मकान का अभिशप्त भाग - वायव्य कोण

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

चाहे फ्लैट हो, या प्लॉट लेकर बनाया गया मकान हो, या आपके द्वारा बनाई गयी फैक्टरी, वायव्य कोण के दोष कहीं का भी नहीं छोड़ते। जीवन के संध्याकाल में तो यह दोष सिर चढ़कर बोलते हैं और सारी कमाई-धमाई साफ करके कर्ज के दलदल में छोड़ देते हैं। यदि अपना सब कुछ कमाया हुआ बचा कर रखना है, बल्कि उसे और आगे बढ़ाना है तो उसी समय ध्यान देना उचित रहेगा जब आप फ्लैट खरीद रहे हों या मकान व फैक्टरी बना रहे हों।

वास्तु के दोष तब ज्यादा देखने में आते हैं, जब व्यक्ति पुरानी सम्पत्ति को बेचकर नई सम्पत्ति खरीदने में जुट जाता है। उस समय जेब भरी रहती है, व्यक्ति आव देखता है ना ताव और जल्दबाजी में सौदा कर बैठता है। ना तो उस समय चार्टर्ड अकाउन्टेंट याद आता है और ना ही वास्तुशास्त्री। वैसे भी आम प्रवृत्ति है कि जब व्यक्ति धनी होता है तो सबसे पहले तो मंदिर जाना कम कर देता है, उसके बाद घर की पूजा में कमी आ जाती है। बाद में कभी ज्योतिषी की याद तभी आती है जब वह सभी तरफ से फ्लॉप हो जाता है।

फ्लैट या मकान का वायव्य कोण (North-West) अति संवेदनशील क्षेत्र है। यदि हम कम्पास से गणना करें तो पश्चिम दिशा मध्य से ठीक वायव्य कोण के बीच में अगर कोई द्वार पड़ जाये तो आमतौर से कानून का उल्लंघन, हारी-बीमारी, कर्जा, व्यवसाय में घाटा या भयानक दुर्घटना से सम्बन्धित परिणाम आते हैं।

फ्लैट या मकान की बाहरी सीमा पर जो द्वार होते हैं, अगर वह पश्चिम दिशा से ठीक वायव्य कोण वाली बाउण्ड्री वॉल पर स्थित हों तो मकान खरीदने के 2-3 वर्ष के अन्दर-अन्दर ऊपर बताये गये भयानक परिणाम ला देते हैं। इन परिणामों के आने की पृष्ठभूमि बनने में दो-तीन साल लग जाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जब आप खूब कमा लेते हैं और कानून सम्बन्धित सावधानियाँ नहीं बरते या स्वास्थ्य सम्बन्धी सावधानियाँ नहीं बरतते तब यह परिणाम आते हैं। गरीबों के खाते में तो दुर्घटनाएँ ही आ सकती हैं। कानून के उल्लंघन के ज्यादातर परिणाम सम्पन्न लोगों हिस्से में आते हैं या स्वभावगत दोष के कारण आते हैं।

वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत पश्चिम दिशा में आठ द्वार बताये गये हैं। पश्चिम दिशा मध्य को छोड़कर ठीक वायव्य कोण तक चार द्वार होते हैं जो सिर्फ बर्बादी लाते हैं। इन द्वार योजनाओं से सरकारी संस्थाएँ खिलाफ पड़ जाती हैं और गृह स्वामी के विरुद्ध अतिक्रमण तोड़ना या इनकम टैक्स या जीएसटी विभाग द्वारा कार्यवाही करना देखने में आता है। एक द्वार तो ऐसा है जो अनन्त बिमारियाँ देता है और पूरा जीवन दवाईयाँ खाते हुए बीतता है। पश्चिम दिशा और वायव्य कोण के ठीक मध्य में फ्लैट या मकान की बाहरी बाउण्ड्री या दीवार पर एक द्वार ऐसा है जो आपकी कम्पनी को बड़े घाटे में बदल देता है और व्यक्ति दिवालिया तक हो सकता है।

मैंने सबसे ज्यादा परीक्षण दो द्वारों पर किये। ठीक वायव्य कोण का द्वार। शास्त्रों में यहाँ द्वार होने पर दो ही परिणाम बताये गये हैं, मृत्यु या बंधन। ठीक वायव्य कोण का द्वार सबसे बड़े परिणाम देता है क्योंकि आमतौर से दुर्घटना होती हैं और उनमें मृत्यु तक हो सकती है। ईश्वर ने 100 वर्ष की आयु दे दी हो तो ही बचेगा, अन्यथा मृत्युतुल्य कष्ट तो आएंगे ही। दूसरा शब्द बन्धन है। बन्धन का अर्थ कारावास है। आमतौर से यह परिणाम फैक्टरियों में गलत निर्माण के कारण आते हैं।

मैंने जब वायव्य कोण के द्वार को लेकर शोध कार्य प्रारम्भ किया तो इस क्रम में सैंकड़ों मकान और फैक्टरियाँ देख डाली। एक बात देखने में आई जो कि सबमें समान रूप से पायी गई थी। जब फैक्टरी से चोर दरवाजे से माल निकाल कर बेचा जाता है या फैक्टरी में आए हुए कच्चे माल में तथा प्रोडक्शन में अन्तर देखने को मिलता है। केन्द्रीय एक्साइज विभाग ने एक फैक्टरी में 10 हजार टन कच्चा माल आना पाया, जबकि रिकॉर्ड में उत्पादन 4 हजार टन ही मिला। शेष 6 हजार टन का स्टॉक फैक्टरी में स्टोर में नहीं था। कोई संतोषजनक जवाब भी नहीं था। विभाग ने अनुमान लगाया कि 6 हजार टन माल बनाकर चोरी से बाजार में बेच दिया गया। गिरफ्तारी भी हुई और जुर्माना भी भरना पड़ा, क्योंकि फैक्टरी के उत्पादन के दस्तावेजी साक्ष्य विभाग को मिल चुके थे। वायव्य कोण के द्वार में यही एक खास बात है कि आर्थिक अपराध के दस्तावेजी साक्ष्य फैक्टरी में ही उपलब्ध रहते हैं। एक अन्य मामले में एक सरकारी ऑफिसर ने टीएडीए तो रेलवे की प्रथम श्रेणी का उठाया परन्तु गये सैकण्ड क्लास स्लीपर से थे। वे प्रथम श्रेणी की टिकिट सबूत के रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाए, नतीजा जाँच हुई और उन्हें दण्ड मिला। मुकदमा भी दर्ज हुआ। कारण कि उनके मकान का द्वार ठीक वायव्य कोण में था।

 

ठीक वायव्य कोण से उत्तर दिशा की बाउण्ड्री पर चलते ही एक द्वार देवता का नाम है-नाग या सर्प। जिसके भी मकान में यह द्वार होता है, उसकी शत्रु वृद्धि होने लगती है। शास्त्रों में तो यही शब्द लिखा है। परन्तु मैंने अनुमान लगाया कि अगर नाग है तो जहर भी होना चाहिए। जब 100-50 मकानों पर परीक्षण किया तो पाया कि जहर खाकर मृत्यु हो जाने वाले मामले इसी द्वार के कारण आए। ड्रग एडिक्शन, ड्रग रिएक्शन या तंबाकू खाकर होने वाले दुष्परिणाम भी उन्हीं लोगों को देखने में मिले जिनके घर में वायव्य कोण के पास स्थित वाला यह द्वार बना हुआ था। इन दिशाओं में बाह्य द्वार पर स्थित देवताओं के नाम और वहाँ द्वार बना देने के परिणाम चित्र में दिखाये जा रहे हैं। पाठक अवश्य इनसे सबक लेंगे।

 

धन्वन्तरि ने आयु बढ़ाने के बताए 3 उपाय

डॉ सुमित्रा अग्रवाल

जैसे जन्म एक अटल सत्य है, वैसे ही मृत्यु भी एक अटल सत्य है। हर आदमी अमर होने की कामना करता है और मृत्यु से डरता है। बीमार, अस्वस्थ आदमी मृत्यु शैय्या पर जब होता है तब वह भी जीने के लिए लालायित होता है। अंत समय में जब प्राण वायु शरीर से बाहर निकलती है तो बहुत कष्टों से देह त्यागता है। मृत्यु की बात ही आदमी को भयभीत कर देती है। धन्वन्तरि ने दीर्घायु होने के कुछ सरल उपाय बताये थे। एक दिन की बात है धन्वन्तरि घूमते-घूमते अपने शिष्य वांगभट्ट से मिलने वाराणसी पहुंचे। वांगभट्ट ने गुरु को बताया कि इन दिनों ज्यादा लोग अस्वस्थ हो रहे हैं और मरीजों की संख्या बहुत ज्यादा बढ़ गई है। गुरु ने उनसे कहा कि हर किसी से ये तीन उपाय करने को बोलो। वह तीन चमत्कारी उपाय हैं - हितभूख, ऋतभूख , मितभूख ।

हितभूख अर्थात् वही खाये जो हितकर हो।

ऋतभूख अर्थात् ऋतुओं,  मौसम के अनुकूल ही खाना खाये।

मितभूख अर्थात् कम खाये। जितनी  भूख हो उससे सदा ही कम खाये।

वांगभट्ट ने आश्चर्य जनक रूप से देखा कि इन तीनों बातों का अनुसरण करने से मरीजों की संख्या कम हो गयी।

मेरे व्यक्तिगत अनुभव से मैंने पिछले दो दशक में यह जाना और पाया कि हर खाने की चीज हर किसी के लिए उपयोगी नहीं होती। हर व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी फूड एलर्जी टेस्ट कराये और जिन चीजों से एलर्जी मिले उनका सेवन बंद करें,  इससे भी दीर्घायु हुआ जा सकता है।

अब बात करते हैं ऋषि-मुनियों की उनकी आयु इतनी अधिक कैसे हैं और यह सब हिमालय में ही क्यों पहुंच जाते हैं, तपस्या करने। यहाँ एक रोचक बात बताऊंगी कि जैसे चम्बल डाकुओं और गलत कार्यों के लिए प्रसिद्ध है, वैसे ही हिमालय सकारात्मक, ध्यान समाधि के लिए, यह कोई इत्तेफाक नहीं है। हिमालय और शिवालिक से नदियाँ जो निकली हैं वह उत्तर से दक्षिण की तरफ आ रही हैं और चम्बल में इसका ठीक उल्टा है,  यह नदियाँ दक्षिण से उत्तर की तरफ जा रही है। वास्तु नियमों की बात करें तो यह जल के प्रवाह की दिशा ही है जो दोनों जगह को ऐसा बना रही है। ऋषियों का हिमालय पर जाने का एक कारण और भी है वह है तापमान। अमीबा पर शोध करके वैज्ञानिकों ने जाना कि अगर शरीर का तापमान जितना कम कर दिया जाये आयु उतनी ही बढ़ सकती है। इसलिए हमारे महर्षि शून्य से नीचे तापमान की जगह में जाकर तपस्या में लीन हो जाते हैं।

 

दुर्गा सप्तशती का महत्व

ज्योति शर्मा

कोई भी नवरात्र प्रारम्भ होते हैंतो माता के सभी रूप हमारे सामने आने लगते हैं। व्यक्ति इन 9 दिनों में माँ दुर्गा के अलग-अलग स्वरूपों की प्रत्येक दिन पूजा-आराधना करता है व अपने जीवन के सभी कष्ट, परिवार के लिए सुख-शांति माता से मांगता है। नवरात्रों में यदि माँ दुर्गा सप्तशती का पाठ नित्य करके पूजा की जाए तो माता की विशेष कृपा बनी रहती है। माता की उपासना में जितने भी ग्रंथ हैं उन सभी ग्रंथों में दुर्गा सप्तशती का विशेष महत्व बताया गया है। शास्त्रों में भी वर्णन आता है- कलौ चण्डी विनायकौ या कलौ चण्डी महेश्वरौ अर्थात् कलियुग में चण्डी और गणेश अथवा चण्डी और महेश विशेष फल प्रधान कराने वाले हैं। नवरात्रों में माँ चण्डी व दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए श्रीदुर्गा सप्तशती का पाठ करना चाहिए। दुर्गा सप्तशती सात सौ श्लोकों का संग्रह है और तीन चरणों में विभक्त है। दुर्गा सप्तशती में माँ दुर्गा के विभिन्न कृत्यों का उल्लेख बड़ी सुन्दरता के साथ किया गया है।

प्रथम चरण में ब्रह्माजी ने मधु और कैटभ राक्षस का संहार करने के लिए भगवान विष्णु को जाग्रत कराने का प्रयत्न किया, भगवान विष्णु शेष शय्या पर निमग्न थे। तब उनके कर्ण मल से मधु- कैटभ असुर उत्पन्न होकर हरि नाभि कमल स्थित ब्रह्माजी को ग्रसने चले। तब ब्रह्माजी ने योगनिद्रा की स्तुति कर उनसे तीन प्रार्थना की कि आप भगवान विष्णु को जाग्रत कीजिए, उन्हें असुरों के संहार के लिए प्रेरित कीजिए व असरों को मोहित करके भगवान विष्णु द्वारा उनका नाश करवाएं। तब श्रीभगवती की स्तुति से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी को दर्शन दिए व भगवान विष्णु योग इन्दि्रयों से मुक्त करवाया व उनके द्वारा मधु और कैटभ राक्षसों का वध करवाया।

द्वितीय चरण में बड़ी ही सुन्दरता के साथ सामान्य जनता को विशिष्ट और गूढ़ शिक्षा दी है। संघे शक्तिः यह सिद्धान्त प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। महर्षि लिखते हैं- महिषासुर देवताओं को पराजित करके इन्द्र पद पर प्रतिष्ठित हो गया। उस समय विपत्ति में फंसे देवताओं से एक तेज निकला और वह तेज एकत्रित होकर माँ दुर्गा का रूप धारण करके महिषासुर का नाश किया।

तृतीय चरण में हम सबको यह सिखाया कि यदि किसी सत्य कार्य के लिए हम अकेले ही पथ पर अग्रसर हो जाएं तो अन्य लोग हमारी मदद के लिए दौड़ते हुए चले आएंगे। ठीक उसी प्रकार जब शुम्भ-निशुम्भ का वध करने के लिए माँ जगदम्बा की सहायता करने के लिए सभी देवताओं की शक्तियाँ एकत्रित होकर उनका सहयोग करने लगीं। इससे हमें यह ज्ञात होता है कि शक्तिशाली को हमेशा पहले शांति बनाए रखना चाहिए, क्योंकि शक्ति का उद्देश्य संहार नहीं है। माँ जगदम्बा ने महादेव शिव को अपना दूत बनाकर कहलवाया था यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छत। अर्थात् यदि जीने की इच्छा हो तो पाताल में जाकर रहो, उन्हें अपनी सीमाओं में रहकर शांति पूर्वक रहने का संदेश दिया।

दुर्गासप्तशती के पाठ करने के विशेष नियम - दुर्गासप्तशती का पाठ अत्यन्त प्रभावशाली माना गया है। पूर्णतया नियम पूर्वक किए जाएं तो यह शुभ फल प्रदान करने वाले होते हैं परंतु नियमों का पालन न करने पर यह अशुभ फल भी प्रदान करने वाले होते हैं।

दुर्गासप्तशती पाठ के विभिन्न क्रम तंत्रों में प्राप्त होते हैं। मुख्य क्रम यह है कि पाठकर्ता सर्वप्रथम आचमन, शिखा बंधन, प्रणायाम और संकल्प करने के बाद अपने गुरु, श्रीगणेश, माँ दुर्गा का ध्यान कर पूजन करें। तत्पश्चात् उत्कीलन, कवच, अगला, कीलक और रात्रि सूक्त का पाठ करके विनियोग पूर्वक ऋषि, छंद, देवता का ध्यान करके पहले नवार्ण मंत्र ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै।। की एक माला करें।

इसके बाद सप्तशती स्त्रोत के 13 अध्यायों का पाठ कर पुनः नवार्ण मंत्र का 108 बार जप करें, पुनः ऋषि, छंद, देवता का उत्तरान्यास करके, देवी को पाठ समर्पण करके देवी सूक्त के पूर्व देव्यथर्वशीर्ष और सप्तशती स्त्रोत के बाद सिद्धकुंजीका स्त्रोत पाठ करें और उसके पश्चात् क्षमा, प्रार्थना करें कि जो भी पूजा की विधि में किसी भी प्रकार की जाने-अनजाने में कोई गलती हुई हो तो हमें क्षमा करें व हम पर हमेशा कृपालु बनी रहें।

अगर कोई व्यक्ति विधि-विधान पूर्वक दुर्गा सप्तशती का पाठ करने में समर्थ होते हैं तो माँ दुर्गा के साथ-साथ श्रीविष्णु की भी कृपा सदैव बनी रहती है परंतु कोई असमर्थ हो तो वह सप्तश£ोकी दुर्गा अथवा अर्गला तथा सिद्धकुंजीका का पाठ कर सकते हैं, उससे भी माँ दुर्गा की कृपा सदैव व्यक्ति पर बनी रहती है।

जो कोई भी व्यक्ति पाठ करते समय मन में किसी भी प्रकार का संदेह न रखें, ब्रह्मचारी नियम पालन करें व पूर्ण श्रद्धा के साथ माँ दुर्गा के पाठ करें।

 

किस लग्न में कौनसा लग्न शक्तिशाली है?

प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जन्म पत्रिका में लग्न या चन्द्र राशि का ज्ञान होना ही चाहिए। लग्र से ही यह तय हो जाता है कि उस जन्म पत्रिका का सबसे प्रभावी ग्रह होता है। अगर जीवन काल में उस ग्रह की दशा आ जाए तो व्यक्ति का जीवन सफल हो जाता है। मेष लग्न में मंगल और बृहस्पति विशेष फल देने वाले होते हैं। बृहस्पति या शनि आपस में सम्बन्ध कर लें तो शुभ फल प्रदान करने वाले होते हैं। मेष लग्न के लिए बुध ग्रह अशुभ होते हैं। उनकी दशा आने पर अशुभ फल मिलता है।

वृषभ लग्न वालों के लिए शनि सबसे शक्तिशाली होता है। सूर्य भी अत्यंत शुभ फल प्रदान करता है। परन्तु बृहस्पति और चन्द्रमा वृषभ लग्न वालों के लिए अशुभ परिणाम देने वाले होते हैं। शुक्र लग्नेश होने के कारण शुभ फल भी देते हैं, परन्तु छठे भाव के स्वामी होने के कारण अशुभ फल भी देते हैं। मिथुन लग्न के लिए शनि विशेष शुभ फल देते हैं। इस लग्न के लिए मंगल और गुरु अच्छे परिणाम नहीं देते। सूर्य भी कभी-कभी अशुभ परिणाम दे जाते हैं। चन्द्रमा और बृहस्पति मारकेश होते हैं। आयु और स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं होते।

कर्क लग्न वालों के लिए बृहस्पति और मंगल अत्यंत शुभ फल प्रदान करने वाले होते हैं। परन्तु शुक्र और बुध अशुभ फल प्रदान करते हैं। सिंह लग्न वालों के लिए मंगल और गुरु शुभ फलदायक हैं। इस लग्न में बृहस्पति और शुक्र की युति नहीं होनी चाहिए। बुध मारक ग्रह हैं जो कष्ट देते हैं। जिनकी लग्न कन्या है उनको शुक्र शुभ फल प्रदान करते हैं। इनके लिए मंगल, बृहस्पति और चन्द्रमा अशुभ परिणाम देते हैं। अच्छी युति होने पर कई बार शुभ परिणाम दे जाते हैं। चन्द्रमा अगर अच्छे ग्रह के साथ हों तो विशेष योग कारक हो जाते हैं। आयु पूर्ण होने पर शुक्र भी मारक हो जाते हैं।

तुला लग्न वालों के लिए शनि और बुध शुभ ग्रह हैं। मंगल मारकेश होते हैं और स्वास्थ्य सम्बन्धित कष्ट देते हैं। वृश्चिक लग्न वालों के लिए चन्द्रमा शुभ फल देते हैं। सूर्य भी शुभ फल देते हैं। परन्तु मंगल, बुध और शुक्र अशुभ फल देते हैं।

धनु लग्न वालों के लिए सूर्य शुभ फल देने वाले होते हैं। बुध के साथ युति हो जाए तो बुध भी शुभ फल देते हैं अन्यथा मारक होते हैं। अगर लग्न मकर है तो चन्द्रमा, मंगल और बृहस्पति अशुभ ग्रह हैं। परन्तु शुक्र शानदार फल देते हैं। कुम्भ लग्न वालों के लिए भी शुक्र शुभ फल प्रदान करते हैं। मंगल अशुभ हैं और केवल तभी शुभ फल देते हैं, अगर वे बुध के साथ एक ही राशि में बैठे हों चन्द्रमा और बृहस्पति को भी इस लग्न में अशुभ माना गया है।

मीन लग्न के लिए शनि और शुक्र दोनों को शुभ माना गया है। शुक्र को लेकर दो मत हैं । इस लग्न के लिए मंगल और चन्द्रमा को अशुभ माना गया है यद्यपि चन्द्रमा की महादशा में शुभ फल भी आते हुए देखे गये हैं। शनि शुभ फल प्रदान करते हैं परनतु आयु के अन्तकाल में अशुभ फल देते हैं।

 

ॐ का शास्त्रों में अत्यधिक महत्व क्यों?

ॐ का उच्चारण अत्यंत महिमापूर्ण और पवित्र माना गया है। इसके उच्चारण में अ+उ+म् अक्षर आते हैं। जिसमें अ वर्ण सृष्टि का द्योतक है। उ वर्ण स्थिति दशा का, जबकि म् लय का सूचक है। यह ईश्वर के वाचक हैं। ईश्वर के साथ ॐ का वाक्य - वचन- भाव संबंध नित्य है। ॐ को ब्रह्माण्ड का सार माना जाता है। 16 श£ोकों में ॐ की महिमा वर्णित है। यह तीन अक्षर जो ब्रह्मा, विष्णु व महेश का बोध कराते हैं और ॐ के उच्चारण से इन तीनों की शक्तियों का एक साथ आह्वान होता है। यह तीन अक्षर ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। माण्डूक्य उपनिषद में कहा गया है -

युंजीत प्रणवे चेतः प्रणवो ब्रह्म निर्भयम्।

प्रणवे नित्ययुक्तस्य न भयं विद्यते क्वचित्।।

अर्थात् चित्त और चित्त को ॐ में समाहित करो। ॐ निर्भय ब्रह्मपद है। ॐ में नित्य समाहित करने वाले पुरुष को कहीं भी भय नहीं होता।

ॐ सृष्टि का एक मात्र ऐसा स्वर है जिसके उच्चारण प्राण वायु शरीर के अंदर जाती है जबकि शेष उच्चारणों में प्राण वायु बाहर आती है, यानि ॐ के उच्चारण में हम अधिकतम प्राण वायु अर्थात् ऊर्जा ग्रहण कर सकते हैं। ध्वनि का मूल स्वरूप ॐकार माना गया है। ॐ ही समस्त धर्मों व शास्त्रों का स्त्रोत है, ॐ ही नादब्रह्म है व ॐ ही पराबीजाक्षर है। इसी कारण हर शुभ कार्य करने से पहले इसका उच्चारण अनिवार्य है। इस बीज अक्षर को अत्यंत रहस्यमय और परमशक्तिशाली माना गया है। प्राचीन काल से ही साधकों में ॐ के प्रति अगाध श्रद्धा रही है। ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में गूंज रहा है, जिससे तारामण्डल, नक्षत्र, ग्रहादि एक-दूसरे से दूरी बनाए परस्पर आकर्षण में एक निश्चित लय में घूम रहे हैं।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।

अर्थात् मन के द्वारा प्राण को मस्तिष्क में स्थापित करके, योग धारण में स्थिति होकर जो पुरुष ॐ अक्षर रूप से ब्रह्म का उच्चारण और उसके अर्थ स्वरूप निर्गुणब्रह्मा का चिंतन करते हुए शरीर को त्याग दे, वह पुरुष परमगति को प्राप्त हो जाते हैं।

श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय 17 के श्लोक 24 में कहते हैं कि वेद मंत्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष शास्त्र विधि से नियमित यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएं सदा ॐ परमात्मा के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ होती है।

गोपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि बिना ॐ लगाए किसी भी मंत्र का उच्चारण नहीं कर सकते और करते भी हैं तो वह मंत्र निष्फल हो जाता है। मंत्र के आगे ॐ लगाने से उच्चारण मंत्र की शक्ति में वृद्धि करता है। ॐ ही शिव हैं व मंत्र शक्तिरूप है, इसलिए इन दोनों का एक साथ उच्चारण करना मंत्र में सिद्धि प्रदान करने वाला होता है। प्रत्येक स्त्रोत, उपनिषद्, गायत्री मंत्र, यज्ञ में आहुतियाँ देने वाले मंत्र, अर्चनाएं, सहस्त्र नाम, भगवान को याद करने के सभी मंत्रों में ॐ का उच्चारण सर्वप्रथम आता है।

नित्य प्रतिदिन ॐ का उच्चारण उच्च स्वर में किया जाए तो कम्पन शक्ति पैदा होती है जो भौतिक शरीर के  अणु-अणु पर इसका प्रभाव पड़ता है। मन में एकाग्रता और जाग्रत शक्ति पैदा होती है। वाणी में मधुरता आती है, नकारात्मकता नष्ट होती है। शरीर में स्फूर्ति का संचार होता है। आत्मिक बल व्यक्ति का बढ़ता है व जीवन शक्ति ऊर्ध्वगामी होती है। इसके साथ 7, 11, 21, 51 बार उच्चारण करने से मन की उदासी, निराशा दूर होकर सकारात्मकता आदि है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे मस्तिष्क में कई अंग व दिमाग, योगासन व व्यायाम द्वारा खिंचाव में नहीं लाए जा सकता, इसीलिए ॐ का उच्चारण सर्वोपयोगी माना गया है। इससे दिमाग के दोनों अर्द्धगोल प्रभावित होते हैं, जिससे कम्पन व तरगें मस्तिष्क में लाकर कैलशियम कार्बोनेट को दूर करके मस्तिष्क को साफ रखा जा सकता है।

कैसे करें ॐ का उच्चारण -

ॐ का जप करने के लिए सर्वप्रथम एकान्त व शांत जगह हो और इसके लिए ब्रह्म मुहूर्त ही सर्वश्रेष्ठ होता है। साफ जगह पर आसन्न बिछाकर उत्तर या पूर्व दिशा की तरफ मुख करके पद्मासन लगाकर बैठें और जितना ऊंचे स्वरों में इसका उच्चारण कर सकें उतना लम्बा ॐ.........के स्वर को खींचते हुए करें। इससे आपके मन की व आसपास की नकारात्मक ऊर्जा नष्ट होकर सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश करेगी और आपका आभामण्डल धीरे-धीरे बढेगा।