विलासिता में रुचि लेने वाली होती है तथा मार्गशीर्ष में विवाह हो तो स्त्री को अन्न का अभाव मिलता है। भाद्रपद मास में विवाह से स्त्री को सुख नहीं मिलता है व उसकी महत्वाकांक्षाएं कम हो जातीं हैं। पौष मास में विवाहित स्त्री पति के सुखों को कम करती है।

17. शिशिर एवं चैत्र मास में उपलवृष्टि, जलवृष्टि या विद्युतपात हो तो विवाह कष्टप्रद हो जाता है।

18. आकाश में धूमकेतु का उदय, भूकम्प, आकाशीय अग्नि, असमय विद्युत गर्जन व उल्कापात हो तो समस्त मंगल कार्यों का नाश कर देता है। जब चन्द्रमा इन नक्षत्रों से निकल जाएं तब विवाह या मंगल कार्य किए जा सकते हैं।

19. तिथि के आदि और अन्त में विवाह करने से पति की मृत्यु, नक्षत्र के आदि और अन्त में विवाह करने से संतानहीनता,  योग के आदि और अन्त में विवाह करने से चंचल स्वभाव वाली तथा राशियों के आदि या अन्त में विवाह करने से स्त्री कुल का नाश करने वाली होती है। तिथियों के आदि और अंत के चालीस-चालीस पल, नक्षत्रों के आदि और अन्त के 37 पल, योगों के आदि और अन्त के 34 पल, कर्क, वृश्चिक और मीन राशियों के आदि और अन्त के ढाई पलों का त्याग शुभ कार्यों में कर देना चाहिए।

20. गोधूलि लग्न सभी मामलों में ग्राह्य होती है। ऐसा माना जाता है कि गोधूलि काल में सभी ग्रहों के पाप प्रभाव कम हो जाते हैं।

21. रविवार को भरणी नक्षत्र, सोमवार को चित्रा नक्षत्र, मंगलवार को पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र, बुधवार को धनिष्ठा, गुरुवार को हस्त, शनिवार को रेवती व शुक्रवार को ज्येष्ठा नक्षत्र का निषेध शास्त्रों में बताया गया है।